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कुबेर - 46

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

46

दिन भर की मीटिंगों में, सेमिनारों में अपने जैसे कई सूट-बूट से लेस ऐसे हमउम्र दिखाई देते जो उनकी तरह ही दिन के हर पहर में तेज़ी से अपने काम निपटाते। एक अपने ही गाँव के वे लोग थे जो चालीस-पचास की उम्र तक आते-आते अस्सी के दिखने लगते। पत्थरों से भरी ज़मीन पर जुताई करते-करते वे सारे कंधे झुक जाते। एक ये लोग हैं, सूट-बूट से लदे अस्सी साल के बूढ़े जो चालीस-पचास जैसे आकर्षक औऱ ऊर्जावान दिखते। ढीले पड़ते शरीर को कसे हुए सूट पहनकर अस्सी साल का आदमी भी अंदर से ताक़त महसूस करता। एक ही विधाता की बनायी दो ज़िंदगियाँ, कहीं तरसती हुईं तो कहीं महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाती हुईं, कहीं प्यासी की प्यासी, तो कहीं हज़ारों की प्यास बुझाकर अनाथों को अपना नाम देती ज़िंदगियाँ।

अपने गतिमय जीवन में एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए वे और पास्कल साहब बतियाते रहते। गाड़ी दौड़ती रहती। उन दौड़ते पहियों के पीछे प्रकृति भी अपने रंग बदलती। कभी बर्फीली हवाएँ होतीं तो कभी अंधे अंधड़ होते। ऐसी रुकावटों से जूझते हुए जो एक के बाद एक मार्ग की बाधाएँ बनतीं। एक बार रास्ते के ये पत्थर हट जाते तो फिर कभी रास्ता नहीं रोकते। इस तरह प्रकृति और इंसान दोनों का सही समागम एक इतिहास रचता।

यहाँ वे इतिहास रचने की बात सोच रहे हैं और उधर पास बैठे पास्कल साहब को उबासी आ रही थी, अपनी नींद की चिन्ता हो रही थी। रात पास्कल साहब ठीक से सो नहीं पाए थे क्योंकि पुलिस और फायर बिग्रेड के सायरन लगातार बज रहे थे – “सर आपकी भी नींद तो टूटी होगी।”

“नहीं पास्कल साहब, मैं तो ऐसा सोया कि सुबह ही उठा। मेरे कान तो वही सुनते हैं जो सुनना चाहते हैं।”

“जी सर, मगर वे सायरन तो इतने करीब से बज रहे थे जैसे मेरे कानों में बजने के लिए कहा गया हो उन्हें।”

“सर जी, नींद को तो न आने का कोई बहाना चाहिए बस, और जब आती है तो हमारा जगे रहने का कोई बहाना नहीं सुनती।”

“वाह सर, छोटी-सी बात भी आप तक पहुँचकर दर्शन बन जाती है।”

मुस्कुरा दिए वे। इन दिनों काम कम था तो आरामी ज़िंदगी को जीते हर जुमले के साथ बीते दिन अधिक याद आते थे। सोच कर कहने लगे – “सर जी, यहाँ तो साउण्ड प्रुफ कमरों में सोते हैं फिर भी नींद की समस्या हो जाती है। एक समय ऐसा था कि कोई आवाज़ तो क्या कुत्ते-बिल्ली भी आकर एक चक्कर लगा देते थे हमारे घर में तब भी हम घोड़े बेचकर सोते रहते थे।”

“लेकिन कुत्ते-बिल्ली घर में कैसे आ जाते थे?”

“क्या बताऊँ आपको पास्कल साहब, दीवारों के बजाय सूखी झाड़ियों की आड़ थी हमारे घर में जो पानी और हवा के प्रकोप से बचाती थी। हवा की ज़िद कई बार सब कुछ गिरा देती तब बाबू की ज़िद से उसका टकराव होता। बाबू रात में उठकर फिर से अपनी दीवार को ठीक करते। उस कवायद में आसपास के निवासी कुत्ते-बिल्ली भी आकर वहीं सो जाते।”

“अच्छा, तो उन्हें भगाने के लिए कोई नहीं उठता था?” महानगर में पले-बढ़े पास्कल साहब के लिए ये बातें किसी अजूबे से कम नहीं थीं।

“बाबू उठते थे, रात की इन समस्याओं से निपटना बाबू का ही काम होता था। कभी हवा से जूझते तो कभी जानवरों से लेकिन आखिर में दोनों से समझौता हो ही जाता। हवा भी मौन हो जाती व जानवर भी और सुबह की रौशनी दस्तक दे देती।”

“तब तो आपकी माँ भी नहीं सो पाती होंगी”

“ताज्जुब तो इसी बात का है कि माँ और मैं दोनों सोए रहते, यह काम बाबू ही करते। शायद इतनी थक जाती थीं माँ कि उठ ही नहीं पाती होंगी।”

उनकी बात सुनकर पास्कल साहब को अपना बचपन याद आ जाता कहते – “मेरा तो बचपन बहुत शाही था सर। मेरे मॉम-डैड ने मुझे पलकों पर बैठा कर बड़ा किया मगर हुआ क्या! कुछ नहीं, जीवन-भर कड़वाहट में जीता रहा, उससे बाहर आने की कोशिश करता रहा। अब तक कुछ नहीं कर पाया, मात्र एक असिस्टेंट बन कर रह गया।”

“आप सिर्फ मेरे असिस्टेंट ही नहीं हैं, आप मेरे मित्र हैं सर जी, दिल छोटा न करें। अपने दिल का दर्द बाहर निकालें और बेखौफ़ वह सब कुछ कह डालें जो भी परेशान कर रहा है।”

पास्कल साहब की आँखों में जीवन का दर्द झिलमिलाते देखकर वे अपने दोनों हाथ उनके कंधों पर रख देते। हाथों का वह स्पर्श बहुत कुछ कह जाता, एक अपनापन देते हुए, एक आत्मीयता की आशा देते हुए, एक परिवार का साथ देते हुए।

“सर, मैंने बहुत चाहा कि मेरा परिवार बना रहे मगर मैं असफल ही रहा। मेरे चाहने न चाहने से कोई फ़र्क नहीं पड़ा। मेरी सारी कोशिशें पलट कर मुझ पर ही वार करती रहीं। मेरे वजूद से टकराती रहीं। बार-बार मैं टूटा, टूट कर किरची-किरची हो गया। वे टूटे-तीखे टुकड़े घायल करते रहे, चुभते रहे, इस क़दर कि वह चुभन अभी भी भीतर तक है।” बोलते-बोलते सिसकने लगते वे। अपनों की दी हुई चोटें इतनी गहरी थीं कि गाहे-बगाहे पास्कल साहब को परेशान कर देती थीं।

“आपने अपनी कोशिश की सर जी, यह सबसे बड़ी हिम्मत की बात है।”

“सर, मैंने वह सब कुछ किया जो मैं कर सकता था पर तेज़ हवाओं से नहीं बचा पाया अपने घर की दीवारों को, सीमेंट और कंक्रीट की दीवारों को जो भरभरा कर गिर गयीं। पहली बार भी, दूसरी बार भी।”

“ऐसा होता है पास्कल साहब, तेज़ आँधियाँ चलती हैं तो बने-बनाए पक्के घरों को भी धराशायी कर जाती हैं। हिम्मत रखिए, सब कुछ ठीक होगा।”

सफ़र में साथ चलते पास्कल साहब अपनी कहानी सुनाते, वे अपनी। आदमी से आदमी की कहानियों का सच उजागर होता। पिछले दस सालों से उनके पीए थे, अमेरिका में ही पैदा हुए थे पास्कल जी। दो बार शादी की थी व दोनों बार तलाक़ हो गए थे, कड़वे तलाक़, आरोपों प्रत्यारोंपों वाले तलाक़। इतने कड़वे कि आगे आने वाले जीवन के शेष दिन उस कड़वाहट को महसूस करते बीते। हालांकि वे अच्छे खाते-पीते घर से थे पर पहली बार हुए तलाक़ में कोर्ट द्वारा किए गए आर्थिक सेटलमेंट ने उनकी अपनी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। काफी पैसा देना पड़ा था, मासिक ख़र्च के साथ संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा चला गया था। संपत्ति ही नहीं मन की अच्छाइयाँ भी उसके साथ ही चली गयी थीं।

दूसरी बार जिस लड़की कैरा से मिले, वह बहुत प्यारी और केयरिंग थी। उस समय उनके टूटे दिल को सहारा चाहिए था, सहानुभूति चाहिए थी। कैरा से मिले तो उसके प्यार में वे एक तरह से अंधे हो गए थे। बहुत जल्दी थी उसके समीप होने की, शायद उस डर की वजह से कि कहीं यह भी छोड़ कर न चली जाए। कुछ दिन तो उसका साथ सपनों का स्वर्ग रहा, अपने ग़म को भुला चुके थे वे। उसने शादी की ज़िद की तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। वे बस अकेले नहीं रहना चाहते थे। शादी के बाद रिश्ते बनते-बनते रह गए, बनने से पहले ही गांठ पड़ गयी और टूट गए। पता नहीं कब, कैसे, क्या हुआ कि वह उमड़ता हुआ प्यार एकाएक कसैला हो गया। एक बार फिर से वही हुआ जो पहले हो चुका था।

दिल से बने चमकते रिश्तों को कागज़ों की बेहया स्याही ने काला कर दिया।

“मुझे आज भी पैसों का ग़म नहीं है सर, ग़म है तो लोगों से विश्वास उठने का। अच्छे लोगों पर भी विश्वास नहीं कर पाता हूँ मैं। इतने धोखे खाए हैं मैंने कि सारे बुरे ही नज़र आते हैं मुझे। हर रिश्ते से नफ़रत ही उग़लती दिखती है मुझे।”

यह कहते हुए वे एक बच्चे की तरह रोने लगते। रोते-रोते उलझ जाते, मन के दर्द का आवेग खाँसी में बदलता, नाक नदी की तरह बहने लगती, ऐसा लगता जैसे कि उनके शरीर का हर अंग उस चोट की पीड़ा को बयान कर रहा है, हर अंग को इसे ढोने के लिए मज़बूर कर दिया गया है। तब गाड़ी को रोकना पड़ता। अपने सर के हाथों पानी पीते, मुँह धोते और इन भावुक पलों के लिए जी भर कर माफ़ी माँगते।

दादा ने माहिरा के बगैर, कुबेर ने नैन के बगैर और पास्कल साहब ने अपनी दोनों पत्नियों के बगैर जीवन जीया। जहाँ दादा और वे प्यार की मिठास के साथ जीये वहीं पास्कल साहब नफ़रत के साथ जीये। अलग-अलग जीवन के अलग-अलग अनुभव थे। अलग-अलग रास्तों के यात्रियों की अलग-अलग यात्राएँ थीं।

यहाँ सर के साथ काम करते हुए, काम के माहौल का हल्कापन पास्कल साहब को काम की गंभीरता में भी मुस्कुराने का अवसर देता। सोचते – “काश मुझे सर पहले ही मिल जाते!” उनके साथ काम करके उन्हें अपने काम से संतोष मिल रहा था, ख़ुशी मिल रही थी। बीती कड़वाहट की परवाह थोड़ी कम होती जा रही थी। वे देखते थे हर दिन मि. कुबेर को, उनकी कार्य शैली को। हर दिन नए लोग जुड़ते थे उनसे। जितने ज्यादा लोग जुड़ते, उतने रास्ते बनते, उतने दरवाज़े खुलते, बड़ी-बड़ी कंपनियों से हाथ मिलते।

पास्कल साहब को अपना परिवार बसाने की ऐसी दीवानगी थी कि उसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे। एक युवा जब अपने प्यार में दीवाना होता है तो बस उस प्यार को पाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। दीवानेपन की हद तक जाकर एक ज़ुनून पैदा हो जाता, प्यार का नशा छा जाता जो सब कुछ करवा सकता था। शायद उनकी इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाया गया था। उनके दो बने-बनाए घर टूट गए। जब उन्हें पता लगा कि कुबेर सर की शादी ही नहीं हुई और ये सारे बच्चे उनके अपने नहीं है तब से वे अपने सर के एक भक्त की तरह हो गए हैं। उस बड़े परिवार से वे भी जुड़ना चाहते हैं जहाँ कोई किसी का अपना नहीं है मगर सारे ‘अपनों’ की एक नयी किताब-सी लिखते हैं। उनकी आँखों में जो बीती मनोवेदना की तपिश थी, जिसने ज्वालामुखी बनकर रिश्तों की डोर को जला दिया था, आज वही तपिश एक ऐसी शीतलता में बदलने लगी है कि मि. कुबेर का सारा परिवार उन्हें उनका अपना-सा लगता है मानो सर से कहता है – “सबको अपना माना है, मुझे भी मान लीजिए, सर।”

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