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कुबेर - 47

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

47

इन सबको देखकर, इनके साथ रहकर कई बार पास्कल साहब सोचते हैं कि वे अपनी किस्मत का रोना ही रोते रहे, एक रोते रहने वाले बच्चे की तरह। कभी यह नहीं सोचा कि इस रोती सोच के आगे भी बहुत कुछ है। कुबेर सर को देखकर लगता है कि किस्मत के भरोसे जीवन को छोड़ा नहीं जा सकता। किस्मत तो बनानी पड़ती है, मौकों को हथियाना पड़ता है, मौकों को खींच कर लाना पड़ता है। लोहे के चने चबाने की हिम्मत हो तो ही देश-विदेश में व्यापार फैला सकते हो।

वे बुज़दिल थे। ‘रिस्क फेक्टर’ ने उन्हें बहुत तंग किया था, रिश्तों के रिस्क फेक्टर ने। कल ही की तो बात है जब बातों-बातों में सर से पूछा था कि – “सर, आप कभी रिस्क लेने से नहीं डरते।”

“बहुत डरता था मैं, कई बार सबक सीख चुका था। माँ-बाबू, नैन, दादा के विछोह से लेकर इस दुनिया में क़दम रखने तक। अब जाकर इसका गणित सही बैठा है सर जी, अब रिस्क केलक्युलेटेड होती है। वरना पहले तो जिस काम को करने से पहले कई अनुभवी रियल्टर दस बार सोचते, वही काम मैं बिना सोचे कर डालता था और परिणाम भी भुगतता था। त्वरित निर्णय लेने से कई बार फ़ायदे हुए तो नुकसान भी कम नहीं हुआ।”

कुछ असफल रिश्तों की कहानी ने कुछ सफल रिश्तों की कहानी से जुड़कर एक नया कैनवास तलाशा, एक विस्तार लिया। दुनिया में जगह बनाने और अपने बनाने की कड़ी में पास्कल साहब के रूप में एक और कड़ी जुड़ गयी थी। जब से सर के साथ काम शुरू किया है तब से आज तक वे कुबेर परिवार का एक अहम् हिस्सा हैं। सबसे पहले पास्कल अंकल ही मिलते फ़ोन पर उन बच्चों को जो अपने पापा से बात करना चाहते। वे उनसे सारी विस्तृत जानकारी ले लेते। पापा के बारे में, पापा की तबीयत के बारे में, पापा के खाने-पीने के बारे में, पापा के सेमिनार के बारे में। सारे ऑडियो-वीडियो भेजने के लिए कहते ताकि पापा के सारे संग्रहित कार्यों के ख़जाने में उन्हें रखा जा सके।

पास्कल साहब उन्हें उनके पापा के हर नये काम की जानकारी भी देते और बच्चों से उनकी जानकारी लेते ताकि जब बच्चे पापा से बात करें तो पापा की चौड़ी मुस्कान देख सकें। सबसे छोटी बिटिया धरा दिन में दो बार बात करती थी। जब पापा के साथ होती तो उसका बचपना बरकरार रहता। पापा को भी तो रोज़ सबकी आवाज़ सुनने की आदत थी। कभी-कभी पास्कल साहब भी चिढ़ाते उसे – “पापा ने कहा है कि धरा का फ़ोन आए तो कह देना तंग न करो बहुत काम है।”

वह कहती – “काम है तो है, मैं कुछ नहीं जानती। यह मेरा पापा से बात करने का समय है, मुझे बात करनी है बस।”

धरा उन्हें पीके अंकल कहती थी। पीके अंकल जब उसे ‘धरा’ नहीं ‘दरा’ कहते तो वह पहले तो उच्चारण ठीक करवाती – “अंकल दरा नहीं, धरा, ध...ध...”। और पीके अंकल को लगता कि – “कुबेर सर के बच्चे होशियार तो हैं ही पर ग़लती को पकड़ कर ठीक करे बगैर छोड़ते नहीं हैं।”

“अच्छा बाबा धरा, धरा, धरा” अच्छे-से दोहरा लेते धरा के पीके अंकल ताकि अगली बार बोलते समय पूरा ध्यान रखे।

उनके बच्चे उनकी ताक़त थे। एक से एक ग्यारह, ग्यारह से एक सौ इक्कीस और आगे इस तरह अपना गणित जारी रखना चाहते थे। आर्यभट्ट, आइंस्टीन और न्यूटन की थ्योरी जग जानता है। एक और थ्योरी लिखी जा चुकी है जिसे घर-घर तक पहुँचाना है।

सच पूछा जाए तो कुबेर में छिपा वह अनाथ बच्चा धन्नू हठीला था। अनार के दानों की तरह जुड़ कर बने रहने की कला के साथ रहना चाहता था क्योंकि बिखरे हुए तो मोती भी अपनी सुंदरता को सही पहचान नहीं दे पाते। गुँथे हुए मोती साथ-साथ रहकर क्या कुछ नहीं कर लेते। सुन्दरता का अप्रतिम दृश्य रचित करके आँखों को भरपूर सुकून देते हैं। ख़ून का रिश्ता हो न हो, दिल और दिमाग़ का रिश्ता ऐसा था कि सब एक-दूसरे के लिए थे। घर में भी घर के बाहर भी। अपने पापा के दिमाग़ का सही अनुमान लगाने के लिए वे अधिक से अधिक उनके साथ समय बिताते। उन बच्चों के जवान इरादों की, जवान योजनाओं की प्रतीक्षा थी।

इन सबके जोश को देखकर एक नया कार्यक्रम बना जिसके तहत हर वह बच्चा जिसके सिर से माता-पिता का साया उठ चुका था और हर वह बच्चा जो स्पेशल चाइल्ड था, उसे अपनी शरण में लेने का। उन बच्चों को हर तरह की सुविधाएँ दी जाती थीं आत्मनिर्भर बनाने के लिए। जिसे जो करना है करे पर अपनी लगन से करे। हर चार के समूह का एक हेड होता। ऐसे दो समूहों का एक और हेड होता। यूँ हर माह की रिपोर्ट जब कुबेर को दी जाती तो उसमें हर बच्चे की मासिक प्रगति की जानकारी होती। किसी बच्चे को बेचारा नहीं समझा जाता, चाहे वह बच्चा ख़ास ज़रूरतों की श्रेणी में आता हो, तो भी। स्पेशल चाइल्ड के लिए सब कुछ स्पेशल होता। उसके विकास के लिए अतिरिक्त सुविधाएँ दी जातीं और उसे अपने पैरों पर खड़ा करने के अथक प्रयास किए जाते।

इस मिशन में दूर-दूर से स्पेशल चाइल्ड आते रहे, भर्ती होती रही। उनमें से कई संगीत में अपना नाम आगे बढ़ाते रहे तो कई ने अपनी रुचि के अनुसार चित्रकला, छाया चित्रकला आदि में महारथ हासिल करके एक ऊँचे जज़्बे के साथ काम शुरू किया। हर बच्चे को ख़ूब पढ़ाना, जिसका पढ़ने में मन न हो उसे कोई तो काम चुनना पड़ता था करने के लिए। जो भी काम वह चुनता, उसी में उसे विशेषज्ञता हासिल करनी होती थी। एक बात का ध्यान रखा जाता कि उन्हें किसी भी चीज़ के लिए तरसना न पड़े।

अपने सफ़र में साथ चलते गाड़ी चला रहे ड्राइवर की बातें सुनते, हँसते-हँसाते, हल्की-फुल्की बातों से मनोरंजन करते। पास्कल साहब को बहुत अच्छा लगता जब वे उनकी छोटी-छोटी ज़रुरतों का ध्यान रखते। चाय-कॉफी के लिए रास्ते में पर्याप्त विराम लेते। बिटिया धरा जो भी कहती, बहुत ध्यान से सुनते चाहे वह लंबी बात होती। बच्चा क्या और बड़ा क्या, कोई भी, कभी भी लाख रुपए की बात कह जाए।

आम जीवन की ख़ास शुरुआत की थी फ़ोन अटेंड करके। एक दिन आया जब स्वयं उनके एक नहीं कई फ़ोन अटेंड करने वाले थे। पूरी की पूरी टीम थी, टीम भी एक नहीं कई टीमें।

पास्कल साहब कहते – “सर, एक फ़ोन तो आप अपने पास रखिए।”

“आज़ाद परिंदे का जीवन जीने दीजिए मुझे पास्कल साहब, मेरे सारे तनाव तो आपने ले लिए हैं।”

“सर, मेरी बेचारी किस्मत को आपसे जुड़कर अपनी यात्रा ख़त्म करनी थी वरना मैं पूरी दुनिया से खफ़ा होकर ही जाता यहाँ से।”

“जाने का नाम मत लीजिए, वरना मेरा क्या होगा मेरी आज़ादी का क्या होगा।”

“मेरा बस चलता तो मैं आपके साथ ही जुड़ा रहता जन्म से लेकर आज तक।” निश्चित ही पास्कल साहब भी उनके ऐसे कई विश्वस्त सहायकों में से एक थे जो सदा के लिए उनसे जुड़ गए थे।

जब भी वे अपने बाहरी दौरों पर नहीं होते तब उन बच्चों के साथ अपना अधिकांश समय बिताते जो स्पेशल चाइल्ड कहे जाते। कई बच्चे ऐसे भी थे जो काम नहीं कर सकते थे। उनके लिए कोई न कोई मदद की ज़रूरत होती इसके लिए वे हमेशा अधिकतम तनख़्वाह पर किसी को नौकरी पर रखते ताकि उन बच्चों की असहाय स्थिति का कोई फ़ायदा न उठा पाए। स्वयं भी वहाँ रहना चाहते ताकि कोई उनकी नासमझी को अपनी कामुकता का सहारा न बना ले।

कई बच्चे बोल नहीं पाते थे, कई चल नहीं पाते थे, कई सुन नहीं पाते थे। उनका आपस में ऐसा जोड़ा बनाने की कोशिश रहती कि कोई मदद न रहने पर वक्त-बेवक्त वे एक दूसरे का सहारा बन जाएँ। एक अंधे और एक लंगड़े की एक दूसरे का मददगार बनने की वह कहानी याद थी जो बचपन से सुनी थी। वे पाठ और वे कहानियाँ अब उनके जीवन का एक हिस्सा थीं जिन पर चलकर उन असहाय बच्चों की मदद की पुरज़ोर कोशिश होती।

ऐसे ही एक बार मिकी जो सुन नहीं सकता था के ऊपर कुछ गिर रहा था। विडंबना की बात यह थी कि उसके ठीक सामने जैसन था जो चल नहीं सकता था। वह कैसे बचा पाता, वह बचाने के लिए जा ही नहीं पाया और देखते-देखते एक हादसा हो गया। ऐसे में सोची-समझी कोई बात काम नहीं आयी क्योंकि उनकी जोड़ी अधूरी थी। इस समस्या से निपटने के लिए एक सप्ताह तक रोज़ एक झूठमूठ का दृश्य रचा गया, जहाँ देखा गया कि कौन किसकी मदद, किस तरह से कर सकता है। इस तरह हर दिन प्रयास करके उनके दोस्त बदले गए और एक दूसरे की मदद के रास्ते खोजे गए। अब वे अपने कई कामों के लिए किसी तीसरे पर निर्भर नहीं रहते। आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास जितने किए जा सकते थे, बस उतने ही दिमाग़ी दौड़ से आकार ले पाए थे।

इस घटना के बाद वे बेहद व्यथित हो गए। अब उन्होंने यहीं इन बच्चों के साथ रहने का मन बना लिया था। अपने शानदार मेंशन से यहाँ बच्चों के साथ रहना किसी परिवर्तन का संकेत था। बच्चों को अपने पिता के इस हठ में किसी नयी योजना का आभास हो रहा था।

“पापा, आप यहाँ रहने के बजाय सारी देखरेख घर से भी कर सकते हैं।”

“हाँ बच्चे, मगर इन दिनों घर तो अधिक रहता नहीं हूँ इसलिए इनके साथ समय बिताने का यही एक मार्ग नज़र आ रहा है मुझे।”

“लेकिन पापा आप दिन भर यहाँ रहकर शाम को घर आ जाइए।”

“नहीं बेटा, मिकी के साथ जो दुर्घटना घटी है, उसके बाद मैं इन बच्चों के साथ रहना चाहता हूँ ताकि उनका विश्वास बना रहे और मेरा भी।”

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