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तोता उवाच:

तोता उवाच:

अन्नदा पाटनी

चिलचिलाती धूप, सुनसान सड़कें, किनारे पर खड़े इक्का दुक्का पेड़ जिन पर हरे पत्तों की दो चार डाल और बाक़ी ठूँठ । गरम हवा में लू के चपेटे । तभी एक तोता और मैना आकर हरी डाल पर आ बैठे । मैंना ने तोते को देखा, बिल्कुल बदहवास हो रहा था । साँस फूल रही थी, ताप से बेहद बेचैन हो रहा था । हालत तो मैंना की भी बेहाल थी पर उतनी नहीं । उसने तोते का मन बहलाने के लिए कहा,” कुछ सुनाओ ना, कुछ अपबीती या जगबीती ।"

तोता बोला,” हमेशा तो जगबीती सुना कर लोगों को मुसीबतों से बचाया है पर आज अपबीती ही सुनाऊँगा । किसी को बुरा लगे तो लगे ।”

मैंना बोली,”ऐसा क्या हो गया है ?”

तोता खीज कर बोला,” मैं कितनी दूर और कितनी देर इस भयंकर गरमी में उड़ता रहा कि कहीं कोई हरा भरा पेड़ मिल जाय, जिस पर बैठ कर ठंडक पा सकूँ और थकान मिटा सकूँ । पर इस मानव जाति का क्या करूँ । दूर दूर तक सारे पेड़ और जंगल काट कर रख दिए हैं । “

मैंना बोली,” तो इंसान के पेड़ काटने से इतने नाराज़ हो रहे हो ? ज़रूरी होगा इसलिए काटे होंगे ।”

तोता ग़ुस्से से बोला,” ज़रूरी ? उसने अपने स्वार्थ और लालच से ऐसा किया है । देखा नहीं तुमने बड़ी बड़ी इमारतों को । ये कारख़ाने हैं । इनकी चिमनियों से निकलता काला धुआँ पूरे पर्यावरण को दूषित करता है, उनसे निकलती हुई ज़हरीली गैसें हम पशु पक्षियों के लिए के ही नहीं मनुष्य के जीवन के लिए भी ख़तरनाक हैं । बड़ी बड़ी बीमारियाँ जन्म ले रहीं हैं । पेड़ों के महत्व को नजरँअंदाज करके इन्होंने प्रकृति से पंगा लिया है और उसके नैसर्गिक सौंदर्य की अवहेलना कर उसके दुष्परिणाम को भी अनदेखा किया है । इसीलिए तो प्रकृति अपने प्रकोप और तांडव की विनाश लीला समय समय पर दिखाती रहती है ।”

मैं बालकनी में कपड़े उठाने गई तो तोता मैंना का वार्तालाप सुनाई दिया । तोते को इतना ज्ञान ! मैं आश्चर्यचकित रह गई । तभी मुझे महाभारत के शुकदेव और विंध्याचल के चार पक्षी, पिंगाक्ष, निवोध, सुपुत्र और सुमुख याद आ गये । ये चारों पक्षी द्रोण के पुत्र थे जो वेद और शास्त्रों में पारंगत थे । उन पक्षियों का पालन-पोषण शमीक ऋषि करते थे । मैं चुपचाप बिना किसी आहट के तोता मैंना की बातें सुनने लगी ।

मैंना बोली," तुम ऐसे कह रहे हो जैसे पहले ऐसा नहीं होता था । पहले भी तो ऐसा होता होगा ।"

तोता बोला,”पहले तो कभी ऐसा नहीं होता था । मनुष्य जानता था कि उसका और प्रकृति का अटूट संबंध है ।"

“ तुम्हें कैसे पता ?” मैंना बोली

“अरे, वह साहित्य उठाकर देखो जिसमें हम तोता, मैंना और अन्य जीव जंतु की कहानियाँ भरी पड़ी हैं । मैंने पूरा साहित्य ध्यान से पढ़ा है । क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, मेरी रुचि अपने क्षेत्र यानि कि प्रकृति में थी और प्रकृति के साथ पर्यावरण जुड़ा ही रहता है तो मैंने जिज्ञासावश साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण जैसे विषय पर गहन अध्ययन किया है ।वहीं मैंने पढ़ा है कि मानव शरीर पृथ्वी के पंच तत्व से मिल कर बना है । रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदीस जी ने लिखा है -

“छिति, जल, पावक, गगन समीरा

पंच रचित अति अधम शरीरा । “

मैंना ने इसका अर्थ पूछा तो तोता बोला,” पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु, ये पाँच तत्व हैं जिनसे मिल कर मनुष्य का शरीर बना है ।तभी तो वह प्रकृति के विभिन्न रूपों की ओर आकर्षित हुआ है । अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसने प्रकृति का आलंबन लिया है । यही कारण है कि प्राचीन काल से व्यक्ति के जीवन में ही नहीं, भारतीय साहित्य में भी प्रकृति ने बहुत अहम् भूमिका निभाई है ।”

“मैंने यह तो सुना है कि आदि कवि वाल्मीकि को काव्य प्रेरणा क्रौंच पक्षियों को देख कर मिली थी । “ मैना चहक कर बोली ।

“बिल्कुल ठीक सुना । कालिदास जैसे महाकवि के संपूर्ण काव्य संसार का आधार प्रकृति ही रही है । "

"हे भगवान ! तुमने इतना कुछ कैसे जान लिया । मेरी तो अक़्ल ही चकरा गई ।” मैना खुश हो कर बोली।

तोते ने कहा,” देखो पहले अपने बुज़ुर्गों से सुना जिन्होंने वह समय देखा था जब कि कवियों ने साहित्य में प्रकृति के विभिन्न उपादानों को लेकर अपने साहित्य का सृजन किया । पर्यावरण प्रकृति से अलग नहीं है । पेड़ पौधे, समुद्र, पहाड़ आदि से पृ्थ्वी आवृत्त है । पर्यावरण का अर्थ भी यही है । ‘परि’ अर्थात चारों ओर, ‘आवरण’ मतलब ढका हुआ । यही कारण है कि साहित्य में प्रकृति के साथ पर्यवरण के संरक्षण की ओर विशेष दायित्त्य का निर्वाह किया गया है ।तुम्हें पता है कि रामचरितमानस में जब समुद्र ने भगवान राम को मार्ग देने से इंकार कर दिया था तब लक्ष्मण ने आवेश में उन्हें उसका सारा पानी सोखने को कहा तो राम ने यह कह कर मना कर दिया कि ऐसा करने से पशु पक्षियों, जल जंतुओं और वनस्पतियों को हानि पहुँचेगी और पर्यावरण भी दूषित हो जायेगा ।

आदिकाल से रीतिकाल तक के कवियों ने अपने साहित्य में प्रकृति के उपमानों का आलंबन ले कर बड़ा नयनाभिराम और सारगर्भित साहित्य दिया है ।

तोता फिर बोला,” मुझे बताया गया कि भक्तिकालीन कवियों में तुलसी, कबीर, नानक,मीरा आदि ने अपनी कृतियों में प्रकृति को साथ लिया है और पर्यावरण के संरक्षण की ओर ध्यान देने को प्रेरित भी किया है । इसीलिए कबीर कहते हैं -

“डाली छेड़ूँ न पत्ता छेड़ूँ, न कोई जीव सताऊँ,

“पात पात में प्रभु बसत हैं, वाही को सीस नवाऊं ।”

रहीम भी उच्च जीवनशैली की ओर प्रेरित करते हुए प्रकृति के उपमान प्रयोग में लाते हैं -

“जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग,

चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग ।”

मीरा भी व्यथित होकर कहतीं हैं -

“मतवारो बादर आयै

हरि के सनेसो कबहुँ न लायै ।”

तुलसीदास के काव्य में तो प्रकृति साथ साथ चलती है । सीता हरण के बाद दुखी राम जंगल में विचरते हुए पशु पक्षियों से पूछते हैं-

"हे खग, हे मृग, हे मधुकर श्रेनी,

तुम्हीं देखी सीता मृगनयनी ।"

कबीर, नानक आदि के अतिरिक्त आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि अनेक साहित्यकारों ने प्रकृति से खिलवाड़ का विरोध कर मनुष्य को पर्यावरण के प्रति सजग कर आत्मानुभूति के लिए प्रेरित किया है ।

हिंदी साहित्य के विंभिन्न कालों जैसे कि आदिकाल से रीतिकाल तक दृष्टि डालें तो पाएँगे कि कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रकृति तथा पर्यावरण का उल्लेख किसी न किसी रूप में अवश्य किया है जो आगे जाकर आधुनिक काल के कवियों की रचनाओं में भी परिलक्षित होता है ।

काव्य में वर्णित प्रकृति और पर्यावरण की नई काव्यधारा को ‘छायावाद ‘की संज्ञा दी गई । इसमें अधिकांश प्रकृति संबंधी कविताओं का समावेश था इसीलिए कुछ विचारकों ने इसे ‘प्रकृति काव्य’ भी कह दिया । इस काल के छायावादी कवि मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, मुकुटधर पांडे, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, नंददुलारे वाजपेई, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन आदि ने अपनी रचनाओं में प्रकृति की सुषमा और पर्यावरण के सौंदर्य को सुंदर शब्दवलि में व्यक्त किया है ।

छायावाद के सशक्त कवि जयशंकर प्रसाद का महाकाव्य कामायनी, झरना, आँसू, कानन कुसुम, लहर, चंद्रगुप्त, एक घूँट आदि के सृजन में उनके प्रकृति और पर्यावरण के महत्व पर अत्यंत गहन चिंतन परिलक्षित होता है । एक ओर वह प्रकृति का सौंदर्य वर्णित करते हुए कहते हैं :-

“देखे मैंने वे शैल श्रृंग, जो अचल हिमानी से रंजित,

उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग अपने जड़ गौरव के प्रतीक

वसुधा का कर अभिमान भंग अपनी समाधि में रहे......

इसके बाद वे पर्यावरण के दूषित होने पर दुखी हो कर कहते हैं -

.......नभ नील लता की डालों में उलझा अपने सुख से हताश कलियाँ जिनको समझ रहा वे काँटे बिखरे आसपास, कितना बीहड़ चला और पड़ रहा थक कर नितांत, उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर रोता मैं निर्वाचित अशांत इस नियत नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाच रही खोखली शून्यता में प्रतिपद असफलता अधिक कुलाँच रही पावस रजनी में जुगनू गण को दौड़ पकड़ता मैं निराश उन ज्योति कणों का कर विनाश।”

‘कामायनी’ में उन्होंने इड़ा के माध्यम से पीडा़ व्यक्त की है कि जीवन में निराशा के लिए कोई और नहीं मनुष्य स्वयं ज़िम्मेदार है ।प्रकृति ऐसे समय में आशा का संचार कर उसे शांति और राहत पहुँचाती है ।मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत हो उसी प्रकृति की क्षमता और धैर्य का आंकलन न करने के कारण उसका विनाश करने में लगा हुआ है । वह भूल गया है कि प्रकृति ने अपने ऊपर अत्याचार का हमेशा प्रतिकार लिया है । जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति की असीम शक्ति के विषय में लिखा है-

“प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब भूले थे मद में

भोले थे, हाँ तिरते केवल विलासिता के मद में,

वे सब डूबे - डूबे उनका विभव, बन गया पारावार

उमड़ रहा था देव सुखों पर जलधि का नाद अपार।”

तोते की बात से मुझे भी ध्यान आया कि समकालीन कविता में नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तथा अनेक युवा कवि और कवयित्रियों के काव्य में भी पर्यावरण के प्रति जागरूकता दृष्टिगोचर होती है । इसमें प्रमुख हैं - बुद्धदेव निहार ( नदी की मौत पर), रमणिका गुप्ता (प्रकृति यद्धान है ), इंदुकान्त शुक्ल (सागरवेली), हरिनारायण व्यास (बरगद के चिकने पत्ते ), स्नेहमयी चौधरी (चौतरफ़ा लड़ाई ), भवानीप्रसाद मिश्र (नीला रेखा तक ), शरद बिल्लौर (पेड़ ) आदि ।

अज्ञेय के काव्य में भी साहित्य और पर्यावरण का मेल दिखाई देता है । उनका प्रकृति से बहुत लगाव रहा है। "हरी घास पर क्षण भर " उनकी बहुचर्चित रचना रही है । श्री ब्रजेंद्र त्रिपाठी ने उनके विषय में कहा है -

"अज्ञेय में अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्यानुभूति है। उनमें छायावादी प्रकृति काव्य की सभी विशेषताएँ, चाहे वह ऐंद्रिय बोध हो, सांगीतिक सूक्ष्मता हो, विशेषण विपर्यय हो या गहन संवेदनशीलता अधिक विकसित रूप में मिलती हैं। उनमें निराला की शब्द चेतना और सांगीतिक स्वरबोध तथा पंत का रंगबोध, गंधबोध, ध्वनिबोध एक साथ हम पा सकते हैं।"

इतनी देर से मैंना बहुत ध्यान से सब सुन रही थी । कुछ सोचते सोचते बोली,” क्या तुम्हें नहीं लगता कि 1960 के बाद साहित्य में प्रकृति की चर्चा थोड़ी कम हो गई है । हाँ पर्यावरण के प्रति चिंता अवश्य कविताओं में मुखरित हो रही है ।”

मैंना बिल्कुल सही कह रही थी । अभी अभी मैंने भी तो नरेश अग्रवाल की कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं थी जिनका आशय यही था -

“मैं गुज़र रहा था

अपने चिरपरिचित मैदान से

एकाएक चीख़ सुनी

ये मेरे प्रिय पेड़ की थी

कुछ लोग खड़े थे

बड़ी कुल्हाड़ियाँ लिए

वे काट चुके थे इसके हाथ

अब पाँव भी काटने वाले थे ।

हम लोग लाश उठा रहे हैं

तुम राख ले जाना ।”

तभी फिर तोते की आवाज़ आई, “मैना, तुमने सच कहा है । दुख होता है यह देख कर कि मनुष्य स्वार्थ में अंधा हो कर उस प्रकृति का विनाश करने में लगा है जिसकी गोद में बैठ कर उसने प्रथम कविता और महाकाव्य का सृजन किया था । प्रकृति की स्थिति अब उस माँ की तरह हो गई है जिसका वर्णन श्री हरे राम समीप ने किया है -

“बिटिया को करती विदा,

माँ ज्यों नेह समेत!

नदिया सिसके देखकर,

ट्रक में जाती रेत ।”

कवि जितेन्द्र जलज कहते हैं कि-

“जब जब जो जो चाहा /जो जो मांगा/ धरती नें कभी हाथों को/ संकुचित नहीं किया,

फिर ऐसा क्यों ? कि हम/अब दे नहीं सकते धरती को/ चिरायु के लिए,

प्रदूषण मुक्त पर्यावरण ?”

तोता दुखी होकर बोला,” देखो मैंना, प्रकृति अपनी पूरी सौंदर्य छटा के साथ इतना स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण मनुष्य के लिए तैयार करती है, वहीं व्यक्ति उसका दुरुपयोग करने से नहीं हिचकता । अपने अस्तित्व पर आँच आते देख वे भी तो दुखी होते होंगे । कुछ इसी आशय के भाव, प्रसिद्ध कवि और गीतकार श्री शिशिर उपाध्याय ने अपनी कविता ‘टूटती है नदी ‘ में व्यक्त किए हैं -

“टूटती है नदी

अपने पीछे बहे आ रहे

सैलाब से

बाँधों की भुजाओं में बंध कर

नहरों में बहते हैं

उसके आँसू

शहरों में होता है प्रकाश ।

सागर को शिकायत है

उसके मद्धिम होते वेग से

उसे नहीं मालूम कि

नदी को लूट लिया गया है

पहले ही बाँधों ने

और वह बचा कर लाई है

केवल अपनी ‘आत्मा की धारा’

उसमें विलीन होने की कामना से .....”

साहित्य बहुत सशक्त माध्यम है लोगों के दिल को छू लेने का । अत: अधिक से अधिक कवियों और लेखकों को प्रयत्न होना चाहिए कि अपनी लेखनी द्वारा देशवासियों को पर्यावरण विषयक जानकारी दे और इसको प्रदूषण से बचाने में उन्हें दायित्व का बोध करायें ।”

इस संदर्भ में मुझे गीतकार डॉ. ब्रह्मजीत गौतम का गीत बहुत सार्थक लगता है जो हमारी युवा पीढी के लिए एक संदेश और प्रेरणा हो सकता है -

“कह-कह कर थक गए सुधी-जन, जल ही जीवन है।

किन्तु किसी ने बात न मानी, क्या पागलपन है!!

सूख रहे जल-स्रोत धरा के

नदियाँ रेत हुई

अंधकूप बन गए कुँए

बावड़ियाँ खेत हुई

तल में देख दरारें करता, सर भी क्रन्दन है!

काट-काट कर पेड़ सभी जंगल मैदान किए

रूठे मेघ, जिन्होंने भू को

अगणित दान दिए

मानव! तेरे स्वार्थ का, शत-शत अभिनन्दन है!

किया अपव्यय पानी का

संरक्षण नहीं किया

फेंक-फेंक कर कचरा सब

नदियों को पाट दिया

अपने हाथों किया मरूस्थल अपना उपवन है।

चलो बनाएँ बाँध नदी पर

कुँए, तड़ाग निखारें

जो भी जल का करें अपव्यय

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