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मेरा बचपन चला गया

भाभी आप हटो बाकी का काम मैं समेट लूंगी , इतनी साधारण सी बात संध्या को यूं लगी मानो किसी ने दिसंबर की भरी सर्दी में दो बाल्टी ठन्डा पानी उस पर डाल दिया हो,क्योंकि जो ननद कभी रसोई में झांक कर भी न देखती थी उल्टा संध्या को काम पर काम गिनाती थी वो आज अचानक इतनी मेहरबान कैसे हो गयी ?

संध्या इसी उधेड़बुन में थी कि तभी उसकी सासू माँ उसके पास आकर बोलीं जल्दी से तैयार हो जाओ तुम्हारे घर चलना है।
संध्या एक बार फिर स्तब्ध रह गयी कि जिन ससुराल वालों ने उसे इतनी विषम परिस्थितियों में अभी तक उसके मायके का मुंह नहीं देखने दिया वो ही लोग आज,आखिर ये सब हो क्या रहा है?

बड़ी हिम्मत जुटाकर आखिर संध्या ने मुंह खोल ही दिया और अपनी सासू माँ से पूछ ही लिया कि मम्मी जी आज अचानक और वो भी सुबह सुबह आप मेरे मायके जाने की बात क्यों कर रही हैं?

इसपर उसकी सास का उत्तर था कि तुम्हारे पापा को देखने चल रहे हैं । संध्या की तो मानो मुंह मांगी मुराद पूरी हो गयी थी।
संध्या के पापा उसको शायद अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे इसलिए तो जैसे जैसे संध्या की शादी की तारीख नजदीक आ रही थी वो बीमार और बीमार पड़ते जा रहे थे ।

आज पापा को अस्पताल से आये पूरा हफ्ता बीत गया था और इस एक हफ्ते में संध्या ने न जाने कितनी बार अपने पति अशोक से भी अपने पापा से मिलने की इच्छा जतायी थी और दबी जुबान से अपने ससुराल वालों से भी मगर सबने अनसुना ही कर दिया ।

अब जाओ भी हो जाओ तैयार संध्या की सास ने एक बार फिर दोहराया । जी मम्मी जी कहकर संध्या अपने रुम में तैयार होने चली गयी।

अशोक आपको पता है आज मैं बहुत बहुत खुश हूँ । बताइये न मैं कौन सी साड़ी पहनूं आज ? पता नहीं मैं पापा को कैसी लगूंगी आज वो शादी के बाद मुझे पहली बार जो देखेंगे ।
आपको पता है अशोक जब मैं अस्पताल में पापा से मिलने गयी थी तो मैंने मम्मी से क्या पूछा था ?

अशोक - क्या ?
मैंने पूछा था, मम्मी क्या पापा को पता है कि मेरी शादी हो गयी है ? इतना कहते ही संध्या की आंखों से आंसूं झर झर करके बहने लगे और अशोक बोला कि संध्या परेशान मत हो आज तो तुम उनसे मिलने जा रही हो न ।

हां अशोक मेरे पापा पूरे दो महीने बाद जिंदगी और मौत की जंग लड़कर आई सी यू से बाहर आये हैं, मैं बता नहीं सकती कि मैं क्या महसूस कर रही हूँ तुम्हें पता है मैं उनसे आज ढेर सारी, ढेर सारी बातें करूंगी ।ऐंसा लग रहा है मानो मेरा बचपन लौट आया बचपन में मैं बिल्कुल ऐंसे ही पापा के ऑफिस से आने का इंतज़ार करती थी और...

अरे हुई तैयार की नहीं, जाना है या नहीं, संध्या की सास की कड़क आवाज से संध्या चौंक गयी और बोली जी जी मम्मी जी मैं तो तैयार हूँ पर ये ,क्या ये अशोक कहीं नहीं जा रहा, बस मैं चलूंगी तुम्हारे साथ, एक बार फिर कड़कती आवाज में संध्या की सास ने बोला और संध्या चुपचाप अपनी सासू माँ के साथ चल दी ।

मम्मी जी ये मेरे घर के बाहर इतनी गाड़ियां क्यों खड़ी हैं, क्या पापा को इतने सारे लोग देखने आये हैं और ये मेरे घर का दरवाजा क्यों खुला है?

किसी अनहोनी की आशंका से संध्या का मन घबराने लगा और संध्या ने जैसे ही अन्दर का नजारा देखा तो वो वहीं चक्कर खाकर गिर पड़ी ।

आपकी दवा का समय हो गया है ,लीजिये दवा और दवा लेकर डाइनिंग टेबल पर आ जाइये सब खाने पर आपका इंंतजार कर रहे हैं संध्या इतना कहकर जैसे ही मुड़ी अशोक ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक लिया।

संध्या सॉरी मैं तुम्हारे पापा की अन्तिम क्रिया में नहीं आ पाया मुझे फीवर की वजह से इन्फैक्शन का डर है ऐंसा डॉक्टर ने बोला था माँ से, सॉरी यार।

कोई बात नहीं अशोक जो होना था वो तो हो गया, अब आप बस अपना ख्याल रखिये,इतना कहकर संध्या एक फीकी मुस्कान के साथ कमरे से बाहर निकल गयी ।

संध्या खुद भी नहीं समझ पा रही थी कि आज सुबह ही अपने पापा से मिलने की खुशी में जो संध्या बच्चों की तरह उत्साहित हो रही थी और खुशी में भी झर झर आंसुओं का झरना बहा रही थी , वो ही संध्या आज शाम को इतने भारी गम में भी इतनी गंभीर बनकर,मुस्कुरा कैसे रही है ?

सुबह तक जो बचपन उसे अपने पापा के मौत के मुंह से बाहर निकल आने की खुशी में भी रूला रहा था शाम को वो ही बचपन उससे इस कदर रूठ गया कि उसे अपने पापा की मौत पर खुद को गंभीर दिखाते हुए मुस्कुराना भी पड़ रहा है ।

सोचते सोचते संध्या के मुंह से बस ये ही शब्द निकलते हैं,
मेरा बचपन चला गया ।

निशा शर्मा...