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गवाक्ष - 19

गवाक्ष

19==

कॉस्मॉस के इस बचपने से सत्यनिधि के चेहरे पर फिर मुस्कुराहट पसर गई। उसे प्रत्येक बात में उत्सुकता दिखाने वाला, यह बालक सा लगने वाला कॉस्मॉस बहुत प्यारा सा लगने लगा था। अपनी बातों को उसके साथ बाँटना उसे सुख दे रहा था।
'क्या दूसरे ग्रह के ऐसे वासी जो धरती के लोगों के प्राण हरकर ले जाते हों, इतने प्यारे हो सकते है?'सत्यनिधि सोच रही थी |
"सफ़लता दर्पण की भाँति है, जैसे दर्पण टुकड़ों में बँट जाने के पश्चात भी अपने प्रतिबिम्बन की योग्यता नहीं छोड़ता उसी प्रकार सफ़लता इतनी आसानी से प्राप्त नहीं होती और जब हो जाती है तब जीवन में स्थाई स्थान बना लेती है |"
"मेरे साथ ऐसा क्यों नहीं होता?" वह उदास था ।
"क्योंकि तुम अपनी सफ़लता के प्रति जागरूक नहीं रह पाए। "
"तो क्या प्रत्येक कलाकार को इतना जागरूक रहना पड़ता है?"
"प्रत्येक कलाकार को नहीं, सबको --- जागरूकता की आवश्यकता सबको होती है, चाहे वह रसोईघर का काम हो, चाहे गाड़ी चलाना हो या फिर कला की कोई विधा क्यों न हो, कोई भी काम जब तक तपकर नहीं किया जाए तब तक उसमें कुशलता कैसे प्राप्त हो सकती है ?हर कार्य के लिए साधना करनी पड़ती है, साधना यानि स्वयं को साध लेना, स्वयं को तैयार करना|" उसने प्यार से समझाते हुए उत्तर दिया ।
"पर ---मैंने सुना है तप और साधना तो ऋषि-मुनि पहाड़ों, गुफाओं और कंदराओं में करते हैं। "
"तुम तो मस्तिष्क का कचूमर बना देते हो, तप और साधना के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं होता, किसी भी कार्य को तल्लीनता और लगन से कहीं पर भी किया जा सकता है, गुफाओं तथा कंदराओं की न तो आवश्यकता होती है और न ही सबके लिए यह संभव होता है । आध्यात्मिक अथवा सांसारिक कोई भी क्षेत्र क्यों न हो जब व्यक्ति उसमें स्वयं को साध लेता है, तभी प्रवीणता प्राप्त कर पाता है । "

कॉस्मॉस का मानो इन बातों से पेट ही नहीं भर रहा था, वह यह भी भूलता जा रहा था कि उसका कार्य अधूरा है। कितनी नवीन बातों, सूचनाओं का भंडार है यह पृथ्वी !
"मैं किसी तपस्वी अथवा साधु की बात नहीं कर रही हूँ, मैंअपने जैसे एक आम व्यक्ति की बात कर रही हूँ । सबको अपनी इन्द्रियों को आवश्यकतानुसार प्रयोग में लेने के लिए साधना करनी पड़ती है। पता है, साधना यानि स्वयं को स्वतंत्र महसूस करना । "

"ओहो !"

जब तक हम अपने भीतर से स्वयं को स्वतंत्र महसूस नहीं करते तब तक घुटन में रहते हैं । जब तक मैंने अपने नृत्य व संगीत की साधना नहीं की थी तब तक मैं बहुत विचलित रहती थी । स्वयं को साधकर ही हम बंधनों से मुक्त हो पाते हैं । जब हम अपनी इन्द्रियों को साध लेते हैं तब हम तप की अवस्था में आ जाते हैं "
" ये तप -----?"कॉस्मॉस की बात मुख के भीतर ही रह गई|
"तप यानि तापना, गर्म करना, माँजना । जानते हो सोना क्या होता है?"
" हाँ, खूब चमकीला, सूर्य की लालिमा व पीत वर्ण मिला-जुला --!"
"अरे! कैसे जानते हो?"
" सारी बातें आपकी पृथ्वी से ही तो सीख रहा हूँ---"कॉस्मॉस ने उत्तर दिया |
"एक बालक जो मेरा मित्र बन गया था उसकी माँ को आभूषण पहनने का और पहनने से भी अधिक अपनी सखियों में प्रदर्शन करने का बहुत लोभ था। वह अपने उस पति से प्रतिदिन कुछ न कुछ सोने और हीरे के आभूषणों की माँग करती रहती थी जो स्वयं अधिकांशत:विदेश में रहता था, लालची था और धर्म-गुरु बनकर लोगों को लूटत रहता था । "
" पहले अपनी बात समझा दूँ तुम्हें फिर तुम्हारी बात सुनूंगी। सोने के बारे में मैं तुम्हें बता रही थी जैसे सोने को अग्नि में तपाकर चमकाया जाता है, तभी वह चमकता है, उसी प्रकार जब हम अपनी चिंतन की अग्नि में साधना की समिधा से अपनी इन्द्रियों को तपाते हैं, तभी हमारे मन में निखार आता है। हमारा व्यक्तित्व कुंदन(सोना) बन जाता है पर यदि हममें अहं का समावेश हो जाता है तब हमारी साधना व तप व्यर्थ हो जाती है । "

"अच्छा ! बहुत नई नई बातें ----"

"जब तप हमें व्यर्थ के अभिमान से मुक्त करता है तब हम तपस्वी बन जाते हैं । हम सरल, सहज बनकर जीवन की अनंतता को पहचान लेते हैं। "

कॉस्मॉस को सत्यनिधि की बातें सुनने में आनंद आ रहा था परन्तु उसे अब कुछ ऊब होने लगी थी जो उसके चेहरे पर पसरने लगी थी । उसके समक्ष सुन्दरी नृत्यांगना का सुन्दर नृत्य घूमने लगा।
“ ऐसे अरुचि से साधना या तप नहीं होते, कुछ पाने केलिए कुछ खोना पड़ता है कॉस्मॉस ----"

वह नृत्यांगना का प्रदीप्त चेहरा देखे जा रहा था |

"अरुचि के किनारे को पार करने के पश्चात ही वास्तविक मार्ग ज्ञात होता है। अच्छा ! नृत्य करोगे मेरे साथ ?" नृत्यांगना ने सोचा इस कॉस्मॉस को अपने साथ नृत्य कराकर देखे ।
उसने सोचा था संभवत:कॉस्मॉस शरमा जाएगा लेकिन वह उसके कहने से खिल उठा --
"चलो तो खड़े हो जाओ और मेरे साथ नृत्य शुरू करो। "

क्रमश..