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मुखौटा - 3

मुखौटा

अध्याय 3

नानी होती तो वह 'कहीं जाकर मरो' श्राप देती। मैं मौन होकर उसे चुपचाप जाते हुए देखकर लाइब्रेरी के अंदर घुस गई।

"मुझे एक्साइटमेंट चाहिए। हुंह ! "

सुंदरी बुआ नाचने जाने के लिए सज-धज कर तैयार रहती । शायद इसीलिए, मुझे कई बार लगता है कि क्या उससे बदला लेने के लिए ही उसका आदमी मरा ? जब तक वे जिंदा रहे उसकी सुंदरता, उसकी योग्यता और उत्साह को वे दबा नहीं सके। उसे एक कोने में पटकने की एक मूर्खतापूर्ण सोच ने ही उन्हें मार डाला।

सुंदरी बुआ और रोहिणी में कोई साम्यता नहीं। मिलान करके देखें तो ? मेरा मन पुस्तक पढ़ने में लगाने की कोशिश कर रही हूँ। थोड़ी देर में रोहिणी के बारे में फिक्र कर मन फिर दुखी हो रहा है। अचानक एक बात ने मुझे हिला दिया। आज एक बहुत जरूरी सूचना कानों में पड़ी थी । वैसे भी वह याद बहुत मुख्य जगह न ले सका।

‘कृष्णन आया हुआ है !’

थोड़ी देर के लिए मन परेशान हुआ, घबराया। उस घबराहट को दबाकर ही रोहिणी से बात करना पड़ा था, मुझे अच्छी तरह से याद है। फिर यह याद कैसे पीछे सरक गई ! आधी रात में अचानक आंखें खुल जाया करती हैं । भूत जैसे घूमने वाले इस मन को दबाने का मैंने कितना प्रयास किया, विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया । मार्क एंटोनी सीजर ने शव को दफनाते समय जो बोला था, उससे मन में बहुत बड़ा और बलशाली सदमा लगा था। यह पक्का है सोच कर जिसका इंतजार था, वही मेरे घर के आगे से चला जाए तो कैसा दर्द उठेगा ! जैसे शरीर का एक अंग कट गया हो, जैसे पूरा जीवन ही लड़खड़ा गया हो । परंतु उस दुख को लेकर जश्न मनाने की मेरी कोई इच्छा नहीं है । लड़कियां कष्ट पाने के लिए ही पैदा हुई हैं क्या ? हमेशा अपना दुखड़ा लेकर बैठने वाली, कमी को प्रदर्शन करने वाली ? उसको वर्णन करके नई बातें सुनाने से मुझे कोफ़्त होती है। रोने वाले लड़के को जब लंगड़ा कह कर चिढ़ाया जाता है तो रोने वाली लड़की भी तो लंगड़ी ही हुई ना ! रोना भी दिव्यांगता ही होती है। मैं रोने के लिए नहीं पैदा हुई ! लड़कियों का रोना स्वाभाविक है, यह बात एक कवच है। मुझे किसी कवच की, पर्दे की जरूरत नहीं। मेरे खुले चेहरे को देख कर किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं।

इन तीन सालों में कितनी ही बातों में मन निर्मल हो गया। प्रेम जो है वह सिर्फ भ्रम है, अब मेरी समझ में आ गया। प्रेम के वशीभूत होकर ही जाना सत्य क्या है। बस उचित समय ही अमृत्व को प्राप्त होता है। जोड़ियों का मिलना और समय के साथ बिछड़ना भी एक शाश्वत सत्य है. जो भी जम गया है वह उचित समय में पिघल जाएगा। कृष्णन और मैं एक दूसरे के लिए पैदा हुए हैं, इसी लालसा में रहते हुए समय निकल रहा था। फोन में उसकी आवाज सुनते ही चेहरे पर जो खुशी आती थी अवर्णनीय है । शरीर में नया खून दौड़ने लगता । कान लाल होकर गरम हो जाते। अब वह याद आए तो थोड़ा क्रोध भी आता है, मन खिन्न हो उठता है। निराशा होती है। इसीलिए तो नलिनी और सुभद्रा दोनों मुझे बोलती हैं कि 'तुम्हारे लिए एक दोस्त की जरूरत है । शादी करने की जरूरत नहीं है।'

इन लोगों की बातें नानी के और अम्मा के कानों में ना पड़े, मैं यही प्रार्थना करती हूं। प्रेम का मतलब एक नशा है। एक बेहोशी। यह जो गाजा-बाजा-शादी वगैरह है न, यह सब बड़े लोगों की तृप्ति के लिए है। नशे में डूबते समय इन सबका कोई स्थान नहीं है। मन और शरीर मिलते समय ही सचमुच में मुहूर्त की घड़ी होती है। इस दुनिया के सभी चराचर प्राणी इस सच्चाई को समझ गए हैं। मैं और कृष्णन, हम दोनों ने किसी उचित समय का इंतजार नहीं किया। वह एकदम प्राकृतिक, बिना रोक सकने वाला संगम था। हमारे इन नज़दीकियों के बारे में अम्मा को नहीं मालूम होगा, ऐसा नहीं हो सकता। परंतु, वह ऐसे रह रही थी जैसे उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं हो । ‘मुझमें शादी के पहले जो अज्ञानता थी वही बेटी में होगी’ ऐसा एक पर्दा या मुखौटा उनके चेहरे पर था । कुछ समय इस पर्दे के हटते समय आंखों में एक संदेह नजर आता था। उनके शब्दों में बिना मतलब का एक चिड़चिड़ापन दिखाई देता था। लड़कियों की पूरी पवित्रता उनकी कोख तक सीमित है, ऐसे मानने वालों की तरह थी अम्मा । 'अगले दो महीनों में मालिनी की शादी है' ऐसा बोलकर वो अपने आप को समझा लेती थी। कहानी दूसरी दिशा में खत्म होते ही अम्मा को सबसे ज्यादा आघात लगा।

'अरे पापी ! वह तेरी जिंदगी को ही नाश करके चला गया। तू धोखा खा गई री !' कह कह कर बड़बड़ाती रहती। उसका बड़बड़ाना ही मेरे लिए उन दिनों बहुत भारी हो गया था। दुःख तो इस बात का है कि उस दबाव में वह स्वयं ही दब कर रह गई ।

कृष्णन ने मेरा उपभोग किया, इस बात का मुझे दुःख नहीं है, ऐसा मैं बिल्कुल नहीं कहूंगी। मगर उसकी दोस्ती को मैंने पूरी तरह से अनुभव किया, बोलने में मुझे कोई संकोच नहीं है। ‘मैंने धोखा नहीं खाया’ कहना बचकाना होगा। बिना किसी पूर्व सूचना के उसने हमारे रिश्ते को खत्म कर दिया। ऐसा करना एक विश्वासघात है. और यह आघात ही मुझे गुस्सा दिलाता है।उसके बारे में मैंने जो सोच रखा था, वह सब गलत साबित हुआ । यही बात मुझे हीन भावना से ग्रसित करती है। वैसे देखा जाए तो अपने मुंह पर कालिख पोतने वाला स्वयं वही था, मैं नहीं थी।

मुझमें आये इतने बड़े परिवर्तन को देख कर मुझे बेहद आश्चर्य होता है। मतलब मेरी नानी के घर में, जब मैं छोटी थी, उस समय जो मापदंड थे, उनको एक-एक कर दूर कर देने वाली यह मालिनी अलग है।

उस समय फ्रॉक पहनने वाला ही समय था। मोटी-मोटी दो चोटियां नीचे कमर तक लटकती थीं। उस समय मैं सहेलियों के साथ रस्सी कूद रही थी। दोनों जांघों में बड़ा दर्द हुआ। पेट के निचले हिस्से में कुछ अजीब सी हरकत मालूम हुई। उस पर ध्यान ना देकर मैं खेलती रही।

"ए मालिनी, तुम्हारी फ्रॉक में यह दाग कैसा ?" एक सहेली बोली।

मैंने कूदना बंद कर पीछे फ्रॉक पर ध्यान दिया। अंदर जो चिपचिपाहट था उसे मैंने अभी महसूस किया। सब लोग मुझे आंखें फाड़ कर देख रहे हैं। सब आपस में फुसफुसा कर बोल रहे हैं।

"अरे, जाकर अपनी नानी को बता।"

मैं घबराहट में नानी के पास अंदर दौड़ी। खून जाने लगा तो कहीं ‘मैं मर जाऊंगी क्या’ इस खयाल ने मुझे डराया। नानी के सामने जाकर खड़े होने तक मन में दुख, आंखों से आंसू बहने लगे।

नानी, साल में बैठकर हाथ में भभूति लगाकर दीपक के लिए बाती बना रही थी ।

"अम्मा अम्मा ! " शब्द बाहर आने में लड़खड़ा रहे थे।

"क्या हुआ री ?"

"मुझे कुछ तो भी हो गया ! यह देखो, खून !"

मैंने पीछे मुड़कर अपनी फ्रॉक दिखाया। नानी के चेहरे पर चिंता झलक आई ।

"हे भगवान, इतनी जल्दी ?" और उन्होंने अपने माथे को हाथों में थाम लिया । मुझे बड़ी निराशा सी हुई। मैं तो यह उम्मीद कर रही थी घबराकर मेरे पास आएगी ।

"पास में मत आ। वहीँ दूर खड़ी रह !" वे जल्दी से बोली।

"क्यों अम्मा ?" मैं और घबरा गई ।

"ऐसा ही है। बेकार के प्रश्न मत पूछ। इसका नाम अस्पृश्य है। इसके लिए तीन दिन तुम्हें सबसे अलग बैठना पड़ेगा ।"

मेरे समझ में कुछ नहीं आया। मुझे रोना आ रहा था।

"डॉक्टर के पास जाना है क्या ?"

"नहीं। यह तो सभी औरतों को आता ही है। तुम 10 साल ही की उम्र में बड़ी औरत बन कर खड़ी हो गई ! हे भगवान।"

मुझे फिर से रोना फूट पड़ा। नानी की आंखों में भी आंसू आ गए। "मत रो।" मुझे समझाते हुए बोली।

"औरत का जन्म लिया है तो सब कुछ सहना ही पड़ेगा, क्या कर सकते हैं ! अभी से तुम्हें संभाल के रखना पड़ेगा।“

मैं और अधिक घबराहट और परेशानी के साथ खड़ी रही।

"बाथरूम में जाकर एक तरफ खड़ी हो।"

बाथरूम में गरम पानी करने के चूल्हे के कारण चारों तरफ काला और अंधेरा था । मैं उसके अंदर गई, नानी ने जहाँ दिखाया उस स्थान पर खड़ी रही। कुछ विपरीत हो गया, यह सोच मेरे मन में बैठ गई । मेरी अम्मा भी इस समय दिल्ली में अप्पा के साथ है।

"मत रो बच्ची ।", नानी का स्वर दुःख से बोझिल था । अगले चार-पांच दिन कैसे संभल कर रहना चाहिए मुझे विस्तार से बताया।

"थोड़े दिन अब फ्रॉक मत पहनो, पावडे (घाघरा) ब्लाउज पहनो " वह बोली।

नानी जो कुछ बोल रही थी वह सब वैसे ही करने में मेरा पूरा ध्यान था। किसी को भी बता नहीं सकते, अब ऐसा एक रहस्य हम दोनों के बीच में था । वह मेरे लिए भ्रम पैदा कर रहा था।

नानी ने जैसा बोला वैसे ही मैंने ड्रेस चेंज कर लिया । अब जा कर मुझमें थोड़ी हिम्मत आई।

"किसी के ऊपर से ना लांघते हुए, किसी को छुए बिना, मैं जो जगह बता रही हूं जाकर चुपचाप वहां बैठ जाओ !", नानी बोली।

"आधे खेल में से मैं आ गई हूं अम्मा।"

"अब खेलने जा सकती है क्या ? बहुत अच्छा है चुपचाप बैठ जा।"

नानी ने कमरे के एक कोने को दिखाया। एक रंगी हुई दरी और एक तकिया मुझे लाकर दे दिया।

"मुझे होमवर्क करना है।"

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