Mukhauta - 5. books and stories free download online pdf in Hindi

मुखौटा - 5.

मुखौटा

अध्याय 5

"आप सिर क्यों मुंडाती हो ? क्यों रंगीन साड़ी नहीं पहनती हो ? आपने माथे पर बिंदी क्यों नहीं लगाई ? गहने क्यों नहीं पहनती हो ? आप थाली में क्यों नहीं खाती हो ?"

एक दिन हमारे पूछने पर नानी मां ने बहुत पिटाई की ।

"छोटी बच्ची हो तो बच्ची जैसे ही रहो, ज्यादा बड़ी बनने की कोशिश मत करो !"

"बच्चों को क्या पता है ? उनको क्यों मारती हो ?"

उस रात बड़ी मां का मेरे पास आना, मुझे चिपका कर लेटना मुझे याद आ रहा है। चंद्रमा की चांदनी की रोशनी में जो असाधारण चमक मुझे उनकी आंखों में दिखाई दी, बहुत दिनों बाद उनके मरने पर मुझे समझ में आया।

बड़ी मां की 8 साल की उम्र में शादी हुई थी। 14 साल की उम्र में जब वे ‘बड़ी’ हुई, शुभ मुहूर्त देखकर उनका गौणा का मुहूर्त देख सब तैयारियां होने लगी। यहां पर मिठाइयां वगैरह बननी शुरू हो गई थी. उसी समय की दर्दनाक समाचार प्राप्त हुआ. दामाद कावेरी में जाते समय डूब गए और उनकी मृत्यु हो गई। हाहाकार मच गया । सब लोग आठ –आठ आँसू रोये । अपनी छाती, अपना माथा पीट-पीटकर रोए। इस श्रीहीन लड़की के दुर्भाग्य पर सबने दुख जताया।

"इस लड़की ही की कुंडली में पति की मृत्यु लिखी थी !" लोगों ने कैसी-कैसी बातें बनाई ! उसी समय उसका सिर मुंडवा दिया गया । उसके गहने उतरवा लिए गए, उससे छीन लिए गए । आधे घंटे पहले जो श्रृंगार युक्त हो लाल कांजीवरम में सजी-धजी बैठी थी, उसे विधवा कह कोसा सिल्क ऑफ-व्हाइट साड़ी पहना दिया गया।

कई बार जब नानी इस दुर्घटना की बातें विस्तार से बताती तो मैं कितना परेशान हो जाती थी ।

"यह सब देख कर नानी आप से कैसे चुप रहा गया ?"

"उस समय सब ऐसा ही होता था ।", नानी ने ऐसे कहा जैसे यह सब बेहद साधारण बात हो ।

"कोई मुंह खोल नहीं सकता था । मुंह खोलने का विचार भी नहीं आता था जहन में । बड़ों से डरने का समय था वह ! हमारी तकदीर ऐसी ही है यही सोच हम चुप रहते।"

“14 साल की उम्र में ? यह कैसे संभव है ?”

"रही थी ना ! एक दिन भी परेशान हुई थी क्या ? बिना दुखी हुए वह कितनी ही स्त्रियों की चोटी बनाती, फूल लगा कर सजाती । स्वयं उनके कितने लंबे बाल थे, पता है?"

मेरी आंखों में पानी भर आता। इन सब बातों को कैसे उन्होंने ज़ब्त किया ? अपनी जवानी को उन्होंने कैसे जलाया ?

"एक दिन भी किसी की भी गलती पर उसने मुंह खोला क्या ? कभी कोई शिकायत नहीं की ।"

एक दिन की बात है. घर में सबके साथ बैठ जब नानी यह सब बता रही थी तो मुझे बड़ी मां की हंसी याद आ रही थी।

'भगवान आंख नहीं फोड़ते। आँख कौन फोड़ता है उसको नहीं पता।'

मैं अचानक बोल पड़ी, "बड़ी मां इसीलिए तो हमेशा हंसती रहती थी।"

"क्यों ?"

"अपने आसपास रहने वाले लोग मूर्ख हैं सोच कर।"

नानी मुझे व्यंग से देखकर हंसती है।

"मुझे नहीं पता।"

अब सोच कर देखने पर लगता है कि उनके अपने साथ जो कुछ भी अन्याय हुआ उसका कारण सिर्फ 'मेरी तकदीर’ ही नहीं, कुछ और भी कारण हैं, यह बात बड़ी मां ने महसूस किया होगा। फिर कैसे ऐसे हंसती थी ? कहां से प्रेम का भंडार फूटता था ? गुस्सा क्यों नहीं आया ? अहंकार क्यों नहीं उमड़ा ? यौवन की इच्छाएं, लालसाएं, वक्र बुद्धि... कुछ नहीं ? जिस ग्रह पर सिगमंड फ्रायड पैदा हुए उस भूमि पर निश्चय ही इस तरह की प्रकृति वाले लोग नहीं रह सकते।

क्रॉस पर लटके येशु के चेहरे पर वेदना दिखाई देती है। नारायणी बड़ी मां के चेहरे पर हमेशा हंसी रहती थी - आखिर में मैं ही जीती, अलंबंगला जैसे। बड़ी मां अभी होती जर्मन कंरीयरै को खा गई होती- फेमिनिज्म के एक नए कोण को प्रदर्शित की होती । सन्यासी कर्म व योग दिखा दी होती -लिप्यते नसपापे गण पदम पत्र मीमांसा-

बड़ी मां जैसी मेरी दृष्टि है, ऐसा मैं नहीं कह सकती। अभी भी औरत और आदमी एक दुसरे का हाथ पकड़ कर जा रहे होते हैं तो मेरे मन में एकदम कुछ भावनाएं जागृत हो जाती हैं। एक जलन की भावना उत्पन्न होकर मुझे परेशान करती है। मैं बड़ी मां के पैर की धूल के भी बराबर नहीं हूं।

परंतु मैं यीशु जैसे रहने की इच्छा नहीं रखती हूँ । बिना कारण के एक भार को उठाने के लिए मैं तैयार नहीं।

रात को खाना खाते समय जैसे नलिनी को कुछ याद आया. "रोहिणी ने और क्या कहा?"

मैं सांभर से कढ़ी पत्ते को दूर करते हुए बोली। "कृष्णन आया हुआ है।"

आंखें फाड़कर नलिनी ने मुझे देखा और सिटी बजाई।

"उसको किसने बताया ?"

"उसने उसको फोन किया।"

फिर से आंखें फाड़ कर देखती हुई सिटी बजाई। "क्या बोला ?"

"मैंने नहीं पूछा।" आवाज में पर्याप्त उदासीनता घोलते हुए मैंने कहा।

"यह ठीक है।" धीमी आवाज में बोली। "अब कुछ भी बोले तो क्या है ?"

अचानक मैं अपनी यादों में चली गई। उसकी बातें, मुझे आकर्षित करने वाली उसकी नरमी। पूर्ण खुशी या संतोष यही है । मुझे अभी ही समझ में आया कि मुझे जो बेहोशी छाई थी-पूर्णता को प्राप्त होना यानी संतोष जैसी ही एक भावना होती है यह ।

"नारायणी बड़ी मां और तुम में क्या संबंध है?", अचानक नलिनी बोली।

"कोई संबंध नहीं है।“, मेरी आवाज कमजोर पड़ गई थी । "बड़ी मां संसार को देखकर जैसे हंसती थी, मैं भी वैसे ही हंसने की आदत डालूंगी, बस सिर्फ यही बात।"

"बड़ी मां ने जो पर्दा डाल रखा था वह...!" नलिनी जैसे एक क्षण को चुप हो आगे जोड़ा, " वह बड़ी होशियारी वाला पर्दा था । हंसती हुई हमेशा नहीं रहती तो जॉइंट फैमिली में औरतों के बीच में ही संभालना मुश्किल हो जाता। बड़ी मां की इच्छाएं नहीं रही होगी, ऐसा क्यों सोचती हो ?"

"ऐसा तो नहीं है कि इच्छाएं नहीं रही होगी । परंतु वह हमेशा ही एक असाधारण महिला थी।" धीरे से मैं बोली। "वह व्यव्हार सिर्फ होशियारी नहीं थी । इट वाज समथिंग मोर देन दैट, वह एक साधना थी, उपासना थी ।"

उस रात जब बड़ी मां गीली आंखों से मुझे अपने से लिपटा कर सोई थी, मुझे आज भी याद है। किसी को नहीं पता उस बड़ी मां का।

मुझे अचानक से लगता है कि अन्य लड़कियों की नजर में जो संसार में जीवन हैं - फूल और बिंदी के साथ बच्चों के साथ जीना, वास्तव में जीवन वही तो नहीं है, कुछ और भी है । बड़ी मां को ऐसा कोई दुख नहीं था। उसको तो इस बात का दुःख था कि ‘पुरुषों के सुख के लिए ही लड़की है’ का सिद्धांत ही उसके साथ अन्याय होने का कारण था । इसीलिए उसके चेहरे पर हंसी- ‘अरे बेवकूफ लोग’ ऐसी हंसी थी ! 'भगवान आंखें फोड़ देंगे ' ? कितने दिन तुम लड़कियों को इस तरह से धोखा दोगे, अरे मूर्खों’ - यह वही हंसी थी।

मुझे में और बड़ी मां में कोई संबंध नहीं है, ठीक है। परंतु लड़की का जन्म है, यही दोनों का संबंध है। उनकी भावनाओं को समाज तुच्छ समझा । मेरी भावनाओं को कृष्णन ने तुच्छ समझा। मेरी हंसी बड़ी मां की हंसी जैसी ही है । जैसे कहना चाहते हैं, ‘तुम मेरा अपमान नहीं कर सकते’ । अपनी करनी के कारण तुम ही तुच्छ साबित हुए, ऐसी एक व्यंगभरी हंसी।

पूरी रात मैं पलट-पलट कर सोने की असफल कोशिश करती रही. कंन्नागी के वेश में नारायणी बड़ी माँ भयंकर रूप से हंसी। पूरा मदुरई ही जला। देवी कन्नागी की एक कहानी है. उन्होंने एक धनि व्यापारी के बेटे कोवलन से विवाह किया था . कुछ समय पश्चात कोवलन की एक नर्तकी माधवी से मुलाकात हुई और वह अपनी पत्नी भूल कर उस नर्तकी पर अपना सब धन-संपत्ति नौछावर कर दिया. आखिरी में कन्नागी की एक पायल बेचने जब मदुरै गया तो चोरी के इलज़ाम में राजा के सैनिकों द्वारा मौत की सजा पाई. जब यह खबर कन्नागी ने सुनी तो व्यथित हो दूसरे पांव की पायल ले दरबार पहुंची. अपना सब कुछ ख़त्म पा कन्नागी ने रानी को श्राप दिया कि उसका साम्राज्य ख़ाक हो जायेगा. कहा जाता है कि सच्ची और पवित्र कन्नागी के गुस्से से मदुरै शहर धू-धू हो जल उठा. मैं भी गुस्से से तमतमा रही थी...दौड़ कर अपने कृष्ण में समा गई !

सुबह जब लक्ष्मी ने आकर घंटी बजाई, उसी समय मेरी आंखें खुली।

हमेशा की तरह कॉफी तैयार कर मैं पेपर पढ़ने लगी और यंत्रवत खाना बनाना शुरू किया ही था कि नलिनी उठकर आई।

"क्या खाना बना रही हो दीदी ?" वह उत्सुकता से बोली ।

"क्या बनाएं, बोलो!"

"कुछ भी मत बनाओ।"

सब्जी काट रही लक्ष्मी की तरफ देखि तो वह भी सिर उठाकर देखती हुई हंसी।

"खाना नहीं बनाए तो ?"

"चाणक्य में 11:00 बजे के शो देखकर वहां से निर्लोंस में खाना खाएंगे।"

"बहुत बढ़िया" मैंने लक्ष्मी की तरफ ध्यान न देकर कहा, "आज मेरा भी खाना बनाने का मूड नहीं है।"

"फिर सब्जी का क्या करूं अम्मा ?", लक्ष्मी ने पूछा।

"काट के रख दो शाम को काम में ले लूंगी।'

‘कैसी लड़कियां हैं ये भी’ लक्ष्मी ऐसे सोचती होगी सोच कर मुझे हंसी आई। ‘बिना लगाम की घोड़ियां हैं’ सोच रही होगी। लगाम जरूरी है ऐसे सोचने वाली वर्ग की है वह।

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