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पठान चाचा

रहा हुंगा मै शायद कोई दसेक साल का,ये तब की हमारे मुहल्ले की बात है,हमारे मुहल्ले की पब्लिक खास तौर पर मुसलमानों और हिन्दुओं की मिश्रित जनता थी,आधा आधा समझ लिजीये,पर कुछ क्रिश्चचियन्स भी थे,पर पक्का बताता हूं कि कोई एक दूसरे को जा़ति के आधार पर नहीं जानता था,खुद मुझे ही पता नहीं था कि ये हिन्दू मुस्लिम क्या होता था।मेरे ज्यादातर दोस्त अकरम,शहज़ाद, और वसीम जैसे ही थे,और उनके ईद बकरीद की तैयारी हमारे घरों से और हमारे दशहरा दिवाली की शुरुआत उनके घरो से होती थी।
मुुुहल्ले मे उस समय एक ऐसा भी घर था,जहाँ कुछ पठान लोगों का डेेेरा था,वो काबुुुल से इधर आ के अपना व्यापार करते थे,सेकेंड हैंड कोट,जैकेट,मेवा,काजू,बादाम,और सूदखोरी का(ये बाते मै बहुत बाद मे समझा),पर थे वो भी हमारे अपने जैसे ही,एक दूसरे को नाम से जानना,सलाम नमस्ते करना,बच्चो से प्यार करना,हां रहते वो थे,अपना एक संगठन बना के,कोई दस बारह लोग,कभी एक अपने मुल्क वापस जाता,तो कोई दूसरा नया आ जाता,ये सिलसिला बना रहता,जल्द ही वो टूटी फूटी हिन्दी बोलना भी सीख जाते।सब के सब कद्दावर, लम्बे तडंगे,एक दो बूढे भी थे,और सब के सब बडे मेहनती,पता नहीं कब मेरे पिता जी की उनसे दोस्ती हो गयी,और वो उनसे हमारे लिये कोट और अपने लिये जैकेट खरीदने लगे।उनमे से एक थे,छ:फीटे,गोरे,लाल,कोई चालीस पैंतालिस साल के मज़बूत पठान,असलम खान,जो जल्द ही हम भाई बहनों के असलम चाचा बन गये,वो ही हमारे पिता जी को कोट जैकेट ला के देते,और हम बच्चों को मुफ्त में काजू पिस्ता खिलाते,बहुत जल्द वो हमारे घर के एक प्यारे सदस्य बन गये,और हर त्यौहारों पर पूआ,पूडी और सेवईयों का भी आदान प्रदान होने लगा।असलम चाचा अच्छी हिन्दी बोल लेते थे,क्योंकि वो यहाँ कोई तीन साल से रह रहे थे,वक्त यूं ही गुज़रता रहा,और हम धीरे धीरे बढते रहे।
एक सुबह की बात है,सामने सडक पर किन्हीं दो लोगो के पुरज़ोर झगडे की आवाज़े आनी शुरु हुई,और हमारे कानों ने समझ लिया कि ये झगडा पश्तो भाषा मे है,जो काबुल मे बोली जाती है,हम सब सडक पर भागे,क्या हुआ?।देखा कि असलम चाचा और एक दूसरे नये पठान मे बुरी तरह उठापटक हो रही है,एक दूसरे को घूंसे लात मारे जा रहे है।ये दूसरा पठान हाल मे ही आया था,और इन्हीं लोगो के साथ रह रहा था।दोनो के चेहरे से खून बह रहा था,और वे एक दूसरे को मरने मारने पर उतारु थे,किसी तरह उन्हे अलग किया गया,झगडा रोकने मे मेरे पिता जी भी थे,जो असलम चाचा को फुसला के अपने घर मे ले आये थे।कुछ समय बाद शांत होने पर पिता जी को उससे पता चला कि ये नया पठान,उसी शहर का था,जहाँ असलम रहा करते थे,असलम की गैरमौजूदगी का फायदा उठा कर उसने असलम की बीवी को फांस लिया था(ये बात मुझे काफी बाद पता चली)और ये ख़बर अब असलम को हाल मे ही पता चली थी,जब उसके किसी काबुली दोस्त ने उसे फोन पर ये सब कुछ बताया।ये झगडा उसी सिलसिले मे था,फिर मैने सुना कि वो नया पठान रहमत खान उसी दिन हमारा मुहल्ला छोड कर कहीं और रहने को चला गया।बीवी की बेवफाई से असलम चाचा का भी दिल टूट गया था,जो उस दिन के बाद साफ साफ उनके चेहरे पर नज़र आया करता था।
हमारे मोहल्ले के थोडा ही आगे एक और बस्ती थी,जहाँ कुछ ऐसी औरते रहा करती थी,जो गाने नाचने का धंधा किया करती थीं,जिसे लोग रेडलाईट एरिया कहा करते थे,ये हमारे कहीं भी आने जाने का मुख्य रास्ता था,सो हम करीब करीब सबको पहचानते थे।कितनो से तो हमारा चाचा,चाची,भैया और दीदी का भी रिश्ता था,रात के अंधेरे मे हमे कुछ ऐसे भी सफेदपोश चेहरे नज़र आते थे,जो दिन मे हमारे ही पहचान वालो के बाप और मामा हुआ करते थे,पर हमे उन बातो से कोई मतलब ही नहीं होता था।अक्सर हम वहाँ उन पठानी लोगो को भी चक्कर मारते देखते थे,शायद वो अपना सूद ब्याज का कारोबार भी वहाँ चलाया करते थ,मेवे बादाम बेचा करते थे।दसवीं पास कर के मै कालेज जाने लगा,और फिर महल्ले मे कम और कालेज मे मेरा समय ज्यादा कटने लगा,जिस कारण महल्ले की खबरों से महरूम होने लगा,अब ज्यादा दोस्त कालेज के जो बन गये थे।
कहीँ कहीं से उडती ख़बर मिली कि असलम चाचा का कारोबार अब ज्यादा सूद ब्याज का होता जा रहा है,कोट जैकेटों का कम,शायद उस ज़माने मे उन्होंने मेरे पिता जी को भी कुछ रुपया उधार दिया था,जिसका ब्याज़ पिता जी भरा करते थे।
रेडलाईट एरिया मे किसी गुलाबन बाई की मशहूरियत बढती जा रही थी,सुनते थे कि बला की खूबसूरत है,बहुतेरे उसके दीवाने है,पर वो बडी ऊंचे नाक वाली बाई है,जो जल्दी किसी के हत्थे नहीं चढती,हमें तो बस किस्से कहानियां सुनने मे मज़ा आता था।मेरा अब सेकेंड ईयर था,और पास होने के बाद मुझे डिप्लोमा इंजीनियरिंग के लिये बाहर जाना था,कुछ तीन सालो के लिये,मन उत्साहित था।जब मै पास हुआ तो सबकी बधाईयो के बीच मुझे एक बेहतरीन चीज़ मिली,एक सुंदर फ़र का कोट,जो असलम चाचा ने लाकर दिया,और कहा,इंजीनियरिंग कालेज मे इसी को पहन कर जाना,चाचा की याद आती रहेगी,भूलोगे नहीं, मेरी आंखो मे ख़ुशी के आंसू आ गये,उनका प्यार देख कर।
फिर घर आना जाना कम होता गया क्योंकि मै अपना कोर्स पूरा करने कलकत्ता चला गया,जब कभी आता तो असलम चाचा से मिलने ज़रुर जाता।एक बार आया तो पता चला कि असलम चाचा,उसी गुलाबन बाई के इश्क मे पड गये हैं,और गुलाबन बाई भी उन्हें दिलोजान से चाहने लगी है,उसने अपना नाचने गाने का व्यापार भी छोड दिया है,और अब दोनों उस महल्ले को छोड कर कहीं और रहते है।मुझे तो पता नहीं क्यों, जान कर दिल मे बडी ख़ुशी हुई,मेरे असलम चाचा को उनकी जि़न्दगी मिल गयी,बेचारे बरसों से तन्हा जीवन गुज़ार रहे थे,पर मै उन्हें ढूंढ नहीं पाया,बस दो दिनों के लिये ही घर आ पाया था।वक्त थोडा और गुज़र गया,और मै भी वक्त के धारे मे बहुत कुछ भूल गया।इस बीच मेरे पिता जी भी गुज़र गये,फिर मै अपनी पढाई मे व्यस्त होता चला गया,और देखते देखते तीन साल और निकल गये,और एक दिन इंजीनियरिंग की आखिरी परीक्षा भी पास कर गया।
घर द्वार से ख़बरें मिलती रहीं, उनमे से एक ख़बर ये भी थी कि असलम चाचा ने अपना सारा धन सूद ब्याज के कारोबार मे लुटा दिया,लोगों ने उनके पैसे हडप लिये,और अब वो काफी तंगी के दिन गुज़ार रहे है,पर सहारे के लिये अब भी गुलाबन उनके साथ है।मै अंदर से व्यथित हो गया,पर क्या कर सकता था?मेरी पहली नौकरी वहीं कलकत्ते मे ही लग रही थी,सो वहीं पे सेट्ल होना था।
एक छुट्टी पे घर आया तो काफी ढूंढने के बाद पता चला कि असलम चाचा ने हमारा शहर ही छोड दिया है,और गुलाबन के साथ कहीँ और चले गये है,कुछ नया कारोबार करने,पर मन को तसल्ली हुई कि पठान के बच्चे ने अपनी हिम्मत नहीं छोडी है,मैने उनके लिये ईश्वर से प्रार्थना भी की।
कलकत्ते मे ही मेरी नौकरी के तीन साल देखते देखते गुज़र गये,और फिर मेरी पोस्टिंग खडगपुर मे हो गयी,मैने जा के ज्वाइन कर लिया,और वहाँ भी छ:महीने निकल गये।
उस दिन मै आफिस से बाहर निकला तो टहलते हुए बाज़ार की तरफ निकल पडा,कुछ ज़रुरी सामान घर के लिये लेने थे।ख़रीदारी करते हुये कानों मे कुछ ऐसी आवाज़े आई,जैसे कोई हिन्दी और पश्त़ो भाषा मे मिली जुली आवाज़ मे गुहार लगा रहा हो,
"खु़दा के नाम पर मदद करो मेरे भाई,मुझे मेरे वतन जाना है"
"ये सामान मुझसे ख़रीद लो,मै भीख नहीं चाहता,मै पठान हूं,पठान भीख नहीं मांग सकता"
मेरे कदम लडखडा गये,ये आवाज़ मेरी जानी पहचानी थी,मै बेतहाशा उस आवाज़ की ओर भागा।
असलम चाचा को मै बडी मुश्किल से पहचान पाया,वो कद्दावर, गोरा चिट्टा मज़बूत इन्सान ,बूढा और बीमार,कमज़ोर दिख रहा था,कमर से आधा झुका हुआ,अपने हाथों से सामने रखे फटे पुराने कपडे,चिथडों जैसा कोट,की तरफ हाथ दिखाते हुये चिल्ला रहा था,
"ख़ुदा के नाम पर.............."
मेरी सांसे थम गयीं,मै अवाक सा हो गया,और आंसू मेरे दोनो गालो पर बहने लगे,असलम चाचा काफी बीमार लग रहे थे,आवाज़ भी भर्राई सी निकल रही थी,बडी देर बाद मुझे पहचान पाये,और फिर मेरे गले से लिपट कर रोने लगे,मैं उन्हें अपने घर ले आया।
कोई महीना दिन मैने उनकी दिल से सेवा की,इलाज़ कराया,तब जा के वो चलने फिरने के काबिल हो सके,उनसे इस दौरान उनकी आपबीती सुनी।गुलाबन ने उनका बडा साथ दिया,गरीबी के दिनों मे भी उनका साथ नहीं छोडा,भूखे प्यासे रही,फटे कपडे पहनती रही,भटकते भटकते वो घूमते रहे,जिन्दगी से लडते रहे,पर आखि़र मे वो कैंसर से जंग हार गयी,और करीब चार महीने पहले साथ छोड गयी।पिछले एक साल से वो लोग खडगपुर मे थे,और किसी तरह अपना जीवन गुज़ार रहे थे।
मै स्तब्ध था,ये वही आदमी था,जो कभी अपना देश छोड कर,यहाँ आया था,शान से लोगो को सूद पर पैसा देता था,मुफ्त मे बच्चो को काजू पिस्ता खिलाता था,कोटों और जैकेटो का व्यापारी था,सिर्फ बीवी की बेवफाई की वजह से वतन नही लौटा,दस साल से ज्यादा इस देश मे गुज़ार दिये,गरीबी से चूर हो गया,पर आखिरी दम तक हाथ नहीं फैलाया,फटे चिटे चीथडे बेचने की कोशिश करता रहा,क्योंकि अब वो अपने वतन वापस जाना चाहता था।
हवाई जहाज़ पर सवार होने से पहलै,असलम चाचा काफी देर तक मेरे गले से लिपटे रहे,रोते रहे,आज वो अपने देश वापस जा रहे थे।मैने उनके लिये सारी व्यवस्था कर दी थी,जिसके लिये वो मेरे अहसानमंद थे,पर वो नहीं जानते थे कि ये सब तो कुछ नहीं था।मै उन्हें क्या बताता कि ये सब उस "फ़र के कोट" की कीमत अदा नहीं कर सकता था,जो उन्होंने मुझे मेरे इंजीनियरिंग कालेज के लिये दिया था,और जिस कोट ने बरसों मेरी शान बरकरार रखी थी।
आज भी जाने से पहले उन्होंने मुझे मेरी मुठ्ठी मे कुछ थमाया,और घूम कर चले गये।
मैने मुठ्ठी खोली तो उसमे चंद दाने काजू और पिस्ते के थे,मै वहीं ज़मीन पर बैठ के रोने लगा।