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महाकवि भवभूति - 5

महाकवि भवभूति 5

अपना वैभव कहती पद्मावती

सूर्य के उगते ही अंधकार का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। ठीक उसी तरह जब हमारा चित्त प्रकाशित हो उठता है, तब चेतना उत्कृष्ट होकर जन-जन का उपकार करने लगती है। इस तरह जाने क्या-क्या सोचते हुये महाकवि भवभूति की पत्नी दुर्गा मछलियों को चुँगा डालने से निवृत्त होकर घर चल दीं।

पथ में बबूल के पेड़ की उथली छाया में सुमंगला चीटियों को मिष्ठान से भरपूर आटा डाल रही थीं। दुर्गा पास जाकर उनका ध्यान भंग करते हुये बोली- ‘सुमंगला दीदी, आप तो प्रातः से साँय तक इसी तरह वन्य प्राणियों की सेवा में लगी रहती हो। हाँ याद आया, आपका वह पालतू हिरण कैसा है? वह घर आता भी है या नहीं।’

प्रश्न सुनकर सुमंगला ने उत्तर दिया- ‘भाभी, जब भी उसे वन विचरण से घर की याद आती है, चला आता है। आज चार दिन हो गये जब से गया है, वापस ही नहीं आया । क्या पता किसी शिकारी ने उसकी हत्या तो नहीं कर दी।’

दुर्गा ने कहा- ‘इन दिनों आखेट का प्रचलन तीव्र गति से बढ़ा है। मनोरंजन के लिये किसी निरीह प्राणी की हत्या करते लोगों को दया भी नहीं आती।’ यह कहते हुये वे अपनी टोकरी मे ंरखा सारा चुन चीटियों को डाल चुकी थीं।

अपने इस काम से निवृत्त होकर सुमंगला खड़े होते हुये बोली-‘इन्हीं दुर्गुणों के कारण देखना, किसी दिन राजतंत्र का पूरी तरह पतन हो जायेगा। राजा को अपनी सुख-सुविधाओं की चिन्ता रहती है। देख नहीं रहीं हो इन बहुमंजिला भवनों के सामने सड़कों और नालियों की कैसी दुर्दशा हो रही है!’

दुर्गा ने उसकी बात का समर्थन करते हुये कहा- ‘इन वैभवशाली भवनों के सामने सड़कों पर गहरे गढ्ढे़ हो गये हैं । नालियाँ रुकी पड़ी हैं। सफाई कर्मचारी काम ही नहीं कर रहे हैं। अरे! उनके भी पेट हैं।’

सुमंगला झट से बोली- इस नगर में किसी का अस्तित्व शेष रह गया है, तो केवल गुरुदेव ज्ञाननिधि विद्याविहार का। वह भी महाकवि भवभूति के कारण। लेकिन नगर में प्रथमा और मध्यमा के अध्ययन की स्थिति ठीक नहीं है।’

दुर्गा ने सुमंगला के कार्य की प्रशंसा करते हुये कहा- ‘प्रथमा और मध्यमा का अध्ययन तो आपकी पाठशाला में ही ठीक ढंग से हो पा रहा है। वह भी आपके प्रयास से । अरे दीदी! आज मैं घर से ही देर से निकली थी। अब चलूँ महाकवि के घर वापस आने का समय हो गया है। जाकर भोजन तैयार करना है। वे तो आते ही भोजन करने बैठ जायेंगे। घर में जैसा बना होगा खा-पीकर अपने लिखने-पढ़ने में लग जायेंगे। उसके बाद तो उन्हें बात करने को समय ही नहीं होता।’

बातों ही बातों में सुमंगला अपने घर की ओर मुड़ते हुये बोली- ‘अच्छा भाभी चलती हूँ। हमारे छात्र प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उन्हें भी कुछ लिखना-पढ़ना सिखाना है। प्रारम्भिक शिक्षा का कार्य बड़ा ही कठिन है।’

दुर्गा उनके काम की प्रशंसा करते हुये बोली- ‘आपने आचार्याें के काम का बंटवारा कर दिया है। इससे वे अपने काम के प्रति उत्तरदायी हो गये हैं। इससे आपका काम भी हल्का हो गया है।’ ये शब्द सुमंगला ने अपने घर के दरवाजे के अन्दर प्रवेश करते हुये सुने। सुमंगला ने मुड़कर देखा दुर्गा भाभी अपने घर की ओर बढ़ गईं हैं।

अब दुर्गा चौराहे को पार कर बायें हाथ की आरे मुड़ गईं थीं। नगर के प्रसिद्ध चिकित्सक धनवन्तरी अध्ययनशाला के आचार्य राजवैद्य पं. हरिचरणलाल जी का औषधालय दिखने लगा। रोगियों की भीड़ देखकर वह सोचने लगी- इस नगर में बस यही औषधालय शेष रह गया है। अधिकांश जनता अशिक्षित वैद्यों के चंगुल में फंसी है। यह अध्ययनशाला नई-नई औषधियों के निर्माण में तो लगा है पर दवाएँ मंहगी होने के कारण आम जनता उनका उपयोग नहीं कर पा रही है। इस धनवन्तरी अध्ययनशाला के प्रशिक्षित छात्र देश के दूसरे बड़े-बड़े नगरों में चले जाते हैं। उनका यहाँ की जनता को कोई लाभ नहीं हो रहा है।

आज अन्य दिनों की तुलना में भवभूति को वापस आने में देर हो गई। दुर्गा ने आते ही प्रश्न किया- ‘सारे दिन जाने कहाँ-कहाँ विचरण करते रहेंगे! घर आयेंगे तो हारे थके। बाहर मित्रों से हँस-हँस कर बातें करेंगे और घर में प्रवेश करते हैं मुँह लटकाये हुये। जाने किस सोच में डूबे रहते हैं।’

भवभूति आज के कार्यकलापों का लेखा-जोखा देते हुये बोले- ‘आज कालप्रियनाथ के पुजारी पण्डित हरिनारायण जी सेे धारणा-ध्यान के संबंध में चर्चा चल रही थी।’

ष्शेष सब वही क्रम रहा जो प्रतिदिन रहता है। दुर्गा समझ गयी शेष क्रम में विद्याविहार के निरीक्षण-परीक्षण एवं उन्नयन आदि की बातें सम्मिलित हैं। आज धारणा-ध्यान की चर्चा ही नवीन है। क्या चर्चा हुई पूछ ही लेती हँू। यही विचारकर प्रश्न किया- धारणा-ध्यान के बारे में क्या बातचीत हुई? हमें भी सुनें ।’

भवभूति ने उत्तर दिया- ‘अपने इष्ट के एक बिन्दु जैसे चरण के अँगुष्ठ का नख अथवा दोनों भृकुटियों के मध्य ललाट वाले स्थान पर, आँखें बन्द करके कल्पना से दृष्टि जमायें रखें। इस क्रम में सहज ध्यान का अभ्यास शुरु हो जाता है।’

दुर्गा ने रोटियाँ सेंकते हुये पुनः प्रश्न किया- ‘कुछ भी करें ,मन तो भटक ही जाता है।’

उत्तर पुनः भवभूति ने दिया- ‘भटकाव की स्थिति में मन को बारम्बार उसी निश्चित बिन्दु पर लाकर स्थिर करना है। कुछ ही दिनों के अभ्यास के बाद चित्त स्थिर होने लगता है।’

यह सुनते हुये दुर्गा ने भोजन परोस कर थाली भवभूति के समक्ष रख दी। प्रतिदिन के नियमानुसार प्रभू को भोजन अर्पण करने के बाद वे भोजन करने लगे।

भोजन करते समय दुर्गा चुप बनी रही, जैसे ही उन्होंने आमचन लिया, अब मन में उफन रहे प्रश्न को दुर्गा दबाकर न रख सकी, बोली- ‘आपकेा विद्याविहार की चिन्ता हर पल लगी रहती है!’

यह सुनकर भवभूति सोचते हुये बोले- ‘गणेश की माँ , विद्याविहार की चिन्ता के अतिरिक्त आज से एक नई चिन्ता ‘उत्तररामचरितम्’ का लेखन प्रारम्भ हो रहा है।’

दुर्गा ने कथ्य के बारे में सोचते हुये पूछा- ‘इसका अर्थ तो यह है कि महावीरचरितम् के बाद के प्रसंग इसमें समाहित हो सकेंगे। इसके बिना राम के चरित पर आपका कार्य अधूरा सा लग रहा है। हम पर रामजी की बड़ी कृपा हैं, वे किसी कार्य को अधूरा कैसे रहने देंगे?’

भवभूति ने उन्हें थपथपाया - ‘तुम तो हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती रहती हो। इस समय हमारे चिरंजीव गणेश नहीं दिख रहे हैं। मैं विद्याविहार तो गया था पर ऋग्वेद की अध्ययनशाला में नहीं जा पाया। शायद वे वहीं हांेगे ,अपने शिष्यों को ऋग्वेद का अध्ययन करा रहे होंगे।’

दुर्गा अपने मन की बात कही- ‘जब से गणेश विद्याविहार का कार्य करने लगा है तव से आप घर गृहस्थी के दायित्व से मुक्ति अनुभव कर रहे हैं। आपके चिरंजीव गणेश विद्याविहार के काम से निवृत्त होकर, ऋचा के घर चक्कर लगाये बिना यहाँ आने वाला नहीं है। ’

बात सुनकर भवभूति क्या कहें, यह सोचकर चुप ही रहे, दुर्गा पुनः बोली- ‘ऋचा ने ऐसा जादू चलाया है कि गणेश का किसी काम में मन ही नहीं लगता है। वह विद्याविहार तो आपके कारण विवश होकर जाता है, नहीं तो वह वहाँ भी न जाये।’

भवभूति को पत्नी की यह बात रुचिकर नहीं लगी, बोले- ‘तुम्हें किसी पर भी लाँछन लगाने में बहुत आनन्द आता है। तुम यह तो जानती ही हो कि ऋचा के पिता श्री पार्वतीनन्दन कोई साधारण आदमी तो हैं नहीं। ’

दुर्गा ने व्यंग्य किया- ‘रही लाँछन की बात तो वह भी आपका ही सुपुत्र है, आप भी तो मेरे पीछे ऐसे पड़े की लग्न करवाकर ही माने।’

भवभूति ने स्वीकार किया- ‘आपके लग्न की चर्चा तो उन दिनों पार्वतीनन्दन से थी। हम तो आपकी सुन्दरता पर न्यौछावर थे। फिर इस कवि की प्रेरणा भी तो तुम्हीं हो। तुम्हारा साथ न मिलता तो मालतीमाधवम् की रचना ही न हो पाती।’

दुर्गा मूल प्रसंग पर आते हुये बोली- ‘आपने मालतीमाधवम् के नन्दन पात्र में पार्वतीनन्दन की ही कल्पना की है। मालतीमाधवम् का मंचन देखकर ही पार्वतीनन्दन आपसे रुष्ट हो गये हैं।’

भवभूति ने बात पूरी की -‘रुष्ट हो गये थे किन्तु अब नहीं हैं। सोचता हूँ ,कहीं हृदय में बदले की भावना न रखते हों।’

दुर्गा पुनः विषय पर आते हुये बोली- ‘हमें तो अपने गणेश की चिन्ता है। हमें लग रहा है गणेश का लग्न ऋचा के साथ ही करना पडे़गा। पार्वतीनन्दन जी का अधिक उम्र में विवाह ,वह भी विजातीय विवाह सेठ रामचरन की पुत्री से । उनकी पुत्री ऋचा हमारी पुत्रवधू बने यह आपको अच्छा लगेगा!

भवभूति ने उत्तर दिया- ‘हम दोनों भी तो अलग-अलग ब्राह्मण थे। मैं विदर्भ देश का ब्राम्हण, तुम यहाँ के सनाढ्य कुल में उत्पन्न। हमने कैसे विवाह कर लिया? विवाह के बाद स्त्री का कुल पति के कुल में समाहित हो जाता है कि नहीं ?’

उनकी यह बात दुर्गा को स्वीकार करना पड़ी- ‘हाँ, हो तो जाता है, पार्वतीनन्दन तो भृगु गोत्रीय ब्राह्मण है।’’

भवभूति ने अपनी बात रखी-‘ऋचा हमारे कुल में आकर कश्यप गोत्रीय हो जायेगी।’

दुर्गा ने प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दी-‘ ठीक है। हम तो लग्न के लिये तैयार हैं, लेकिन पार्वतीनन्दन हमारी बात पर सहमत हों तभी न । आपने तो मालतीमाधवम् में उन्हें खलनायक के रूप में प्रस्तुत करके अच्छा नहीं किया। किंचित नाम बदल देने से कोई अर्थ नहीं निकला। वे समझ गये हैं, आपका नन्दन पात्र, कोई और नहीं, पार्वतीनन्दन ही है।’

भवभूति बोले- ‘मालतीमाधवम् की नायिका भी तो तुम्ही हो, यह भी तो लोग जान गये हैं। ’

इस बात पर दुर्गा पुरानी स्मृतियों में खो गई। बोली- ‘ईश्वर, कवियों की दृष्टि से बचा कर रखंे, उन्हें अपनी बदनामी करने में भी संकोच नहीं लगता।’

भवभूति अपने अतीत के सागर में गोतें लगाते हुये बोले- ‘वो क्या दिन थे। अब तो बुढ़ापे ने दस्तक दे दी है। बाल सफेद होने लगे ।’

दुर्गा ने भी अपनी व्यथा उड़ेली-‘ हाँ, मैं तो अभी जवान ही हँू, देखते नहीं लावण्य कैसे निखर रहा है। बस आप ही बूढ़े हो रहे हैं।’

भवभूति अपने कर्तव्य की याद करते हुये बोले- ‘आज मुझे इधर-उधर नहीं, अपने प्रसंग पर ही रहना चाहिये। आज तो उत्तररामचरितम् के काव्य पर चित्त को पूरी तरह केन्द्रित रखना चाहिये।’ यह सोचते हुये वे अपने लेखन कक्ष में प्रविष्ट हो गये। दुर्गा उनके कार्य में विघ्न नहीं बनना चाहती थी, इसलिये वह ठिठक कर कक्ष के बाहर ही रह गई।

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