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अर्थतंत्र तथा अन्य कहानियां - रमेश उपाध्याय

अर्थ तंत्र तथा अन्य कहानियां श्री रमेश उपाध्याय का कहानी संग्रह
राजनारायण बोहरे
श्री रमेश उपाध्याय का कहानी संग्रह “अर्थ तंत्र तथा अन्य कहानियां “ उनका ग्यारहवां कहानी संग्रह हैं । वे हिंदी के ऐसे गंभीर कहानीकार हैं जो अपना लेखन एक कर्तव्य कार्य ड्यूटी की तरह करते हैं । उनका पहला उपन्यास उन्नीस सौ सड़सठ में आया था । अब तक उनके चार उपन्यास आ चुके हैं और दस कहानी संग्रह, हां उनका पहला कहानी संग्रह जमी हुई झील सन उन्नीस सौ उनहत्तर में आया था, तब से वे लगातार लिख रहे हैं । इस तरह सातवें दशक से आरंभ करने वाले हिंदी कथाकारों में वे ऐसे बड़े और समर्थ कथाकार हैं जो अपनी कहानी में कोई अनावश्यक शिल्पगत प्रयोग किए बिना कहानी लिखते हैं । समकालीन समय की घटनाओं को लेकर उनका हुबहू कहानी में चित्रण कर अपने विजन के आधार पर एकदम नयी कहानी लिखते हैं । उनका लेखन विशेष प्रकार का जाना जाता हैए दरअसल उनकी कहानियों की विशेषता एक विशेष तरह के दृश्य निर्मित करने में भी होती है, तो उनके संवाद भी बहुत ताकतवर होते हैं । शायद इस गुण के पीछे भी उनका सफल नाटककार होना है । हिंदी में जहां नाटक कम लिखे जाने की चिंताएं प्रकट की जा रही हैं , वहीं रमेश उपाध्याय ऐसे विरले लेखक भी हैं, जिन्होंने नाटक और नुक्कड़ नाटक भरपूर संख्या में लिखे हैं । उनका पहला ‘नाटक सफाई चालू है’ सन उन्नीस सौ चौहत्तर में छपा था । इसके बाद उनके तीन नाटक और छपे और बहुत से नुक्कड़ नाटक भी ।
प्रस्तुत कहानी संग्रह “अर्थ तंत्र तथा अन्य कहानियां “ उनका ग्यारहवां कहानी संग्रह है, यहां तक आते-आते लेखक न केवल शिल्प में ,बल्कि वर्तमान समाज की स्थितियों को बेहद सरलतम रूप् में रख देने और उनके भीतर चल रहे अनेक अन्तर्विरोधों और सत्य की परतों के वास्तविक कारणों को प्रकट करने में विशेशज्ञ हो गए हैं । प्रस्तुत संग्रह में सम्मिलित कहानियों को अगर हम देखें तो लगभग हर एक कहानी हमें विशिष्ट प्रकृति को परिभाषित करने वाली कहानी दिखाई देती है ।
इस संग्रह में कुंल चार लंबी कहानियां है ,इन कहानियों का स्वरूप् ऐसा है कि आसानी से उनका उपन्यास का विकास हो सकता है । क्योंकि इन लंबी कहानियों में न केवल संदेश बड़े व्यापक हैं, बल्कि कहानियों का स्वरूप भी विस्तृतहै । संग्रह की सबसे सशक्त कहानी स्पंदन है । यह कहानी पंडित राम नाथ शर्मा आयुर्वेदाचार्य और उनके बेटे बहू के बहाने जैनरेशन गैप और आध्ुानिक विरूद्ध प्राचीनता की कहानी है । रामनाथ शर्मा आयुर्वेद के गहरे जानकार हैं । वे चाहते हैं कि उनकी अगली संतान भी आयुर्वेद में नाम कमाए । उनकी संतान में उनका बेटा है जोंकि देर से जन्मा होने से सबका लाड़ला था, चंूकि उसकी मां चाहती थी कि एलोपैथी डॉक्टर बने, इसलिए उसका एमबीबीएस में प्रवेश कराया जाता है । एमबीबीएस कर रहे उनके बेटे चंद्रकांत ने अपने साथ पढ़ने वाली मंजुला तिवारी नमक सहपाठी से विवाह करने की इच्छा प्रकट की तो वैद्यजी ने बिना किसी परेशानी के इस विवाह की अनुमति दे दी । विवाह के बाद चंद्रकांत और उसकी पत्नी अपने छोटे कस्बे में लौटते हैं तो पंडित राम नाथ शर्मा उनके लिए अलग एक क्लीनिक बनाके देने के लिए निर्माण कार्य शुरू कर देते हैं । तब तक चंद्रकांत रामनाथशर्मा जी के औशधालय के आधे हिस्से में बैठने लगता है और यहीं से प्रकट होने लगता है कि वह अपने पिता रामनाथ शर्मा से अलग प्रकृति का आदमी है । जिन दिनों चंद्रकांत पिता के आधे औशधालय में बने अपने अस्थायी अस्पताल बैठता है तभी चंद्रकांत की पत्नी यानी वैद्य राम नाथ जी की पुत्रवधू मंजुला का ध्यान आयुर्वेद की तरफ जाता है । एलोपैथी से एमबीबीएस की डिग्री प्राप्त मंजुला को पंडित राम नाथ शर्मा का इलाज भाने लगता है,उसे लगता है कि एलोपैथी रोग का इलाज करती है, जबकि आयुर्वेद रोगी का इलाज करता है । एक ही बीमारी के आयुर्वेद में अलग इलाज हैं ,अलग पथ्य हैं, जबकि एलोपैथी में गरीब हो या अमीर सब का इलाज एक सा है , एक सी गोलियां है , एक सी दवाइयां है । पंडित रामनाथ शर्मा के साथ मंजुला उन मरीजों को देखने भी चली जाती है, जो दूर गांव में रहते हैं । विचित्र बात यह है कि पंडित राम नाथ शर्मा वहां साइकिल से जाते हैं तो मंजुला उनके साथ साइकिल पर बैठकर ही बैठकर जाती है । बाद में मंजुला के पिता को जब यह पता लगता है तो वे एक जीप अपनी बेटी या कहे अपने समधी को भेंट कर देते हैं । इधर चंद्रकांत शर्मा का अस्पताल तैयार हो चुका है और खुलने जा रहा है । इस अस्पताल का नाम स्पंदन रखा जाता है । स्पंदन में चंद्रकांत अपनी तरह से व्यवस्थाऐं लागू करता है , वहां मंजुला चाहती है कि आयुर्वेद का एक विशेष भाग बनाया जाए । चंद्रकांत साफ मना कर देता है, मंजुला जो शहरी माहौल में पलीबढ़ी बोल्ड लड़की है शुरू से ही चंद्रकांत को डोमिनेट करती है , उसके प्रस्ताव को चंद्रकांत अंततः टाल नहीं पाता और मान जाता है लेकिन इसके पीछे भी एक जुगाड़ देखता है । अपने पिता के मित्र जो वर्तमान में केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री हैं, उनके पास जाकर आयुर्वेद सेंटर के नाम से अनुदान ले आता है । इधर मंजुला उसके साथ काम करती रहती है लेकिन कुछ मुद्दों पर मतभेद होने के कारण वह उन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर नहीं करती, जो आयुर्वेद रिसर्च सेंटर के न्यास बनाने के लिए तैयार किए गए थे । फिर अपनी पत्नी की गैरजानकारी में चंद्रकांत न्यास बनाता है और दो कमरे का एक आयुर्वेदिक रिसर्च सैण्टर व अस्पताल अपने अस्पताल में ही डाल लेता है, जिसके लिए लाखों रुपए केंद्र सरकार से अनुदान लेकर आया था । चंद्रकांत का मंजुला से विवाद होने लगता है और मंजुुला अस्पताल को छोड़कर अपने ससुर रामनाथ शर्मा के आयुर्वेदिक चिकित्सालय में आधे हिस्से में अपना एलोपैथी का अस्पताल खोल लेती है और इलाज शुरु कर देती है । इस बार अस्पताल आधा-आधा हो जाने पर रामनाथ शर्मा बहुत खुश हैं, क्योंकि उनकी बहू उनके उत्तराधिकारी और बेटी की तरह काम करती है । उसकी भाषा , व्यवहार सब कुछ बेटी की तरह है, वह भारतीय परंपरा में चलती है । उधर चंद्रकांत अपने अस्पताल की एक जूनियर डॉक्टर के साथ रहने लगता है और उसकी दुनिया अलग बस जाती है । अद्भुत है यह कहानी एक अलग तरह की जेनरेशन गैप को लेकर आती है, जनरेशनगैप बाप और बेटे में तो है लेकिन ससुर और बहू में नहीं है । एक ही पीढ़ी का बेटा पिता का विरोधी है, उसी पीढ़ी की बहू अपने ससुर की अनुगामिनी और एक स्वर में बोलती है । भारतीय आयुर्वेद के लिए भारतीय परंपराओं के लिए उसके मन में बड़ा आदर है । यह कहानी बहुत इत्मीनान से धीमी गति से चलती है जो चंद्रकांत के जन्म से आरंभ होकर लंबे अंतराल को पार करती हुई चंद्रकांत के अपनी पत्नी से अलग होकर लिव इन में एक डॉक्टर के साथ रहने तक चलती रहती है। कहानी का द्वंद्व इन संवादों में कितना निखर के आता है-
नर्सिंग होम बनकर तैयार हो गया तो मंजुला ने वैद्यजी से पूछा, ‘‘पिताजी हम अपनी नर्सिंग होम का नाम क्या रखेंगे ?’’
वैद्य जी ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, ‘‘स्पंदन ! स्पंदन नर्सिंग होम। या स्पंदन चिकित्सालय !’’
चंद्रकांत नाक-भौं चढ़ा कर बोला, ‘‘स्पंदन? यह तो कविता की पुस्तक का सा नाम लगता है ,हिंदी की कविता पुस्तक का-सा । नर्सिंग होम का नाम तो अंग्रेजी में ही होना चाहिए ।’’
लेकिन मंजुला उससे सहमत ना हुई-‘‘ चंद्रकांत स्पंदन बहुत अच्छा नाम है । स्पंदन, यानी जीवन की धड़कन ...इसमें जीवन का पता चलता है.... और जीवित शरीर के स्वस्थ्य या अस्वस्थ होने का भी... कविता का-सा नाम है, तो अच्छा ही है । जीवन भी तो एक कविता है।’’
चंद्रकांत ने उसकी बांह पकड़कर उसे झककोरते हुए कहा, ‘‘यह सपने की-सी बड़बड़ाहट बंद करो और अंग्रेजी में कोई जोरदार नाम सोचो ।’’ पृश्ठ 37
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘‘अर्थतंत्र’’ एक परिवार की कहानी है, जिसमें दो भाई और एक बहन है । सतीश जो इस कथा का नायक है वह मद्रास में रहता है और वहां कोई छोटी नौकरी करता है । उसके भैया और भाभी दिल्ली में रहते हैं । भैया भाभी के साथ उसकी छोटी बहन भी रहती है रानी । किस्सा यूं है कि सतीश भैया और रानी के पिता कारपोरेशन में क्लर्क थे और पहाड़गंज में उनका अपना मकान था, वहां वे लोग अपने सुख से रहते थे । भैया की शादी हुई तो भाभी एक बड़े परिवार से आई थी, भाभी के पिता को लगा कि दामाद की नौकरी छोटी है तो उन्होंने भैया को अपने प्रभाव से बड़ा पद दिला दिया । अब नौकरी बड़ी हो गई तो मकान नहीं बना चाहिए था ,तो सब विचार करने लगे कि पुराना पहाड़गंज का मकान बेचकर नया मकान नई कॉलोनी में ले लेते हैं । पहले रानी और सतीश भी पुराना मकान बेचने का मना करते रहे । मां तो बिल्कुल खिलाफ थी । बाद में रानी और सतीश ने नया मकान देखा तो खुश हो गए और भी मां को मनाने लगे । मां ने बहुत मजबूरी में मकान की रजिस्ट्री पर दस्तखत किए लेकिन अपने पेट के जायों को कोसती रही । जो पैसा मिला उसमें कुछ कम पड़ रहे थे तो भाभी के पिता ने कुछ कर दिया- वह भी इस शर्त पर कि मकान भाभी के नाम पर होगा और यह नया मकान भाभी के नाम पर हो गया है । अब जब भी कोई इस मकान को खानदानी बताता है तो भाभी नाराज हो जाती हैं और जब इस मकान की बात करते हैं तो वे लोग कहते थे हैं -काहे का हिस्सा यह मकान खानदानी नहीं है, खानदानी मकान पहाड़गंज का था, जो डेढ़ लाख में बिका था और उसमें सो आप दोनों के पचास -पचास हजार बनते हैं तो आज भी देने तैयार है । कहानी का मुख्य तात्कालिक मुद्दा यह है कि रानी कहीं विवाह करने वाली है तो उसकी इच्छा है कि वह अपने खानदानी मकान से यानी खानदानी संपत्ति से अपना हिस्सा ले या मकान ले । भैया भाभी की इच्छा है काहे का खानदानी मकान? कोई पैतृक जायदाद ही नहीं है, तो किस बात का पैसा ?
यह सब विवाद सतीश के साथ भी हो चुका है ,जब सतीश का वंदना के साथ प्रेम था । वंदना दिल्ली की लड़की थी और वंदना ने हीं कहा था कि तुम अपने घर में हिस्सा लो, तो सतीश को भी वही जवाब मिला था जो अब रानी को मिल रहा है । सतीश जब से मद्रास से आया है तो वह देख रहा है, इस घर में सब चीजें पैसों को लेकर हैं । आपसी प्रेम भी पैसे को लेकर है, साढे चार साल की बेबी भी कहती है कि मुझे मां से नहीं रानी आंटी से प्रेम है, रानी बुआ से प्रेम इसलिए है कि महंगे खिलौने दिलाती है महंगे कपड़े दिलाती है और मां कम कीमत के कपड़े चलाती है । इसलिए वह जब यह कहती है ,मां को यह बात बुरी लगती है । सतीश देखता है कि बाथरूम में सबके अपने-अपने साबुन है । उसे अपना पुराना मकान याद आता है ,पुराना घर याद आता है, जब एक ही टूथपेस्ट से सब लोग पेस्ट निकालते थे ब्रश सब के अलग-अलग होते थे । वह पैसे को महत्व नहीं देता, इसलिए वंदना की बेरुखी के बाद दिल्ली छोड़कर मद्रास नौकरी करने चला जाता है । रानी के कहने पर सतीश कहता है -
‘‘मैं अपना हिस्सा तोचाहता था लेकिन परिवार से अपना संबंध खत्म करके नहीं । अभी मैं दूर मद्रास में रहता हूं लेकिन यह अहसास बना रहता है कि दिल्ली में मेरा घर है । अपना हिस्सा लेकर अलग हो गया होता तो यहां मेरा क्या रह जाता ।’’
रानी को सतीश वंदना के बारे में मालूम था उसी की याद दिलाते हुए उसने कहा ‘‘लड़कर अपना हिस्सा ले लिया होता, तो यही अपना घर बसा चुके होते । मद्रास जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती ।’’
सतीश कहना चाहता था कि ‘आर्थिक संबंधों की नीव पर खड़े अपने इस घर का हाल में देख रहा हूं । ऐसा घर मुझे नहीं चाहिए । कवि बसा सका तो मैं अपना घर प्रेम की ही नींव पर खड़ा करूंगा।’ मगर उसने कुछ कहा नहीं । पृश्ठ 24 अर्थतंत्र नाम की यह कहानी उस अर्थतंत्र की कहानी है, जो हमारे समाज में और हमारे परिवारों में व्याप्त हो गया है । हर आदमी एक दूसरे को पैसे के ही नजरिए से देखता है । सारे रिश्ते सारे संबंध पैसे को लेकर, गिफ्ट को लेकर होते हैं , एक संपूर्ण भारतीय समाज एक संपूर्ण भारतीय परिवार की कहानी है । इसे घर घर की कहानी भी कहा जा सकता है, जिसमें एक भाभी है, जो मायके का रोब दिखाती है ,एक भैया हैं जो प्रेम भी करते हैं और पत्नी को गुस्सा भी नहीं होने देना चाहते ,लक्ष्मण की तरह देवर है जो गुस्सा ना हो जाए तो बाहर रहता है और इसमें सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है रानी का । रानी यानी हमारे देश की हमारे समाज की आगे बढ़ती नई पीढ़ी की वह लड़की जो जरूरत पड़ने पर अपने पिता के ज्यादा से हिस्सा लेने में नहीं हिचकती, क्योंकि उसे पता है कि उसकी मां अगर नाना के संपत्ति और जायदाद से हिस्सा ले चुकी होती तो इस घर के दुख दलिद्दर कब के दूर हो गए होते । इस तरह ना कहते हुए भी एक बड़े मुद्दे की बात कहती हुई यह कहानी रमेश उपाध्याय जी की भारतीय समाज परिवार की एक बड़ी कहानी है ।
संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी फासी-फंतासी है । फासी-फंतासी अर्थात फासीवादी और साथ में फंतासी या फैंटेसी की कहानी है यह । यह कहानी भी लंबी कहानी है ,क्योंकि उपाध्याय जी ने यह विषय ऐसा पकड़ा था जो बहुत व्यापक तौर पर परिभाषित किया जाना था । इसलिए इस कहानी को उन्होंने बहुत इत्मीनान से और पूरे तैयारी के बाद लिखा है । यह कहानी लगभग तैंतीस पेज की कहानी है । फासी-फंतासी अपने संदेश में दरअसल फासीवाद से जुड़ी हुई ऐसी कहानी है जो रमेश उपाध्याय के बड़े विजन और सोच को साफ-साफ दर्शाती है । अपनी विचारधारा में मूलतः वामपंथ बल्कि कहा जाए कि सही सोच साफ सोच, मौलिक जानकारी और बौद्धिक समृद्धि युक्त एक लेखक की लिखी कहानी, इस युग में जैसी होना चाहिए यह उसका सीधा सीधा प्रतीक रमेश उपाध्याय जी की कहानी फासी फंतासी है । दरअसल यह कहानी उन दिनों की है जब बाबरी मस्जिद का ध्वंश हो गया था और समाज में वर्गों के बीच में विद्वेष पढ़ रहा था । मूलतः तो यह कहानी उन्नीस सौ छियासी की लिखी हुई हैै, जब मंडल कमंडल का दौरादौर था, जब पिछड़े वर्ग को समाज में नई जगह मिली थी और अगड़ा वर्ग यानी सवर्ण इस योजना के खिलाफ थे । राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग द्वारा दी गयी जो रिपोर्ट लागू की थी, उसमें पिछड़े वर्ग को अलग से आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, जिसके विरुद्ध स्वर्ण वर्ण के लड़के कहीं प्रदर्शन कर रहे थे कहीं विरोध कर रहे थे और कहीं आमरण अनशन या आत्मदाह भी कर रहे थे । उस दौर की उस संवेदना की कहानी होने के साथ-साथ यह कहानी उस दौर के समाज में उठ रहे आपसी भेदभाव की कहानी भी है । कहानी यूं है कि एक सुंदर और मेधा वती छात्रा वंदना शर्मा का सुनील वर्मा नाम के युवक से प्रेम हो जाता है । सुनील वर्मा पिछड़ी जाति का है । वह बीए से लेकर एम ए की कक्षा में आने तक हॉस्टल में रहा था लेकिन हॉस्टल में आए दिन अगड़ोें और पिछड़ों का झगड़ा होता था, इस वजह से वह हॉस्टल में रहने की कल्पना से बड़ा परेशान था । वंदना शर्मा के प्रस्ताव पर वह वंदना के घर जाता है और उनके मां और पिता को अपना नाम रमेश शर्मा बताता है । वे लोग बहुत स्नेह पूर्वक आसानी से उसे अपने मकान की छत पर बनी प्रसादी में किराए से रहने के लिए अनुमति दे देते हैं । सुनील वर्मा रहने लगता है और उसी घर मेंउसे भोजन मिलने लगता है । महाविद्यालय के प्राध्यापक मनुमहाजन जो हिंदी पढ़ाते थे, उनका प्रिय शगल था कि वह छात्राओं को आंख गढ़ा कर देखा करते थे और अपने विषय से हटकर अवांतर बातें करना उनका प्रिय शगल था । अगड़ी पिछड़ी जातियों के खूब बातें करते थे यानी कि वे पिछड़ी जातियों को आरक्षण के सीधे खिलाफ है । एक बार वह कक्षा में पिछड़ी वर्ग की बुराइयां कर रहे थे ,आरक्षण की बुराई कर रहे थे कि उनको वंदना शर्मा से पूछा कि ‘ सर फासिज्म को हिन्दी में क्या कहते हैं ?’ दरअसल यह सवाल वंदना के पड़ोस में रहने वाली प्रमिला बहन जी ने, जो सामयिक समस्याओं पर लेख-वेख लिखती रहती थीं,उससे पूछा था कि ‘ ‘फासिज्म’ को हिन्दी में क्या कहते हैं ।और यह भी कि रावण को फासिस्ट कहा जा सकता है या नहीं?
वंदना ने अपने हिंदी प्राध्यापक मन से पूछा । मनु महाजन ने म नही मन उत्तर टटोलते हुए उन्होंने इटली-जर्मनी और हिटलर-मुसोलिनी के बारे में कुछ बताया। लेकिन वे बहुत ज्यादा आधिकारिक जानकारी नहीं रखते थे । तो हड़बड़ी में हिटलर को इटली का तथा मुसोलिनी को जर्मनी का शासकी बता गए । वंदना शर्मा ने उनकी भूल सुधारने का प्रयास किया तो वे क्रुद्ध हो गए और बोले, ‘ बैठ जाइए! एक तो आप विशयांतर करती हैं, उपर से टोकाटाकी भी करती हैं।’
वंदनाशर्मा बैठी नहीं। उसने कहा ‘ विशयांतर तो चल ही रहा है सर! अन्यथा मध्यकालीन काव्य की कक्षा में आरक्षण पर भाशण क्यों होता!’’ पृश्ठ 53
....और यहीं से भी वंदना शर्मा और सुनील वर्मा के खिलाफ हो गए । उन्होंने अपने कुछ शिष्य इन दोनों के पीछे लगा दिए जो इन्हें चाहे वह चाहे गाहे-बगाहे तंग करते थे । इधर वंदना शर्मा जहां रहती थी, उसके ठीक पास में एक घर में बनाया गया मंदिर था, मंदिर का पुजारी चतुरानन पाठक पहले तो सीधा था और लेकिन जब मंडल कमंडल यानी कमंडल वाला राम मंदिर वाला प्रसंग उठा तो सारे मंदिरों के पुजारी मंदिर वादी हो गए और अपने आप को कुछ विशेष समझने लगे तो वह पुजारी भी, उनकी नियत वंदना के पिता के मकान पर पड़ी तो पहले उन्होंने मकान खरीदना चाहा बाद में अपने बेटे से वंदना के ब्याह का प्रस्ताव रखा जिसे वंदना के पिता ने अस्वीकार कर दिया । पुजारी से ज्यादा उनका बेटा गजानन पाठक अपने आपको खास समझने लगा। मंदिर के पुजारी का लड़का गजानन रौब जमाने लगा । मंदिर में देर देर तक लाउड-।स्पीकर माईक भजन बजने लगे मंदिर का एक माइक तो सीधा वंदना शर्मा के घर की तरफ होता था और उनकी छत पर कचरा फेंक देते थे जिसमें कई बार उपयोग किए गए कण्डोम भी होते थे । विश्वविद्यालय आते जाते गजानन व उसके दोस्त वंदना के साथ छेड़छाड़ करते थे, जिसके कारण वंदना शर्मा परेशान होती थी। सुनील वर्मा रहने आए तो अपने दोस्तों के साथ मंदिर के पुजारी को इस भाषा में समझा दिया कि अब हम मंदिर में बैठकर लंबा भजन करेंगे , भजन करेंगे, मंदिर में बैठंेगे तो पुजारी कुछ कह नहीं सका । भाई नियत समझ गया था । इसका असर यह हुआ कि उसने अगले दिन से ही बड़े स्वर में बजाने वाले सारे माइक बंद कर दिए ,बंदना शर्मा और उसके परिवार को राहत मिली । लेकिन एक दिन मनु महाराज के चेले वंदना शर्मा के पिता को सुनील वर्मा की असली जाति बता कर भड़का जाते हैं तो घर मे ंतनाव हो जाता है। सुनील वर्मा देखता है कॉलेज में हड़ताल होती है । सुनील वर्मा परेशान है कि उन्ही दिनों उसको एक आरक्षण समर्थक अखबार काम पर रख लेता है, वह पार्ट टाइम पत्रकार बन जाता है। एक दिन गजाननशर्मा के साथी उसे घेर कर धमकी देते हैं कि वंदना का ख्याल छोड़ कर घर वापस चले जाओ अन्यथा साम्प्रदायिक हिंसा में सम्मिलित बना कर मार दिये जाओगे, सुनील बहुत घबरा जाता है। वंदना के पिता और सुनील देश की कानून व्यवस्था से बेहद निराश है। सुनील वर्मा वोट क्लब की रैली का अपने अखबार के लिए कवर करने के लिए गया था कि उसने देखा कि वहां गोली चल गयी और जान बचाने के लिए वह संसद मार्ग पर आ पहुंचा । अचानक उसे अहसास हुआ कि जोर की पेशाब लगी हुई है, जब वह मूत्रालय के पास गया तो उसने देखा कि अंदर कोई है और बड़े जोर से मूत रहा है जैसे कोई पाईप खुला हो जो रूकता है और फिर आरंभ होजाता है कि आखिर हौज पाईप की सी धार की आवाज रूकती है और वह तेजीसे अंदर घुसा कि वहां खड़े आदमी ने फिर से मूतनाशुरू कर दिया। देखते देखते इस तेज धार से मूत्रालय की दीवार उखड़ी, टाइलों सहित कुछ ईंटे निकल कर बाहर की तरफ जा पड़ी और पेशाब की की मोटी धार संसद मार्ग पर भागती हुईै भीड़ पर गिरने लगी। यह क्या बदतमीजी है कि उसके सवाल से पर जो आदमी सामने आकर निकलता है वह रावण है, दस सिरों और बीस भुजाओं वाला राक्षस। सुनील वर्मा को अधीवस्त्र निकाल कर अपनी बीस टांग और दस लिंग भी बताता है। उसके साथ किये गये सवाल जवाब वह अपने टेप रिकॉर्डर में टेप कर लेता है लेकिन फोटो नहीं ले पाता । सारी सामग्री लेकर वह अपने संपादक को देता है तो संपादक को विश्वास नहीं होता कि रावण धरती पर आ गया है और अपने पूरे शरीर के साथ । जब यह घटना सुनील वर्मा वंदनाशर्मा के पिता को बताता है तो वे कहते हैं- हां यही है पिरामिड का शिखर....नंगा , बेशर्म और भयानक! ल्ेकिन यह अपने ही भार से टूट रहा है.... टूट-टूट कर नीचे वालों पर गिररहा है.... सबको रौंदता और कुचलता हुआ।’’ बाद में वंदना के साथ मूवी देखने के लिए पहले जाकर टिकट लेकर इंतजार करते सुनील वर्मा वंदना के न आने पर घर लौटता है तो पता लगा है कि ,वंदना शर्मा को उठा लिया जाता है और सब लोग जब तलाश कर केथाने जाने की तैयारी कर रहे होते हैं तो देर रात दी बजे कार आती है जो वंदना शर्मा को घर के सामने फेंक कर चली जाती है । लुहूलुहान और बेहोश वंदनाशर्मा का अस्पताल में इलाज के दौरान डॉक्टर कहता है किे यह तो सामूहिक बलात्कार का मामला है फिर उसने वंदनाशर्मा के होश मे ंआते ही उससे पूछता है ‘कितने आदमी थे ? तो वह कहती है ‘एक’ और बेहोश हो जाती है। डॉक्टर सुनील वर्मा से कहती है कि पुलिस कक्ष में जाकर बोलिए कि एक मरीज का बयान लेजा है तो सुनील वहां से भाग निकलता है और अपने एक दूर के भाई को खोखा भाई के घर यमुना-पार गांधी नगर की घनी बस्ती में चला जाता है जो तो खोखा भाई कहता है कि ... तुम उसके पास हने की बजाय यहां भाग आए ?धिक्कार है! खोखा भाई उसे शर्मिंदा करते हैं तो वह लौट कर वापस आता है ।
उद्घाटन कहानी कला और कला के व्यापार की कहानी है । हां कला का व्यापार कहा जाएगा, जब पेंटिंग बिकने बेचने और उसके मार्केटिंग करने की बातें होती हांे । कहानी के मुख्य नायक भास्कर सारस्वत हैं जो अपने चित्रों पर अपना नाम संक्षेप में भा0 सा0 लिखते हैं और बहुत से लोग उनको भाई साहब कहते हैं क्योंकि भा0 सा0 का अर्थ बोलचाल में यही निकलता है । भा0सा0समर्पित वामपंथी चित्रकार है जो अपनी पैंटिंग को बेचने में विश्वास नही करते , आंदोलन के लिए नारे लिखने में वे लज्जित नही होते । उनकी बहन ने एक अपने मित्र शाहिद भाई से शादी की है जो दूरदर्शन में कलात्मक चीजें प्रस्तुत करते हैं । एक दिन शाहिद भाई का फोन आता है कि भास्कर सारस्वत को सुरजीत की कला प्रदर्शनी का उद्घाटन करना है । अब भास्कर सारस्वत बड़े परेशान होते हैं उन्होंने सुरजीत के बनाए चित्र देखे थे -सुरजीत न्यूड पेंटिंग करता है । उसे रंग पोती कहते हैं । फोन पर शाहिद को मना करते हैं कि नहीं जाऐंगे पर शाहिद के कहने पर उनकी पत्नी का मुंहबोला भाई सुरजीत उन्हें आमंत्रित करने आता है तो वे नानुकुर करते रहते हैं फिर सुरजीत के जाने के बाद वे सोच में थे कि यकायक नई बात मस्तिश्क में आती है-
अचानक उन्हे दूर कहीं एक छोटी सी रोशनी झिलमिलाती दिखाई दी। उसे ध्यान से देखा तो एक दृश्य स्पश्ट हुआ: भा0सा0 सुरजीत की प्रदर्शनकी का उदघाटन कर रहे हैं और शाहिद भाई दूरदर्शन के लिए उसकी वीडियो-रिकार्डिंग करा रह हैं। वाह, क्या बात है! चित्रकार सिख, उदघाटनकर्ता हिंदू और दूरदर्शन का प्रोडयूसर मुसलमान! धर्म निर्पेक्षता और सांप्रदायिक सदभाव की कैसी अनोखी घटना ! जिस देश में ऐसी घटनाएं घटित हो सकती हैं, वहां सबकुछ ध्वस्त नही हो सकता! है, आशा की एक किरण है और वह यही है।’पृश्ठ 139
आखिर भास्कर बड़े तैयार हो कर प्रदर्शनी का उद्घाटन करने जाते हैं कि वहां अखबार होंगे मीडिया होगा और उद्घाटन के बाद दारू शारु की पार्टी भी होगी। उन्हें गाड़ी लेने के लिए जो आती है ,बड़ी खटारा गाड़ी है और सुरजीत ने जिस पड़ोसी लड़के को लेने भेजा है वह पेंटिंग में हाथ आजमा रहा है उद्घाटन करते समय देखते हैं कि कमरे के अंदर जहां सुरजीत के चित्र टंगे थे कोई भीड़भाड़ नही थी। सहमे-सकुचाये-से पांच-सात व्यक्ति खड़े थे, जिनमे ंसुरजीत के अलावा तीन और सिख थे। उनमें एक सुरजीत के वृद्ध पिता थे और दो छोटे भाई।शेश लोग सुरजीत के मित्र-परिचित आदि थे।आदि थे। भा.0सा0 जहां कुछ बोलने का मन बना कर गये थे । लेकिन सुरजीत ने उनसे बोलने के लिए नहीं, अपने छोटे भाइयों से शीतल पेय की बोतलें खोलने के लिए कहा। उधर बोतलें खुलीं इध्णर वहां उपस्थित उस एक मात्र नारी ने उसी कैंची से, जिससे भा0सा0ने फीता काटा था , बेफर्स केएक पैकेट का उदघाटन किया और हवा जैसी हल्की आलू की चिप्पियों को एक प्लेट में भर कर भा0सा0 के सामने ले आई। सुरजीत के एक भाई ने उन्हें शीतल पेय की बोतल पकड़ा दी। अंत में घर वापस चलने की बात करते हैं तो सुरजीत के पड़ोस वाला लड़का कह देता है कि उसकी गाड़ी खराब हो गई है, अगर ठीक होती तो दूरदर्शन जाकर शाहिद भाई उनकी टीम को ले आता । भास्कर सबसे ज्यादा दुख ना आने का है , सुरजीत ₹50 का नोट देकर अपने पड़ोस के लड़के से कहता है कि ऑटो करके जा और भाई साहब को घर तक छोड़ कर आ । बड़े दुख ही उदास से भास्कर चलते हैं तो उनको दिया गया स्वागत के समय दिया गया बुके काउंटर पर बैठने वाली लड़की उन्हे पकड़ा दिया, जिसे हाथ में लेकर बैठ जाते हैं । घर पहुंच कर बच्चों को खुद पर हंसते हुए सारा प्रसंग सुनाते हैं और बड़े मन ही मन दुखी होते हैं कि अचानक शाहिद भाई गाड़ी घर पर आती है । शाहिद भाई बताते हैं उनको आने में देर हो गई थी इसलिए वीडयों शूटिंग टीम नहीं ला पाए थे । टीम कल दोबारा लाएंगे और उन्हें दोबारा आना होगा । शाहिद भाई इस कहानी में एक प्रेक्टिकल कलाकर्मी हैं तो सुरजीत आधुनिक पीड़ी का न्यूट चित्र बनाने वाला आर्टिस्ट और भा0सा0उस कमिटेड पीड़ी के कलाकार हैं जो सोवियत संघ के विघटन के बादभी अपना वामपंथी रूझान और मूल्य नहींछोड़ते।
“मध्यस्थ” कहानी समाज में बढ़ रहे विरोध परस्पर विरोध , विद्वेष और घटते जा रहे इस सांप्रदायिक सौहार्द की कहानी है । एक बुजुर्गबार एक बस में चढ़ते हैं तो उनके शब्दों और पोशाक से ही लेखक बताते हैं कि वे मुस्लिम बुजुर्ग हैं । उस दिल्ली ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन की बस में सारा स्टाफ हिंदू है । लेखक बहुत सावधानी से कहीं नहीं बताते कि वह हिंदू हैं, लेकिन उन बुजुर्गबार के साथ किया जा रहा बदत्तमीजी का व्यवहार,अपमान जनक बर्ताव किया जाता है। गाड़ी का कंडक्टर और ड्राइवर का बर्ताव ही यह सिद्ध करता है कि वह हर स्तर पर उन बुजुर्ग को अपमानित करना चाहते हैं । बहस इस बात पर होती है कि जब कंडक्टर टिकट के पैसे काट कर खुल्ले पैसे देता है तो पांच रूप्ये का नोट फटा हुआ दे देता है , बुजुर्ग कहते हैं कि नोट फटा है तुम्हारे पास अच्छे नोट है एक अच्छा दे दो,तो बदतमीजी से वह नोट वापस लेकर और ज्यादा फाड़ कर वापस कर देता है । बुजुर्गबार गुस्सा होते हैं , चिल्लाते हैं ,लेकिन ताज्जुब की बात है कि दिल्ली जैसे जागरुक शहर में पूरी बस के यात्रियों में से कोई भी व्यक्ति उनके पक्ष में बात नहीं करता । एक बुजुर्ग व्यक्ति से बदतमीजी से बोलते कंडक्टर को नहीं रोकता । विवाद ज्यादा बढ़ता है तो एक व्यापारी उठकर आता है और कहता है लाओ फटा नोट मुझे दे दो और अच्छा नोट देता हूं ,अच्छा नोट लेता है वापस चला जाता है । नोट देकर वापस चला जाता है और अपनी जगह बैठ जाता है । कहानी का शीर्षक है मध्यस्थ ! सचमुच हमारे समाज में ऐसे मध्यस्थ पैदा हो चुके हैं जो इस तरह के झगड़ों को निपटाने के लिए अपनी जेब तो खोलते हैं लेकिन ऐसे सांप्रदायिक विद्वेष का विरोध नहीं करते , एक शब्द भी नहीं बोलते । भरी हुई बस में हर वर्ग का व्यक्ति है, लेकिन एक बुजुर्ग व्यक्ति से बदतमीजी का विरोध करने वालों से न्याय की कोई बात नहीं करता । क्योंकि बुजुर्ग व्यक्ति अल्पसंख्यक से है । इस तरह यह कहानी हमारे समाज में फैल रहे विद्वेष का एक और दृश्य उपस्थित करती है ।
इस संग्रह की अन्य कहानियां भी समकालीन समाज का दर्पण ही कही जा सकती है । रमेश उपाध्याय के इस संग्रह के अधिकांश कहानियां वर्तमान युग के उस स्वरूप को दर्शाते हैं, जहां एक परिवार की तरह आपसी सामंजस्य और सौहाद्रय से रहते समाज को अलग-अलग नामों से बांटा गया , कभी जाति के नाम पर कभी अगड़े व पिछड़े के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर, कभी बहुसंख्यक के नाम पर कभी अल्पसंख्यक के नाम पर ।
रमेश उपाध्याय के इस संग्रह अर्थतंत्र और अन्य कहानियां के चरित्र बड़े सोच समझकर रचे गए हैं , वे कोई कल्पित कृत्रिम व्यक्ति नहीं है, कोई फर्जी प्यादे और कठपुतली नहीं है, बल्कि इसके चरित्र जीते जाते चरित्र हैं । जो हमको अपने वर्ग की नुमाइंदगी करते प्रतीत होते हैं । अजंता , सतीश और रानी हमारे सामने उन युवाओं के प्रतीक हैं, जिनके घर-भाइयों ने अपनी संपत्ति पर कब्जा कर लिया है और वे अपने हिस्से की बात भी नहीं कर पाते । फांसी-फंतासी के मनु महाजन पुजारी का बेटा उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं , जो इस देश में एक फासीवादी समाज के रूप में न केवल सक्रिय कर रहे हैं बल्कि समाज में जहर भी घोलते जा रहे हैं । तो वंदना शर्मा समाज के सामान्य व्यक्तियों के प्रतीक हैं जिन्हें यद्यपि किसी विद्वेष से कुछ नहीं लेना और ना किसी वर्ग से कुछ लेना है । लेकिन जो अकारण ही वर्ग विद्वेष की लड़ाई में जाते हैं , सुनील वर्मा पिछड़े वर्ग से आए हुए सत्संग घर का ही प्रतीक है जो धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है पर मन से सशंकित हैं। इनके अलावा स्पंदन कहानी के चरित्र चंद्रकांत और मंजुला भी बड़े यादगार चरित्र हैं , जहां आयुर्वेदाचार्य रामनाथ जी पुरानी पीढ़ी के प्रतीक हैं, वही चंद्रकांत नई पीढ़ी के डॉक्टर और चिकित्सकों का सीधा सीधा प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें किसी भी हालत में धन कमाना है ,संपत्ति बनाना है और यह एक विशेष बात है कि उपाध्याय जी ने यहां मंजुला नाम का अदभुत चरित्र रचा है ,जो जनरेशन गैप से अप्रभावित है । अपनी भारतीय परंपराओं की ओर मुखातिब होता है यह चरित्र ही दिखाता है।
इस संग्रह की कहानियों में जैसा कि रमेश उपाध्याय जी की कहानियों का शिल्प होता है कोई चमत्कारिक प्रयोग नहीं किए हैं , कोई ऐंडे़ वेंड़े या टेढ़े मेढ़े प्रयोग न करके उन्होंने बहुत सामान्य गति से कहानियां कहीं हैं जो अपने उद्देश्य पर जाकर पूरी होती हैं और अधिकांश कहानियां बहुत विस्तार से कही गई हैं । केवल फासी-फंतासी कहानी में ही नाम से जाहिर फंतासी लाने के लिए एक मजेदार चरित्र लाया गया है जो कि समाज के दशानन मे ंबदलते जाने का संदेश देती है।
हर कहानी में लेखक का पक्ष साफ साफ प्रतीत होता है । पाठक समझ जाता है कि यह लेखक का पक्ष इन कहानियों में किनके साथ है। एक विशेष बात है कि सब का कथ्य सबका कथा स्थल सब कहानियों का घटना स्थल दिल्ली है, दिल्ली जो हमारे देश की धड़कन मानी जाती है, जागरूक समाज का एक बड़ा शहर मानी जाती है । वह इस जगह मौजूद है, इन कहानियों में मौजूद है । अर्थतंत्र और अन्य नवें दशक में समाज में आए बदलाव का साफ साफ चित्र प्रकट करती हैं इसलिए इन्हें एतिहासिक कहानियों की श्रेणी मे ंरखा जायेगा। ़