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मुकदमा

छोटा सा कमरानुमा सिलनयुक्त कोर्ट रूम, मुज़रिम व मुज़रिमों को पेशी पे मिलने आये स्वजन. भीड़-भाड़ से गचागच था यह बदबूदार कमरा. एक नाज़िर, जज के स्टेज के ठीक नीचे टाइपिंग मशीन लेकर बैठा हुआ. और एक दरबान ऊपर खड़ा, जो बिलकुल भी सिनेमा में दिखाये जाने वाले दरबान जैसा नहीं लग रहा. और न ही अदालत का वह रूम ही भव्य आलिशान था जैसा की सिनेमाओं में दिखाया जाता.

तीन-चार मुज़रिमों के पेशी के बाद फुलिया देवी पेशी के लिए बुलायी गयी. वह वहीं बाहर बैंच पर रस्सियों से बँधी एक सिपाही के साथ बैठी थी. अपने मटमैले साड़ी के पल्लू से माथा को ढ़ाँपते हुए वह सिपाहियों के साथ ही कटघरे में जा खड़ी हुई.

दोनों पक्ष के वकील आ चुके थे. विपक्ष में शहर के जानेमाने क्रिमिनल लॉयर थे और फुलिया के पक्ष में सरकारी वकील. दोनों वकीलों ने केस के विभिन्न पक्षों को रक्खी.

फुलिया मुसहर पर आरोप था कि उसने अपने मुखिया पद का नजायज फायदा उठाते हुए भूतपूर्व मुखिया बाबू कुँवर सिंह जी की पत्नी अन्नसुईया देवी को पीट-पीट कर हत्या कर दी है. कारण वह भूतपूर्व मुखिया जी के संग नजायज संबंध बनाना चाहती थी. जिसका विरोध जब अन्नसुईया देवी ने किया तो फुलिया ने उनके संग बदतमीज़ी की. जब बात अधिक बढ़ गयी तो फुलिया मुसहर ने उन्हें मारा-पीटा व हत्या कर दिया.

साथ ही कुछ अन्य आरोप भी लगे थे. ममला जितना संगीन उतना ही भयानक भी था. शायद पहली बार किसी पुरुष के द्वारा महिला पर मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था व हत्या के साथ ही महिला के चरित्रहीन होने का दावा भी की जा रही थी.

पुलिस रिपोर्ट के साथ मेडिकल रिपोर्ट भी दर्ज कराया गया. केस को और धारदार बनाने के लिए विपक्षी दल के वकील ने फुलिया के पति से भी फुलिया के खिलाफ़त में गवाही करवा दिया.

उसके पति ने तो स्पष्ट तौर पर कह दिया था कि "जब से वह मुखिया बनी है तब से वह छिनाल होने की सभी हदें पार कर रक्खी है. चरित्रहीन तो पहले से हीं थी. लुक्का-छिप्पी करके जहाँ-तहाँ मुँह मारना तो फितरत में था ही मगर पद मिलते ही यह औरत बेहया कुत्तिया की तरह कहीं भी साड़ी उघारती फिरती है".

फुलिया के पति का उसके विरोध में गवाही देना उसके पुरुष मन का कुंठा था या ऊँची जाति वालों के दवाब का परिणाम कहना मुश्किल है. किंतु सत्य तो यही है कि फुलिया भले हीं हरिजनों को मिले आरक्षण के तहत मुखिया बन गयी थी. परंतु उसके परिवार के सभी सदस्य अभी भी बाबू कुँवर सिंह के रैयत हीं है. उनकी खबासी करना हीं उनका पेशा और कर्तव्य था.

जज ने दोनों पक्षों को सुना समझा और अब फुलिया मुसहर हो अपना पक्ष रखने को कहा.

दो मिनट मौन रहने के बाद फुलिया पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली -"माई-बाप! मैं नहीं जानती मेरे साथ ये सब क्या हो रहा है? या इस मुकदमे का क्या परिणाम होगा? परंतु इस बात का हमेशा दुख रहेगा कि मैं इस समाज के उस कुंठित भावना को दूर करने में असफल रही जिसके लिए सरकार ने मुझ जैसे जाने कितने ही पिछड़े-कुचले, समाज के मुख्य धारा से अलग-थलग महिलाओं-पुरुषों को आगे बढ़ाने के लिए जो योजनाएं लायी है. वह वास्तविकता के धरातल से बहुत ही दूर है".

दो मिनट पुनः मौन रहने के बाद बोली - "माई-बाप हम तो अछूत पिछड़े वर्ग के हैं. पर जो सामान्य वर्ग के महिला मुखिया-सरपंच समाज द्वारा बनायी जाती वे भी बहुत ज्यादा अच्छी नहीं. उनसे बेहतर तो हम हीं हैं जो स्वतंत्र हो खेतों में घूम तो सकते हैं वो तो ये भी नहीं कर सकती.
हमारे भूतपूर्व मुखिया जी ने सही कहा कि मैं उनसे कुछ चाहती थी परंतु उन्होंने ये नहीं कहा कि वे क्या चाहते थे.
पिछले बीस वर्षों से मैंने इनकी जाँघे सहलाती आयी हूँ तब तो कभी इनकी पत्नी ने कभी विरोध नहीं किया फिर उस दिन उनको कौन से पतिधर्म याद आ गया जो वे विरोध करने आयी.
यदि हम इनकी बातें न माने तो हम डायन, छिनाल, कुलटा हो जाते हैं और यदि माने तो हम हीं सति सावित्री हो जाएं. पर क्यों? और कब तक?

दरसल बात ये नहीं थी कि उन्हें कोई धर्म याद आ गया या मैंने उन्हें मारा-पीटा, बात तो यह थी कि मुखिया जी गाँव के सड़क का, बारात घर का, स्कूल मरम्मत का इत्यादि-इत्यादि जाने कितने ही योजनाओं का पैसा डकार चुके हैं वो भी मेरे हस्ताक्षर से पर उस दिन जब मैंने मिड डे मिल के लिए आये अनाजों के कागज़ पर हस्ताक्षर करने से मना किया तो इन्होंने अपना रूआब जमाते हुए मुझे मारा-पीटा. वो बेचारी तो गलती से हमारे बीच आ गयी और इनके ही धक्का से चोटिल हो सिधार गयी. यहां दोष इनका भी नहीं है दोष इस समाजिक ढ़ाँचे का है जो दबे-कुचले को और कुचला जाता है और उठे हुए को सिर आँखों बिठाया जाता".

"सरकार भले पिछड़े वर्ग को ऊपर उठाने की योजनाएँ पारित करें परंतु कमान हमेशा अपने ही हाथों में रख कर".

जज ने फुलिया मुसहर की बातें सुनी और अगला तारीख़ दे दिया.

................©-राजन-सिंह................