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गूगल बॉय - 12

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 12

गणतंत्र दिवस से पूर्व एक विशाल रक्तदान शिविर ‘देश के नाम रक्तदान’ कार्यक्रम बनाकर सचिव महोदय ने आयोजित किया। इसमें पाँच सौ यूनिट रक्त एकत्रित हुआ। गूगल तो इस कैम्प में जा नहीं पाया, परन्तु उसका नाम वहाँ बार-बार घोषित होता रहा - ‘रक्तदाताओं को उपहार में दिये जाने वाले हेलमेट श्री गूगल जी के माध्यम से बाँके बिहारी जी द्वारा प्रदान किये गये हैं।’ इस बात को लेकर अनेक लोग कानाफूसी तो कर रहे थे परन्तु इससे अधिक किसी को कुछ मालूम नहीं था जो किसी को बता पाता।

अगले दिन गणतंत्र दिवस था। गूगल को सम्मान लेने के लिये परेड ग्राउंड में जाना था। नाश्ता करने के बाद आशीर्वाद लेने के लिये वह माँ के पास आया - ‘माँ, आप भी चलो मेरे साथ।’

‘नहीं बेटे, मेरा वहाँ क्या काम है?’

‘माँ, मुझे यह सम्मान आपके कारण ही मिल रहा है।’

‘मेरे कारण कैसे?’

‘बचपन से आपने ही तो दानवीरों की कहानियाँ सुना-सुना कर मुझमें सेवा के संस्कार पैदा किये हैं।’

‘वो तो ठीक है बेटा। देखना, जब तू सम्मानित होगा तब मैं तेरे साथ ही हूँगी।’

गूगल माँ की बात का अर्थ समझ गया। आगे बढ़कर उसने माँ के पाँव छुए और आशीर्वाद लेकर घर से निकल पड़ा।

आज उसने सफ़ेद खादी का कुर्ता-पजामा व जवाहर जैकेट पहनी थी। सड़क से गुजरते हुए प्रत्येक व्यक्ति की नज़र उसपर पड़ रही थी। मन्दिर के पास से गुजर रहा था तो सामने से अरुणा आ गयी। माथे पर चंदन का टीका लगा था, शायद मन्दिर से आयी थी। जब मनुष्य सुबह-सुबह अच्छे स्थान पर नेक विचारों के साथ जाता है तो उसकी शारीरिक सुन्दरता और भी बढ़ जाती है। गूगल को अरुणा भी कुछ ऐसी ही लगी। अतः उसने कहा - ‘अरे अरुणा, बहुत दिनों से तुम्हें देखा नहीं, कहाँ रहती हो?’

‘मुझे फ्लू हो गया था, लेकिन अब मैं ठीक हूँ। तुम सज-धज कर कहाँ जा रहे हो?’

‘आज गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में मुझे मुख्यमंत्री रक्तदान सेवा के लिये सम्मानित करेंगे। वहीं जा रहा हूँ।’

‘मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरी बधाई स्वीकार करो।’

‘अरुणा, तुम भी बधाई की पात्र हो, क्योंकि रक्तदान के काम में तुम्हारी बड़ी प्रेरणा रही है।’

‘अब लेट नहीं करूँगी। जाओ और सम्मान प्राप्त करो। बाद में बैठकर बातें करेंगे’, अरुणा समझ रही थी कि गूगल को समय से समारोह में पहुँचना है और यूँ भी सड़क किनारे खड़े होकर बातें करना शोभा नहीं देता।

बस-अड्डे पर सरपंच उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने गूगल को पहले ही कह दिया था कि पुरस्कार लेने के लिये तुम मेरे साथ चलना।

कुछ सम्मान देने के बाद घोषणा हुई कि शेष सम्मान उपायुक्त महोदय प्रदान करेंगे, क्योंकि मुख्यमंत्री जी को किसी विशेष कारण से जाना पड़ रहा है। सरपंच साहब बहुत चुस्त व्यक्ति थे। उन्होंने गूगल का पुरस्कार निकलवाया और गूगल को ले जाकर मुख्यमंत्री जी के सामने खड़ा कर दिया।

मुख्यमंत्री जी ने जाते-जाते दोनों के साथ फ़ोटो खिंचवाया और स्टेज से उतर गये। गूगल बहुत खुश था कि सरपंच साहब के कारण ही मुख्यमंत्री के हाथों सम्मानित हो पाया। सरपंच भी खुश था कि गूगल के कारण मुख्यमंत्री के साथ उसकी भी फ़ोटो हो गयी।

दो बजे रेडक्रास ऑफिस में मीटिंग थी जिसमें गूगल को भी बुलाया गया था। सरपंच से विदा लेकर वह मीटिंग के लिये चल पड़ा। मीटिंग में रक्तदान सेवा से जुड़े पन्द्रह सज्जन आये थे, जिनमें से कई व्यक्ति तो बीस-बीस वर्ष से रक्तदान सेवा कर रहे थे। एक सज्जन ने तो सौ से अधिक बार रक्तदान किया था। उन सबके सामने तो गूगल सबसे छोटा और कम काम करने वाला था, परन्तु बाँके बिहारी की कृपा से उसका नाम भी लोगों की ज़ुबान पर आ गया था।

सचिव महोदय ने नये वर्ष के लिये रक्तदान को डबल करने का प्रस्ताव रखा और इस विषय पर सबके सुझाव माँगे।

सुभाष गुप्ता जी ने बताया कि रक्तदान का काम बढ़ाने के लिये हमें इसको स्कूलों में ले जाना पड़ेगा। यह ठीक है कि स्कूलों में रक्तदान करने वाले अठारह वर्ष की आयु के छात्र नहीं होंगे, परन्तु यदि हमने उनमें रक्तदान के संस्कार डाल दिये और वे अठारह वर्ष का होने पर रक्तदान करने लग गये तो बहुत बड़ा काम हो जायेगा।

‘गुप्ता जी की बात एकदम ठीक है, पिछली मीटिंग में भी इस विषय पर बात हुई थी। ज़िला शिक्षा अधिकारी से भी मैंने बात की थी। वे भी इस काम में सहयोग करेंगी। अब हमें स्कूलों में जाने की तैयारी करनी है। इसके लिये मैंने एक योजना बनाई है। सबसे पहले हमें स्कूल के मुखिया की सहायता से उन छात्र-छात्राओं के नाम एकत्रित हैं जिनके माता-पिता या बड़े बहन-भाई ने रक्तदान किया है। फिर स्कूल की प्रार्थना-सभा में जाकर उन बच्चों को सम्मानित करना है तथा रक्तदान के प्रति उन्हें जागरूक करना है। यह सम्मान पाकर अधिकांश बच्चे रक्तदान के लिये प्रेरित होंगे और अठारह वर्ष के होते ही रक्तदान के लिये अपना हाथ आगे कर देंगे।’

सचिव महोदय की यह योजना सबको पसन्द आयी और सबने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी।

सचिव महोदय ने आगे बताया - ‘इस कार्य में अधिक फंड की भी आवश्यकता नहीं है। दस रुपये का एक मेडल बनता है, जिसपर लिखवाया जायेगा- रक्तदान अंकुरण सम्मान। इस मेडल से छात्र को सम्मानित करना है। हमें ऐसे एक हज़ार मेडलों की आवश्यकता पड़ेगी अर्थात् दस हज़ार रुपये की। हम अपने गूगल भाई से अनुरोध करते हैं कि वे अपने बाँके बिहारी से सिफ़ारिश करके यह राशि हमें उपलब्ध करा दें तो इसी वर्ष में हमारा रक्तदान का काम दोगुना हो सकता है।’

‘वैसे तो मुझे विश्वास है कि मेरे बाँके बिहारी जी रक्तदान सेवा के लिये कभी मना नहीं करते, फिर भी उनकी स्वीकृति लेना मेरे लिये अत्यन्त आवश्यक है’, गूगल ने कहा।

‘बोलो, बाँके बिहारी जी की जय।’ सबने मिलकर जयकारा लगाया और बैठक समाप्त हो गयी।

गूगल घर पहुँचा तो माँ उसी की प्रतीक्षा में बैठी थी। माँ ने खाना परोसा तब तक गूगल ने शहर का सब समाचार सुना दिया और अन्त में बैठक की कार्यवाही, रक्त अंकुरण सम्मान और दस हज़ार रुपये के दान की बात बताई। ‘बेटे, बाँके बिहारी जी ने रक्तदान सेवा का काम तेरे निमित्त करवाने के लिये यह धन तुझे सौंपा है’, भोजन की थाली उसके सामने रखते हुए माँ ने आगे कहा - ‘बेटे, जब हम किसी प्राणी के बच्चे के लिये कुछ करते हैं तो उसके माता-पिता स्वयं ही खुश हो जाते हैं। माता-पिता को खुश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो स्वयं ही खुश हो जाते हैं। यही बात बाँके बिहारी जी पर भी लागू होती है। हम सब उनकी संतान हैं और जो इंसान उनकी संतान की सेवा करता है, रक्तदान करके उनके जीवन की रक्षा करता है तो बाँके बिहारी जी उससे स्वयं ही खुश हो जाते हैं। अपनी भक्ति से अधिक वे अपनी संतान की सेवा करने वालों पर अधिक खुश होते हैं।’

‘परन्तु माँ, तुम तो दोनों काम करती हो, ईश्वर की भक्ति भी और उनके बनाये इंसान की सेवा भी।’

‘इसी सेवा का फल तो हमें मिल रहा है।’

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