UJALE KI OR - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 14

 

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आ.स्नेही एवं प्रिय मित्रो

 

        मन न जाने कहाँ कहाँ पंछी की भांति उड़कर पुन: मन की भीतरी न जाने कौनसी शाख़ पर आ बैठता है |शाख़ का ही पता नहीं चलता कौनसी है जिस पर मन जा बैठता है कि उसे पकड़कर तुरत लाया जा सके |मुझे लगता है हमारे मन के वृक्ष में न जाने कितनी अनगिनत शाखाएं हैं जिन पर मन का पंछी उड़-उड़कर जा बैठता है ,उसे पकड़ने का प्रयास करो तो हाथ ही नहीं आता ,वह तो कहीं और जा बिराजता है |खैर छोड़ें ,हम जानते भी तो नहीं कहाँ भटक रहा होगा हमारा मन !

     मेरा मन तो बहुत भटकता रहता है ,एक छोर को पकड़ने का प्रयास करूं तो पता चलता है कि वह उस शाख़ पर है ही नहीं,न जाने कब और कैसे किस शाख़ पर जा बैठा है|आज मन एक भगवा वस्त्रधारी को देखकर पुन: न जाने कितने पुराने गलियारे लांघ गया| कुछ घबराया भी कि कहीं ये भगवा वस्त्रधारी वे ही वर्षों पुराने सज्जन तो नहीं हैं? हाँ,मैं सज्जन ही कहूंगी क्योंकि हमें किसीको दुर्जन कहने का कोई अधिकार तो है नहीं |

     घटना लगभग पैंतीस वर्षों के आसपास  की है जिसका आज पुनरावर्तन होने जा रहा था |किन्तु हुआ नहीं ,यह मेरे लिए अच्छा हुआ अन्यथा व्यर्थ में ही मन में नकारात्मकता के भाव आ जाते और मन का पंछी पीड़ित होता |

      हमें इस घर में आए कुछेक माह हुए होंगे,मेरा पी.एचडी का कार्य समाप्ति की ओर था |गुजरात विद्यापीठ से मैं कार्य कर रही थी ,यह घर वहाँ से पर्याप्त दूरी पर था ,आने-जाने में काफी कठिनाई होती |गाड़ी कभी-कभी मिलती , ऑटोरिक्शा के लिए बहुत देर तक खड़ा रहना पड़ता |तात्पर्य है कि बहुत अधिक व्यस्तता ! घर की सार-संभाल ,बच्चों की देख-रेख ,उनका स्कूल ,पतिदेव का ऑफिस का समय और माँ के स्वास्थ्य की देख-रेख |सब कुछ फैला हुआ ----घर के बाहर छोटा सा लॉन था |अधिकतर माँ वहीं कुर्सी पर बैठ जातीं और सोसाइटी-निवासी जो घर के बाहर से आते-जाते रहते थे और जिनसे पर्याप्त परिचय भी हो गया था उन राहगीरों की नमस्ते का उत्तर देती रहतीं,कुशल-क्षेम पूछती रहतीं |कॉलेज से निवृत्ति के पश्चात उनका मन खाली बैठे हुए लगता नहीं था सो किसी न किसी बात में स्वयं को व्यस्त रहने का प्रयास करतीं |

    एक दिन अनायास ही एक भगवाधारी घर के सिंह द्वार पर आ बिराजे |माँ से वार्तालाप हुआ ,कुशल क्षेम पूछी गई |माँ ने कहा कि उन्हें कुछ खाद्य पदार्थ दिया जाना चाहिए |मेरा विद्यापीठ जाने का समय,पतिदेव के ऑफिस जाने की गाड़ी आने की तैयारी और भगवावस्त्र  धारी अतिथि का आगमन ! यूँ तो पतिदेव अधिकाँशत: इस प्रकार किसी को घर में प्रवेश देने में रूचि नहीं लेते थे लेकिन उस दिन न जाने उन्हें भी क्या हुआ ,बोले ;

“इन्हें खाना ही खिला दो न ?”

    बड़ी मुश्किल से आलू के परांठे बनाकर मेज़ पर रखे थे ,सब सदस्यों के हिसाब से ,अब उन्हें कैसे खिलाऊँ ?अतिथि बहुत विनम्रतापूर्वक बोले ;

“हाँ जी ,मैं तो आलू के परांठे ही खा लूँगा लिकिन मैं एक ही समय भोजन पाता हूँ ,सो भर पेट खाऊँगा |”पतिदेव ने उन्हें घर के भीतर बुला लिया और घर की सेविका से ड्राइंग-रूम में चटाई बिछवा दी | महानुभाव उस पर जम गए |गाड़ी आने पर पतिदेव ने अपने ऑफिस की राह ली और मैं कुछ भी सोचने में अशक्य खडी रह गई |माँ के मन में भी संभवत:उस दिन ‘अतिथि देवो भव’ का संस्कार कुछ अधिक ही कुलबुला रहा था |

मैं खीज उठी ,बिलकुल भी समय नहीं था |घर का काम करने वाली महिला आलू के परांठे नहीं बना पाती थी,वह गुजरात की रबारी जाति की महिला थी और केवल बाजरे का रोटला बनाने में पटु थी |खैर,अतिथि जी ने जमकर भोजन ग्रहण किया और आशीष देते, चटकारे लेते हुए कई कटोरी दही साफ़ कर गये |अब खाने के डिब्बे में केवल दो परांठे थे और खाने वाले चार!दही के बर्तन में भी लगभग न के बराबर दही दिखाई दे रही थी |तृप्त होकर वे और माँ लॉन में जा बिराजे और मैं अपनी सहायता करने वाली स्त्री को पैसे देकर बाहर से भोजन लाने की व्यवस्था करने के लिए कहकर किसी प्रकार दौड़ती-भागती ऑटोरिक्शा की खोज में भागी |मैं जानती थी कि पास की सोसाइटी में एक घर में ‘टिफिन’ बनाकर भेजा जाता है सो थोड़ी निश्चिन्त थी यद्यपि कोई भी उस भोजन से तृप्त नहीं होता था |

       चलिए भोजन तो ठीक किन्तु उन महाशय को यह भ्रम हो गया कि मेरा पूरा परिवार ही उनका भक्त हो गया है |माँ संस्कृत की शिक्षिका थीं ,वे भी अब उस अतिथि के बार-बार आने से खीजने लगीं थीं,उन्हें उनसे कुछ मानसिक खुराक मिलने की आशा थी जो निर्मूल सिद्ध हुई थी |वैसे वह कई महीनों में पधारते थे किन्तु उनका पधारना अब सबको खटकने लगा था |एक बार जम जाते तो उठने का ही नाम न लेते |अब उन्हें घर पर रखे हुए केवल कुछ फल-फूल ही प्राप्त होने लगे थे |

       अवसर की बात है ,एक बार मैं घर पर ही थी और घर के साइड वाली तार पर कपड़े सुखा रही थी |अचानक मेरी दृष्टि गेट पर पड़ी |वही भगवे वस्त्रधारी महाशय !मैं पीछे की ओर से घर में भाग आई |वे गेट खटखट करते रहे ,माँ पूजा कर रही थीं ,मेरी सहायिका कपड़े धो रही थी जिन्हें मैं सुखाने गई थी ,सिल्क के कपड़े वह इतने झाड़कर सुखाती कि कई बार फट ही जाते |आज समय था सो मैं उसे समझाने का प्रयत्न कर रही थी कि वह इन कपड़ों को ज़रा कोमलता से सुखाए |

       कुछ देर बाद मैंने खिड़की में से झाँककर देखा,कोई नहीं था |मैंने चैन की साँस ली और फिर बाहर जाकर अपने काम में व्यस्त हो गई |दो मिनट बाद फिर अतिथि गेट पर पधार चुके थे ,माँ भी अब तक बाहर आ चुकी थीं |उन्होंने गेट खोला ,वे अन्दर आ गए |

माँ भी अब तक उनसे भली-भांति परिचित हो चुकी थीं |जैसे ही वे भीतर आकर कुर्सी पर बैठे;

“हमें लगा ,आज हमारे भक्त किसी पीड़ा में हैं |”उन्होंने हम दोनों की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा |मेरी और माँ की खीज और भी बढ़ गई |

    इतने दिनों तक माँ ने उनसे वार्तालाप किया था , पता चलाथा कि वे राजस्थान के हैं और उन्होंने दुनिया से जी उचाट होने के कारण घर छोड़ दिया है |

मेरे मुह से अचानक निकला ;

“एक बात बताएं,आपका परिवार है न ?”

‘हाँ ,मेरे सात बच्चे हैं ----” उन्होंने गर्व से कहा |

“फिर उनको किसके सहारे छोडकर आए हैं ?”  अपने क्रोध को दबाते हुए मैंने पूछा |

“अरे!खूब ज़मीन है,खेती-बाडी है ,मैं जाता रहता हूँ |”

    पता चला उनका सबसे छोटा बच्चा अभी साल भर का है और उन्हें घर छोड़े हुए दस वर्ष से भी अधिक  हो गए हैं |अब मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था |मैंने उन्हें तुरंत अपने घर से चले जाने के लिए कहा |पहले तो उन्होंने कुछ चूं-चां की फिर उठ खड़े हुए |मैं और माँ गेट तक उनके पीछे-पीछे आ पहुंचे थे|जैसे ही मैं गेट अन्दर से बंद करने के लिए आगे बढ़ी,वो मेरी ओर घूमकर बोले ;

“अरे भक्तिन! तुम्हें इतना बुरा लग रहा है तो उन्हें यहाँ ले आऊँ ?”

मैं व माँ अवाक् रह गए , मेरी समझ से बाहर था कि मैं उन पर हँसू या स्वयं पर

रोऊँ ?

 

परिवार बनाना था उन्हें खूब बड़ा सा 

जिम्मेदारियों का लेकिन कोई अहसास न था

 

         मित्रो ! आज की कहानी काफ़ी लंबी हो गई किन्तु ऐसे लोग भी कभी न कभी टकरा ही जाते हैं जिनसे बचकर रहना ज़रूरी होता है|

                                     सदा ऐसे लोगों से सुरक्षित रहें ,मुस्कुराते रहें

                                             आप सबकी मित्र

                                             डॉ. प्रणव भारती 

                                   pranavabharti@gmail.com