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एक दुनिया अजनबी - 25

एक दुनिया अजनबी

25-

विभा को शुरू से ही कत्थक नृत्य का शौक था, कुछ हुआ ऐसा कि बनारस के 'साँवलदास घराने' के एक शिष्य हरिओमजी किन्ही परिस्थितियों के वशीभूत मेरठ में आ बसे |

वो बनारस से आए थे क्योंकि उनके पुरखे जयपुर से बनारस जा बसे थे और अपने साथ बनारस के कलक्टर का एक सिफ़ारिशी पत्र भी लाए थे जो उन्हें 'ऑफ़िसर्स स्ट्रीट' में रहने वाले वहाँ के कलक्टर साहब को देना था | धीरे धीरे यह स्ट्रीट वहाँ के शिक्षित व उच्च मध्यम वर्ग का स्टेट्स बन गई |

साल भर पहले ही वहाँ एक क्लब खुला था जिसे खोला तो गया था 'स्पोर्ट्स क्लब' के नाम से किन्तु क्रमश: वहाँ बनी नई-नई कोठियों में रहने वालों के मन में उस कॉलोनी में रहना एक स्टेट्स की बात होने के साथ ही वे यह भी सोचने लगे थे कि उनकी बेटियों के लिए सभी कलाओं की शिक्षा के लिए एक सुरक्षित व उच्च स्तरीय व्यवस्था होनी चाहिए |

भारत को स्वतंत्र हुए कोई अधिक वर्ष नहीं हुए थे और जहाँ अँग्रेज़ों का प्रभाव जनता पर था वहीं उनकी अपनी सांस्कृतिक कलाएँ भी उन्हें खींच रही थीं | साँवलदास घराना विशुद्ध सात्विक भाव व तत्कार पर निर्धारित था | इस नृत्य में भाव की शुद्धता का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता है|विभा की माँ ने भी अपने समय में नृत्य व संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी, भारतीय कलाओं में उनकी भी खूब रुचि थी | बस, सुविधा शुरू होते ही विभा को उस क्लब में नृत्य व संगीत की कक्षाओं के लिए प्रवेश दिलवा दिया गया |

कत्थक नृत्य में पारंगत हरिओम जी के ही ये मित्र बनारस के हिन्दुस्तानी संगीत के प्रसिद्ध शास्त्रीय घराने के शिष्य थे | जिनके बचपन में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी और वे विमाता के व्यवहार से कुंठित होकर घर से भाग आए थे | वे स्टेशन पर, रेलगाड़ियों में, बस-स्टैंड पर गाते |लोग इन्हें कुछ पैसे देकर अपना बड़प्पन दिखाकर अहसान दिखाते थे | स्वाभिमानी बच्चे की आँखों में आँसू छलक आते जब वो दूसरों से दान में दिए हुए पैसे पकड़ता | सब उसे सोमू कहते, स्थानीय रेलगाड़ियों में रोज़ाना आने-जाने वाले यात्री उसे खूब पहचानने लगे थे |

एक बार हरिओम के पिता को सोमू रेलगाड़ी में टकरा गया | उसकी गहरी खनकदार नैसर्गिक आवाज़ सुनकर उन्होंने बच्चे से बात की और वे उसे अपने साथ ले आए | उसकी व्यथा -कथा सुनकर और संगीत के प्रति उसका रुझान देखकर वे बहुत प्रभावित हुए और जहाँ उनका बेटा नृत्य की शिक्षा प्राप्त कर रहा था, वाराणसी के उसी 'कला-संगम' में सोमू को उन्होंने हिन्दुस्तानी संगीत के गुरु के पास गायन की शिक्षा प्राप्त करने भेज दिया | अपने बेटे हरि के साथ उन्होंने उसके रहने की व्यवस्था भी सुचारु रूप से कर दी | इस प्रकार सोमू को एक सह्रदय पिता के साथ ममतामयी माँ और बहन का साथ भी मिल गया |

सोमू यानि सोमदेव ने शास्त्रीय संगीत के ठुमरी गायन में दक्षता प्राप्त की | जब कोई उसकी प्रशंसा करता, वह अपने कानों को हाथ लगाकर कहता ;

"सीखने की कोशिश में हूँ, जो भी कुछ कर पा रहा हूँ अपने पिता तुल्य महोदय के और अपने श्रद्धेय गुरु जी के कारण ही ---अभी तो बहुत कुछ सीखना है, जीवन के अंतिम क्षण तक सीखना ही होगा --" वह हमेशा हरिओम के पिता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता और अपने भाग्य के प्रति ईश्वर के प्रति नतमस्तक होता कि उसे ऎसी सुविधा प्राप्त हो सकी |

उसमें संगीत के प्रति बहुत लगन थी, समर्पण था और वह आगे भी बहुत कुछ सीखना चाहता था किन्तु इसी बीच हरिओम के पिता की मृत्यु ने दोनों को बेसहारा कर दिया |

अब उन्हें पहले पेट की समस्या का समाधान खोजना था, परिवार का लालन-पालन करना था |माँ व बहन का ध्यान रखना और उनकी सार-सँभाल करनी थी |

बनारस के कलक्टर मूल मेरठ के निवासी थे, उनकी कोठी भी 'ऑफ़िसर्स स्ट्रीट' में बनी थी और वे हरिओम के पिता से पूर्व परिचित थे इसलिए उन्होंने इन युवाओं के लिए मेरठ के 'ऑफिसर्स स्ट्रीट' के उन प्रमुख निवासियों के नाम सिफ़ारिशी पत्र लिखकर इनके पेट की समस्या का समाधान करवा दिया था |