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सैक्स प्रेम नही

जब तुम किसी की बाहरी सुन्दरता को देखते हो उसका चेहरा तुम्हे अच्छा लगता है उसकी कार्य शैली से तुम प्रभावित होते हो, उसे चाहने लगते हो, उसकी ओर झुकने लगते हो, उसके गुण, उपलब्धि, महत्वाकाक्षाँयें तुम्हें अपनी ओर खीचतीं हैं, उससे बार-बार मिलन चाहते हो। न मिलने पर आक्रोशित हो जाते हो। तुम्हारा स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है उसे पाने के लिये अधीर हो उठते हो फिर तुम शारीरिक दुर्बलता का शिकार हो जाते हो। तब तुम्हे लगता है तुम प्रेम में हो, तुम रोगी हो गये हो अगर तुम्हारा प्रेमी तुम्हे न मिला तो तुम प्राण त्याग दोगे। उस आकर्षण को संजीवनी समझ बैठते हो।

बार-बार मिलन की तैयारी करते हो। आलिंगन बद्ध होने की तस्वीरें बनाते हो। एक हो जाना चाहते हो। तृप्ति चाहते हो। सुख का साधन समझते हो। उस पर अधिकार रखने में तुम्हें मजा आता है। जितना देते हो उससे ज्यादा पाने को अधीर हो उठते हो। ये क्रिया है जिसे तुम खोना नही चाहते। इसमें बने रहना और डूब जाना तुम्हें अच्छा लगता है।

अगर पा लिया फिर एक -दूसरे को भोगते हो, स्वीकृति के या बगैर स्वीकृति के भी, तब तुम्हें तृप्ति मिलती है। ये तृप्ति क्षणिक होती है, तुम फिर से वही क्रिया चाहते हो।

ये सैक्स में होने की अवस्था है, प्रेम नही। जिसका पिछला नाम काम- वासना है।

सैक्स एक भोजन है इसका प्रेम से कोई लेन-देना नही। ये रोज चाहिये जब भी भूखे होगे ये चाहिये। भोजन अच्छा या बुरा, या कहाँ से लिया गया, घर में पका या बाहर किसी दूकान से खरीदा गया, बासी या ताजा मायने नही रखता, मायने तो भूख रखती है जब भी ये सतायेगी आप भोजन की तलाश करोगे। घर में है तो ठीक, नही तो बाहर तलाशोगे। कभी छुप कर ढूँढोगे, कभी खुल कर। मिलने पर तृप्त हो जाओगे, अगली भूख तक। सैक्स स्वछंद है, भावहीन है ये शारीरिक रसायनिक प्रक्रिया है जो भीतर से जन्मती है। बस ये अलग-अलग व्यक्ति में अलग-अलग हो सकती है। कोई देह के भा जाने पर उस पर अधिकार जमाती है और प्रेम की ढाल के पीछे पनपती है।

ये प्रेम में नही बंधती बल्कि आकर्षण में प्रखर हो उठती है, आकर्षण की पूर्ति में जरुरत है, जो भीतर तक लिप्त हो जाती है, खुद को प्रेम कहने लगती है। जबकि ये प्रेम में कहीँ नही है। प्रेम में इसके कोई मायने नही। प्रेम सिर्फ प्रेम है वहाँ एक की ही जगह है दूसरी चीज वहाँ नही रह सकती। ये प्रेम में भभकने की कोशिश करती है ऐसा नही है, बल्कि ये रास्ते बनाती है तुम तक पहुँचने के, जिसमें प्रेम सबसे ज्यादा नजदीकी और कम दूरी का है जहाँ ये आसानी से पहुँच सकती है। मगर प्रेम यदि वास्तविक है तो सिर्फ प्रेम है, वहाँ और कुछ है ही नही। ये सम्पूर्ण है अनन्त है, तो सैक्स आरम्भ है, उत्तेजना है, अपूर्ति है।

प्रेम में सन्तुष्टी है पर सैक्स में सन्तुष्टी नही। सन्तुष्टी दोबारा सन्तुष्टी नही चाहती जब कि सैक्स बार-बार अपनी प्रक्रिया दोहराता है भूख शान्त होने तक। ये अपूर्ण है इसमें हमेशा 'और' की जगह है। नवीन, स्वादिष्ट भोजन की तरहा, क्षणिक तृप्ति।

इसकी भूख भयाभय हो सकती है, इसलिये इसको रिश्तों में बाँधा गया। ताकि ये सन्तुलित हो सके। जहाँ स्वेच्छा से इसे भोगा जा सके।

भूखे सब हैं, परन्तु प्रेम की पिपासा सबको नही, प्रेम का ज्ञान भी नही। प्रेम में ज्ञान की जरुरत नही, मगर प्रेम का ज्ञान जरूरी है। प्रेम को चखने मात्र से नही पाया जा सकता, पूरा प्रेममय होना पड़ेगा। तभी अनन्त सुख पा सकोगे।

सैक्स को सुख मत समझ लेना। ये दुख का कारण है। ये उसी तरह से है, जिस तरह स्वादिष्ट भोजन जीभ को चटकारे देता है फिर स्वाद ग्रन्थियां उसे पुन: पाना चाहती हैं। बार-बार पाने पर भी तृप्ति नही होती, ऐसे में तुम अतृप्त रह जाओगे, अतृप्ति में शान्ति नही, घोर निराशा है, दुख है, जो नकारात्मक विचारों को जन्मती है।

तुम सन्तुष्टी की खोज में हो, तुम सुख को ढूँढ़ रहे हो या अनन्त तृप्ति को पाना चाहते हो तो प्रेममय हो जाओ। प्रेममय तुम अकेले भी हो सकते हो उसके लिये किसी पर निर्भरता की आवश्यकता नही। स्वछंदता तुम्हे सुख देगी, सारे विराम हटा देगी और तुम पा लोगे जो चाहते हो। इसमें संशित मत होना।

महान दार्शनिक ओशो का 'सम्भोग से समाधी' तक का विचार एक बड़े बुद्धिजीवी वर्ग ने सराहा, अनुकरणीय बताया और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी किया गया और वे इसके पक्षधर रहे। यहाँ पर मैं इसे दूसरे तरह से समझना चाहूँगी, स्वतन्त्र हो जाऊँगी अपने शोध को तुम तक पहुँचाने के लिये।

ओशो के कथ्य को तोड़ मरोड़ के सबने अपनी-अपनी तरह से समझा गया। वह भी काम वासना के पक्षधर थे या नही, नही कहा जा सकता। हम जानें, उनका कहना था कि 'सम्भोग को छोड़ कर समाधि की तरफ बढ़ो,' जबकि समझा गया 'सम्भोग से समाधि है' ये सत्य नही है। काम-वासना पर उनका कथ्य हमने इस तरह समझ लिया कि ये प्राकृतिक उद्वेग है असम्मानिय नही है। हम उसे इस तरह समझते हैं - काम - वासना ये दो अलग-अलग शब्द हैं। काम स्वभाविक है जो सृष्टि के निर्माण के लिये है और एक स्त्री तक सीमित है। इसको भोगना हीनता नही है।

जबकि वासना हर स्त्री को देख कर उपजती है उसके अंगों से रसानुभूति होती है। उसमें आसक्ति बढ़ती है। वैसे ही पुरुष के पौरुष को देख कर स्त्रीमन भी उत्तेजित होता है ये घृणित है यहाँ 'काम' नही है, सिर्फ वासना है, जो तृप्त नही होती अपितु बढ़ती जाती है।

अब प्रेम को समझते हैं। कृष्ण का प्रेम, प्रेम था, सम्पूर्ण था, अनन्त था, वहाँ सुख था, तृप्ति थी, तरंग थी, जिसके आगे और कुछ नही, न विचारने को, न पाने को, न चाहने को। यही प्रेम मोक्ष है, जहाँ प्रेम से प्रेम पल्लवित होकर प्रेम को भरता है। अंकुरित होता है।

कृष्ण के मथुरा जाने के बाद भी गोपियों का प्रेम कम नही हुआ वो बढ़ता गया, कृष्ण के बगैर भी। वहाँ कृष्ण का गोपियों के साथ या गोपियों का कृष्ण के साथ होना जरुरी नही। दूरियाँ प्रेम में बंधन नही। मिलन की आसक्ति थी पर सैक्स के लिये नही।

मीरा प्रेम की प्यासी थी। प्रेम ओढ़ती थी, प्रेम बोती थी, प्रेम सोचती थी, प्रेम में जीती थी, वह सम्पूर्ण थी, प्रेममय थी। हर चीज से बेपरवाह थी। रिश्ते-नाते, घर, समाज, सम्मान, बंधन सब प्रेम के समक्ष तुच्छ थे, उसे और कुछ नही चाहिये था। उसके पास दूसरी चीज की जगह ही नही थी। वह अपने प्रेमी से एकाकार हुई, आलिंगन बद्ध माना, कृष्ण को पति स्वीकारा, ये प्रेम का अमूर्त रूप था, ये न भी होता तो भी प्रेम था, ये था तो भी प्रेम था, इसके होने-न-होने से प्रेम में कोई गिरावट, अशुद्धता या वासना नही आई।

प्रेम भाव है, अहसास है, ये निराकार है, इसे आकार की जरुरत नही। यह न तो बँध सकता है और न ही माँग करता है। यह स्वत: ही सम्पूर्ण है। अगर तुम सैक्स में प्रेम को खोजते हो तो निराधार है, भ्रम है, खुद से छलावा है। कृष्ण के प्रेम में सैक्स की जगह नही, अगर वहाँ सैक्स हुआ होगा तो वो प्रेम का हिस्सा नही, प्रेम में उसका कोई महत्व नही, वह पराकाष्ठा का बिन्दू मात्र है जिसके होने न होने से प्रेम पर कोई फर्क नही पड़ता। अगर नही हुआ तो भी वो विशुद्ध प्रेम है।

प्रेम के वक्त सैक्स के भाव आना स्वभाविक नही कहा जा सकता, या तो वह व्यक्ति प्रेम नही करता या वह प्रेममय नही है इसीलिये उसे दूसरी चीज की आवश्यकता हुई।

दूसरा, प्रेमभाव में सैक्स की इच्छा हुई, रसायनिक क्रिया सक्रिय हुई आनन्द भाव में बृद्धि हुई और उस बृद्धि ने स्वतः ही सैक्स किया, वहाँ सैक्स 'काम' है वासना नही। फिर भी उसे पूर्ण प्रेम नही कहा जा सकता, तुमने सैक्स करके प्रेम को प्रकट किया जबकि इसकी जरुरत थी ही नही, ये तो प्रेम व्यक्त करने की निर्भरता हुई। अगर तुम निर्भर हो तो प्रेम नही करते, आकर्षण में बँधे हो। यही सच्चाई है। सैक्स को पृथक रखो। वासना से दूर रहो। 'काम' को सृष्टि निर्माण में लगाओ अगर सैक्स में हो तो उसे प्रेम मत कहो।

मैं ओशो से प्रभावित नही हूँ और न ही असहमत हूँ ये विचारों का घर्षण मात्र है जो बुद्धिजीविता, दर्शन और मंथन पर टिका है।

छाया अग्रवाल

बरेली