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राधा सी सती

शाम को छत पर टहलना बेहद पसंद था मुझे । रोज सुबह एवं शाम को हाज़िरी लगाने मैं छत पर अवश्य जाया करती थी। वैसे छत पर जाने की अनुमति नहीं थी मुझे । मेरे पापा एवं मां का कहना था कि हमारा आंगन और घर इतना बड़ा तो है ही कि हम को छत पर जाने की जरूरत ना पड़े । इसमें कोई शक नहीं था कि हमारा घर किसी रजवाड़ों के घर से कम नहीं था लेकिन परिधि में गिरा एक मकान था । गिने-चुने लोगों का ही आना जाना था वहाँ। उन गिने-चुने लोगों में एक काम वाली, बंधुआ मजदूर, एक दूधवाला, एक समाचार पत्र वाला और कुछ परिवारिक दोस्त ही थे । जब भी मेरी कामवाली आती मुझे बड़ी खुशी मिलती। मेरे मुस्कुराने पर उसका मुस्कुराना मुझे अति प्रिय था । जब वह आती तब मैं उसके आसपास ही रहती थी क्योंकि मेरी मां और बड़ी मां के लिए वह किसी समाचार पत्र से कम नहीं थी और मेरे लिए कहानी की किताब जो दो-तीन घंटों में पूरे मोहल्ले की खबर सुना डालती थी। एक दिन मैंने हमारी कामवाली बाई जिसे हम 'नानी' बुलाते थे, उनको अपनी मां से कहते सुना -
"सती अब अपना सारा काम छोड़ रही है । "
मां ने पूछा - "क्यों ? "
नानी- "जिसने सती को अपना रखा है वह नहीं चाहता कि वह धंधा करें । "
मां - "शरीर रहते तक चलेगा यह सब फिर क्या होगा ! कुत्ता भी नहीं पूछेगा । "
नानी- "सही कह रही हो बउ ।" (बउ-जिसे बंगाली में माँ एवं किसी सम्मानित महिला के लिए भी उच्चारित किया जाता है )
मेरे मन में उत्सुकता थी, "यह सती कौन है ? "
नानी अपना कार्य समाप्त कर जाने लगी ।
मैंने नानी से पूछा- "सती कौन है ? "
नानी - "रोज सुबह सतीचौरा में गीले कपड़ों में जल चढ़ाने आती है बेशरम, देख लेना । "
अगले दिन सुबह मैं जल्दी उठ चुकी थी । अपना नित्य कार्य करके पढ़ने बैठ चुकी थी । उस दिन पहली बार मैं सुबह 3:30 बजे उठी थी और सुबह 5:30 बजे तक पूर्णता तैयार थी । ऐसा करके अपने माता-पिता को रिश्वत दे रही थी मैं जिससे उनकी नज़र से बच पाउं मैं।
सबसे छुपते-छुपाते मैं छत पर गई थी ।
सूरज निकलने , मेरे छत पर आने और सती का सती चौरा में दिखने का समय आज एक ही था ।
पूरब की ओर सूरज को निकलते देख रही थी मैं और वहीं से सती को आते भी देख रही थी । थोड़ी ही दूर तालाब से नहाकर गीले कपड़ों में हाथ में कांसे का लोटा लिए वह तुलसी चौरा की तरफ आ रही थी । श्यामल रूप, बड़ी एवं गहरी आंखें, घुंघराले बाल मध्यम ऊंचाई, साड़ सुगठित शरीर और उस पर गहरे पीले रंग की साड़ी सबकी नजरों में सचमुच बड़ी खूबसूरत थी वहवह और मुझे भी पहली नज़र में आकर्षक लगी थी।
मोहल्ले का नाम वैसे तो सतीवाड़ा था पर वह मोहल्ला सतीचौरा से ज्यादा सती के नाम से मशहूर था । अब समझ में आया था क्यूँ ?
मैं उसे सतीचौरा में जल चढ़ाने के बाद उसको उसके घर की ओर जाते देखी । छोटा सा था उसका मकान परंतु फूल पौधों से खिलता लहलहाता हुआ दिख रहा था । मैं उसे तब तक देखती रही जब तक वह ओझल ना हो गई हो । दिन भर उसका चेहरा मेरी आंखों में कौंधता रहा । शाम होते ही मैं फिर छत पर गई । उसके घर की ओर देखना जैसे आज की शाम की मिठाई हो-रसगुल्ला, जो मेरे बा रोज हमारे लिए ऑफिस से लौटते वक्त लाते थे और मेरी माँ मेरे अच्छे काम के इनाम स्वरूप मुझे देती थी।
मैंने देखा उसका घर रोशनी की लड़ियों से सजी थी। इस घर को मैंने कई बार देखा था लेकिन रोज शाम को इतनी गाड़ियां खड़ी होती थी उसके दरवाजे पर कि घर कहीं खो जाता था और बस गाड़ियां ही दिखती थी । अब ऐसा नहीं था, वह मकान अब खूबसूरत घर था ।
एक लंबी सांस अंदर लेकर मैं छत से नीचे उतर आई। दूसरे दिन की तैयारी करनी थी मुझे, वापस हॉस्टल जाना था । फिर वही कान्वेंट का अनुशासित जीवन जिसका अपना ही मजा था ।
कुछ महीनों में सती की यादें धूमिल हो चली थी, परीक्षा खत्म हुई और मैं वापस अपने घर आई । पापा के घर में रहते हुए मैं कभी कान्वेंट के अनुशासित जीवन को भूल ही नहीं पाई क्योंकि मेरे पापा किसी हॉस्टल वार्डन से कम नहीं थे । उनके घर में रहते हुए छत पर जाना किसी जंग से कम नहीं था और मुझे बखूबी मालूम था की मैं यह जंग नहीं जीत सकती।कुछ दिन यूं ही चलता रहा और पापा अपने कार्य पर वापस लौट गए । अब मेरी सुबह-शाम छत की हाजिरी पक्की हो गई थी । शाम होते ही मैं छत पर चली गई थोड़ी देर सूरज को डूबता हुआ देखकर मैं सती के घर की ओर देखने लगी । मुझे एहसास हुआ "जैसा मैं अंतिम बार देखी थी वैसा उसका घर अब नहीं था , सारे पौधे सूख चुके थे , अचानक से दीवारों का रंग भी उड़ चुका था ।" मैं उदास मन से अपने कमरे में लौट आई । मुझे इंतजार था अगले दिन की सुबह का और नानी की ।
सुबह होते ही मैं छत पर सूरज का और सती का इंतजार करने लगी । सूरज तो रोज की तरह निकला पर सती कहीं नहीं थी । नानी घर में आ चुकी थी । अपना कमरा साफ करवाने का बहाना बनाकर मैंने उसे कमरे में बुलाया और उससे सती के बारे में पूछने लगी ।
उसने बताया- "जिस आदमी ने पति को अपनी रखेल बना कर रखा था वह एक व्यापारी था जिसकी किसी दुर्घटना में मौत हो गई । वह पहले से ही शादीशुदा था उसके बड़े-बड़े दो लड़के भी थे और उसकी पत्नी भी जिंदा थी । वह आदमी अपने परिवार से सती के बारे में सब बता रखा था और सती को भी सब मालूम था फिर भी उसने उसके लिए अपना धंधा छोड़ दिया, पागल थी वो। सती को जैसे ही उस के मौत के बारे में पता चला शमसान घाट पर चली गई और जलती चिता में कूद गई । अच्छा हुआ समय रहते हुए उस आदमी के बेटों ने बचा लिया उसे, बहुत जल गई थी । उस मृतक आदमी के बेटों ने इलाज करवाया । अब कोई काम धाम नहीं करती । उसको कौन रखेगा काम पर भी, उसके बेटे ही खाने-पीने भर पैसा दे जाते हैं ।"
अचानक मां की आवाज मेरे कानों में सुनाई दी - "गुड़िया ! नानी को भेजो तुम्हारा काम हो गया हो तो"
मैंने कहा- "हां, मां! "
मेरा कमरा साफ हो चुका था, महीनो से पड़ी इस कमरे की धूल नानी ने साफ कर दिया था । उस दिन मुझे शाम की नहीं बल्कि दूसरे दिन सुबह का इंतजार था । रात भर सो नहीं पाई थी मैं इसलिए सुबह जल्दी उठ गई थी कहना गलत होगा ।
अनमने और शायद भारी मन से मैं छत पर गई । सूरज अपने सही समय पर उग रहा था और गीले कपड़ों में सती सतीचौरा की ओर जाते दिखाई दे रही थी। उसके शरीर पर गीले सफेद वस्त्र थे । जल चढ़ाते हुए वह पहले से भी सुंदर दिखाई दे रही थी ।
शास्त्रों में राधा, मीरा एवं सती को अलग-अलग तरीके से चारित्रित करते हुए उसकी महत्ता बतलाई गई है परंतु सतीवाड़ा की सती इन तीनों चरित्रों का एक ही रूप में समावेश थी।
मैं पुनः सती को उसके घर जाते देख रही थी ।
सती के घर का सफर, मकान से घर और घर से मंदिर तक का था । आज पहली बार मुझे लगा कि मैं चीख कर कहूँ कि मैं वहां रहती हूं जहाँ सती रहती है ।
मेरी मां मुझे खोजते हुए छत पर आ चुकी थीं।
मां के कुछ भी कहने से पहले मैंने कहा -
"मां ! कल से मैं आपके साथ सती चौरे पर जल चढ़ाने चलूं क्या ? "
मां यह सुनते ही खुश हो गई थी । बेहद खूबसूरत सुबह था वह जो आज भी मेरे जीवन में रोशनी बोलती है । अब हकीकत की भीषण आग सती के लोटे के जल से शांत हो चुकी थी और सतीचौरा में माँ सती की मूर्ति मुस्कुरा रही थी।