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उजाले की ओर - संस्मरण

उजाले की ओर---संस्मरण

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नमस्कार स्नेही मित्रो !

अब तो बस पुरानी पुरानी बातें ही याद आती हैं | हो सकता है उम्र का तक़ाज़ा हो या फिर दिमाग की कोई खुराफात भी हो सकती है |पता नहीं लेकिन कुछ तो है जो भीतर ही भीतर छलांगें मारता पता नहीं कहाँ पहुँच जाता है | तो आज बात करती हूँ तब की --जब किशोरी थी | कत्थक सीख रही थी ,शास्त्रीय संगीत भी किन्तु गंभीरता कहीं नहीं | लगता जैसे हम बड़े तीसमारखाँ हैं ,अपने जैसा कोई नहीं |पता नहीं लोग भी बड़ी प्रशंस करते रहते माँ के सामने !माँ भी रीझने लगतीं |

उन दिनों हमारे यहाँ एक ग्रामोफ़ोन हुआ करता था 'हिज़ मास्टर्स वॉयस' का |संगीत के शौकीन घरों में इसको बड़े शान से बजाया जाता |बड़े बड़े काले तवे होते ,पतले प्लास्टिक के बने हुए जिन पर हिज़ मास्टर्स वॉयस का मोनोग्राम यानि एक कुत्ते का चित्र बना रहता जो बड़ा सुंदर लगता मुझे | अभी तक मुझे उसके कुछ गीत याद हैं जो हमारे घर में अक्सर सुने जाते | गायकों के नाम तो याद नहीं हैं किन्तु गीत के बोल कुछ ऐसे थे ;

'एक बंगला बने न्यारा'

और

'या इलाही गिर न जाए घंटाघर,मेरे नाना ने बनाया घंटाघर'

और भी कुछ थे शायद नूरजहाँ बेगम के ,फिल्मों में मज़ाकिया पात्र निर्वाह करने वाली टुनटुन भी गाती थीं | शायद उनके भी कुछ रेकौर्ड्स थे |

माँ को ठुमरी बहुत पसंद थीं ,कई रेकार्ड्स उनके भी थे |ख़ैर बात कहाँ से कहाँ बहक जाती है | मैं तो अपनी बात कर रही थी जो बेशक इस ग्रामोफ़ोन से जुड़ी है |

कुछ ही दिन पहले नए खुले डिग्री कॉलेज में पड़ौस में रहने वाली शीला जीजी अक्सर मुझे अपने साथ अपने कॉलेज के फंक्शन में नृत्य के लिए ले जाती थीं | मैं वहाँ से खूब फूली-फूली लौटती |नानी कहतीं --

"मटकवा लो जितना चाहो ,अरे ! कुछ घर के कम भी सीख लो -----"

अम्मा सोचतीं ,अभी सोलह साल की तो है ,जब ज़रूरत पड़ेगी घर के काम भी सीख क्या, कर ही लेगी |

ऐसा ही होता है ,बुज़ुर्गों को लगता है लड़कियाँ हैं ,दूसरे घर की अमानत !चाहे काम करना पड़े या न करना पड़े ,लड़कियों को सब काम आना चाहिए |

ख़ैर,वो उम्र ही ऐसी होती है ,हवा के घोड़ों पर सवार !

अम्मा अध्यापिका थीं और उनके मन में ऐसा कोई विचार नहीं आता था कि अब बिटिया को घर के काम में झौंक दो |

अपनी बिटिया की प्रशंसा सुनकर ही वो फूल जातीं |

उस दिन रविवार था ,घर की सेविका ने छुट्टी ली थी | अम्मा रसोईघर में ज़रूर मेरे ही लिए कुछ मेरा पसंद का खाना बना रही होंगी |

मैं बरामदे में बैठी थी,जहाँ एक छोटी सी डाइनिंग टेबल पड़ी रहती थी ,उसीके पास अम्मा के लाडले ग्रामोफ़ोन महाराज पधारे हुए थे | बरामदा काफ़ी बड़ा होने से उसमें काफ़ी चीज़ें समा जातीं | एक दीवान भी उसमें पड़ा था जिस पर अधलेटी मैं न जाने कोई पत्रिका पढ़ रही थी |

"मुनिया ,ज़रा एक ठुमरी का रेकॉर्ड तो चढ़ा दे ---"अम्मा ने रसोईघर से कहा |

ग्रामोफ़ोन एक बड़े बॉक्स जैसे ऊँची जगह पर था ,उस बॉक्स में तीन ओर ड्राअर्स बने हुए थे जिनमें छोटी-छोटी डिबियों में ग्रामोफ़ोन के पिन्स रखे रहते जो रेकॉर्ड रखकर उसके अर्ध गोलाकार इन्स्ट्रुमेंट के आगे के भाग में एक गोल से भाग में बनी छोटी सी पिनहोल में लगाने पड़ते ,साइड में एक और डंडा सा था जिसका हैंडल साइड में बने छेद में डालकर उसे घुमना पड़ता तब कहीं वो रेकॉर्ड महाराज बजते | और अगर थोड़ी सी देर हो जाए और उस इन्स्ट्रुमेंट को गोल न घुमाया जाए तो गीत महराज रोने लगते | उनकी वो बेसुरी सी आवाज़ बड़ी असहज कर जाती और कोई न कोई भागकर जाता और चाबी भरता ,तब कहीं उनका सुर सुरीला हो पाता |

अम्मा ने कहा था तो मुझे यह करना ही था सो पत्रिका एक ओर रखकर ग्रामोफ़ोन जी से जूझने उठी | पता नहीं अम्मा को क्या हुआ ? शायद वे पहले दिन सुनी हुई अपनी बिटिया की प्रशंसा से ओतप्रोत हो रहीं थीं जिसकी रिपोर्ट शीला जीजी ने उन्हें दी थी | हम सब जानते हैं ,माँ क्या होती है |

मैं उनका रेकॉर्ड लगाकर चाबी भर ही रही थी कि अम्मा बोल उठीं ;

"पता नहीं ,कहाँ की सुंदर लगती है तू सबको ---"अचानक उनके बोलने से मैं हैरान हुई ,क्या हो गया इनको ?

अम्मा के चेहरे पर कोमल ममता भरी स्मित थी ;

"मैं कितनी देर से तुझे देख रही हूँ ,एक-एक चीज़ देखो तो कहीं हूर की परी नहीं है,नाक तो देख ,गोभी का पकौड़ा है !फिर भी आपकी बेटी बड़ी सुंदर है ,लोग यही कहते रहते हैं |"

मैं अवाक होकर अम्मा का चेहरा देखने लगी ,चाबी पूरी न भरी होने से कुछ सेकेंड्स में ही रेकॉर्ड हिचकोले खाने लगा था ---

"अरे !चाबी भर उसमें --"अम्मा ने ज़ोर से कहा |

मैंने जल्दी से चाबी भरी ,ठुमरी ठुमकने लगी और माँ का चेहरे पर मुझे देखते हुए लाड़ की स्मित से भर उठा |

तब ये सब बातें समझ नहीं आती थीं ,अब लगता है किसी भी माँ को अपना बच्चा सबसे खूबसूरत लगता है ,बेशक उसके मन में बच्चे को नज़र न लगे ,ये विचार हों और टोटके करने के लिए वह कुछ भी बोलती ,सोचती या करती हो |

माँ वह है जिसे किसी और संबोधन की आवश्यकता नहीं !!

सच है न मित्रों !

मिलते हैं अगले सप्ताह एक नई उजाले की भोर और संस्मरण से |

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती