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स्कूल की खिड़की

स्कूल पहले अस्पताल हुआ करता था, जिसे बाद में पढ़ने का कक्ष बनाया गया। कुछ लोगों का कहना था की यह कमरा अंग्रेज समय का बना हुआ है। यहां किसी की मृत्यु भी हुई है। कई तरह की बातों से मेरी तरह और भी छात्र इस कक्ष में आने से डरने लगे थे। यह कक्ष शुरुआत से ही काफी डरावना रहा। अब तो खंडहर बन जाने से और भी डरावना हो गया। कक्ष के ऊपर फांसी के फंदे समान रस्सी लटकते हुए दिखाई देता है। जब-तक स्कूल में रहा हर कोई इस कक्ष की नई कहानी सुनाता मिला। भीतर डर बस जाने से अकेले कक्ष में जाने से भी हमेशा बचता रहा। छुट्टी होने के बाद भी क्लास से जल्दी निकलने की रेस में अव्वल रहता। हर कोई इसे भुतहा कमरा कहने लगा था। स्कूल के अंतिम वर्ष की पढ़ाई के लिए हमें यही कक्ष मिला था। पढ़ाई में उत्कृष्ठ नहीं होने पीछे की ओर बैठना ही सही लगता था, ताकि दोस्तों से थोड़ी बातचीत और मस्ती हो जाए। टेस्ट हो तो कॉपी खोलकर आसानी से लिखते भी बन जाए। भूख लगे तो टिफिन भी खाया जा सके। अक्सर पढ़ाई के दौरान मेरा ध्यान ऊपर बने फांसी के फंदे पर होता। आँखे वहीं गड़ी रहतीं। जब शिक्षक का ध्यान मेरी ओर जाता वह चॉक फेंककर मेरा ध्यान भंग कर देते। यह देखकर कक्ष में बैठे अन्य छात्र भी हँस पड़ते। सहपाठियों को हंसता देखकर मुझे भी हंसना आ जाता। अक्सर शिक्षक घर में यही कहते पढ़ाई के वक्त अन्य चीजों में ध्यान होने से आपका लड़का पीछे रह जाता है। यह बात तो घर वालों को भी मालूम थी।

पढ़ाई से अधिक मुझे फांसी के रहस्य जानने की उत्सुकता होती थी। फंदे को देखकर विचार आता इसमें किसी की मृत्यु हुई होगी? या किसी ने खुद ही आत्महत्या कर जीवन त्याग दिया होगा? क्या उसकी आत्मा आज भी हमारे आसपास भटक रही होगी? अगर होगी तो कहां होगी, पीछे की ओर जहां मैं बैठता हूं? एक बार घर में पिता से पूछा था, क्या सच में हमारे स्कूल में किसी की मृत्यु हुई थी? उस समय पिता ने कहा था, पहले स्कूल अस्पताल था। अंग्रेज समय का बना है, इसलिए वह अब धरोहर के तरह है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ कहना सही नहीं समझा, जबकि मुझे मृत्यु का रहस्य जानना था। छुट्टी के बाद कक्ष के खिड़की और दरवाजे बंद करने का ज़िम्मा मुझे मिला था। अक्सर छुट्टी के बाद खिड़की के सुराख से अंदर झांकता कहीं कोई दिखाई पड़े लेकिन भीतर काले रंग का अंधेरा कक्ष को अपने में समेटा हुआ दिखाई पड़ा, जिसमें वह फांसी का फंदा भी छिपा होता। कई बार सुराख से शाम की रोशनी कक्षा में प्रवेश करते ही वह एकांत का सर्वोत्तम जगह दिखाई पड़ता। इस वक्त कक्ष को देखने से डरावना दृश्य मेरी कल्पना में नहीं होता। कक्ष के एकांत को करीब से महसूस करने कक्ष से लगाव शाम के वक्त बढ़ने लगा था। एक दिन स्कूल की छुट्टी होने के बाद खुद को कक्ष में अकेला पाया। पहले बार फांसी के फंदे को लंबे समय तक देखता रहा। वहां एक चिड़ियों का घोंसला बना हुआ था। कुछ कपड़े जैसा भी लटका हुआ था।

खिड़की के बंद होने के बाद कक्ष के दीवार के एक हिस्से में सूर्य की रोशनी आकृति बनाए हुई थी। मैं उस जगह पर बैठ गया। इस वक्त कुछ सोचना चाहता था, एकांत जैसा। भीतर अकेले होने का डर नहीं था लेकिन डर महसूस करते ही मुझे दौड़ लगाने की इच्छा हुई, लेकिन मन वहां तब-तक बैठना चाहता था, जब-तक कक्ष में पूरा अंधेरा ना हो जाए। कक्षा से बाहर आने के बाद मन उस एकांत में छूट आया था। अब उस कक्ष से दोस्ती करना चाहता था लेकिन यह संभव कैसे? सोचने लगा तभी विचार आया मुझे भीतर के डर को त्यागकर दिल से कक्ष को स्वीकार लेना चाहिए।

क्या कक्ष मुझसे दोस्ती करना चाहेगा?

वह अकेला है सालों से उसे एक मित्र की जरूरत है, जो उसे समझ सके।

मेरी दोस्ती कक्ष से होगी या फांसी के फंदे में हुई मृत्यु वाले व्यक्ति से?

मन इन सवाल का जवाब देने में असमर्थ था, लेकिन उसने कहा- दोनों से होगी।

तुम्हारे भीतर छिपे एकांत को क्या प्रिय है? कक्ष के भीतर की चुप्पी। मुझे वह महसूस करना है। महसूस करना उससे मित्रता और पहली मुलाकात के तरह होगी। यह कब होगा? भीतर से सवाल था। जब स्कूल में छुट्टी होगी उस दिन मैं कक्ष में आऊंगा। इस वक्त कोई नहीं होगा। एकांत गहरी चुप्पी को महसूस कर सकता है। अपने साथ कागज और पेन भी ले जाऊंगा, जो महसूस करुंगा उसे लिखता चलूंगा।

हर रविवार को शाम के वक्त मुझे स्कूल जाने की इच्छा होती। कई बार स्कूल के चौखट में पहुंच भी गया, लेकिन उस कक्ष के भीतर नहीं। देखते ही देखते स्कूल खत्म होने के करीब पहुंचने लगा। फरवरी माह में स्कूल में वार्षिक उत्सव होना था। इन दिनों गहरे प्यार के वियोग में था, जिस दिन स्कूल में वार्षिक उत्सव था। मुझे आस्था का इंतजार था। वह मेरा डांस देखने आने को थी। पीछे खेत के रास्ते से उसके आने का इंतजार करते दोपहर से शाम हो आई। उसके कुछ दोस्त दूर से आते हुए दिखाई दिए लेकिन इसमें वह शामिल नहीं थी। मुझे विश्वास था वह नहीं आई तो उसका कारण भी होगा। शायद उसके मित्र मुझे बताएंगे। कार्यक्रम स्थल पहुंचते ही उसके एक दोस्त ने मेरे हाथ में उसका लिखा हुआ खत थमा दिया और कहा, आस्था ने तुम्हें देने को कहा हैं। झट से पूछा डाला वह क्यूं नहीं आई? तुम्हें इसका कारण खत में मिल जाएगा। ज्यादा सवाल नहीं करना चाहता था, इसलिए उन्हें बैठकर कार्यक्रम का आनंद लेने कह कर वहां से चला आया। कारण जानने मुझे खत को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ने लगी थी। क्या लिखा होगा उसने? क्या हमारे बीच सब खत्म हो गया? तरह-तरह की बातें मन में चलने लगी थी। कार्यक्रम स्थल में भीड़ होने से ऐसी कोई जगह नहीं सूझ रही थी, जहां इस खत को पढ़ा जा सके। कोई मित्र मुझे खत पढ़ते हुए देख लिया तो स्कूल में बवाल हो जाएगा।

तभी मुझे उस कक्ष की याद आई। तुरंत उस कक्ष की ओर भागा। उस वक्त वहां कोई नहीं था। रात के 8 बज रहे थे। कक्ष में गहरा अंधेरा था। मैंने मोबाइल में टॉर्च चालू कर खत पढ़ना शुरू किया। अक्सर हम दोनों खत का अंत पहले देखते थे क्योंकि अगर हमने खत प्यार में लिखा है तो अंत में प्यार का इजहार होता था। मेरी नजरें उस खत के अंत में गई, जिसमें माफी के साथ प्यार में नहीं रहने की बात लिखी गई थी। खत का शुरुआत पढ़ने से पहले अंत पढ़ लेने से मुझे रोना आ रहा था। इस बीच यह भूल चुका था, मैं उस कक्ष में बैठकर खत पढ़ रहा, जिससे मुझे बेहद डर लगता है। एक बार पूरा खत पढ़ने के बाद मैंने दो से तीन बार और उसे पढ़ना चाहा लेकिन हर बार ध्यान उसी शब्द की ओर चला जाता, जिसमें लिखा था मुझे तुमसे अब प्यार नहीं। मुझे अकेले रहना है। क्या अकेले होना एकांत की ओर जाना होता है? मैंने उस दिन दीवार पर पैन से एकांत लिखा था। यह आज से मेरा एकांत कक्ष है। काफी शांत हो चुका था। पेन से खत के पीछे बार-बार आस्था और अपना नाम लिखने लगा था। जब खत से एक तरह का संबंध टूटा मैं अंधेरे को महसूस करने लगा। आंखों के आंसू सूख चुके थे। डरते हुए मैंने लाइट ऊपर की ओर किया फांसी का फंदा स्थिर था। वहां चिडिया भी नहीं थी। ठंडी हवा खिड़कियों से मेरी ओर आ रही थी। बाहर थोड़ी दूर से संगीत की आवाज सुनाई दे रही है। मेरा डांस आने की घोषणा कभी भी हो सकती है। मित्र मुुझे तलाश रहे होंगे। खत पढ़ने के बाद कक्ष के भीतर का एकांत ऐसा था, मानो इस बीच मैं आस्था से गले मिल रहा हूं। मुझे बाहर जाने की जल्दी थी लेकिन एक तरह का एकांत मुझे वहां बैठे रहने को मजबूर कर रहा था। एक सुकून जो अपने मन से मिलता है, उस वक्त यही महसूस कर रहा था। पहली बार एक घंटा अंधेरे के बीच उस कक्ष में गुजारा था। मेरे लिए वह आस्था के साथ बिताए समय की तरह रहा, जो मेरे जहन में आज भी समाया हुआ है। स्कूल खत्म होने के बचे महीनों में अक्सर शाम के वक्त उस कक्ष में चला जाता। एक तरह का संवाद वहां जाते ही शुरू होने लगता और निकलते ही लंबी चुप्पी। वह प्रेम में वियोग जैसा था। आस्था से दूर होने के बाद एकांत में रहना शुरू कर चुका था, जिसे महसूस उस कक्ष में किया था। एक लगाव सा होने लगा था। स्कूल खत्म होने के बाद वहां जाना कम होने लगा। एक-दो बार जाना हुआ था, लेकिन दोस्तों के साथ होने से वहां नहीं गया। अगर चला जाता तो एक तरह का संबंध खत्म हो जाता जो, हमारे बीच जुड़ा हुआ था। लगभग 9 सालों बाद मैं पहुंचा वह कक्ष पूरी तरह से खंडहर बन चुका था। अब वहां कोई पढ़ाई नहीं करता। बारिश में कभी-भी वह गिर सकता है। कक्ष के करीब जाते ही मेरे हाथ खिड़कियों की ओर बढ़ने लगे। मुझे विश्वास था मेरा अपना एकांत आज भी वहीं मिलेगा। दीवार पर लिखे हुए निजी शब्द आज भी होंगे। शायद कक्ष थोड़ा नाराज हो लेकिन वह मुझे स्वीकार कर लेगा, लेकिन ना भीतर जाने की हिम्मत नहीं हुई ना खिड़की को छूने की और ना ही उसके भीतर झांककर देखने की। खिड़कियों से जितना भीतर दिख रहा था, कक्ष पूरी तरह जाले के गिरफ्त में था। मैंने अपना फोन निकाला और यह तस्वीर ले ली। अपने जीवन के खूबसूरत पल मैंने इस कक्ष में महसूस किए हैं। एकांत और अकेले रहने का सुख मुझे यहीं मिला है। घर लौटते वक्त बस यही कामना करता रहा कि कक्ष टूटे नहीं, गिरे नहीं बल्कि इसे मेरी भी उम्र लग जाए। फिर यह जीवित हो जाए और मेरी यादों में इस कक्ष को हमेशा-हमेशा के लिए जीवन मिल जाए।