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विरहणी राधा -राजा मीरेन्द्रसिंह

राजा मीरेन्द्रसिंह जू देव की कृति विरहणी राधा पर समीक्षात्मक पहल

रामगोपाल भावुक

संसार के भक्त संतों-महात्माओं के विचारों का प्रभाव पड़े बिना,कोई कवि भक्ति रस की अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकता है। भक्त हृदय प्रभु की लीलाओं का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन करते रहे हैं। विरहणी राधा के कवि राजा मीरेन्द्रसिंह जू देव की यही हालत देखने को मिली है। उन्होंने ब्रज भूमि के संत महात्माओं से प्रभावित होकर ही इस कृति का सृजन किया होगा।

कवि विरहणी राधा की प्रस्तावना में स्वयं यह स्वीकार कर चुका हैं कि अमर आत्माओं द्वारा वर्णित श्री राधा के अकल्पनीय एवं निष्काम प्रेम के सजीव वर्णनों सें प्रभावित होकर ही इस रचना को लिखने में समर्थ हुआ हूँ।

प्रस्तुत रचना को कवि ने उन महापावन चरणों में अर्पित किया है जिनकी थाह स्वयं जनार्दन भी नहीं पा सके। मुझे इस रचना का यही वाक्य सार भी लगा है।

कवि अपने प्रबन्ध काव्य का प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरण में श्री राधा जी के गुण गान करता दिखाई देता है-

करौ मन राधे को गुनगान।

कुटिल अलक, मद पलक रलक- छवि छलकति दिशा दिशान।

अगले सर्ग राधा में श्री राधा जी के अंग- प्रतिअंगों की सुन्दर झाँकी दिखाई देने लगती है।उनकी गोद का सरस वर्णन करते हुए कवि कहता है-

राधिका वल्ली की पा गोद।

फूल सा उठा विजन में फूल

और राधा जी के हृदय की बात यही ज्ञात हो जाती है।

शेष था प्रेम मात्र बस प्रेम।

प्रेम की चरम सीमा और क्या हो सकती हैं?

इसी प्रकार का सरस वर्णन जब श्री राधा जी रास रचतीं हैं तब-

रचा राधा ने ऐसा रास

कि जिसकी मादकता में डूब।

वह गया जगती का दुःख दोष

गई पीड़ा पीड़न से ऊब।

इसी सर्ग के बाद गोपी नामक सर्ग का उदय होता है। श्री राधा जी के प्यार सरोवर में डूबी हुईं गोपियाँ कहतीं हैं-

राधा के प्यार सरोवर में

डूबा दारुण संसार सखी।

यहीं दूसरे स्थान पर-

राधा मय है अपनी जगती।

वह खोये धन का प्यार सखी।

इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्री राधा और सखियों के मध्य कोई दूरी नहीं हैं। उपरोक्त पक्तियों में सखियों और राधा जी की निकटता अनुभव की जा सकती हैं

अगला सर्ग आलाप उद्धव गान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी सर्ग कवि श्रीराधा का आव्हान करते हुए कहता है-

हृदय में हृदय प्राण में प्राण प्रिया का होने दो आव्हान ।

इससे अगले छंद में उद्धव गा उठते हैं।

राधा की अवधूत दशा में ,मोहन छवि छवि जात।

ब्रज रज कनकन डहकि डहकि राधा राधा बतरात।।

आपके अधिकांश छन्दों में अलंकारों की अनुपम छटा के साथ मन मोहक दृश्य आँखों के सामने उपस्थित हो जाते हैं।

उसी प्रसंग में कवि राधा कर वर्णन करते हुए गा उठता है-

किन रंगों में प्रत्यक्ष करूँ।

मैं राधा का आधार सखे।

निधि आँखों में बरस रही

रे प्रेमासब की धार सखे।।

श्री राधा की मन मोहक छवि का वर्णन सहज सरल कार्य नहीं है, लेकिन कवि इसमें पूरी तरह सफल रहा हैं

इससे अगले सर्ग आमंत्रण में उद्धव जब बापस आओं तब श्री राधा के चरण चिन्ह अंकित रज को अपनी गोद में भर लाना-

यमुना के चंचल अंचल में भी दो आँसू देना डाल।

राधा चरण चिन्ह अंकित रस से भर लाना गोद संभाल।।

इसी प्रसंग में उद्धव प्रेम निमंत्रण सौ सौवार देते हुए ब्रज से चले जाते हैं।

प्रस्थान सर्ग तथा यज्ञोत्सव नामक सर्ग कृति को विस्तार देने के लिये ही रखे हों ऐसा पाठक को अहसास होता हैं। इन सर्गो में राधा को उतना स्थान नहीं मिल पाया है, जितना मिलना चाहिए था।

इससे अगले सर्ग रास में राधा को योगिनी के रूप में देखा जा सकता है- उसकी शांति पूर्ण छाया में, उज्जवल पूँजी रत प्रकाश।

बैठी थी वहाँ योग बेष में वश में कर धरणी आकाश।।

इस सर्ग में राधे- राधे नाम की रट भी सुनाई पड़ती है। ऐसा लगता है पिछले दो सर्गों की पूर्ति राधे- राधे नाम की रट लगाकर कर देना चाहते हैं।

वट शाखा आसीन कीट कुल, राधे राधे उठा पुकार।

कथ्य का प्रवाह बनाये रखने के लिये सूर्य ग्रहण सर्ग का जन्म होता है और इसके बाद अनुपम दान सर्ग का। इन दोनों सर्गों का सम्बन्ध कहानी की मूल भावना से है। सूर्य ग्रहण के बाद अनुपम दान अनिवार्य है।

अनुपम दान का वर्णन करते हुए कवि नारद जी को प्रकट करता है। इसमें वे हास्य रस भी ले आते हैं।

असंख्य रमणी रत्नों के चढ़ते जिस परसुमन शिरीष।

अपने बहु पत्नीत्व भाव का चखते स्वाद द्वारिकाधीश।।

यह विचार मन में आते ही श्रीकृष्ण रुकमणि जी से कहते हैं-

प्रिय से प्रिय पदार्थ का सत्वर

कर डालो तुम दान पवित्र।

यह आदेश पाकर उनकी सभी पत्नियाँ अपने पति का ही अनुपम दान कर देतीं हैं। श्री कृष्ण उस स्थिति में नारद जी के पीछे- पीछे चल देते हैं। इससे उनकी सभी पत्नियाँ दुःखी हो जातीं हैं। अन्त में यह निश्चित होता है कि उनके बराबर सोना दान कर दिया जाये।

श्री कृष्ण तुला पर बैठ जाते हैं। राज महल का सारा सोना तुला पर चढ़ जाता है किन्तु तुला बराबर नहीं होती।

इसी समय वे राधिका को लाने का प्रस्ताव अपनी सभी रानियों के समक्ष रखते हैं और यहीं पर पुनर्मिलन सर्ग का जन्म होता है।

इस द्वि विधा से मुक्ति प्राप्ति का केवल एक उपाय।

इससे आगे भगवान श्रीकृष्ण राधा का परिचय देते हुए कहते हैं-

राधा नाम अमर जग पूजित बाधायें हरती निष्काम।

वरद हस्त के मात्र स्पर्श से सुख समृद्धि पाते विश्राम।।

भगवान श्री कृष्ण के मुख से श्री राधा के चरित्र की विशेषतायें सुनकर पाठक भाव विभोर हुए बिना नहीं रह सकते और श्री कृष्ण की रानियों के मन में उनके प्रति विश्वास जाग जाता है। वे उन्हें बुलाने के लिये चल देतीं हैं।

जब श्री कृष्ण की सभी रानियाँ राधा जी कें पास पहुँतीं हैं तो

समझ गईं राधा रानी सब देख सामने विकल समाज।

राधा रानी उनकी रानियों से जब श्री कृष्ण की कथा सुनतीं हैं तो-

हरि हरि करके प्राण रो उठे।

हो व्याकुल अत्यन्त अधीर।।

श्री राधा जी रानियों के साथ श्री कृष्ण विक्रय स्थल पर आतीं हैं और राधा जी अपनी एक मुद्रिका तुला में डाल देतीं हैं। श्री कृष्ण तुल जाते हैं।

तुलादान के बाद राधा वहाँ रुकतीं नहीं हैं। वापस चल देतीं हैं। यही से कथानाक में मोड़ आ जाता है। श्री कृष्ण उनके पीछे पीछे भागते चले जा रहे हैं।

यद्यपि दौड रहे थे माधव, पर न पहुँच पाते थे पास।

किन्तु-

किन्तु न राधा को सुन पड़ता,

ना ही हरि का विव्हल आव्हान।

भगवान श्री कृष्ण उन्हें समझा रहे हैं-

राधे बहुत हो चुका मान।

और श्रीकृष्ण कहते हैं-

राधे को समझा दे कोई,

मुझे जगाकर ही वह सोई।

इसके बाद भी जब वे नहीं रुकीं तो श्री कृष्ण का रुदन सुनाई पडता है-

राधे के कानों के ढिग जा करता रोदन भारी।

आत्मसमर्पण करता था, वह बनकर परम अनारी।

श्रीकृष्ण को लगने लगता है कि श्रीराधा जी निष्ठुर बन गईं हैं। इस तरह श्री राधा जी की निष्ठुरता और श्रीकृष्ण जी की आतुरता का वर्णन करने में राजा मीरेन्द्रसिंह जू देव पूरी तरह सफल रहे हैं।

मैने जब- जब राजा साहब से इस प्रसंग को सुना है, वे उसे सुनाते सुनाते हिल्कियाँ भर भरकर रोने लगते थे। आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती थी। श्रोता भी भाव- विभोर होकर अश्रुपात करने लगते थे।

राजा साहब कहते थे-सारे मुनि, गुणी सुर- नर श्री राधा की लीलाओं का पार नहीं पा सकते। मैं भी उनसे अपने लिये करुणा का दान मांग रहा हूँ।

मैं तो श्री राधा जी के चरणों में अपने चित्त को लगाये रखता हूँ और उनके रूप सरोवर में डूबा रहना चाहता हूँ।

महाराज ने अपने निवास में वृन्दावन की रमणरेती से रेत मांगवाकर अपनी साधना स्थली का निर्माण किया था। जिसमें बैठ कर वे घन्टों साधना करते रहते थे।

राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी अक्सर आपके पास आकर ठहरा करते थे। राजा साहब उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानते थे।

वे इस नगर के हिन्दी के विद्यार्थियों को प्रतिदिन निशुल्क पढ़ाने का कार्य भी करते रहे। आज भी उनके विद्यार्थी इस नगर में मिल जाते हैं जो महाराज की पढाने की कला की प्रशंसा करते थकते नहीं है। रत्नावली उपन्यास के लेखन काल में मैने भी आपसे निराला जी की तुलसी दास रचना पर लगातार तीन-चार दिन तक चर्चा की है।

मैं इसके लिये मैं राजा साहब जी का हमेंशा आभारी रहूँगा।

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सम्पर्क- रामगोपाल भावुक कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र. 475110 मो0 9425715707