Kya yehi meri jeet thi. books and stories free download online pdf in Hindi

क्या ये ही मेरी जीत थी 

"नहीं, नहीं, नहीं…एक बार मना कर दिया फिर भी समझ में नहीं आता क्या राधा ? क्या ज़रूरत है अभी मायके जाने की ? बार-बार जाने की ज़िद करके, फिर नाराजी दिखाती हो। 25 साल भी तुम्हें कम पड़ गए क्या, वहाँ सब के साथ में रहने के लिए।"


"इसी बात को तो तुम्हें समझना पड़ेगा ना राजन। 25 साल रही हूँ, कैसे छोड़ दूं और क्यों छोड़ दूं ? महीने दो महीने के लिए जाने का नहीं बोल रही हूँ। सिर्फ़ दो-तीन दिनों के लिए ही तो जाना चाह रही थी। बहुत याद आ रही है सबकी।"


"दो दिन क्या राधा मैं तुम्हें दो घंटे की भी इजाज़त नहीं दूंगा।"


"तो क्या मैं यह समझ लूं राजन कि तुम मेरे जीवन साथी नहीं मालिक हो ? मैं तुम्हारी दासी, तुम्हारी गुलाम हूँ, जिसे हर बात में तुम्हारी अनुमति लेनी होगी।"


"इस तरह शब्दों के चक्रव्यूह में मुझे फंसाने की कोशिश मत करो राधा। तुम्हारे इन तीखे वाणों का मुझ पर कोई असर नहीं होने वाला।"


राधा निराश हो गई, दूसरे कमरे में जाकर वह रो रही थी। उसकी सिसकियों की आवाज़ सुनकर राजन की माँ विजया उस कमरे में गई। राधा को रोता देख कर विजया ने पूछा, "राधा बेटा क्या हुआ, तुम रो क्यों रही हो ?"


"कुछ नहीं माँ "


"राधा बताओगी नहीं तो मैं तुम्हारी तकलीफ कैसे दूर करूंगी ? राजन से झगड़ा हुआ है क्या ?"


"देखो ना माँ, यह राजन कैसा करता है। सिर्फ़ दो दिनों के लिए मम्मी के घर जाने का पूछ रही थी तो मना कर दिया, ऊपर से नाराज भी हो गया। कहता है दो दिन क्या दो घंटे के लिए भी नहीं जाने दूंगा।"


इतना सुनते ही विजया का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। गुस्से में उसने आवाज़ लगाई, "राजन इधर आओ।"


राधा ने विजया को रोकते हुए कहा, "अरे माँ आप यह क्या कर रही हो ? राजन नाराज हो जाएगा, उसे लगेगा मैं आपसे उसकी शिकायत कर रही हूँ।"


"होने दो राधा उसे नाराज।"


"बोलो माँ क्या है, क्यों बुलाया आपने ? अच्छा…अब यह आँसू बहा कर आप को पटा रही है। आप भी समझा दो माँ इसे, रोज-रोज याद आई कहकर मायके जाने की ग़लत ज़िद ना करे।"


"चुप हो जाओ राजन तुम भी बिल्कुल अपने पिता की ही भाषा बोल रहे हो। उन्होंने भी मुझे कभी मायके में रहने नहीं दिया। हमेशा मुझ पर शासन किया है उन्होंने। शादी के बाद मैं कभी अपने उस परिवार के साथ ना रह पाई। मैंने जो भोगा है उस दर्द की पीड़ा को केवल मैं ही समझ सकती हूँ। वही पीड़ा मैं राधा को कभी नहीं सहन करने दूंगी। तब मेरा साथ देने के लिए कोई आगे नहीं आया। इनकी माँ भी बिल्कुल अपने बेटे जैसी ही थी। उन्होंने भी हमेशा दीनानाथ का ही साथ दिया। राधा बेटा तुम्हारा साथ देने के लिए मैं हूँ, मैं तुम्हारी ढाल बनूँगी। देखती हूँ तुम्हें कौन रोकता है ?"


"जाने दो ना माँ, मुझे नहीं जाना।"


"बस यही तो बात है ना बेटा कि हम इतनी जल्दी हार मान लेते हैं, डर जाते हैं, जबकि हम कुछ ग़लत नहीं करते, फिर भी झुक कर माफी मांग लेते हैं। मुझे राजन से बात करने दो राधा।"


“राजन तुम्हें यह हक़ किसने दिया है जो तुम राधा के आने-जाने पर पाबंदी लगा रहे हो ? वह एक अलग इंसान है जिसे अपने जीवन के निर्णय लेने का पूरा हक़ है। वह कोई तुम्हारे शरीर का हिस्सा नहीं है जिसे तुम अपनी मर्जी से उठा या गिरा सकते हो। मुझसे ग़लती हुई थी राजन कि मैंने कभी विरोध में आवाज़ नहीं उठाई। काश उसी समय आवाज़ उठा कर विरोध कर लिया होता तो जीवन भर का पछतावा तो ना होता।"


"माँ आप यह क्या कह रही हो ?"


"सच ही तो कह रही हूँ बेटा, दिल के गहरे घाव हैं यह, जो मैंने अंदर ही छुपा कर रखे थे, खैर। राधा चुप रहकर, उदास होकर और मन मार कर जीने से अच्छा है खुल कर जियो। यदि आप ग़लत नहीं हो तो आपको अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है और अपनी माँ के घर जाना कोई ग़लत बात तो है नहीं। इसके लिए तुम्हें किसी से अनुमति लेने की ज़रूरत ही नहीं है।"


"अरे माँ आप तो काफ़ी नाराज हो गईं, " राजन ने अपनी माँ का माथा चूमते हुए कहा।


"राजन क्या तुम्हें अपना बचपन याद नहीं ? तुम्हें कितनी इच्छा होती थी, अपने नाना-नानी के घर जाने की, जैसे की सभी बच्चे छुट्टियों में जाते हैं। क्या तुम कभी मन भर के वहाँ रह पाए ? राजन किसी की इच्छाओं को मारने वाले गुनहगार मत बनो।"


कमरे के बाहर खड़े राजन के पिता दीनानाथ ने आज पहली बार विजया का यह रूप देखा। उन्हें लग रहा था मानो यह बादल आज फट ही पड़ेंगे।


दीनानाथ सोचने लगे, "इतना दर्द इतने आँसू कब से विजया ने अपनी आँखों में छुपा कर रखे थे। आज तक उसने कभी अपनी ज़ुबान पर यह आने ही नहीं दिया। माँ के सामने भी हमेशा नतमस्तक होकर ही रही। जीवन भर मैंने उसे यह तकलीफ़ दी, क्या यही मेरी जीत थी ? काश विजया की भावनाओं की मैंने कद्र की होती। काश उसे उसके मन मुताबिक जीने दिया होता तो आज उसके यह बहते आँसू न देखने पड़ते। यह पीड़ा आज मुझे बहुत दर्द दे रही है। जो हो गया उसे बदल तो नहीं सकता पर अब मैं एक काम तो कर ही सकता हूँ। राजन को इस रास्ते पर नहीं जाने दूंगा।"


ऐसा सोचते हुए डबडबाई आँखों से उन्होंने कमरे में प्रवेश किया और बोले, "राजन बेटा मुझे यह स्वीकार करने में बिल्कुल भी शर्म नहीं है कि इस मामले में जिस रास्ते पर मैं चला था वह ग़लत था। बेटा तुम्हारी माँ बिल्कुल सही कह रही है। तुम राधा के पति हो उसके जीवन साथी लेकिन तुम उसके बॉस उसके मालिक कभी नहीं हो सकते। पत्नी पर इस तरह का नियंत्रण रखना पुरुषार्थ नहीं है राजन। उस का साथ देना उसकी भावनाओं की कद्र करके उसे भी अपनी ही तरह सम्मान देना पुरुषार्थ है, जो मैं कभी नहीं कर सका ," कहते हुए दीनानाथ रो पड़े।


"पापा आप रो क्यों रहे हैं ? पापा शांत हो जाओ प्लीज़।"


राधा भी दीनानाथ के पास आ गई, "पापा प्लीज़ रोइए मत।"


दीनानाथ ने अपने बेटे-बहू के सामने ही आज अपना स्वाभिमान अपना अभिमान सब कुछ छोड़कर विजया के सामने हाथ जोड़कर कहा, "मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ विजया । मैं वह समय, वह क्षण जो तुमने खो दिए वह तो तुम्हें नहीं लौटा सकता। केवल उसके लिए सच्चे दिल से तुमसे माफी मांग सकता हूँ। इस घर में जो ग़लती हो चुकी है वह ग़लती फिर से दोहराई नहीं जाएगी। विजया क्या तुम मुझे माफ़ कर सकोगी ?"


"आप यह क्या कह रहे हैं ? बीती बातों को भूल जाओ आप। यह तो राधा के लिए मैंने अपनी आवाज़…"


"काश विजया यह आवाज़ तुमने अपने लिए भी उठाई होती। मेरी आँखें खोल दी होतीं तो मुझे आज स्वयं से ही शर्मिंदा नहीं होना पड़ता।"


"हाँ पापा आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, अच्छा हुआ जो आज माँ ने हमारी आँखें खोल दीं और मैं यह ग़लती करने से बच गया।"


उसी समय राजन राधा के पास गया, अपने पापा और माँ के सामने ही उसने राधा से कहा, "राधा मुझे माफ़ कर दो, ग़लती मेरी थी।"


राधा ने विजया की तरफ़ देख कर कहा, "थैंक यू माँ।"


"नहीं राधा थैंक यू तो मुझे तुम्हें कहना चाहिए। तुम्हारे कारण ही सही, मैंने सच का साथ निभाना और सच के लिए बोलना तो सीख लिया। देर से ही सही लेकिन अधिकार जताना तो सीख लिया। हमें और क्या चाहिए बस यह छोटी-छोटी ख़ुशियाँ ही तो हमें एक नए परिवार में आने के बाद उस परिवार को अपना समझने में मदद करती हैं। यदि यह ख़ुशियाँ मिल जाएं तो लगता है मानो हमें स्वर्ग ही मिल गया।"


रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक