Expression of Female Subordination - (Review) in Hindi Book Reviews by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | स्त्री पराधीनता की अभिव्यक्ति - (समीक्षा)

Featured Books
Categories
Share

स्त्री पराधीनता की अभिव्यक्ति - (समीक्षा)

रंजना जायसवाल की कविताओं में स्त्री- पराधीनता की अभिव्यक्ति----शोध छात्रा-क्षमा
रंजना जायसवाल का नाम आज के स्त्री लेखन में बड़ी तेजी से उभरकर आया है। रंजना स्त्री के मन के अंदर झांकती हैं। उसके मन की सोच, उसकी आशा, उसकी आकांक्षा सबका चित्रण करती हैं। रंजना स्त्री -मन को बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत करती हैं। इनकी कविताएँ समाज में स्त्री की स्थिति को स्पष्ट करती हैं। जैसे--
‘‘स्त्री
जिंदगी भर ढूँढ़ती है
सिर छुपाने की जगह
और अंत तक नहीं मिलती
अपनी हथेलियों से
बेहतर जगह उसे।’’1
वाकई स्त्री जब शिशु होती है तभी से उसे पराया मान उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाने लगता है। लोग मानते हैं कि ‘बेटियाँ और विष-बेलें’ अपने आप बढ़ती हैं। सच भी है वे विष-बेलें ही तो हैं इसीलिए उनका अपना कोई घर नहीं होता। जब स्त्री शिशु होती है तो पिता के घर में रहती है, पत्नी होती है तो पति के घर में, वृद्धावस्था में बेटे के घर में रहती है। इसी को रंजना वर्णित करती हैं। स्त्री का जीवन रोते हुए, दुखों को काटते ही बीतता है। मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में--
‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’’
सुरक्षा के नाम पर उसके पास सिर छुपाने के लिए कोई जगह नहीं है। इसीलिए रंजना स्त्रियां को संगठित होने का आह्वान करती हैं। उन्हें पता है आजादी की लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती है। उसे इस बात का एहसास भी है कि सपने पूरे करने हैं तो आजाद होना होगा अन्यथा वह पिंजरे में बंद पक्षी के समान पिंजरे के अंदर से टुकुर-टुकुर देखती ही रह जायेगी और अपनी आजादी, खुले आकाश को कभी भी नहीं देख पायेगी जैसे--
‘‘चिड़िया ताक रही है
टुकुर-टुकुर
सींखचों के पार
इन्तजार है उसे
साथियों का
जानती है वह
अकेले नहीं लड़ी जा सकती
आजादी की लड़ाई
और आजाद हुए बिना
नहीं पूरा हो सकता
उसका सपना
सपना धड़कती नदी
चम्पई धूप
दुग्धर दाना
और खुले आकाश का’’2
स्त्रियाँ बाहर निकलें तो भय से। दरअसल आज की पत्र-पत्रिकाओं में बलात्कार, छेड़छाड़, हत्या के मामले इतने ज्यादा आने लगे हैं कि सभी अखबार इनसे पटे पड़े हैं। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार किया जा रहा है। इसी का वर्णन रंजना की ‘भय’ कविता में है--
‘‘जब भी
मेरी बच्ची को
बुलाता है कोई पुरुष
प्रेम से
पुचकारता है
फेरता है गालों पर हाथ
देता है चॉकलेट
थर-थर काँपने लगती है वह
जा छुपती है घर के अंधेरे कोनों में
ये क्या किया मैंने
क्यों अखबार पढ़ना
सिखा दिया उसे?’’3
रंजना पितृसत्ता की सभी चालाकियों को समझती हैं तथा उसका वर्णन अपनी कविताओं में करती हैं। आज नारीवाद एक प्रमुख मुद्दा है तो पितृसत्ता से ग्रसित समाज उस पर भी उंगली उठा रहा है कि नारीवाद विदेशों से आया हुआ बदबूदार और झागदार बुलबुला है। नारीवादी स्त्रियाँ पुरुषों से घृणा करती हैं। वे तर्क विमुख होती हैं। नारीवाद की वजह से ही स्त्रियाँ एडजस्ट करना भूल रही हैं आदि-आदि। इस पर रंजना की प्रतिक्रिया-
‘‘नारीवादी हो रही है ससुरी
तुड़ती है खूंटा
चिल्लाती है ऐसे
रखी जा रही हो गले पर छुरी
क्या करूं इसका
मारूँ
बेच दूँ
या छोड़ दूँ भटकने को।’’4
वास्तव मेंं समाज में स्त्रियों की दशा पीड़ित और शोषित ही है। शारीरिक अत्याचार, तलाक, शिशुहत्या, भ्रूण- हत्या, नारी की ब्रिक्री।सर्वत्र नारी की यही नियति है। वह कितना भी सहे, कितना भी बर्दाश्त करे उसे बागी ही करार दिया जाता है। स्त्रियों के आँसू तथा उनकी पीड़ा कोई नहीं देखता। उन्हें मतलब है अपने काम से। हर जगह, हर तरह, हर प्रकार से स्त्रियों का शोषण होता है। आज उनके लिए अनेक प्रकार की सभाएँ बुलाई जाती है।। अनेक सेमिनार होते हैं। राजनीति में बहसें जारी रहती हैं जिनमें नारीवाद से सम्बन्धित चर्चाएँ होती रहती हैं, पर उन्हें उनको अधिकार नहीं मिलते। ‘मेरी दाई’ कविता स्त्री पर पुरुष के वर्चस्व का एकदम सही रूप प्रस्तुत करती है। मेरी दाई का मरद हमेशा ही भाग जाता है। उसकी नजर में औरत तो मिल ही जाती है कहीं भी।
वास्तव में समाज द्वारा शुरू से ही धीरे -धीरे पीढ़ी दर पीढ़ी औरतों के मन में यह बात भर दी गयी है कि पति ही स्त्री का सब कुछ है। इसीलिए पति द्वारा छोड़ दिए जाने पर स्त्रियाँ व्रत-त्यौहार, पूजा-पाठ सभी कुछ करती हैं। मांग में सुर्ख लाल सिंदूर लगाती हैं। अगर उनसे कुछ कहा जाये तो वह स्वयं ही कहती हैं--
‘‘इ त अउरत के धरम ह दीदी’’5
वाकई रंजना का सवाल-
‘‘इतना अलग क्यों है स्त्री का धर्म पुरुष के धर्म से।’’6
समाज में पितृसत्ता के नियम-कायदों का खुलासा करता है। दरअसल पितृसत्ता ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए स्त्रियों के लिए कुछ और नियम बनाए हैं और पुरूषों के लिए कुछ और। पुरुषों की इस मानसिकता को इस रूप में देखा जा सकता है--
‘‘मैं पुरुष हूँ और जब मैं पुरुष हूँ
तो कतई जरूरी नहीं है कि दिखूँ भी पुरुष की तरह
मसलन मेरी भुजाएँ बलिष्ठ, सीना चौड़ा
× × × × ×
बस पुरुष योनि में जन्म लेना ही काफी है
पुरुष कहलाने के लिए।’’7
‘मैं पुरुष हूँ’ यह पूरी कविता पुरुष और स्त्री के अन्तर को प्रकट करती है। उनके बनाये नियमों का, उनकी मानसिकता का वर्णन करती है। यौन -संबंध को हमारे यहाँ चरित्र के साथ जोड़कर देखा जाता है। कोई स्त्री अपनी मर्जी से किसी से संबंध बनाए या उसका बलात्कार हो जाए तो उसकी देह अपवित्र मानी जाती है पर पुरुषों के लिए यह सब स्वीकार्य है।
रंजना जायसवाल ने प्रेम पर अनेक कविताएँ लिखी हैं। प्रेम में स्त्री का मन अपने प्रियतम के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहता है।
‘‘दिन भर
नापकर आकाश
पाखी जैसे
लौट आती हूँ घर
घर....
जहाँ
तुम हो।’’8
पितृसत्ता ने पुरुषों की मानसिकता का विकास इस प्रकार किया है कि वे स्त्री को अपने से निम्नतर ही समझते रहें। प्रेम में भी कई बार पुरुष की यही मानसिकता प्रकट होती है--
‘‘मैं चाह रही थी उसका साथ
जो भूल जाता है
मिलने के ठीक बाद कि
मिला था कभी।’’9
स्त्रियों की नियति ही यही बनकर रह गई है कि घर पर रहें, घर का काम करें, बच्चों की देखभाल करें और रात को पति के देर से आने पर भी जागकर उनका इंतजार करें। उनका जीवन केवल घर का होकर रह जाता है। उसके हर एक सपने उसी घर में टूट कर बिखर जाते हैं। इसके प्रति रंजना का संकेत--
‘‘एक एक कर
टूटते गये
जवानी के सपने
कटते गये
धीरे-धीरे
रिश्तेदार
हितैषी
मित्र
सैर-सपाटे
थियेटर
बन गये सपनें
ताकती रही
रात-रात भर
आशंकाओं से ग्रस्त हृदय लिए
दरवाजे की ओर
मिली प्यार की मनुहार की जगह
चिड़चिड़ी फटकार।’’10
वास्तविकता यह है कि पितृसत्ता स्त्रियों का वर्चस्व स्थापित न हो जाए, स्त्रियाँ सत्ता में न आ जाएँ इस बात से सदैव भयभीत रहती है और नारी के लिए अनेक पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, विधि-निषेध बनाकर उसे घर की चारदीवारी में कैद कर रखती है। नारी के मन में यह भाव भर दिया जाता है कि उन्हें पर्दे में इसलिए रहना चाहिए कि इसी में उनकी सुरक्षा और गरिमा है। रंजना पितृसत्ता की कारगुजारी को पहचानती हैं। उन्हें पता है कि पुरुष स्वयं में रिक्त और भयभीत है। इस भय को छिपाने के लिए ही वह पितृसत्ता को कायम रखना चाहता है-
‘‘तुमने बनाये
चिकें.... किवाड़... परदे
फिर भी तुम्हारा डर नहीं गया
तुमने ईजाद किये
तीज-व्रत-पूजा-पाठ
नाना आडम्बर
मगर डर नहीं गया
तुमने तब्दील कर दिया उसे
गूंगी मशीन में
लेकिन संदेह नहीं गया
जब भी देखते हो तुम
खुली खिड़की या झरोखा
लगवा देते हो नई चिकें
नये किवाड़ नये पर्दे
ताकि आजादी की हवा में
खुद को पहचान न ले स्त्री ’’11
पितृसत्ता चालाकी से अपना राज चलाती है। स्त्री अपना स्वत्व न पहचान ले इसके लिए वह उसे सदैव बंद करके रखना चाहती है। वास्तविकता यह है कि वह स्वयं अंदर से खाली है। अपने अंदर के इस खालीपन को भरने, अपने भय को छिपाने के लिए वह स्त्री पर अनेक पाबंदियाँ लगा कर रखता है। इन पाबंदियों में कैद स्त्री कभी भी प्रेम, प्यार, यौन -संबंध के बारे में सोच भी नहीं सकती। यदि वह ऐसा करने की सोचे भी तो यह उसके लिए घोर अपराध बन जाता है--
‘‘युग कोई भी हो
स्थितियाँ चाहे जैसी
घोर अपराध
स्त्री का स्वतंत्र प्यार’’12
एक स्त्री यदि प्रेम करे तो वह पाप की श्रेणी में आयेगा। उस प्रेम को उसे छिपाकर रखना पड़ता है। हाल फिलहाल में ‘‘ऑनर किलिंग’’ के मामले प्रकाश में आए हैं। इज्जत की खातिर अपनी मर्जी से विवाह करने वाली बेटियों का कत्ल। जब लड़का प्रेम विवाह कर ले तो कुछ दिनों बाद उसे अपना लिया जाता है किन्तु लड़की करे तो! उसकी हत्या? समाज की यह दोहरी मानसिकता पितृसत्ता की दी हुई है। जिससे किसी लड़की का प्रेम करना गुनाह बन जाता है। इसीलिए लड़की के पास अपने प्रेमी की तस्वीर छुपाने के लिए मन से ज्यादा सुरक्षित कोई जगह नहीं मिलती। यह सब रंजना को ज्ञात है। स्त्रियों के प्रति समाज में हो रहे दुर्भाव, उनकी दशा, उनका दोयम दर्जा, उन सब में उनका अलगाव है। सबके प्रति रंजना सचेत हैं और-
हर चीज अब / देख सकती हूँ पहचान सकती हूँ / सरलता से /
सब कुछ / करीब पाती हूँ / फुदक कर घुस आई /
धूप के / चमकीले प्रकाश में ;13
आदि कविताएँ इसी के प्रतिरूप हैं। इसलिए वह इस चेतना रूपी धूप को बचाकर रखना चाहती हैं क्योंकि यह विरले ही आती है।
यह धूप है जो / कभी-कभी आती है / कमरे का दिल बहलाती है
फिर चली जाती है / बचाना ही होगा इस / धूप को ;14
वाकई अगर मुक्ति चाहिए तो अपने अन्दर की चेतना को धूप की किरणों के समान बचाकर रखना ही होगा अन्यथा सीलन और उमस रूपी मन की उब उदासी आ घेरेगी और वही घुटन फिर शुरू हो जायेगी। वर्ना
‘‘अनपढ़ हवा
क्या जाने
वक्त की दीवारों पर लिखी
ऋचाएँ
दर्द की’’ ;15
की तरह पुरुषत्व के अहं से भरा पुरुष स्त्री मन को नहीं पढ़ता। पितृसत्ता द्वारा स्त्री कितनी पस्त है। उसकी वजह से उसे कितना कष्ट, कितना दुख उठाना पड़ रहा है। इस सबको पुरुष अपने अहं के कारण बिल्कुल नजरअंदाज कर देता है।
पितृसत्ता चालाकी से अपना काम करती है। स्त्रियों को बचपन से ही पति का घर तथा उनकी आज्ञा का पालन करने की, अपनी सीमा बनाने की सलाह दी जाती है। जैसे पति का घर ही तुम्हारा असली घर है। पति का सुख ही तुम्हारा सुख और उसका दुख ही तुम्हारा दुख है। पत्नी स्त्रा की अपनी इच्छाओं, अपनी चाहत का कोई मूल्य नहीं। वह एक रोबोट की भांति उन सबकी आज्ञा का पालन करती रहे।
स्त्री का प्रेम जितना भी हो,स्त्री देह से ज्यादा पुरुष के लिए कुछ भी नहीं। मारना-पीटना, घर से चले जाना आम बात है। रंजना कहतीं हैं--
तुम जा रहे हो / ब्रीफकेस में / अपने सामान समेटकर /
पर ठहरो / इस घर की दीवारों / अलमारियों / कमरों /
और कोनों में / छूट रही हैं / तुम्हारी यादें / इन्हें भी लेते जाओ ;16
स्त्रियों का पूरा जीवन ही दुखों से भरा हुआ है। स्त्रियों के लिए प्राचीन काल से ऐसे ही घर की कल्पना की गयी हैµ
‘‘जिसमें सिर्फ खिड़कियाँ हों
दरवाजा एक भी नहीं’’ ;17
दरअसल पुरुषों के वास्तुशास्त्र में स्त्रियां के लिए हवादार, और खुला घर अशुभ है। वे स्त्रियों के लिए एक ऐसे घर का निर्माण करते हैं जहाँ से न तो वह देख सके आकाश न ही धूप बल्कि मात्रा पितृसत्ता की कैद को धारण कर गूंगी बनी रहें--
हवाओं का अशुभ है बाहर से भीतर आना
हवाओं और हसरतों का जनानखानों
उनके वास्तुशास्त्र में’’
× × × × ×
उनके वास्तुशास्त्र में स्त्रियों का उल्लेख है /
बस इतना कि / हवा धूप और दुनिया के बारे में /
सोचना मना है / उत्कंठित होना / मौसम की नमी बादल के रंग /
और / सावन की बौछारों से /रोमांचित स्त्रियाँ
× × × × ×
दरवाजा जो सिर्फ़ प्रवेश के लिए बनाया गया है / जिसमें /स्त्री
प्रवेश करती है भीतर जीवित /सिर्फ एक बार / निकल सकती है /
मृत्यु के बाद ही / आदेश है सनातन यह / हमारे स्मृतिकार का / ;18
स्मृति में कहा गया है कि स्त्री ‘‘डोली में चढ़कर ससुराल जाती है और अर्थी में उठकर घर से बाहर निकलती है।’’ इसी की रट पितृसत्ता लगाये रहती है। रंजना इस सब वेफ प्रति सचेत हैं। उनका कथन हैµ
आजाद हो रही हैं अपनी कल्पनाओं में
सीख रही हैं खिड़कियों का वास्तुशिल्प
× × × × ×
निकल जाना बंद दरवाजों के पार
अपनी इच्छा के जादू से
स्त्रियाँ ही सोच सकती हैं / घर के बारे में /
खिड़कियों के बारे में / आजादी के बारे में / स्मृतिकार के बारे में /
सीख रही हैं स्त्रियाँ / घर बनाने की वास्तुकला /
स्मृतिकार की पुरुषों की / इच्छा के विरुद्ध( ;19
परम्परागत सांचे से स्त्रियाँ बाहर निकलने की राह तलाश रही हैं तभी तो आज वे हर क्षेत्र में पहुँचने लगी हैं। अंतरिक्ष से लेकर सेना में सभी क्षेत्रों में अपनी जगह बना रही हैं। उन्हें अपनी मेहनत अपनी लगन अपनी शक्ति अपने श्रम पर पूरा विश्वास है। दरअसल शुरू में ही पितृसत्ता स्त्रियों को बच्चे पैदा करने और उनका लालन-पालन करने लायक ही समझती है। यद्यपि कई क्षेत्रां में स्त्रियों के लिए आरक्षण के माध्यम कुछ जगहें दी भी गयी हैं तो उन पर हस्ताक्षर तो स्त्रियों के होते हैं। परन्तु मस्तिष्क पुरुष चलाते हैं जैसे--ग्राम पंचायत के चुनावों में। जहाँ पर ग्राम प्रधान स्त्री होगी किन्तु सारा कार्य -भार उनके पति लेकर चलते हैं। क्योंकि
चीटियों का संगठन बनाना
कतई नापसन्द है उन्हें कि
सियासी मुद्दों पर अपनी राय दें चीटिंया
चीटियांं का काम है रानी चींटी के अण्डों
और कुनबे के लिए रसद खोजें ढोकर एकत्र करें
प्रतिवाद संवाद और विवाद
यह चींटियों का काम नहीं है
अवध्य होती है
अपनी प्रकृति में परम्परा में रसद के काम से व्यस्त चींटियां ;20
वे स्त्रियाँ जो पितृसत्ता द्वारा जारी किये गये नियमों व कानूनों में बंधकर उनकी इच्छानुसार कार्य करती हैं। वे तो जी सकती हैं किन्तु जिसने भी परम्परा का विरोध किया उसके प्रति विद्रोह का बिगुल बजाया तो उन्हें रण्डी, वेश्या आदि नामों से पुकारा जाने लगता है।
अपनी इस अवस्था के प्रति सचेत होकर
स्त्री काट रही है / जंजीरें / थोड़ी थोड़ी रोज
और... / तड़प रही है / कट गई / जंजीरों की स्मृति में... ;21
स्त्री ने पितृसत्ता द्वारा डाली गई जंजीरों को काटना शुरू कर दिया है। आज वह अपनी आवाज सात समुद्र पार तक पहुँचा रही है। चाहे कुछ भी हो थोड़ी न थोड़ी उसकी आवाज सुनी जाने लगी है--
स्त्री की आवाज / कुएँ से निकलकर / दरिया तक पहुँचती है /
और मौजों पर / सवारी गांठ / जा पहुँचती है/ समुद्र तक... ;22
आज स्त्री जीना चाहती है। चाहे इसके लिए उसे बार-बार मरना पड़ रहा है, विद्रोह करना मुसीबत को निमंत्रण देना है। पितृसत्तात्मक समाज के नियम उसकी राह का रोड़ा बन रहे हैं। हर कदम पर कुछ न कुछ सुनने को मिल ही जाता है। इन सबके प्रति सचेत रहना जरूरी है।
स्त्री जीना चाहती है / इसलिए / बार-बार / मरना पड़ता है / उसे ;23
समाज में यह कहावत सदा ही सुनी जाती है कि ‘ स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य का कोई भरोसा नहीं’। आखिर स्त्री के चरित्र को लेकर इतना बड़ा अनुवाद क्यों? वास्तविकता यह है कि अपने वश में रखने के लिए यह सारी कहावतें पितृसत्ता द्वारा निर्मित की गई है। पति की आज्ञा मानने वाली, यौन संबंधों के विषय में कुछ न बोलने वाली पति को भगवान मान उसकी पूजा करने वाली स्त्री ही चरित्रवान है। इसके विपरीत आचरण करने वाली स्त्री कुल्टा और दुश्चरिता से संबोधित की जाती है पर पुरुष कुछ भी करे उसका चरित्र सदैव उज्ज्वल रहता है। स्त्रियों का भाग्य वही है जो पुरुष का हैµउसके सुख से खुशी, उसके दुख से दुखी।
कहते हैं वे / स्त्री के चरित्र / और पुरुषों के / भाग्य का
पता नहीं होता /
तो क्या / पुरुष के चरित्र / और स्त्री के / भाग्य का /
होता है / कोई पता... ;24
यह सवाल पूछना जरूरी है कि यदि औरतों का चरित्र मैला हो जाता है तो पुरुषों का क्यों नहीं? समाज में स्त्रा की वास्तविकता क्या है? वह कहीं पैदा होती है, तैयार की जाती है। दूसरे घर भेजे जाने पर वहाँ जाकर वह उनकी जैसी बनती है और उसी घर के लिए अर्पित हो जाती है। समाज में उसकी यही नियति है-
"स्त्री / धन का बिजड़ा /
एक खेत में उखाड़कर / रोप दी जाती है / दूसरे में /
यह सोचकर / कि जमा ही लेगी / अपनी जड़ें।’’ ;25
अच्छा, स्त्री की दुनिया क्या है? इस पर गौर करें? उसका घर, उसका परिवार, नात-रिश्तेदार है उसके बच्चे, उसका पति। ज्यादातर यही होता है कि पिता और दादा का नाम तो सबको पता होता है किन्तु माँ और दादी का नाम कितना पता चलता है लोगों को? आजकल कानूनन फार्म इत्यादि में माँ का नाम लिखे जाने के कारण लोग फिर भी जानने लगे हैं। पर दादी का नाम कुछ ही लोगों को पता होगा तो वह उस संसार में कहाँ पर हैं?
ऐसा नहीं है कि वह किसी चीज से अनजान हो। उसकी तीसरी आँख सब कुछ देखती है, सुनती है, जानती है। रंजना की कविताओं में भावुक स्त्रियाँ भी हैं किन्तु वे मूर्ख या भावनाओं में बहने वाली नहीं है अपितु उनमें अपनी अवस्था के प्रति चेतना है कि समाज में उनकी क्या दशा है। इसलिए उसकी आँखों से रक्त के आँसू बहते हैं--
स्त्री के पास / जल से भरी / दो आँखों के अलावा / होती है /
एक तीसरी आँख भी / जान-समझ लेती है / जिससे /
अपने-पराये का / सारा सच / और बताती है / रक्त के आँसू / ;26
पुरुष के लिए स्त्री मात्र एक खिलौना है। उसका स्वयं का जीवन नहीं के बराबर है। वह तो मात्र--
गेहूँ की तरह / उगाई जाती है / काटी जाती है / पीसी जाती है /
बेली जाती है / सेकी जाती है / और तीन-चार / निवालों में ही
निगल ली जाती है /स्त्री /’’ ;27
छोटी-छोटी चीजें, छोटे-छोटे प्रयास भी इंसान को मंजिल तक पहुँचा देते हैं।
सिर्पफ इतना ही नहीं उनमें और भी बहुत कुछ है। कहा जाता है कि घर स्त्रियों के बिना घर नहीं रहता। वाकई उसकी रचनात्मकता बयान से कहीं आगे निकल जाती है। हर कदम पर उसकी रचनात्मकता दिखाई देती है। किन्तु पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों की स्थिति को नहीं पहचानता तथा उसकी रचनात्मकता को नकार देता है। वास्तव में पितृसत्ता सदैव स्त्रियों से भयभीत रही है यथा--
जब / स्त्री प्रसन्न होती है / सूर्य में आ जाता है ताप / धन की बालियों में
भर जाता है दूध. / नदियाँ उद्वेग में भरकर / दौड़ पड़ती हैं /
समुद्र की ओर... /
आँखों में भर जाती है / उदास... / पुरुष बेचैन हो जाते हैं/
और बच्चे निर्भय... ;28
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कात्यायनी और रंजना जायसवाल दोनां की कविताओं में नारी चेतना दिखाई देती है। उनकी नारियाँ पितृसत्ता द्वारा प्रदत्त शोषित स्थिति पर सवाल उठाने के साथ-साथ उससे अपने अधिकार लेने की बात भी करती हैं। इसके लिए वह उन्हें जागरूक बनाना चाहती हैं और संगठित होकर काम करने की सलाह देती हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनकी क्या स्थिति है ?इसके वर्णन द्वारा वह समाज में स्त्रियों की हैसियत उनका दर्जा बतलाती हैं जो नारियों के प्रति हो रहे अन्याय के प्रति उनकी चेतना का परिचायक है। यहीं वह नारियों की शक्ति और संघर्ष भी वर्णित करती हैं जिससे पता चलता है कि समाज में उनकी स्थिति सुधरने की कवायद शुरू हो चुकी है।

1 जिंदगी के कागज पर पेज 13
2 जिंदगी के कागज पर पेज 14
3 जिंदगी के कागज पर पेज 17
4 जिंदगी के कागज पर पेज-19
5 जिंदगी के कागज पर पेज-22
6 जिंदगी के कागज पर पेज-22
7 जिंदगी के कागज पर पेज-23
8 जिंदगी के कागज पर पेज-130
9 जिंदगी के कागज पर पेज-147
10 जिंदगी के कागज पर पेज-87
11 पेज-26 मछलियाँ देखती हैं सपने
12 पेज-27 दुःख पतंग
13;पेज-36 दुःख पतंग
14;पेज-37
15;पेज-30 दुःख पतंग
16;पेज-82 दुःख पतंग
17;पेज-27 दुःख पतंग
18;पेज-165 दुःख पतंग
19;पेज-167 दुःख पतंग
20;पेज-162 दुःख पतंग
21;पेज-21 मछलियाँ
22;पेज-10 मछलियाँ देखती हैं सपने
23;पेज-12 मछलियाँ देखती हैं सपने
24;पेज-17 मछलियाँ देखती हैं सपने
25;पेज-20 मछलियाँ देखती हैं सपने
26;पेज-22 मछलियाँ देखती हैं सपने
27;पेज-19 मछलियाँ देखती हैं सपने
28;पेज-31 मछलियाँ देखती हैं सपने
शोध छात्रा-क्षमा
हिन्दी विभाग जामिया मिलिया इस्लामिया
पता- 196/7 सी बी एन थान सिंह नगर
आनन्द पर्वत
नई दिल्ली-110005