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पुस्तकें - 3 - साक्षात्कार

कथा –बिंब (जुलाई-दिसंबर 2021) त्रैमासिक पत्रिका में

डॉ. प्रणव भारती का साक्षात्कार

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मधु प्रसाद --

नमस्कार दी !

आपसे पहली भेंट ही मन पर गहरी छाप छोड़ गई थी | आपकी सरलता और तरलता ने मेरा आपसे गठजोड़ कर दिया | वर्षों से आपके साथ कई मंच सांझा करने का भी सुयोग मिलता रहा | आपने बहुत लंबा सफ़र तय किया है | ज़ाहिर है, सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा | न जीवन जीने का, न ही साहित्य का ! मैं चाहूंगी पहले आपके साथ चलूँ --गुड़िया खेलती, घरौंदे बनाती, झूले झूलती प्रणव का बचपन, माता-पिता, परिवार में झाँकने ! आप ज़रा मुड़कर पीछे देखें और स्मृतियों की संपुटिका खोलें | 

डॉ. प्रणव भारती --

नमस्कार मधु

मुझे भी तुमसे मिलकर बहुत अपनापन महसूस हुआ था, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रही हूँ | अगर मैं भूल नहीं रही तो यह वर्षों पूर्व की बात है, तुम्हारी बेटी और बेटा भी साथ थे |  शायद वह गुजरात विश्वविद्यालय का कोई कार्यक्रम था ?

मधु --

बिलकुल ठीक दीदी, मैंने दोनों बच्चों को आपसे मिलवाया था |  वे दोनों भी आपसे मिलकर बहुत खुश हुए थे | 

आज मैं फिर से आपको आपके बचपन के द्वार पर ले जाकर खड़ा कर रही हूँ | 

प्रणव दी--

तुमने आज जीवन के वो द्वार खटखटाए हैं जिन्हें उम्र के बढ़ने के साथ समय न जाने कब बंद कर देता है लेकिन जिनकी आहट सदा कहीं पीछे रहती है | अपना बालपन कोई भुला नहीं पाता, हम सब ताउम्र उससे जुड़े ही तो रहते हैं | 

तुम्हें यह जानकार आश्चर्य होगा कि मेरी माँ ने ग्यारह बच्चों को जन्म दिया जिनमें से मैं आठवें नं की थी | किसीको, यहाँ तककि माँ की गायनोकोलोजिस्ट डॉ. शांता मल को भी भय था कि यह बच्चा बचेगा या ---नहीं ? उन दिनों वह एक छोटे शहर मुज़फ्फ़रनगर (उ. प्रदेश )की इकलौती इंग्लैंड-रिटर्न डॉक्टर थीं | 

लेकिन देखो न मधु, मनुष्य अपना प्रारब्ध लिखवाकर लाता है | आज उम्र के इस मुहाने पर खड़ी मैं उस विधाता को शत-शत नमन ही कर सकती हूँ जिसने मुझे उम्र के पिछत्तर वर्ष की ड्योढ़ी तक लाकर खड़ा कर दिया है | शायद –प्रारब्ध !

मधु प्रसाद –

तब तो आपका बचपन बहुत एकाकी रहा होगा ?

डॉ. प्रणव भारती --

मैं बची-खुची बच्ची थी, किन्तु मैंने कभी अकेलापन महसूस नहीं किया, शायद विधाता ने मुझे गढ़ा ही इस प्रकार था कि मुझे सब अपने लगते थे | वैसे, आज तक मैं अपने-आपको ‘बची-खुची’ ही कहती हूँ लेकिन मुझे दस भाई-बहनों वाली ससुराल मिली और सारी कमी उन सबका स्नेह पाकर पूरी हो गई | 

मधु--

आपके जीवन में ऐसा कुछ घटित हुआ जो संवेदनात्मक भी रहा और प्रेरक भी या बिलकुल इसके विपरीत ? ऎसी कोई घटना जो हृदय पर अंकित हो गई हो ? स्कूल, कॉलेज के दिनों में या बाद में, बताएँ | 

डॉ. प्रणव भारती --

घटनाएँ ही भरी पड़ी हैं मधु, वैसे किसीका भी जीवन घटनाओं से विहीन तो होता नहीं है | एक स्मृति का द्वार खुलने पर न जाने कितनी पोटलें खुलकर उनमें से इतनी स्मृतियाँ बिखरने लगती हैं कि समेटना कठिन हो जाता है | 

(हँसकर )माता-पिता दोनों का उच्च-शिक्षित होना कभी-कभी बच्चों के लिए बड़ा पीड़ादायी हो जाता है वो भी जिसमें बच्चा बेहद शैतान हो और उसे पढ़ाई काटने दौड़ती हो | जब बहुत छोटी थी तब मुज़फ्फ़रनगर में एक मोंटेसरी स्कूल खुला था, उसमें प्रवेश दिला दिया गया | पापा को अपनी एकमात्र संतान को किसी स्तरीय शिक्षण-संस्थान में शिक्षा दिलवाने की इच्छा थी सो पापा के पास दिल्ली पब्लिक –स्कूल में फिर किशोरावस्था में कॉलेज तक मुज़फ्फ़रनगर में ! यानि ज़िंदगी इधर-उधर लुढ़कती रही | 

मधु प्रसाद –

लेखन में आपका रुझान कैसे हुआ ?

डॉ. प्रणव भारती ---

घर में उस समय की लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाएँ आतीं | मैं और माँ दोनों कहानी-किस्सों के चटोरे ! शायद 12 वर्ष की उम्र होगी एक कागज़ पर न जाने किस शीर्षक से छोटा सा लेख लिखकर ‘धर्मयुग’के पते पर भेज दिया | समझ सकती हो कितनी बुद्धि रही होगी !आश्चर्य यह कि वह छोटा सा लेख छप गया | अम्मा मारे हर्ष के फूल उठीं| मुझे लगा, गलती से छप गया होगा | 

हाँ, उन्हीं दिनों न जाने कैसे एक गीत बना जो थोड़ा सा याद है –कुछ ऐसा है ;

बीता तब तू तब जाना है

तेरा गौरव प्यारे शैशव

छा जाती चंद्र चमक जैसे

इस नील द्युति वाले नभ में

बस, एक बार ऐसे ही तू

आया था मम जीवन में

दिखा-दिखाकर खिलवाड़

हर लेता था सबके मन को

फिर मधुर लोरियाँ सुन-सुनकर

सोता था कहीं प्यारे शैशव !!

इस गीत को पढ़कर अम्मा की आँखों में आँसू छलक गए, मुझे तो समझ ही नहीं आया अम्मा रो क्यों पड़ीं ? मैं छोटी-मोटी पत्रिकाओं में कुछ न कुछ भेजती रहती लेकिन कभी कुछ भी सहेजा ही नहीं | 

किशोरावस्था का एक गीत और याद आता है, संभवत: सत्रह/अठारह वर्ष की थी, कॉलेज में पढ़ती थी ;

तुम सपनों को सतरंगे रेशम से बुनतीं, मैं केवल रोटी के टुकड़ों में खोया था, 

तुम उड़ती फिरतीं कोमल तितली सी, मैं चूल्हे में आग जली देखा करता था------

मधु प्रसाद --

आपकी किशोरावस्था की कोई विशेष घटना –यदि आपको याद हो तो------

डॉ. प्रणव भारती ---

जब मैं मुज़फ़्फ़रनगर में बी.ए प्रथम वर्ष में थी उस समय मेरे एक मित्र थे, उम्र में काफ़ी बड़े लेकिन उनसे मेरी व माँ की बहुत पटरी बैठती | न जाने कैसे, कहाँ उनसे मुलाक़ात हो गई थी ? देखने में बिलकुल साधारण शक्लोसूरत व व्यक्तित्व वाले छोटे से क़द के उन मित्र का नाम सुखपाल था | जाट थे वे और जहाँ उन दिनों जाटों के लड़के अधिकतर पढ़ाई के बहाने शहर में लड़कियों को घूरने, छेड़ने आते, वहीं वे एक गंभीर लेखक, पाठक व व्यवसाय से वकील बंदे अपने समुदाय के लिए गर्व थे | जो बाकायदा कचहरी जाते और हम उन्हें वकील साहब कहते !उन्हीं के एक और वकील मित्र थे, नाम अब याद नहीं हैं, उनके घर बालकवि बैरागी जी आए और सुखपाल वर्मा यानि वकील साहब मुझे व अम्मा को उनके सम्मान में हुई छोटी सी गोष्ठी में ले गए | 

मैं जो कुछ भी थोड़ा–बहुत लिख पाती थी अम्मा व वकील साहब को ज़रूर सुना देती | कुछ दिनों पहले ही पता नहीं कैसे एक गीत लिखा गया था, बस वकील साहब पीछे पड़ गए कि उस गोष्ठी में मैं वह गीत पढ़ दूँ | 

बैरागी जी उस समय युवा थे किन्तु उनकी बुलंद आवाज़ और खूबसूरत प्रस्तुति के सामने मैं बहुत नर्वस थी | माँ भी लिखती थीं और हार्मोनियम पर अपने गीत की तर्ज़ बना लेती थीं | उस दिन माँ ने अपना गीत पढ़ा;

जीवन एक पहेली सजनी

जितना सुलझाओ, वह उलझे

है रहस्यमय इतनी-----

उनकी लिखी हुई कुछेक पंक्तियाँ ही मेरी स्मृति में शेष हैं | फिर मुझे कविता-पाठ के लिए कहा गया | सोचा भी नहीं था कि मुझे भी ऐसा अवसर मिल सकता है | नए गीत के दो-एक मुखड़े याद थे उनमें से ही मैंने यह तरन्नुम में पढ़ दिया ;

तुझे भूल कैसे जाऊँ मैं, बता भूल कैसे जाऊँ ----?

याद अभी हैं वे दिन प्रियवर जो थे तेरे संग बिताए

प्रीतिबीन पर साथ साथ थे मादक से कुछ गीत सुनाए

दोहराए ‘वो’ प्रश्न पुराने, ओ तेरा अभिनन्दन साथी ---!!

उपरोक्त प्रस्तुति की काफ़ी प्रशंसा बटोरी मैंने | किशोरावस्था में डैने भी ज़रा जल्दी खुलने लगते हैं| मुखर तो पहले से ही थी, गाकर पढ़ी, रियाज़ काम आ गया | सबको पसंद आई, ख़ुशी से फूलकर कुप्पा हो गई | 

मेरे कत्थक नृत्य के मास्टर जी श्री शिवानन्द जी और संगीत के गुरु पंडित रमाशंकर जी मुझसे बहुत परेशान रहते | पर क्या करूँ, मैं थी ही ऐसी ! आवाज़ माँ शारदे की कृपा से भली-चंगी थी और उसका समुचित उपयोग न करना मेरा निकम्मापन !

पापा मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स में थे उन दिनों, बहुधा दिल्ली रहते | फिर डिग्री कॉलेज के प्रिंसिपल भी रहे किन्तु भ्रमण में रहना, वेदों पर व्याख्यान देने देश-विदेश में जाते रहना, उनका शगल था | ठीक है, मैं बेटी थी, लाड़ों पली लेकिन मुझे पढ़ाई व किसी भी अनुशासन में कभी छूट नहीं मिली | और मैं ठहरी एक अलग ही किस्म की प्राणी ! उन दिनों गुलशन नंदा के ज़माने थे, पाठ्य पुस्तकों में रखकर उन्हें पढ़ा जाता | हम होनहार बिरवान द्वितीय श्रेणी पर ही मस्त रहे | ये कोई न सोचता कि उनकी एकलौती बिटिया इतनी भी फन्ने खाँ नहीं थी कि कभी अँग्रेज़ी माध्यम, कभी हिन्दी माध्यम में उसे खींचते रहें और वह खिंचते हुए ‘टॉप क्लास’लाती रहे | आज का तो समय बहुत बदल ही चुका है लेकिन उन दिनों भी शिक्षित परिवारों में अपेक्षाएँ कुछ कम न होतीं बच्चों से ! सो, माँ-पापा के लिए मैं ‘ठीक सी’ ही रही | हाँ, मेरे साथ मेरी नानी थीं जो परीक्षा-परिणाम आते ही पूरे मुहल्ले में लड्डू बँटवा देतीं | वो भी अपने समय की आठवीं पास थीं | माँ का एकमात्र संतान होना और माँ के मेरा एकमात्र संतान होना, नानी को हम लोगों से सदा जोड़े रहा | 

मधु प्रसाद --

आपका विवाह कब हुआ दीदी ?क्या उसके पीछे भी कोई रोचक संस्मरण है ?

डॉ. प्रणव भारती –

बिलकुल है मधु, मेरे जैसी चंचल और मुखर लड़की के साथ कुछ जुड़ा न हो, कैसे हो सकता है ?

मैं जब चौदह वर्ष की थी तब दसवीं की परीक्षा देकर छुट्टियों मैं अपने ममेरे मामा के यहाँ माँ के साथ आगरा गई थी | 

मामा जी की कोठी के ठीक सामने पंडित भोगीलाल जी की विशाल कोठी थी, वे आगरा के माने हुए ज्योतिषी थे | माँ की मटरमाला का खोना और हमारा मामा जी के साथ उनके पास जाना, संभवत: दैवयोग ही था | 

प्रश्नों का समाधान पाने वाले लोगों की भीड़ में से हमारी बारी से पहले ही हमें बुलवा लिया गया था | उंगलियों पर कुछ गणना करके ज्योतिषी जी ने बताया कि अम्मा की मटरमाला कुछ दिनों में मिल जाएगी | हम दक्षिणा देकर आशान्वित होकर लौट आए | कुछ दिनों बाद वापिस मुज़फ्फ़रनगर आ गए| मटरमाला तो नहीं मिली हाँ, जयमाला ज़रूर मिल गई | 

आगरा में पंडित जी की कोठी में एक शर्मा परिवार किराए पर रहता था, उन दिनों शर्मा जी आगरा में ही थे | उनके साले भी देहरादून से उनके पास आए हुए थे | वहीं उन्होंने मुझे देखा | मामा जी के बच्चे लॉन में बैडमिंटन खेलते थे, मैं भी उनके साथ खेलती थी | बस, मित्रता हो गई | शर्मा जी के साले व पंडित भोगीलाल जी के बेटे रमेश जो उस समय मैडिकल में पढ़ रहे थे, दोनों की अच्छी मित्रता थी | उनके पास एक बहुत सुंदर तांगा था जिस पर सवार होकर शाम को दोनों मित्र तांगे वाले के साथ रोज़ ही झक्क कपड़ों में रईसज़ादों की तरह घूमने जाते | वो एक ज़बर्दस्त आकर्षण था | मैं मामा जी के बच्चों के साथ दूर से ही तांगे को देखती | बड़ा शानदार तांगा था, आकर्षित करता | कुछ दिनों में अम्मा और मैं लौटकर मुज़फ्फ़रनगर आ गए | तब पता चला कि आगरा में जो शर्मा परिवार था, वह मूल रूप से मुज़फ्फ़रनगर का था | 

देहरादून में ओ. एन. जी. सी का मुख्य कार्यालय था| उसी विभाग में शर्मा जी के साले की नौकरी लग चुकी थी | युवक व परिवार अच्छा था, जाति-बिरादरी की भी कोई समस्या नहीं थी लेकिन एक तो हम दोनों की उम्र में दस वर्षों का अन्तर था, दूसरे उनके परिवार में दस भाई-बहन थे, तीसरा –वे पाँच भाई थे, उनका नं बीच में था और दो बड़े अभी अविवाहित थे | नानी को मेरा रिश्ता करके शादी इतनी लंबी रोकनी नहीं थी और उनके दो भाई बीच में थे | बड़ा परिवार होने के कारण नानी को लगता उनकी धेवती रात-दिन चूल्हे –चक्की में पिसती रहेगी | 

हम दोनों पहली बार में ही एक-दूसरे को पसंद कर चुके थे सो शादी पक्की कर दी गई | तब ये गुजरात जा चुके थे और भावनगर में थे बाद में अहमदाबाद आए | 

हम एक-दूसरे को पत्र लिखते, अम्मा जानती थीं लेकिन नानी से छिपकर ! यह तो शादी के बाद में पोल खुली कि ये अपने दोस्त के साथ रेलवे-स्टेशन पर जाकर पुरानी शेरोशायरी की किताबें खरीदकर लाते जिसमें से टीपकर शायराना अंदाज़ में ख़त लिखे जाते | मैं फूली न समाती कि कितना रोमेंटिक बंदा है !

(प्रणव दीदी अपने स्वभाव के अनुसार खुलकर हँस पड़ीं )

मधु प्रसाद –

आपका विवाह कितनी उम्र में हुआ दीदी ?

डॉ. प्रणव भारती --

बीस वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हो गया, उस समय मैं एम.ए अँग्रेज़ी के प्रथम वर्ष में एस. डी.डिगरी कॉलेज मुज़फ्फ़रनगर में प्रवेश ले चुकी थी | उन दिनों मेरा एक उपन्यास ‘मोती जो बिखर गए’ के शीर्षक से शुरू हो चुका था जिसे मैंने शादी के बाद अहमदाबाद आकर पूरा किया लेकिन वह प्रकाशक के पास से ही गुम हो गया, कभी प्रकाशित ही नहीं हो पाया | प्रकाशक का काफ़ी बड़ा नाम है, मेरे पास कोई प्रमाण नहीं अत: कुछ नहीं कह सकती | इस बात को पचास वर्ष से ऊपर का समय हो चुका है | उपन्यास भी इतना गहन तो नहीं ही रहा होगा लेकिन उसके खो जाने ने मुझे पीड़ित किया | 

विवाह के बाद देहरादून आई जहाँ मेरे उन नंदोई ने मेरे हाथ में एक ‘नोटबुक’ जैसी कुछ कॉपी सी थमा दी जो मेरा रिश्ता लेकर आए थे | मैंने भौंचक होकर उनकी ओर देखा ;

“देखो तो खोलकर –“उन्होंने मुझे स्नेहपूर्वक कहा | 

कमाल था ! मेरे हाथ में उन सभी पत्र-पत्रिकाओं से ली गईं छोटी-मोटी कटिंग्स थीं जिन्हें एक साधारण सी छोटी डायरी में चिपका दिया गया था जो मैंने लिखी ज़रूर थीं लेकिन मेरे पास वो थीं ही नहीं | मेरे लिए वह पुस्तिका एक ख़ज़ाने से कम न थी | विवाह से पूर्व वे मुज़फ्फ़रनगर में मेरे कॉलेज के हर कार्यक्रम में उपस्थित रहते थे | 

हमारे शहर में बहुत कम परिवारों में लड़कियों को इतनी स्वतंत्रता मिलती थी जितनी मुझे मिली थी | माँ-पापा का उच्च शिक्षित होना, पापा शास्त्री, तीन विषयों में पी. एचडी, डी.लिट व हिंदु बनारस विश्वविद्यालय से स्वर्ण-पदक प्राप्त थे | माँ ग्रेजुएट व शास्त्री थीं जो अँग्रेज़ों के ज़माने में हिंदु-बनारस विश्विद्यालय में अपने गुरु व सहपाठियों के साथ शास्त्री की परीक्षा देने बनारस गईं थीं | कुल मिलाकर मुझे बहुत स्वतंत्रता मिली थी और मेरे कॉलेज के सभी मित्र मेरी माँ के भी मित्र बन जाते थे | 

मधु प्रसाद –

बड़ी रुचिकर रही आपकी विवाह की बात दी ! अपनी किशोरावस्था मे ही आपको बैरागी जी जैसे कवियों का सानिध्य प्राप्त हुआ था | बाद में भी आपको अपनी यात्रा में अनेकों प्रसिद्ध, वरिष्ठ, विशिष्ट व्यक्तियों का सानिध्य प्राप्त हुआ, कोई विशेष रचनाकार, या रचना ?

डॉ. प्रणव भारती –

मैं अपने शिक्षकों की बहुत लाड़ली थी, शैतान बहुत थी, मुखर थी और सबसे बड़ी बात –न जाने क्यों मेरे सहपाठी तो मेरी बात मान ही लेते थे अपनी ऐसी मित्रों के घर से भी मैं उन्हें छूट दिलवा लाती थी जिनके परिवार बड़े दकियानूसी होते थे और वे कॉलेज के समारोहों में भाग ले पातीं थीं | 

जहाँ बचपन में पढ़ाई को गंभीरता से न लेती वहीं बड़े होते मैं काफ़ी गंभीर हो गई | घर का वातावरण आर्य -समाजी था, कोई अन्धविश्वास नहीं किन्तु उसमें भी ऐसा कुछ देखती जो मन में क्रांति पैदा कर देता।तब बड़ी दुखी हो जाती थी | यह सब अब मेरे उपन्यासों में आ रहा है | 

स्वामी विवेकानन्द से मैं बहुत प्रभावित थी, उस समय मैं उन्हें अँग्रेज़ी में पढ़ रही थी | प्रोफ़ेसर रुद्र प्रकाश मिश्र मेरे घर से कॉलेज जाने के रास्ते में रहते थे | मेरे मन की उलझनों की गाँठ खोलने में उन्होंने मेरा बहुत मार्ग-दर्शन किया | मेरा आध्यात्म की ओर झुकाव मेरे माँ-पापा के अतिरिक्त प्रो. मिश्र को जाता है | 

मधु प्रसाद –

कोई और रुचिकर स्मृति मन के द्वार पर टहल रही हो, उसे सांझा करिए | 

डॉ. प्रणव भारती --

हमारे शहर में प्रति वर्ष नुमाइश लगती जिसमें एक कवि-सम्मेलन ज़रूर होता | मैं और माँ बेहद उत्साहित रहते | मुझे अच्छी तरह याद है कि हम युवा लड़कियों को बीच में घेरकर राजवाहे की पटरी से ले जाया जाता था | उस समय हम नीरज जी, भारत भूषण जी, काका हाथरसी जी आदि कवियों को सुनने जाते और अंत तक इसलिए रुकने के लिए मचलते कि हमें अपनी ऑटोग्राफ़ बुक में उनसे कुछ लिखवाना होता | 

विवाह के बाद एक लंबे अंतराल ने मुझे उदासीन बना दिया | बच्चों के बड़े होने पर विवाह के तेरह/चौदह वर्षों बाद अम्मा जी (सास ) के निधन के बाद घर भी सूना लगने लगा था | मैंने गुजरात विद्यापीठ से हिन्दी में एम. ए करने के बाद एम. फिल, पी. एचडी किया, वहीं से मुझे फिर से मेरे मन का वातावरण मिलना शुरू हो गया | 

आकाशवाणी विद्यापीठ के पास ही है, अहमदाबाद दूरदर्शन का कामकाज तब तक इसरो के प्रांगण से ही चलता | मैं एक बार दिल्ली में शुरुआती दिनों में दूरदर्शन की उद्घोषिका के रूप में चुन ली गई थी किन्तु अम्मा के बिना वहाँ अकेले रहने की इजाज़त नहीं मिली | उसी समय सुश्री मुक्ता श्रीवास्तव भी उद्घोषिका के रूप में चुनी गईं थीं | मैं जब भीउन्हें देखती, उदास हो जाती | इतने वर्षों बाद यहाँ अहिंदी क्षेत्र में दूरदर्शन के कार्यक्रमों में भी थोड़ी-बहुत शिरकत होने लगी | 

एक बार आकाशवाणी में डॉ. किशोर काबरा से मुलाक़ात हुई | मेरे पति साथ थे | उन्होंने उनसे कहा कि मैं कभी-कभी बहुत उदास हो जाती हूँ | 

“बहन के उदर में प्रसव वेदना होती है, जब तक प्रसव हो न जाए ये पीड़ित रहेंगी, इन्हें लेखन की ओर अग्रसर करिए | ”आ. डॉ काबरा ने बहुत सहजता से मुस्कुराकर कहा था | तभी उन्होंने मुझे अहमदाबाद की प्रथम काव्य-संस्था ‘साहित्यलोक’ से परिचित करवाया | उस समय उस संस्था में केवल 7/8 सदस्य थे | श्री रामचेत वर्मा जी उसके संस्थापक थे जो युवावस्था में ही इस नश्वर संसार को छोड़ गए | इस संस्था से अनेकों गीतकार, गजलकार बनकर निकले हैं | संस्था आज तक एक परिवार की भाँति कार्यशील है | तुम भी तो उसकी महत्वपूर्ण इकाई हो | 

मधु प्रसाद –

जी दीदी, साहित्यलोक वास्तव में एक परिवार ही है, अपनत्व से भरा हुआ | उन दिनों आपकी और किस-किससे भेंट हो सकी दीदी ?

डॉ. प्रणव भारती --

बैरागी जी, विष्णु प्रभाकर जी, निदा फ़ाज़ली जी, डॉ. कुंवर बेचैन, अशोक चक्रधर जी, गोविंद मिश्र जी (जो उन दिनों अहमदाबाद में इनकम टैक्स कमिश्नर थे )मदन मोहन मनुज जी, आकाशवाणी के निदेशक होकर आए थे, डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, कानपुर के कई प्रसिद्ध कवि, कवयित्रियों जिनमें माधवी लता जी भी थीं और एक बार कानपुर जाने पर उन्होंने मेरे सम्मान में एक गोष्ठी भी करवाई थी, उसमें डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र जी भी थे | बहुत से वरिष्ठ साहित्यकारों के संपर्क में आती चली गई | बैरागी जी जब भी अहमदाबाद आते, मुझे पहले से ही सूचित कर देते | एक-दो बार सीधे घर पर आए | भोजन करके हम दूरदर्शन गए जहाँ मैंने उनका साक्षात्कार लिया | उस समय तक दूरदर्शन की बिल्डिंग मेरे घर के पास ही बन चुकी थी | उस समय सुश्री हसीना कादरी दूरदर्शन का हिन्दी विभाग देख रही थीं | जब कभी ज़रूरत पड़ी उन्होंने हमेशा बड़ी प्रसन्नता व स्नेह से मेरा साथ दिया | यहाँ तककि एक बार कलकत्ता से पधारे साहित्यकार श्री नथमल केडिया जी का साक्षात्कार मेरे घर के लॉन में ही लेने पूरी टीम के साथ वे घर पर ही आ गईं क्योंकि स्टूडियो ख़ाली नहीं मिल रहा था | उन्हीं दिनों प्रसिद्ध गिटारिस्ट पंडित बृजभूषण काबरा जी के साक्षात्कार की आकाशवाणी के लिए एक सीरीज़ तैयार की जो आकाशवाणी, दिल्ली केंद्र से प्रसारित हुई | 

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन (एन.आई.डी ), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो), भारतीय प्रबंधन संस्थान (आई. आई. एम), और अंत में ‘सिटी प्लस फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट’ गांधीनगर आदि प्रमुख हैं जहाँ मैंने अपनी सेवाएँ दीं | वहाँ पर सभी साहित्यकारों व कलाकारों का आवागमन रहता था| कुछ बॉलीवुड के चर्चित नाम भी ‘विजिटिंग फ़ैकल्टी’ में थे | | इसलिए पंडित जसराज जी, पंडित भीमसेन जोशी जी, शुभा मुद्गल आदि कलाकारों को सुनने का और उनके साथ कुछ क्षण बिताने का भी लाभ मिलता रहा| यहीं पर निदा फ़ाज़ली साहब के साथ लंच पर बहुत सी बातें साझा करने का अवसर प्राप्त हुआ | जितने प्रसिद्ध नाम थे, उतने ही सरल, सहज व्यक्तित्व के धनी थे ये सब | सबने बहुत स्नेह दिया मुझे | बैरागी जी के क्रोध के बारे में तो लोग मुझसे बात करते थे जब वे केंद्रीय हिन्दी कमेटी की ओर से निरीक्षण पर आते थे | 

मधु प्रसाद ---

आपने साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है गीत, /ग़ज़ल, /दोहे, / हाइकु, /कहानी और अब उपन्यास लेखन आपको व्यस्त किए हैं | आपको सर्वाधिक आत्मसंतोष और आनंद किस विधा में अधिक मिला है?

डॉ. प्रणव भारती –--

मेरा अनुभव तो यही रहा कि नवांकुर दो /चार पंक्तियों से फूटते हैं फिर उनको कैसी और कितनी मात्रा में खाद-पानी मिलते हैं, उसीके अनुसार उनका क़द, स्वास्थ्य बढ़ता जाता है | मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ जैसा मैंने तुम्हें बताया भी है | थोड़ा बहुत लिखना बचपन से शुरू हो चुका था किन्तु लगभग पंद्रह वर्ष के अंतराल में सब कुछ रुकने लगा था | हाँ, थोड़ा बहुत गद्य –पद्य चलता रहा किन्तु ऐसा कुछ नहीं था जो मुझे अधिक प्रोत्साहित करता | दिल्ली प्रेस में लगातार छपती रही| उपन्यास के लिए परेश जी (दिल्ली प्रेस के अधिपति )ने एक विषय दिया था जिस पर सत्रह अध्यायों में ‘महायोग’शीर्षक का उपन्यास प्रकाशित हुआ | एक बार ‘इंग्लैंड’में ‘लैमिंगटन स्पा’ के एक पुस्तकालय में मुझे पत्रिकाएँ पलटते हुए देखकर मेरी तस्वीर दिखाकर वहाँ की कैनेडियन पुस्तकालयाध्यक्ष ने मुझसे पूछा था ; ”इज़ इट यू ?” | मैं जानती थी उस इलाक़े में हिंदीभाषी निवासी गिने-चुने थे किन्तु वहाँ हिन्दी की पत्रिकाएँ देखकर मैं आनंदित व गर्वित हो उठी थी | 

पी. एचडी करते ही NID (राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान) से मेरे पास एक अनुवाद का काम आया जो नेहरू जी की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’मुंबई की प्रदर्शनी का हिस्सा था | इससे पूर्व मुझे असाग (AHMEDABAD STUDY ACTION GROUP )नामक संस्था में ‘को-ओर्डिनेटर’के रूप में बुला लिया गया था | यह एक गैर-सरकारी संस्था थी इसलिए मुझे अनुवाद का काम साथ करने में कोई परेशानी नहीं हुई | उसे पूरा करने के बाद मुझे संस्थान से फ़ोन आया कि मेरा अनुवाद काफ़ी पसंद किया गया है| स्वाभाविक था, मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से यकायक जागने लगा | 

कुछ दिनों बाद संस्थान से फ़ोन पर ही पूछा गया ;

“वुड यू लाइक तो जोयन एनआईडी ?” मेरे लिए सुखद आश्चर्य था | जिस संस्थान में प्रवेश मिलना भी एक सपना होता है, उसमें फ़ोन पर मेरी सेवाएँ लेने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया था | मैं आश्चर्यचकित लेकिन गर्वित महसूस कर रही थी | 

हिन्दी अधिकारी के रूप में मुझे वहाँ अपनी सेवाएँ देने का अवसर प्राप्त हुआ, मेरी ‘एडहॉक’ नियुक्ति थी | बच्चों को पढ़ाती भी थी, कार्यक्रम करवाती थी, कुछ वर्षों में बहुत से अनुभव मिले | छात्र/छात्राओं का छोटी एनीमेशन फ़िल्में बनाना, मुझसे संवाद में सहायता लेना और अनजाने ही मुझे बहुत कुछ सिखा देना | फ़िल्म व गैर फिल्मी कलाकारों का आना जाना लगातार चलता रहता था | 

इस समय गीत, कहानी, उपन्यास लेखन की ओर मुड़ चुकी थी | जब विद्यापीठ में थी उस समय आ. रहमत अमरोहवी साहब मुझसे ग़ज़ल लिखने को कहते, मैंने कुछ लिखीं भी किन्तु जब तक वो उन्हें देखकर ‘ओ.के’ न कर देते मैं किसी मंच पर उन्हें प्रस्तुत न करती| हाँ, गीत उन दिनों काफ़ी लिखे गए | छुटपुट दोहे, मुक्तक आदि भी चलते रहे | बाद में अछान्द्स रचनाएँ काफ़ी लिखी गईं | कहानियों से मैं किशोरावस्था से ही जुड़ी हुई थी, उपन्यास में मैं पूरी तरह कब उतर गई मुझे भी पता नहीं चला | अनेक व्यवधानों के बीच भी निरंतर चलते रहे उपन्यास !अब तो महसूस होता है कि उपन्यास ही मेरी वास्तविक पहचान है शायद !

दूरदर्शन व आकाशवाणी से मैं लगातार जुड़ी रही थी अत: वहाँ से मेरा नं लेकर काफ़ी लोग व संस्थाएँ मुझसे संपर्क करते रहे और मैं विभिन्न स्थानों से अनुभव बटोरती रही | इसरो में एक ‘डेकू’ नामक शैक्षणिक विभाग खुला जिसमें सरकारी योजना के अंतर्गत छोटे नाटकों के द्वारा जागृति के संदेश प्रसारित किए जाते | उसके पैनल पर मुझे बुलाया गया | उन दिनों छोटे-छोटे कार्यक्रम शूट किए जाते थे | मैंने कई विषयों पर नाटक, नृत्य नाटकों की स्क्रिप्ट लिखीं तभी एक सरकारी योजना के अंतर्गत ‘अब झाबुआ जाग उठा’ सीरियल का शीर्षक गीत, संवाद आदि 68—70 एपीसोड्स में लिखने का अवसर प्राप्त हुआ | यह भोपाल दूरदर्शन के लिए बनाया गया था जिसे भोपाल, झाबुआ आदि में प्रसारित किया गया | 

इस प्रकार से मैं लगभग सभी विधाओं के साथ जुड़ी रही | 

मधु प्रसाद --

आजकल गीत/नवगीत पर बहुत चर्चा हो रही है, सबके विचार हैं, सबकी अपनी अभिव्यक्ति हैं| आप क्या कहना चाहेंगी क्योंकि आप स्वयं एक सिद्धहस्त गीतकार हैं | 

डॉ. प्रणव भारती ---

मधु, हमारी पीढ़ी ने बहुत बदलाव देखे हैं | हम जिस तबके से जुड़े रहे वह सबका सम्मान करता था| मैं महाप्राण निराला जी से लेकर केदारनाथ अग्रवाल जी, अज्ञेय जी, वीरेंद्र मिश्र जी, रामदरश मिश्र जी आदि कई नवगीत के हस्ताक्षरों को पढ़ती व अवसर मिलने पर सुनती भी रही | नवगीत की नव विधा, नई सोच ने मुझ पर प्रभाव भी डाला, लगा यही प्रगतिवाद का वास्तविक स्वरूप है जिसमें जटिल कथ्य को भी सरल रूप में सहजता से प्रस्तुत किया जा सकता है, समसामयिक समस्याओं को सरल रूप में प्रस्तुत करने की पूरी गुंजाइश है इसमें ! किन्तु मैं नव-गीत की ओर चल नहीं पाई | मेरे गीत सहज रूप से लिखे गए या ये कहें कि मुझमें इसकी काबलियत नहीं थी | इसलिए मैंने पढ़ा सबको, सबका सम्मान भी किया लेकिन मेरा रुख उधर मुड़ गया हो, ऐसा नहीं हो पाया | 

देखा जाए तो सभी विधाओं में संरचनात्मक भिन्नता होते हुए भी समानता मिलती है | रचना प्रक्रिया की दृष्टि से उसमें स्वाभाविक अन्तर आ ही जाता है | हम सब परिचित हैं कि पिछले कई दशकों में नवगीत ने अनेक रचनात्मक मूल्य स्थापित किए हैं | नव लय, नव ताल, नव छ्ंद, नव रचनात्मकता से सजे ये गीत मन के द्वार को खटखटाते रहे हैं किन्तु मैं अपनी उसी राह पर चलती रही जो स्वाभाविक रूप से मुझे ले चली | कभी इस बारे में गंभीर नहीं हो पाई | 

पिछले कुछ वर्षों में अनायास लिखे गीतों को देखकर किसीने उनमें ‘नवगीत’ के गुण भी तलाश लिए और मुझे नवगीत लेखन के लिए कुछ बड़े हस्ताक्षरों ने प्रेरित भी किया लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो मैं वही लिखती रही जो मेरे मनोमस्तिष्क ने मुझसे लिखवाया | हाँ, स्क्रिप्ट-लेखन की बात अलग रही क्योंकि वहाँ मैं किसीके लिए काम कर रही थी, मुझे वहाँ से पैसा मिल रहा था | 

मधु प्रसाद –

आपके उपन्यास गवाक्ष को उत्तर प्रदेश संस्थान का प्रेमचंद नामित सम्मान से नवाज़ा गया है, इस उपन्यास की प्रेरणा?

डॉ. प्रणव भारती ---

मैं इसके लिए स्व.आई. एस. माथुर के प्रति कृतज्ञ हूँ | मैंने उनके साथ राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान, अहमदाबाद में काफ़ी

काम किया, कई एनीमेशन फिल्म्स की स्क्रिप्ट्स लिखी थीं | वे संस्थान के एनिमेशन विभाग के विभागाध्यक्ष थे | उनका और मेरा साथ कई बार टूटा, कई बार जुड़ा | एनीमेशन संस्थान के निदेशक होकर वे हैदराबाद चले गए थे | अपनी परिस्थितिवश वे पुन :अहमदाबाद आए जहाँ मैंने उनके साथ ‘सिटी प्लस फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट’ में काम किया जो गांधीनगर, गुजरात में स्थित है | हम दोनों अहमदाबाद से इंस्टीट्यूट गाड़ी से जाते | हमारा सफ़र लगभग पचास मिनिट का होता | उस बीच हमारे बीच एक फ़िल्म बनाने की योजना पर काफ़ी चिंतन हुआ जिसका बीज उनके स्व. पिता के द्वारा स्वप्न में रोपा गया था | वे उसे फ़िल्म के रूप में लाना चाहते थे और चाहते थे कि उसके गीत व संवाद मैं लिखूँ | हमने काफ़ी तैयारी कर ली थी फ़िल्म की रूप रेखा तैयार हो चुकी थी | सब कुछ तैयार होने के बाद हम केवल चार बार उस प्रोजेक्ट पर पूरी यूनिट के साथ चर्चा कर सके और उनका देहान्त हो गया | उनके बाद ‘गवाक्ष’उनको श्रद्धांजलि के रूप में समर्पित की मैंने | यह वैसे तो एक ‘फ़िक्शन’ है किन्तु इसमें प्रत्येक संवाद में आध्यात्म दिखाई देता है | अब इसका दूसरा संस्करण आ गया है जो अमेज़ोन व फ़्लिपकार्ड आदि पर प्राप्य है | 

मधु--

आपके उपन्यास, कहानी-संग्रह, 'शी डार्लिंग' आदि में समाज की विषमताएँ, विद्रुप परिस्थितियाँ और कुछ व्यक्तिगत टच लिए पढ़ने को बाध्य करती हैं, आपके गीत भी मनमोहक होते हैं | उपन्यास लेखन की ओर जाने का कोई विशेष आकर्षण या कारण ?

डॉ. प्रणव भारती -–

हम सदा अपने अथवा अपने से से जुड़े या फिर अपने चारों ओर से ही तो विषय उठाते हैं | घटनाएँ बाध्य करती हैं, हम कुछ कहते नहीं, हमसे कहलवाया जाता है | शायद इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया हो | मुझे सदा लगता रहा मधु कि मेरे पास कहने के लिए इतना है कि वह थोड़े में नहीं समा सकता | इसीलिए मेरा रुझान कविता से कहानी, संस्मरण, लेख, उपन्यास की ओर होता गया होगा | सोच-विचारकर किया गया कुछ भी नहीं है | बस, समय ने जिधर मोड़ा, कलम मुड़ती गई | 

मधु प्रसाद --

पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन ! शैक्षणिक संस्थानों में  उपस्थिति, नाटक, शीर्षक-गीत, संवाद लेखन, नृत्य नाटिकाएँ, आकाशवाणी, दूरदर्शन, साक्षात्कार, चर्चा, पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन, हिंदी में अनुवाद भी किया \ आपने, इतना सब कैसे करती रहीं? कोई अवरोध, गतिरोध?

डॉ.प्रणव भारती –

लेखन स्वतः ही भीतर से प्रस्फुटित होता है| हम स्त्रियों के पास ‘अपने समय’के नाम पर तो कुछ होता ही कहाँ है ? कुछ स्वाभाविक अवरोध होते ही रहते हैं | मेरे पास पूरी स्वतंत्रता थी तो उत्तरदायित्व भी थे लेकिन मुझे लगता है कि यदि कुछ होना होता है तो रास्ते अपने आप निकल आते हैं | मेरी कुछ ऐसी पद्य रचनाएँ अपने पति को खाना खिलाते, रोटी सेकते बनी हैं जिन्हें काफ़ी सराहना मिली है | 

मधु प्रसाद --

प्रणवदी , आपने अनुवाद का क्षेत्र भी नहीं छोड़ा, बच्चों के 70 बालगीतों का गुजराती से हिन्दी मेंअनुवाद किया है | आपने गुजराती में प्रशिक्षण लिया है अथवा यहाँ की पावन मिट्टी ने आपको प्रशिक्षित कर दिया ?

डॉ.प्रणव भारती –

ऐसी कोई विशेष प्रशिक्षण तो नहीं लिया | शादी के समय मैं अँग्रेज़ी साहित्य में एम. ए कर रही थी | तब तक सीमेस्टर सिस्टम शुरू हो गया था और जहाँ आगरा विश्वविद्यालय से बी. ए की डिगरी मिली वहीं एम. ए मेरठ विश्विद्यालय से करना हुआ क्योंकि मेरठ विश्वविद्यालय कि स्थापना हो चुकी थी और हमारा शहर उसीके अंतर्गत आता था | मेरे दो सीमेस्टर मेरे दोनों बच्चों के जन्म के बाद हो सके | 

चौदह वर्ष पश्चात जब फिर से शिक्षा ग्रहण करने का विचार आया, गुजरात विद्यापीठ में हिन्दी एम. ए में प्रवेश लिया | वह घर के पास था और बच्चों के साथ मुझे सब पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने थे, मेरे पति का स्थानांतरण ‘ऑफशोर’योजना में हो गया था | गुजरात विद्यापीठ के हिन्दी एम. ए के पाठ्यक्रम में एक पेपर अनुवाद का भी था | गुजराती से हिन्दी में और हिन्दी से गुजराती में ! मैं वास्तव में बहुत डरी हुई थी, हिन्दी से गुजराती में अनुवाद तो मेरे लिए नामुमकिन ही था | पता नहीं, कैसे हो गया और मेरी प्रथम श्रेणी आई जिसके कारण मुझे यू.जी.सी की शिक्षावृत्ति भी मिल गई | 

पी. एचडी करते समय कई अवसर ऐसे आए जहाँ मुझे अनुवाद जैसे जटिल कार्य से जूझना पड़ा | माँ शारदे की अनुकंपा रही और दिक्कतें आने के बावजूद काम चलता रहा | इससे पूर्व मैं अँग्रेज़ी से हिन्दी का एन.आई.डी का ‘द डिस्कवरी ऑफ़इंडिया ‘का काम कर चुकी थी | 

कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया | अपनी अभिन्न मित्र मंजु महिमा के माध्यम से मैं ‘एज्यूकेशन इनिशिएटिव्ज’ संस्था में जुड़ी, वहाँ हिन्दी का काफ़ी काम किया, वहीं से यह बच्चों की कविताओं का प्रोजेक्ट मेरे पास आया | उन गीतों पर छोटी छोटी फिल्में भी बनीं

मधु प्रसाद –

'नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि ’कैसे उपजा ?

डॉ.प्रणव भारती ---

'नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि ‘मेरे सीरियल ‘अब झाबुआ जाग उठा‘ का प्रतिफल है| इसको मैंने झाबुआ जाकर आदिवासियों के बीच जीया | इसके 68—70 एपीसोड्स भोपाल से प्रसारित हुए | इसके लिए कई शोधार्थियों की एक टीम बनाई गई थी जो मुझे बहुत सा मैटर मुहैया कराते रहते थे | मेरे सीरियल के निदेशक श्री अशोक कामले थे, उनके इसरार पर मैं दो बार अलीराजपुर व झाबुआ गई | वहाँ के लोगों से चर्चा की, उनके रहन-सहन से वाकिफ़ हुई तब सीरियल लिखा गया | उन्हीं दिनों मेरे शहर मुज़फ्फ़रनगर में एक दर्दनाक घटना का होना मेरे लिए बहुत पीड़ादायक हो गया और मन प्रश्नों से भर उठा कि आख़िर मानवता का ह्रास क्यों होता जा रहा है ? आदिवासी को ताड़ी का लालच देकर उनसे मारकाट करवाने जैसा घिनौना काम लिया जाता है लेकिन मेरे शहर में न तो इतनी गरीबी थी, न ही इतनी अशिक्षा ! बल्कि अब तक तो लोग काफ़ी धनाड्य हो चुके थे फिर ये कैसी नासमझी थी कि आदिवासी प्रदेश जैसी घटनाएँ वहाँ कैसे और क्यों हो रही थीं ? बहुत से प्रश्नों ने मनोमस्तिष्क को उलझाए रखा | कई वर्षों बाद यह उपन्यास जन्मा जिसमें वास्तव में दो कहानियाँ साथ चल पड़ीं | 

मधु प्रसाद --

कोरोना काल की क्या उपलब्धियाँ रहीं ?आजकल आप क्या लिख रही हैं ?

डॉ.प्रणव भारती –

यूँ तो यह समय सबके लिए मानसिक व शारीरिक त्रास का समय है मधु | तुम ख़ुद इस पीड़ा से गुज़री हो | मुझे लगता है कि हम जैसे लोगों को इसने बहुत कुछ सिखाया भी है और दिया भी है | मैं अपने शारीरिक कष्ट के कारण अब अधिक बाहर जाने से कतराती हूँ| घर में बैठकर ही ‘लाइव्ज़’ में भाग लेती रही, इतनी कि अब थकान होने लगी है किन्तु जुड़ी रहती हूँ पुराने मित्रों, संस्थानों से | इस समय मेरे तीन लघु उपन्यास ‘बेगम पुल की बेगम उर्फ़’, ’सलाखों से झाँकते चेहरे ‘, ’न, किसी से कम नहीं ट्रेंडी ‘, एक कविता संग्रह ‘तुम्हारे बाद‘ इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, बच्चों के लिए’दानी की कहानी’, कविताएँ, मेरा वर्षों पुराने शीर्षक का रविवारीय लेख’उजाले की ओर’ जो पहले ‘गुजरात वैभव’ अख़बार में आता था| यह अख़बार दिल्ली, अहमदाबाद व राजस्थान में दो स्थानों से प्रकाशित होता है, यह सब लगातार लिखा गया | अब डिजिटल रूप में सभी रचनाएँ ‘मातृ भारती’ पटल पर प्रकाशित हो रही हैं | 

दो उपन्यासों की रूपरेखा तैयार है, एक समाप्ति की ओर है किन्तु आजकल मन बहुत उदास होने के कारण लेखन में विघ्न है | 

मधु प्रसाद –

आपकी अब तक कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं दीदी ?

डॉ.प्रणव भारती –

प्रिंटिंग व ई-बुक्स मिलकर लगभग बीस से अधिक हो गईं होंगी | संकलनों में गद्य-पद्य रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं, वो भी 20/25 तो होंगे| 

मधु प्रसाद --

आज की युवा पीढ़ी आशाओं, आकांक्षाओं, अभिलाषाओं की दौड़ में सक्रिय है पर संस्कृति एवं परंपराओं के प्रति उदासीन ! कंप्यूटर ने जैसे सारी संवेदनशीलता का हरण कर लिया है | आधुनिकता की इस दौड़ और होड़ में हमआगे बढ़ रहे हैं या कहीं अपनी सभ्यता, परिवार आदि से दूर हो रहे हैं | माहौल मेंअफ़रातफ़री है, भटकन है | अपना कैरियर चयन करने की जो गंभीरता और संयम, गरिमा होनी चाहिए वह नहीं है | इस उथल-पुथल भरे वातावरण में जी रहे हैं हम सब, क्या कहना चाहेंगी आज की युवा पीढ़ी के लिए ?

डॉ.प्रणव भारती ---

मधु ! बहुत सी बातों को हम कोशिश करके भी नहीं रोक पाते लेकिन मैं इतना ज़रूर सोचती हूँ कि हमें उपदेश नहीं आचरण पर ध्यान देना होगा | माता-पिता को अपने ऊपर काम करने की ज़रूरत अधिक लगती है मुझे | शायद हम ही कहीं न कहीं चूक जाते हैं, कमज़ोर पड़ जाते हैं | युवा पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ही सीखती है | आज के युवा बहुत स्मार्ट व समझदार हैं, उन्हें दिशा-निर्देश की आवश्यकता है | मित्र बनकर उन्हें सही सलाह देने का प्रयास करेने के साथ ही उन पर दृष्टि रखकर उन्हें वास्तविकता का चित्र दिखाना भी हमारा ही कर्तव्य हो जाता है | 

मधु प्रसाद --

जानना चाहूंगी कि आज की पीढ़ी पढ़ने-लिखने की और क्यों नहीं आकर्षित होती है ?हम सभीने बहुत छोटे से सृजन आरंभ कर दिया था आज युवा वर्ग में अवसाद पसरा हुआ है| युवा पीढ़ी में साहित्य, पुस्तकें, आध्यात्म की ओर रुझान उत्पन्न करने के लिए क्या करना चाहिए ?

डॉ.प्रणव भारती –

मधु, हम सब जानते हैं कोई भी समय अपनी चिंताओं से मुक्त नहीं रहा है | समय का प्रभाव बड़े स्वाभाविक रूप में मनुष्य पर पड़ता है | हम सब पर भी पड़ा है, आज की पीढ़ी पर कुछ अधिक ही पड़ रहा है| जैसा मैंने पहले कहा, कहीं न कहीं पारिवारिक विघटन, माता-पिता का अपने रिश्तों के प्रति अविवेकी होना, अहं, ईर्ष्या, द्वेष, नकल –ये सब भी तो इसके लिए उत्तरदायी हैं | हम पहले खुद समझेंगे तभी बच्चों को समझा पाएँगे न !

मधु--

आप एक शिक्षिका, साहित्यकार रही हैं, मंचों पर भी आपकी उपस्थिति  निरंतर रहती है, आपकी ऊर्जा, जीजिविषा, सदा स्नेह से हर कार्य को साकार करना, क्या है इस अदम्य उत्साह, चैतन्य और हँसी से आभासित व्यक्तित्व का रहस्य?युवा पीढ़ी आप सरीखे ऊर्जायित रचनाकार का अनुकरण करे, सशक्त बने, विपदाओं से डटकर मुकाबला करे, क्या करना चाहिए ?

डॉ.प्रणव भारती –

मैंने तुम्हें अपनी पूरी कथा सुना दी, मुझे लगता है कि सकारात्मकता ने मेरे जीवन को सदा आशीष दिया है | यह हमारे ज़माने में भी ज़रूरी था, आज भी उतना ही ज़रूरी है, काल भी रहेगा | कठिनाइयाँ न आएँ ऐसा तो हो ही नहीं सकता, उनमें से ही निकलना पड़ता है, चाहे रोकर निकलें अथवा हँसकर –रोने से कोई समाधान तो मिल नहीं जाता इसलिए हँसकर ही समय के साथ बहना सिखाया मुझे समय ने ही | 

जहाँ तक प्रकाशन का सवाल है, पता नहीं कितनी पत्रिकाओं से सामग्री वापिस आईं | युवा पीढ़ी को इस प्रकार के व्यवधानों की चिंता नहीं करनी चाहिए | शुरू-शुरू में तो मुझे दुख होता था बाद में मैंने पत्रिकाओं में भेजना ही छोड़ दिया लेकिन मस्तिष्क व कलम को जंग नहीं लगा, यह माँ शारदे की अनुकंपा ही रही | मंच पर, , आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि में बड़े स्नेह व सम्मान से आमंत्रित किया जाता रहा, यह मेरा सौभाग्य रहा | 

मैं समझती हूँ किसी भी परिस्थिति में घबराकर उससे हट जाने से कोई लाभ नहीं होता | अपने हाथ में यदि कुछ नहीं है, प्रयत्न तो है | मैं युवा पीढ़ी से यही कहना चाहूंगी कि इतने चुप न हो जाएँ कि टूटने की कगार पर आ जाएँ | अच्छी पुस्तकों, सुविचार वाले मित्रों को अपने पास बनाए रखें | अपने ऊपर काम करें, ख़ुद में झाँकने का प्रयत्न करें| एक बात जो मुझे कम से कम बहुत महत्वपूर्ण लगती है कि परिवार युवा-पीढ़ी से ऐसा व्यवहार करे कि युवा अपने परिवार से खुलकर अपने मन की बात कर सकें, अपने मन में उठते हुए प्रश्नों का समाधान परिवार में ही पा सकें, न कि कहीं बाहर से | बाहर के वातावरण का, बदलाव का प्रभाव न पड़े, ऐसा तो ही नहीं सकता लेकिन कोशिश यह रहे कि उन्हें अपने घर पर ही उन कठिन प्रश्नों के उत्तर मिल सकें जिनसे वे जूझते हैं, ऐसे संस्कार मिलें जो उनके जीवन को सही मार्ग-निर्देशन दे सकें | 

मधु प्रसाद ---

धन्यवाद दीदी, आपकी ही पंक्तियों से विदा ले रही हूँ | 

चटकती धूप  सिहरन जगा के जाती है , 

मेरे भीतर के सारे  भेद खोल जाती है| 

तुम वहाँ क्यों खड़े हो ज़िंदगी के पैताने, 

ये धूप  वो है जो आती है लौट जाती है| 

 

डॉ. प्रणव भारती ----

धन्यवाद मधु, मेरे साथ इतना समय बिताने और इतनी सारी बातें सुनने के लिए !

 

pranavabharti@gmail.com

mob--9904516484

 

श्रीमती मधु प्रसाद

29, गोकुलधाम सोसायटी

चांदखेड़ा

अहमदाबाद--382424

मोब ----09558020700