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पुस्तकें - 5 - धनंजय

धनंजय -- संवेदनात्मक अभिव्यक्ति

'धनंजय' जैसा नाम से ही स्पष्ट है, लेखक प्रताप नारायण सिंह का एक ऐसा उपन्यास है जिसके सारे चरित्र पौराणिक हैं | इस उपन्यास के सारे चरित्र व घटनाएँ वेदव्यास के ग्रंथ से उदृत किए गए हैं किन्तु उपन्यासकार ने इस कथा को ऐसे इंद्रधनुषी धागों से बुनकर एक अनुपम रंग-बिरंगा दुशाला तैयार किया है जिसमें आज का मौसम मुखर होता है, शीत व ग्रीष्म की सभी ऋतुओं के भीनेपन की कोमल छुअन महसूस होती है |

लेखक ने धनंजय की चौहदवीं वर्षगांठ से कथा का प्रारंभ किया है और क्योंकि कथा की धुरी धनंजय हैं, कथा उनके चारों ओर घूमती है | धनंजय की विभिन्न मानसिक स्थितियों से परिचय करवाना लेखक का एक नवीन चिंतन व दृष्टिकोण है |

प्रश्न यह भी उठ सकता है कि जब हम महाभारत की कथा व उसके पात्रों से भिज्ञ हैं तब इस उपन्यास को आख़िर पढ़ने की आवश्यकता क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि बेशक उपन्यास में अधिकांश पात्र, चरित्र, घटनाओं से हम परिचित हो सकते हैं किन्तु उपन्यासकार ने उपन्यास में जिन नए बिंदुओं, नए सरोकारों को प्रस्तुत किया है | उनसे धनंजय का पूरा चरित्र तो उभरकर आता ही है, साथ ही कथा कई रसपूर्ण पहलुओं के साथ ही युद्ध, शस्त्र, संगीत व कला के ज्ञान के नए आयामों से सहज रूप में पाठक को अपना परिचय भी कराती है |

उपन्यासकार ने एक शोधार्थी की भाँति अनेक ग्रंथों का अध्ययन करके ऐसे-ऐसे शस्त्रों

व युद्ध के पहलुओं का उद्घाटन किया है कि पाठक को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है | उपन्यास 'धनंजय' ऐसे तथ्यों का ख़ज़ाना है जो नवीन द्वार खोलकर पाठक के समक्ष आ प्रस्तुत हुआ है |उपन्यास में धनंजय की विभिन्न मानसिक परिस्थितियों में उनके प्रेम-प्रसंगों का एक नए रूप में परिचय संवेदना की एक रुचिपूर्ण शृंखला है |

जब हम आज के परिप्रेक्ष्य में किसी भी ग्रंथ का पठन करते हैं, उसके पीछे एक नवीन दृष्टिकोण, नवीन सरोकार, भिन्न संवेदना परिलक्षित होती है | कथा का 'मूड' पाठक को चिंतन की एक नवीन दिशा भी प्रदान करता है |समय का प्रभाव अन्य स्थितियों के साथ ही साहित्य पर भी किसी न किसी रूप में पड़ता ही है | इसका प्रमाण 'धनंजय' उपन्यास में परिलक्षित होता है | धनंजय में अन्य पात्रों के साथ कृष्ण का प्रवेश भी बड़े स्वाभाविक रूप में होता है | यहाँ अलौकिक माप -दण्डों के स्थान पर एक आम मनुष्य की मानसिकता से जुड़कर कृष्ण को अर्जुन के सखा के रूप में प्रस्तुत किया गया है | उपन्यासकार ने धनंजय की मनोदशा को प्रस्तुत करते हुए अपने उपन्यास का अंत धनंजय की इस संवेदनपूर्ण मनोदशा के साथ किया है ;

"नहीं ज्ञात है कि जो किया वह समय की तुला पर कितना उचित या अनुचित ठहराया जाएगा किन्तु मैंने अपने समस्त कर्म सदैव धर्मसम्मत जानकर ही किए ---|"

उपन्यास के पहलुओं को जानने, समझने के लिए उसका पठन आवश्यक है | मुझे पूरा विश्वास है कि यह श्रमसाध्य उपन्यास 'धनंजय' अर्जुन के मन के भीतर के पृष्ठों को खोलकर अधिक से अधिक पाठकों के ह्रदय को छूकर साहित्य में अपना एक अनूठा स्थान बनाएगा |

अशेष बधाई एवं शुभकामनाओं सहित

डॉ. प्रणव भारती

अहमदाबाद

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