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जहाज

उमा जानकीरामन के तमिल कहानी का अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा

दिवाकर फैक्टरी की बस आते ही आराम से चढ़ गया। बस में तीसरी लाइन की खिड़की के पास जहां हमेशा बैठता है वहीं बैठ गया।

प्राइवेट बस में ऐसी जगह मिलेगी क्या ? कहां बैठे ये फिकर इस बस में नहीं है। यहां तो सब की जगह निश्चित है। उसको अपने घर ‘जलहल्ली’ जाने में एक घण्टे से ऊपर समय लगता है। इसी दौरान एक नींद की झपकी ले लेता था

हमेशा की तरह उसके साथ काम करने वाले राजेश व रामन अगले स्टॉप पर चढ़ कर पीछे की सीट पर बैठ गए।

वे दोनों हमेशा की तरह इतनी जोर से बातें करते हैं कि बस की आवाज के बावजूद उसको सुनाई पड़ता है। बीच-बीच में जोर-जोर से हँसते भी हैं। ये उनकी रोजाना की बात है। दूसरों के बारे में बिलकुल भी चिंता किये बिना चिल्ला-चिल्ला कर बात करते है। ऐसी कितनी बातें हैं व क्या बातें है, जो खत्म ही नहीं होती ! ऐसा सोच-सोच कर दिवाकर परेशान हो रहा था।

जैसे ही दिवाकर ने मुड़ कर देखा राजेश उसे देख कर हँस दिया। दिवाकर भी मजबूरी में मुस्कुरा दिया।

आजकल दिल खोल कर ठहाके लगाना उससे होता ही नहीं। कुछ विरक्ति के कारण व कर्तव्य के कारण होठ खुलते ही नहीं...............

अभी घर जाना भी सिर्फ कर्तव्य मात्र लगता है। बेमन से घर जाते ही भुवना की पकड़ाये काफी को पीकर, सुबह के अखबार की एक एक लाइन चाटते हुए बालकनी में बैठकर एफ. एम सुनना.............

संध्याकाल होते ही दौड़ कर घर जाने वाले बच्चों की आवाज, जोर-जोर से बोल-बोल कर पढ़ने वाले बच्चों की आवाज कूकर की सीटी की आवाज सब एक साथ आती है।

किराने का सामान खत्म हो गया। ‘अमुदम अंगाकाडी’ जाकर सामान लाना है .......भुवना रसोई में से ही बोलती है। ‘अमुदम अंगाकाडी’ के यहां सामान सस्ता मिलता है। इसीलिए भीड़ कुछ ज्यादा ही रहती है।

‘‘वहां तो लम्बी क्यू होगी ना ! यहीं पास की दुकान से लेकर आता हूं।’’ ऑफिस से अभी-अभी ही आया था अतः थकावट के कारण उसने जवाब दिया।

‘‘क्यूँ को देखे तो क्या होगा ? दस सामान की जगह वहां से पद्रह सामान ले सकते हैं। सुबह पानी की लारी आई थी तो मैं खड़ी नहीं रही क्या क्यूँ में ?’’ भुवना बोल रही थी तब तक ही दिवाकर थैला लेकर जाने लगा । भुवना आजकल सीधे सामने न देख कर, दिवार को देखकर या बाहर देख कर ही बोलती है। कभी-कभी उसकी असाधारण बातो का जवाब दिवाकर ऊँची आवाज में देता है तो फिर दोनो में वाद विवाद बिना रूकी बरसात जैसे शुरू हो जाता। बच्चे तो आँख फाड-फाड कर देखने लगते व बिना खाये पिये सो जाते। बच्चे उससे ज्यादा खुले हुए नहीं हैं अतः उससे दूर-दूर ही व सहमें सहमें से रहते हैं। बच्चे उससे चिपके उसका मौका ही दिवाकर नहीं देता, ऐसा भुवना का कहना है। बच्चों  को बुला कर गोदी में बिठाओ तो वे अपनी पसंद की चीजों की फर्माइश  करने लगते हैं इसीलिए तो आप अलग-थलग रहते हो।

उसकी कमियों को भुवना जब परोक्ष रूप से बताती है तो उसे काट नहीं सकता। इसमें सच्चाई है,ये सोचकर शोध में लग जाता।

नई-नई शादी के बाद भुवना के हाथों को पकड़ कर लालबाग के ठण्ड़ में ,ऊपर से ठण्ड़ा-ठण्ड़ा गन्ने का रस पीकर, विधान सभा की लम्बी लम्बी सीढ़ियों में सटकर बैठ कर बिना मतलब की बातें करते हँसते रहते। वे बहुत दूर के दृष्य भी अभी आँखों के सामने आ जाते हैं।

वो रंगीन वसंत काल था। इन सपनों के चक्कर से दूर भी नहीं हुए थे कि एक बच्चा यानि तीसरा जीव एक फैक्टरी के बाबू के वेतन में हिस्सा लेने आ गया।

‘‘सुनो जी ! बच्चे का दूध का पाउडर खत्म हो गया, आते समय खरीद कर लाना।’’

‘‘फैक्टरी में बीच बीच में पूरा वेतन नहीं देते, बच्चे को पतला दलिया बना कर दे दो। ’’

वैसे ही पलने लगा बच्चा।

दूसरे लड़के के होते ही दिवाकर ने दोपहर में केन्टिन में नाश्ता करना बंद कर दिया।

‘‘क्यों जी ! आज बाहर जाकर होटल में खाना खाकर आते हैं। घर का खाना खाते खाते बोर हो गए।’’ भुवना के कहने पर दिवाकर दयनीय ढ़ग से जवाब देता। ‘‘आज 28 तारीख है भुवना । हाथ मे पैसे नहीं है। अपने हालात को मैं कहकर ही समझाऊँ क्या? अगले हफ्ते जायेगे।’’ सुनते ही भुवना का चेहरा एकदम काला हो जाता है।

अगले हफ्ते दिवाकर ने बिना भूले भुवना को होटल जाने के लिए बुलाया तो वह बोली ‘‘मुझे नहीं जाना। उस दिन जाने की इच्छा हो रही थी अतः आपसे पूछा। आज जाने की इच्छा नहीं है।’’ वह जानबूझ कर, ऐसा रही है यह सोच उसका गुस्सा बढ़ता जाता और वह पैरों में चप्पल डाल घर से बाहर निकल जाता।

आधी रात के बाद घर आकर सिर्फ पानी पीकर सोने चला जाता। फिर तो भुवना का बड़बड़ाना बहुत देर तक आधा-अधूरा उसे सुनाई देता रहता।

‘‘भुवना इस महिने कुछ देख कर खर्च करना। मेरी अम्मा भी आ रही है।’’

‘‘वरना ! नही तो मैं बहुत दिल खोलकर खर्च करती हूं ना ! पूरी जिंदगी ही हिसाब किताब में ही निकल जाएगी लगता है। मेरी दीदी कैसे आराम से रहती हैं।’’

उसके मुंह बनाकर बोलते ही वह भी अपनी आवाज उठा कर चौंका देता है। ‘‘हाँ .....तुम्हारी दीदी हर महिने दस हजार रूपयें लेकर आती है। मेरे दोस्त गोविंद की पत्नी अगरबत्ती का व्यापार कर बहुत से रूपये घर लेकर आती है। तुममें तो कोई भी होशियारी नहीं है।’’ आगे बोला ‘‘सबके जैसे मेरी आने वाली नहीं है इस दुख से मेरा दिल भरा हुआ है। क्या करूं !’’

दिवाकर के बोलना शुरू करते ही भुवना की आँखें बरसने लगती है; कोई जवाब न देकर कहीं देखती हुई खड़ी रहती है।

कल भी ऐसा हुआ, वह बड़े चाव से रात खाना खाने बैठा, तो काली मिर्ची का रसम व भुना हुआ पापड़ थाली में देखा, जैसे बिमार आदमी का खाना हो ! दिवाकर ने बडबडाते हुए खाया।

कई बार उसके ऑफिस से आते समय जब दीपक जलाने का समय हो रहा होता है तब भी भुवना अन्धेरे में लेटी होती है। तब भी क्या हुआ ? न पूछ कर ऊंची आवाज में ही बात करता था।

‘‘मेरी तबियत ठीक नहीं। सुबह से ही बहुत सिर दुख रहा है। पानी का टेन्कर आया तो दस बाल्टी लाकर रखी। मैं बहुत थक गई।’’

‘‘कल बच्चों का गणित का टैस्ट है थोड़ी मदद कर दो।’’ वह अनसुना कर बाहर की तरफ चल जाता। उसके इस तरह जाने से भुवना का मन बहुत भारी हो जाता।

कब दोनों के बीच कौन सा पर्दा गिरेगा कह नहीं सकते। फिर भी आजकल घर में हंसी की आवाज, सामान्य बातचीत बिलकुल भी नहीं है। एक दूसरे को घाव देने में ही लगे रहते हैं.........

भुवना कभी-कभी किसी भी बात को सोच बिलख-बिलख कर रोती है। दिवाकर के पिता जब कभी गाँव से यहाँ आए तो उनसे दिवाकर की शिकायतों की झड़ी लगा देती है।

दिवाकर को ये सभी बातें बेकार जैसे लगती। आज वह घर आने के दो स्टॉप पहले ही उतर गया।

ब्लड-प्रेशर की गोलियां व आयोडेक्स लेना था। अतः दवाई की दुकान के सामने जाकर खड़ा हुआ तो पीछे से एक हाथ ने उसके कंधे को जोर से दबाया। उसने मुड कर देखा तो उसका बचपन का दोस्त गणेश हँसते हुए खड़ा था। गणेश राजकीय कार्यालय में पियून की नौकरी करता है।

कभी वे अचानक मिलते है तब आधा घण्टा खड़े होकर बात करके ही जाते है। इस बार भी पास के चाय वाले की दुकान पर जाकर गरमा गरम चाय लेकर आये व गणेश बैंच पर बैठ गया।

दिवाकर संकोच से खड़ा था तो उसने उसे खींच कर बैठाया। ‘‘गणेश इस तरफ कैसे आए। आश्चर्य हो रहा है।’’

‘‘यहां एक रिश्तेदार को देखने आया व पत्नी के लिये एक साड़ी खरीदी।’’

‘‘क्यों भई कोई विशेष बात है क्या ?’’

‘‘कल उसका जन्म दिन है। सरप्राइज़ दे तो बहुत बढ़िया होता है। सिर्फ कॅाटन की साड़ी है। सेल में खरीदी। मावा की मिठाई बच्चों  को बहुत पसंद है। अतः दो पैकेट खरीद लिये।’’ गणेश  चाय पीते हुये बोलता गया।

‘‘ये बाते तो ठीक है तुम्हारा वेतन तुम्हें पूरा होता है क्या ? जो वेतन बढ़ाने की बात हो रही थी वह हो गया क्या ?’’ बड़े उत्सुकता से दिवाकर ने पूछा।

‘‘नही यार ! कुछ भी ज्यादा नहीं हुआ। जब कुछ होता है तो साम्भर चावल खाते है नहीं होता तो छाछ व चावल। जो कुछ है उसी में खुशी से रहना पूरे परिवार ने सीख लिया है।’’ फिर कहने लगा ‘‘मैं जिस किराये के मकान में रहता हूं वहां बारिश होने पर घर के अन्दर यहां-वहां पानी टपकता है। हम नीचे बर्तन रख कर सम्भालते है। पहली बरसात अपने घर के अंदर आए तो मेरी पत्नी सुधा आजाओ बच्चों कह कर जोर-जोर से हँसती है।’’

‘‘ठीक है दिवाकर मैं चलूं बच्चों का कल टैस्ट है। सुधा गणित में कमजोर है। मैं जाकर ही पढ़ाऊँगा।’’

‘‘फिर मिलेंगे ! एक दिन घर पर सबको लेकर आना। फिर आराम से बातें करेगें।’’ गणेश  सब बातें जल्दी-जल्दी कह कर चला गया।

दिवाकर घर की ओर चल दिया। दिवाकर ने सोचा मैंने किसी को कोई खुशी न देकर अपनी गृहस्थी चलाई ये बात उसे समझ आई।

भुवना के साथ बैठकर आराम से बात करना ही मैं भूल गया। मैंने बच्चों को बैठा कर कभी कैसे हो, क्या चाहिये नहीं पूछा। शादी के शुरू के दिनों में जो थोड़ी बहुत हंसी थी वह भी धीरे धीरे गायब हो गई। हमेशा के लिए एक चिड़ड़िापन चेहरे पर चिपक गया। इसी चिड़चिड़ेपन ने ही छूत की बिमारी जैसे फैल कर पूरे परिवार की बली चढ़ा दी ।

बरसात तेज आने लगी। दिवाकर ने छाते को पकड़े हुए चलना शुरू किया। घर के सामने नदी जैसे पानी बह रहा था।

दोनों लड़के कागज की नाव बना कर पानी में छोड़ रहे थे। दिवाकर बड़ी प्रसन्नता व रूची लेकर उन्हें देख रहा था।

बच्चों ने उसे बड़े आश्चर्य के साथ देखा।

‘‘ये जहाज लड़ाई के लिए जा रहा है। अप्पा ये सामान लाद कर ले जाने वाला जहाज है। इसे देखो ! ये सवारी का जहाज है।’’ छोटा लड़का अपने अप्पा को समझा रहा था।

दिवाकर भी छोटी उम्र में बिना फिकर, चिंता के ऐसे ही जहाज पानी में तैरता था। पर बड़े होने के बाद मन में बहुत से भार को लेकर चलते है। दिवाकर ने वैसे ही बैठ कर छोटा सा जहाज बना कर पानी में छोड़ा। जहाज के तेजी से चलना शुरू होते ही दोनों बच्चे खुशी से नाच उठे।  ‘‘इसका नाम क्या है पता है तुम्हें ?’’ ‘‘ये समाधान जहाज है ’’ दिवाकर बोला।

पहली बार, बच्चों के साथ बराबर बैठ कर उसे जहाज छोड़ते देख भुवना आश्चर्यचकित हो गई।

उमा जानकीरामन के तमिल कहानी का अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा

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