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निर्वाण--भाग(२)

माँ! बाबूजी से बात करो ना! वो हम सबको गाँव ले चलेगें,प्रबल बोला।।
कह दिया ना कि हम गाँव नहीं जाऐगे,सम्पदा बोली।।
लेकिन माँ! हम हर साल तो गाँव जाते हैं तो इस बार क्यों नहीं! भामा ने पूछा।।
वो इसलिए कि मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी दादी तुम्हें हमेशा कोसती रहें,हमेशा यही जताती रहे कि तू एक लड़की है,तुझे पढ़ाकर मैं और तेरे बाबूजी गुनाह कर रहे हैं,सम्पदा गुस्से से बोली....
तो क्या दादी नहीं चाहती कि मैं आगें पढ़ू? भामा ने पूछा।।
नहीं!वो तो कहतीं हैं मैं तुझे घर के काम सिखाऊँ,सम्पदा बोली।।
तुम नहीं चाहती तो फिर मैं गाँव ना जाऊँगी,भामा बोली।।
और फिर भामा ने गाँव जाने का ख्याल अपने मन से निकाल दिया,उसे अपनी दादी की बात मन में लग गई थी कि वो उसे पढ़ने देना नहीं चाहतीं इसलिए अब वो और भी मन लगाकर पढ़ने लगी,ऐसे ही उसके जीवन के दो और साल बीत गए और वो छठीं से आँठवीं में आ पहुँचीं,अब वो चौदह साल की हो चली थी,जब कभी उसकी दादी सियाजानकी उसके पास रहने आतीं तों उसकी पढ़ाई उन्हें खटकने लगती तब वो अपनी बहु से कहतीं....
सम्पदा! तू कब तक ऐसे घर के कामों पर लगी रहेगीं,तेरी बेटी अब बड़ी हो गई है क्या ये यूँ ही मरी किताबों में आँखें फोड़ती रहती है?,इसे भी घर के कुछ काम-काज सिखा,अगर पढ़ते पढ़ते आँखों पर चश्मा चढ़ गया तो अच्छा घर और वर मिलने से रहा,फिर किसी ऐरे-गैरे के गले बाँधना पड़ेगा।।
अम्मा तुम भी क्या चौबीस घंटे मेरी बिटिया को कोसा करती हो? तुम्हारी ही पोती है कोई गैर नहीं,सम्पदा बोली।।
बड़ा पक्ष लेवें हैं बिटिया का! कल को नाक कटाएगीं तब बात समझ में आएगी,सियाजानकी बोली।।
बस...अम्मा...बस! यहाँ रहना है तो ढंग से रहो,हमारी बिटिया है तो हम दोनों पति पत्नी देख लेगें,अगर चैन से नहीं रहा जाता तो अपना बोरिया बिस्तर बाँधो और टरक लो यहाँ से,सम्पदा बोली।।
बिटिया की खातिर मुझे घर से निकालेगी,सियाजानकी ने सम्पदा से पूछा।।
हाँ! मेरी बिटिया मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी है और उसकी खातिर मैं कुछ भी कर जाऊँगी,सम्पदा बोली।।
साँची कहूँ तो तूने ही इसे इतना सिर चढ़ा रखा है,कल को पराए घर जाएगी तो जूते पड़ेगें इसके सिर पर और ऊपर से लोंग कहेगें कि माँ ने कुछ नहीं सिखाया,सियाजानकी बोली।।
अपनी बेटी को पढ़ लिखाकर इस काबिल बना दूँगी कि वो ही दूसरों का सहारा बनें ना दूसरें उसका सहारा बनें,अपनी तरह नहीं रहने दूँगी,सम्पदा बोली।।
बड़ा भरोसा है अपनी बेटी पर,सियाजानकी बोली।।
और क्या? क्यों ना हो भरोसा मेरी बेटी है ही इतनी काबिल,सम्पदा बोली।।
तेरा दिमाग़ खराब हो गया है,सियाजानकी बोली।।
मेरा दिमाग़ बिल्कुल सही है,तभी तो उसे पढ़ा रही हूँ,सम्पदा बोली।।
मेरे और भी दो बेटे हैं उनकी भी बेटियाँ हैं लेकिन उन के सिर पर बेटियों को पढ़ाने का भूत सवार नहीं है,सियाजानकी बोली।।
तो मैं क्या करूँ? उनके बाप तो अनपढ़ हैं लेकिन मेरी बेटी का बाप तो पढ़ा लिखा है,सम्पदा बोली।।
बड़ा गरब है तुझे कि तेरा ख़सम पढ़ा लिखा है,सियाजानकी बोली।।
अम्मा ! तुम बात आगें बढ़ा रही हो फिर तुम भामा के बाबूजी से शिकायत करोगी कि मैं ही तुमसे उलझती हूँ,सम्पदा बोली।।
ना...ना! तू कहाँ उलझती है मुझसे,मेरे ही काँटें लगें हैं,सियाजानकी बोली।।
अम्मा उल्टी बातें मत करो,सम्पदा बोली।।
दुनिया भर में एक तू ही तो सीधी है और सीधी बातें करती है,सियाजानकी बोली।।
मैं बाज़ार से सब्जी खरीदने जा रही हूँ नहीं तो अम्मा तुम तो कभी भी बहस करना बंद नहीं करोगीं और फिर सम्पदा ने अपना सीधा डाला हुआ पल्लू सम्भाला,बालों पर कंघी फेरी,झोला और बटुआ उठाया और फिर वो दरवाजे़ से बाहर निकल गई.....
सम्पदा के जाते ही सियाजानकी भामा से बोली...
तेरी वज़ह से ही ये सब कुछ होता है मनहूस कहीं की।।
मैं मनहूस हूँ,आ जाने दो बाबूजी से कहूँगी कि तुम्हारी अम्मा मुझे मनहूस कहती है,भामा बोली।।
हाँ! कह दीजो,डरती हूँ क्या तेरे बाप से,सियाजानकी बोली।।

शाम हुई और माखनलाल अपने काम से घर लौटें और सम्पदा उस समय तक बाज़ार से सौदा लेकर वापस लौट चुकी थी,माखनलाल के घर में घुसते ही सियाजानकी बोल उठी....
लल्ला! मैं अब ना रह पाऊँगी तेरे घर में ,तू मुझे कल ही गाँव की बस में बैठा दे।
काहे! अम्मा ! ऐसा क्या हो गया? माखन लाल ने पूछा।।
मुझसे क्या पूछते हो ? अपनी बीवी से पूछो,सियाजानकी बोली।।
तभी माखनलाल जी ने सम्पदा को आवाज़ लगाई.....
सम्पदा! तुमने क्या कहा है अम्मा को!
कछु नहीं!वो रहना नहीं चाहती तो गाँव की बस में बैठा काहें नहीं देते,सम्पदा बोली।।
ये क्या कहती हो जी! माखन लाल बोले।।
सही तो कह रही हूँ,जाना चाहतीं हैं तो जाने दो,सम्पदा बोली।।
फिर से कहा सुनी हुई का तुम दोनों के बीच में,माखनलाल जी ने पूछा।।
मुझे कोई सौ गालियाँ सुना ले तो सह लूँगी ,लेकिन मेरी बेटी की पढ़ाई के बारें में कोई कुछ कहेगा तो बरदाश्त नहीं कर पाऊँगी,फिर वो चाहे कोई भी हो,सम्पदा बोली।।
देखा! कैसी जुबान चल रही है तेरी बीवी की? सियाजानकी बोली।।
लेकिन अम्मा! तुम काहे भामा की पढ़ाई के पीछे पड़ी रहती हो,माखनलाल जी बोलें।।
तो क्या बिटिया को पढ़ाकर कलेक्टर बनाएगा?सियाजानकी बोलीं।।
कलेक्टर ना सही लेकिन पढ़ेगी तो कुछ ना कुछ तो बन ही जाएगी,माखनलाल जी बोले।।
इसका मतलब है कि तू भी अपनी बीवी और बेटी की तरफदारी कर रहा है,सियाजानकी बोलीं।।
तो क्या करूँ ना पढा़ऊँ उसे?माखनलाल जी की आव़ाज़ कुछ ऊँची थी।।
हाँ! क्या जरूरत है उसे पढ़ाने की? लड़की जात है तो घर के काम-काज सिखा उसे,वही आगें चलकर काम आने वाले हैं,सियाजानकी बोली।।
देखा जी! तुमने! ये दिनभर यही लगाएं रहतीं हैं,मेरी बेटी की पढ़ाई से इन्हें ना जाने क्या दिक्कत है?सम्पदा बोली।।
मैं बोल रहा हूँ ना! तुम चुप रहो,माखनलाल जी सम्पदा से बोले।।
तुम तो मुझे ही चुप कराना जानते हो ,अपनी माँ से क्यों कुछ नहीं कहते?सम्पदा बोली।।
देखा! कितना बोलती है,तुझसे इतनी बहस कर रही है ,तेरे घर पर ना रहने पर ये मुझसे भी ना जाने क्या क्या कहती रहती है दिनभर,सियाजानकी बोली।।
मैं तो तंग आ गया हूँ,दिनभर नौकरी करो,साहब लोगों की जीहाजूरी करो और घर पर ये,मेरा तो जी चाहता है कि कहीं जाकर मर जाऊँ,माखनलाल जी बोलें।।
मेरे यहाँ रहने से ही लड़ाई झगड़ा होता है तो मैं कल यहाँ से चली जाऊँगी,सियाजानकी बोली।।
जैसी तुम्हारी इच्छा! अपना समान तैयार कर लो,कल की बस में बैठा आऊँगा और इतना कहकर माखनलाल जी अपना बीड़ी का बण्डल और माचिस लेकर बाहर चले गए....
सम्पदा भी कोने में जाकर रोने लगी और इधर सियाजानकी अपना सामान बाँधने लगी,जब सम्पदा रो धोकर फुरसत हुई तो उसे रात का खाना बनाने की सुध हो आई,माघ का महीना चल रहा था,इसलिए ठंड थी,सम्पदा बाज़ार से मैथी और बथुए का साग लाईं थी ,उसने साग से घास फूस छाँटी और धोकर बाँस की डलिया में पानी छँटने के लिए रख दिया और फिर उसने खाना बनाने के लिए अँगीठी सुलगाई जो कि वो अक्सर सर्दियों में सुलगाती है,खाना बनाने के बाद वो अँगीठी आग तापने के काम भी आ जाती है।।
अँगीठी सुलगाकर उसने आँगन के सिलबट्टे में हरी धनिये और टमाटर की चटनी पीसी,थोड़ा सा बथुआ उबालकर उसका रायता बनाया,बाकी बथुए और मैथी के उसने पराँठे बनाने की सोची और वो यही सोचकर खाने की तैयारी में लग गई,पहले पहल के गरम पराँठे सेंककर उसने अपनी सास सियाजानकी को परोसे और फिर बच्चों को भी खाना परोसने लगी,अपना और माखनलाल जी का खाना भी उसने साथ में बनाकर रख दिया और फिर अँगीठी वो भीतर ले आई और सियाजानकी के सामने रखते हुए बोली....
लों हाथ पैर सेंक लो,कहों तो गरम तेल की हाथ और पैरों में माँलिश कर दूँ।।
ना ! रहने दे,इतनी खुशामद की जरूरत नहीं है मुझे,सियाजानकी बोली।।
सम्पदा ये सुनकर कुछ नहीं बोली और उसने पकने के लिए अँगीठी पर दूध रख दिया फिर वहीं बैठकर अपने पति का इन्तजार करने लगी.....
तभी माखनलाल जी ने दरवाजा खटखटाया,वें भीतर आएं और लड़खड़ाते हुए बोलें...
खाना लगा दो।।
आज फिर पीकर आएँ हो क्या? सम्पदा ने पूछा।।
फालतू की बात मत करो बच्चों के सामने,तुम खाना लगाओ ,बहुत थक चुका हूँ मैं खाकर सोना चाहता हूँ,माखनलाल जी बोले...
और फिर सम्पदा ने अपने पति के सामने खाना परोस दिया...

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....