Agnija - 33 books and stories free download online pdf in Hindi

अग्निजा - 33

प्रकरण 33

गोवर्धनदास की रमा के साथ जयसुख के साथ रिश्ता पक्का होना वास्तव में कानजी चाचा को बिलकुल भी पसंद नहीं आया। उन्हें रमा से कोई लेना-देना नहीं था, इसका कोई कारण भी नहीं था क्योंकि वह रमा को पहचानते ही नहीं थे। लेकिन अपनी मोनोपोली टूटने का दुःख था उनको, वह भी उनके हाजिर रहते हुए। गोवर्धनदास पहुंचा हुआ आदमी था, ऊपर से नेतागिरी। अपने नेता की भूमिका में कोई विघ्न तो नहीं डालेगा? यशोदा की हामी और जयसुख की मूक सहमति मानकर उसने अगले दिन रमा और उसके माता-पिता को बुला लिया। गोवर्धनदास ने उनके सामने जयसुख के घराने की इतनी तारीफ की कि पूछो मत। इस परिवार की गांव में कितनी प्रतिष्ठा है,जयसुख कितना सरल और स्नेही व्यक्ति है, तिस पर इकलौता। रमा को खा-पीकर रानी की तरह रहने के अलावा और कोई काम न होगा-उसने ऐसा दृश्य बनाया।

रमा के माता-पिता तो तुरंत तैयार हो गए। गोवर्धनदास ने धीरे से उनकी ओर देखकर आंखें मिचकाईं और कहा, “इनके परिवार में अभी-अभी गमी हुई है, इसलिए शादी एकदम साधारण रीति से होगी। कोई दिखावा नहीं। आपको कोई खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। बेटी को नारियल और अच्छे संस्कारों की गठरी के साथ भेज दीजिए बस... ”

गोवर्धनदास ने इसी तरह जयसुख के सामने रमा और उसके घरवालों की तारीफ की। अच्छा परिवार, सीधी-सरल लड़की, घर के कामकाज में होशियार और खास बात कि संस्कारी है...प तैयार हों तो तुरंत शादी के लिए कहता हूं। सच पूछा जाए तो लड़की के माता-पिता के बहुत सपने होते हैं, बेटी की शादी की कितनी तैयारी करनी पड़ती है, लेकिन कहीं किसी बात की कोई कमी न रहे, यह देखना मेरी जिम्मेदारी होगी। यशोदा ने पूछा भी, “केतकी यहां रहती है, यह बात आपने लड़की और उसके माता-पिता को बता दी है न?” गोवर्धनदास ने सिर हिलाते हुए कहा, “घर की बेटी घर में ही रहेगी न? मैंने जब उन्हें बताया तो रमा को बड़ी खुशी हुई कि घर में उसके साथ कोई तो रहेगा। फिर भी कहते हैं न किसी के कहने पर भरोसा नहीं करना चाहिए...तो आप स्वयं ही एक बार उन्हें यह बात बता दीजिएगा। मेरी तो एक ही इच्छा है, प्रभुदास बापू जैसे सज्जन का परिवार सुख-शांति से रहे। क्या पता,शायद उन्हीं के आशीर्वाद से यह काम हो रहा हो...  ”

दोपहर दो बजे गोवर्धनदास फिर से आए। वह रमा और उसके माता-पिता को साथ लेकर ही आए। दोनों पक्ष के लोगों को उन्होंने सबकुछ बता दिया था इसलिए अब कोई कुछ नहीं बोला। लेकिन जयसुख ने बोल ही दिया, “हम दोनों ही रहते हैं घर में। मेरी मां समान भाभी की आखिरी इच्छा थी कि मुझे शादी करनी चाहिए। उनके अचानक चले जाने से ...”  गला भर आया और जयसुख आगे कुछ बोल नहीं पाया। गोवर्धनदास ने उसे सांत्वना दी, “भाई के आशीर्वाद के साथ भाभी की आखिरी इच्छा पूरी करें। सबके मन पर पड़ा बोझ हल्का हो जाएगा। ”

अगले दिन मंदिर में सप्तपदी चल रही थी उस समय जयसुख के मन में भाभी के शब्द गूंज रहे थे, “मुझे वचन दीजिए कि घर आई लड़की को कभी दुःख न देंगे। मैंने यशोदा का दुःख देखा है, इसलिए कहती हूं, आने वाली बहू को कभी डांटिएगा नहीं, उससे ऊंची आवाज में बात मत कीजिएगा और किसी भी परिस्थिति में उसकी किसी बात को टालिएगा नहीं। मुझे वचन दीजिए कि आप उसका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। उसका कहना मानेंगे।”

शादी में रमा को यशोदा, कुछ रिश्तेदार, पड़ोसी और गांव के कुछ लोग दिखाई दिए, लेकिन केतकी कहीं भी दिखाई नहीं दी। केतकी को चाचा की शादी की खुशी थी। उत्साह भी था और मन में नई आशा भी थी इसीलिए वह पिल्लों के लिए अधिक बिस्कुट लेकर आई थी। “खाओ...खाओ...आज मेरे जयसुख चाचा की शादी है...”

मंदिर के बरामदे में बैठकर उसने अंदर के महादेव से बिनती की, “नाना हमेशा कहते थे, मेरा भोलेनाथ जो करेगा, सही करेगा...अब जरा ध्यान रखना...इसके आगे कुछ बुरा न होने पाए...”

और रमा ने पूरे घर को अपने कब्जे में ले लिया। सभी काम अपने हाथों में ले लिये, सबकुछ अपने मनमुताबिक हो, इसकी चिंता शुरुआत से ही करने लगी।

घर में उसे कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं था। एक सामाजिक समझ कहें या उसके अपने विचार थे पता नहीं, पर वह केतकी को जरा भी महत्व नहीं देती थी। हमेशा उसकी उपेक्षा ही करती थी। स्थितियां जयसुख और केतकी की उम्मीद के विपरीत हो गई थीं। केतकी के लिए उसके मन में जरा भी प्रेम, अपनापा या ममता नहीं थी, उसने वैसा दिखावा भी नहीं किया।

केतकी के लिए प्रभुदास या लखीमां जितना प्रेम अथवा वात्सल्य रमा के मन में न होना ये तो स्वाभाविक ही था....हो सकता है किसी ने उसके मन में ऐसा भी भर दिया हो कि इस अनाथ बच्ची को बोझ तुम जीवन भर अपने सिर पर क्यों ढोओगी...? आगे चलकर तुम्हें भी बाल-बच्चे होंगे, फिर इस परायी लड़की की जिम्मेदारी आखिर तुम लोग कितने दिन उठाओगे? उसके मां-बाप इस दुनिया में न होते तो बात और थी। ये विचार रमा के बोलने और उसके व्यवहार में भी दिखने लगे थे। जयसुख के सामने वह केतकी को कुछ नहीं कहती थी, लेकिन उसके बाहर निकलते ही उसका परेशान करती थी। कठोर आवाज में एक के बाद एक काम बताती। “आज तक आराम से बैठककर खाती रही...लेकिन मैं सहन नहीं कर सकती...” रमा में समझदारी नहीं थी या फिर केतकी को लेकर उसके मन में नाराजी थी, पता नहीं क्य था, लेकिन वह उसे एक मिनट भी चैन से बैठने नहीं देती थी। उसे खाली देखते ही कुछ न कुछ काम बता ही देती थी। इतनी छोटी बच्ची दिन-भर काम करती रहती है, उस पर इतने काम क्यों थोपे जाएं, इसका भी विचार उसके मन में नहीं आता था।

नाना-नानी ने तो कभी उससे काम करवाया ही नहीं था। केतकी को काम करने की आदत नहीं थी। उसके लिए ये सब कर पाना मुश्किल और तकलीफदेह था। उससे भी ऊपर रमा चाची उसे पसंद नहीं करती हैं, इस बातका दुःख उससे सबसे अधिक था। लेकिन किया क्या जा सकता था? केतकी चुपचाप सबकुछ सहन करती रही। जयसुख चाचा को उसने इस बारे में कुछ भी नहीं बताया। जयसुख उसे काम करते हुए देखते तो वह खुद ही झूठमूठ कह देती कि खाली बैठे-बैठे ऊबने लगी थी इस लिए काम करने बैठ गई। लेकिन ऐसा करने से सच आखिर कितने दिन छुपा रह पाता? गांव में होने वाली खुसफुस जयसुख के कानों पर भी पड़ी। कोई कहता, देखा, नई बहू ने घर में आते ही केतकी को काम से लगा दिया। लखीमां जो नहीं कर पाईं, वह रमा ने कर दिखाया।

एक रविवार को जयसुख की तबीयत ठीक नहीं थी। वह अंदर के कमरे में पलंग पर प पड़ा हुआ था। रमा ने उसके कमरे का दरवाजा धीरे से खींच लिया और फिर हमेशा की तरह केतकी को एक के पीछे एक काम बताने लगी। भले ही जयसुख लेटा हुआ था, लेकिन सोया नहीं था। बाहर जो कुछ चल रहा था, उसकी समझ में थोड़ा-बहुत आ ही रहा था। रमा बड़बड़ा रही थी, “इनकी तबीयत ठीक नहीं है, इनकी सेवा-चाकरी करो। थोड़ा भी आराम नहीं मिल पाता। अरे केतकी....कहां मर गई...ये डिब्बा गोवर्धनचाचा के घर जाकर दे आ..जा जल्दी जा...और कहीं खेलती बैठ मत जाना..तुरंत वापस आना...”

केतकी डिब्बा लेकर निकल ही रही थी कि जयसुख ने उसे आवाज देकर रोक लिया। उसके हाथों से डिब्बा ले लिया। रमा का चेहरा उतर गया। जयसुख ने डिब्बा खोल कर देखा, तो अंदर गुड़ पापड़ी, और एक थैली में काजू-बादाम थे। एक छोटी डिबिया में असली घी था। जयसुख ने रमा की तरफ देखा, तो रमा ने रोना शुरू कर दिया। “मुझे पता चला कि पिताजी की तबीयत ठीक नहीं है। आपके लिए गुड़ पापड़ी बनाई थी तो मुझसे रहा नहीं गया और उन्हें भी थोड़ी-सी भेजने का मन किया...लेकिन अब जाने दीजिए... ”

जयसुख कुछ नहीं बोला। “मुझे बाहर थोड़ा-सा काम है...गोवर्धन चाचा के घर मैं देकर आ जाऊंगा डिब्बा। मैं देकर आऊंगा तो जरा अच्छा मालूम पड़ेगा।” इतना कह कर रमा की ओर देखे बिना ही जयसुख ने केतकी का हाथ पकड़ा और बाहर निकल गया। रमा डर गई। ऐसे डिब्बे तो हर चौथे दिन मायके भेजे जाते हैं, यह बात गोवर्धन चाचा के घर वालों ने जयसुख को बता दी तो?

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह