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अग्निजा - 42

प्रकरण 42

केतकी कपड़े धोने की मोगरी को देखते ही रही। यशोदा ने कपड़े धोते समय मोगरी को तोड़-फोड़ दिया था, जैसे कि अपने जीवन पर हो रहे अत्याचारों का बदला ले रही हो। उसने दो-तीन बार नई मोगरी लाकर देने को कहा था,लेकिन उसकी सुनता कौन था? आज बाथरूम में दो-दो नई मोगरियां देख कर केतकी को पने बचपन की याद आ गयी। नाना के घर में केतकी घर-घर खेलते समय हमेशा ही मां बनती थी। वह भी रजस्वला मां। यानी कोई भी काम नहीं करना। एक कोने में बैठ कर बच्चे संभालना। और बच्चे भी कौन? यही मोगरी। सभी बच्चे अपने-अपने घर से मोगरियां लेकर आते थे और केतकी के पास रख देते। फिर केतकी सबको ऑर्डर देती थी। कोई दाल लेकर आता, कोई चावल। उसकी खिचड़ी पकाई जाती थी। अब खिचड़ी किसके साथ खाई जाए? ‘डॉन’ केतकी के आदेश के मुताबिक उसकी दो-चार सहेलियां बाजू की हवेली की रसोई से हरी मिर्चियां चुरा कर लाती थीं। फिर सब लोग मिर्ची के साथ खिचड़ी खाते थे।

कभी किसी ने केतकी की बात नहीं मानी, या उसकी मर्जी के मुताबिक खेल नहीं चला तो फिर उस खेल का अंत भी मोगरी की मारामारी के साथ होता था। लेकिन उसकी बात न मानने वाले कम ही लोग थे। वह कहती और सभी काम से लग जाते थे। केतकी के शब्द याने पत्थर की लकीर। कोई उलट कर प्रश्न नहीं पूछता था। उसकी लाड़ली कुतिया जब पिल्ले देती तो उसकी गैंग दादागिरी करके गली के लोगों से हलुआ बनवा लेती थी। कभी घर-घर जाकर गुड़, शक्कर और तेल-घी मांग कर जैसा बन जाए खुद की हलुआ बनाकर कुतिया को खिला देते।

खाने-पीने की भी कितनी खट्टी-मीठी यादें हैं न? नहीं, खट्टी-मीठी नहीं, कड़वी यादें। और कड़ुवे भूतकाल के पिटारे में तो न जाने कितनी-कितनी यादें भरी हुई हैं। उसको सत्यनारायण की कथा पढ़ने के लिए भेजा जाता था, लेकिन उस समय मिलने वाली दान-दक्षिणा लेने के लिए घर का कोई और ही सदस्य जाता था। श्राद्ध का भोजन बनाने के लिए केतकी को भेजा जाता। कहीं शादी जैसा शुभ प्रसंग हो या मरण का दुःखद प्रसंग-वहां भी टिफिन लेने के लिए उसे ही भेजा जाता। बाकी सब केवल खाने का काम करते थे। गर्मियों में कई स्थानों पर मुफ्त में छाछ बंटता था। उस समय वहां पर कतार में खड़े होकर पतेली भर के छाछ लेकर आना पड़ता था। उस समय के उस ठंडे-ठंडे छाछ की यादें आज उसे दहकते अंगारे की तरह महसूस होती हैं। कितने-कितने कष्ट उठाए? किसलिए? सिर्फ दो वक्त के खाने और सोने के लिए दरी बिछाने की जगह भर के लिए?

मोगरी जैसी निर्जीव वस्तु ने उसके भूतकाल को जिंदा कर दिया। उसे अपनी मां का जीवन भी इसी मोगरी की तरह मालूम हो रहा था। दूसरों की आवश्यकता के लिए खुद को पटकना, घिसते रहना। आवश्यकता खत्म हो जाए तो धूप में, किसी कोने में पड़े रहना। किसी को कद्र नहीं। कोई उसकी तरफ झांक कर भी नहीं देखता।

शांति बहन को महसूस होने लगा था कि अब फन उठाने की बारी आ गई है। वह अपशकुनी ताड़ की तरह बढ़ती जा रही है। कल ससुराल चली जाएगी, लेकिन उसके पहले यशोदा और भावना को भी भड़का गई तो? फिर तो दोनों ही उनके सिर पर बैठ जाएंगी और जीवन भर मुझे उनकी बातें सुननी पड़ेंगी।

केतकी के विरोध का रहस्य उन्होंने रणछोड़ के कानों पर डाल दिया। रणछोड़ को याद आया कि उस कॉलेज में भिखाभा का बड़ा वजन है। वहां के ट्रस्टी साल में दो-चार बार तो उनको सलाम ठोकने आते ही हैं। मौका देख कर रणछोड़ ने यह बात भिखाभा के कान पर डाल दी। उन्होंने ट्रस्टी को फोन लगाया और ट्रस्टी ने कॉलेज की प्राचार्या को। चकरी चली और टेम्पररी व्याख्याता के तौर पर काम कर रहीं उपाध्याया मैडम को नौकरी से हटा दिया गया। उन्होंने कारण पूछा तो ऊपर से आदेश आया है, इतना ही बताया गया।

यह जानकर केतकी को झटका लगा। उसे समझने वाली एक मैडम उपाध्याय ही तो थीं। उसको रोना आ गया। उसे देख कर मैडम ने हंस कर कहा, “अरे, मेरी नौकरी ही तो गई है. मेरी-तुम्हारी दोस्ती थोड़ी टूटी है। तुम्हें मेरी जब जरूरत हो, निःसंकोच मेरे घर आती जाओ। तुम आओगी तो मुझे भी बहुत अच्छा लगेगा। ”

उसी दिन भावना ने केतकी को बताया कि आज पिताजी और दादी बहुत खुश थीं। उनकी बातचीत में तुम्हारी उपाध्याय मैडम का नाम आ रहा था। यह सुनकर केतकी के मन में शंका उठी कि मैडम को कॉलेज से निकलवाने में इन दोनों का तो हाथ नहीं? पर फिर बाद में उसे ही लगा कि आखिर वे ऐसा क्यों करेंगे, उसे अपनी शंका निरर्थक जान पड़ी।

रणछोड़ दास ने उसी समय विवाह मिलान करने वाले तीन-चार मध्यस्थों को फोन लगाया और बताया, “जल्द से जल्द कोई रिश्ता बताएं...घर-परिवार, नौकरी, व्यवसाय, उम्र किसी भी बात की कोई शर्त नहीं है...बस दो ही शर्तें होंगी, एक तो दहेज में एक पैसा नहीं देंगे, दूसरा शादी जल्द से जल्द करनी होगी। लड़की पढ़ी लिखी है...घर के सारे काम अच्छी तरह से क सकती है। आप केवल रिश्ता सुझाइए, तुरंत शादी हो गई तो आपको आपकी फीस से ज्यादा इनाम देकर खुश कर दूंगा....” शांति बहन को खुशी हुई। “यह अपशकुनी लड़की अब चार-छह महीनों में इस घर से विदा हो जाएगी।”

“चार-छह महीने? मां, महीने नहीं, सिर्फ दिन गिनो तुम...अब तो मुझे उसका पैर इस घर में बिलकुल नहीं चाहिए।”

दूर से इन बातों को सुन रही भावना को लग रहा था कि ये कैसे लोग हैं? लड़की की शादी किसी भी, कैसे भी आदमी के साथ करने की जल्दी पड़ी हुई है इन लोगों को...इनके मन में जरा भी दया या मानवता नहीं है? उसको बुरा लगा। उसने यह सब केतकी को बताया। केतकी हंस कर बोली, “तुम बुरा मत मानो। जयसुख चाचा की शादी के बाद मुझे जो परेशानी हुई उसके बाद मैंने गांव में हाथ देखने वाले एक चाचा को अपना हाथ दिखाया था। इन सब परेशानियों से मुझे कब छुटकारा मिलेगा, मैंने पूछा था। शादी हो जाने के बाद मेरा इन सब बातों से पीछा छूट जाएगा, तब मुझे ऐसा लगता था। क्योंकि तब मुझे लगा था कि इस घर में तो मुझे कोई स्थान मिलेगा ही नहीं। अब भी मैं वैसा ही सोचती हूं। यहां मजदूरी करना और मां का दुःख देखते रहना, इससे तो शादी कर लेना अच्छा है। ”

“बहन ऐसा मत कहो। तुम्हारे बिना तो मैं यहां एकदम अकेली पड़ जाऊंगी।”

“एक न एक दिन तो वह होना ही है न...और तुम भी तो कभी न कभी ससुराल चली जाओगी...”

“बिलकुल नही...मुझे कहीं नहीं जाना है...तुम्हारे चले जाने के बाद मां की चिंता कौन करेगा? मैं तो कभी भी ससुराल नहीं जाऊंगी।”

केतकी के मन में उसके प्रति प्रेम उमड़ पड़ा। उसने भावना को गले से लगा लिया, “मेरी गुड़िया कितनी सयानी है...”

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“गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं है ये.. समझे न...मेरी जिंदगी का सवाल है। आपको बेटा चाहिए, लेकिन मेरे साथ शादी नहीं करनी है आपको...” चंदा ने गुस्से में कहा।

“ये देखो...सुनो...जरा समझने की कोशिश करो...एक बेटा हो जाए तो मां भी तैयार हो जाएगी। फिर उस यशोदा को लात मार कर घर से बाहर निकाल सकते हैं। या फिर हमेशा के लिए गुलाम बना कर रख सकते हैं। तब तक हम दोनों एकसाथ रहेंगे..वैसे भी महीने में दस दिन तो मैं यहीं रहता हूं...तुम कहो तो और अधिक दिन रहने लगूंगा...तुम बोलो। ”

“लेकिन समाज में मेरी इज्जत चली जाएगी उसका क्या? इसका उत्तर दीजिए। फिर मुझे आपके साथ हमेशा रहने में कोई आपत्ति नहीं। और इस महीने के घर का किराया और घरखर्च की रकम आप मुझे देना भूल गए हैं। कभी-कभी लगता है कि आप मुझे भी एक दिन ऐसे ही भूल जाएंगे... ” चंदा और कुछ कहती इसके पहले ही रणछोड़ ने उसके होठों पर अपने होठ टिका दिए।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह