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प्रेम को समझने में बटें शैक्षणिक विषय

प्रेम मानव का एक आधारभूत मनोभाव हैं। जिसके बिना जीना कुछ अपवादों(वो भी एक लंबे अरसे के प्रशिक्षण के बाद) को छोड़कर असंभव सा जान पड़ता हैं। इसे परिभाषित कैसे करें। इसके बारें में संसार मे व्यापक मतभेद हैं। लेकिन निजी धरातल पर हो सकता हैं। इसकी परिभाषा की पृष्टभूमि एक जैसी हो, मतलब इसे अनुभव करने की प्रवृत्ति कमोबेश एक जैसी हो, पर दुनिया भर की संस्कृतियों में विकास की गति में अंतर होने के कारण इसके प्रमुख रूप अलग-अलग हो सकते हैं। और जब इस प्रेम को निजी वस्तु ना समझकर इसका समाज के स्तर पर यथार्थवादी तरीकें से अध्ययन किया जाता हैं। तो इसकी अनुभूति और व्यवहार का समीकरण पेचेदगीं का रूप धारण कर लेता हैं।

कवि, नाटककार, उपन्यासकार और संगीतकार प्रेम की सार्वभौम महिमा प्रस्तुत करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रेम रोमानी, सेक्सुअल, आत्मनिष्ठ और अतार्किक होता हैं। वो प्रेम की विद्रोही प्रवर्ति पर ज्यादा ध्यान देते हैं। जो समाज के मानकों को तोड़कर अपने लक्ष्य की और उन्मुख(orientation) होता हैं। और जिसे समाज की कोई ताकत हरा नहीं सकती। पर अगर इसी प्रेम की वस्तुनिष्ठता पर नज़र दौड़ाए तो इसके कुछ और भी पहलू नज़र आते हैं। जिनमें प्रेम कई बार सामाजिक समझौते और परम्परानिष्ठता की प्रवर्त्ति को भी पुष्ठ करने वाला होता हैं। इसलिए किसी एक कारण को ही सही मान लेना सही नहीं हैं।

अभी तक प्रेम पर हुए अध्ययनों में पाश्चत्य समाज में हुई प्रेम की व्याख्याओं का ही अन्धानुसार उपयोग करने का ही चलन चलता आया हैं। इसलिए, बाकी संस्कृतियों को भी इन्हीं सिद्धांतों के आईने में समझा जा सकता हैं।

शुरुआत में प्रेम पर केवल दर्शन और साहित्य में ही चर्चा होती थी। लेकिन फिर निरंतर विकसित होती दुनिया में प्रेम को भी वस्तुनिष्ठता के धरातल पर रखकर इसका भी वर्गीकरण किया गया। जिसमें वर्गीकरण के एक तरीके में, इस(प्रेम) को छः भागों में बांटा गया हैं और जिनका नामांकरण प्राचीन यूनानी दर्शन से लिये गए पदों के आधार पर किया गया हैं।

पहला भाग: इरोज़; जो काम का यूनानी देवता हैं। जिसका सीधा सा मतलब हैं। कि इस प्रेम में यौन संसर्ग की प्रधानता हैं। इसलिए, इसे ऐंद्रिक(इंद्रियों से होने वाला प्रेम) भी कहते हैं। इसे स्त्री या पुरूष के लिए पहली नज़र का यौन आकर्षण भी कहते हैं। जो अतार्किक ढंग से बड़ी जल्दी हो जाता हैं। जो एक आहादपूर्ण सुख की अनुभूति देता हैं। इस प्रेम में एक-दूसरे की आमने सामने की उपस्थिति ही सबसे महत्वपूर्ण होती हैं। इसके अलावा प्रेमी-प्रेमिका को कुछ नहीं चाहिए होता हैं। यह जितनी जल्दी होता हैं। उतनी ही जल्दी इसका अवसान भी हो सकता हैं। और खत्म होने के बाद प्रेमी-प्रेमिका आश्चर्य चकित हो जाते हैं। कि आखिर उन्होंने अपने पार्टनर में क्या देखा था।

दूसरा भाग: मौनिया; इरोज़ अगर प्रेम की प्रसन्न अवस्था हैं। तो मौनिया इरोज़ प्रेम की अशुभ पक्ष को निरूपित करता हैं। इसे हम उन्माद से भरपूर प्रेम भी कह सकते हैं। जो प्रेमी-प्रेमिका के लिए पागलपन की अवस्था तक पहुँच सकता हैं। इसमें प्रेम करने वाला कोई एक पक्ष दूसरे के पीछे हाथ धोकर पड़ जाता हैं। इसमें प्रेम करने वाला दूसरे पक्ष पर पूर्ण अधिकार रखना चाहता हैं। और जिसके लिए वह हिंसा का सहारा भी लेने को तैयार रहता हैं। यह अक्सर एकतरफा होता हैं। जिसका परिणाम अक्सर आपराधिक कृत्य के रूप में निकलता हैं।

तीसरा भाग: स्टोर्ज़; इसका विकास शांतिपूर्ण तरीके से लंबे समय में होता हैं। इसमें प्रेम की अवस्था सीढ़ीनुमा रास्ते की तरह लगती हैं। इसकी खास बात यह होती हैं। कि अगर दोनों पक्ष एक-दूसरे अलग हो जाए तो भी बाद में दोस्ती की गुंजाइश बची रहती हैं। इसमें लंबे अरसे के सम्बन्ध को महत्व ज्यादा दिया जाता हैं। चाहे, दैहिक अंतरंगता का अभाव भले हो क्यों न हो।

चौथा भाग: एगैप; इसका सीधा सा मतलब हैं। परोपकारी प्रेम यानी कि वो प्रेम जो अपने साथी को केवल खुश देखना चाहता हैं। जो उसकी खुशी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर देना चाहता हैं। और बदले में कुछ मांग नहीं करता हैं।

पाँचवा भाग: प्रैगमा; इसे कहते हैं। परिणामवादी प्रेम- इसमें प्रेम करने वाला साथी की सामाजिक-आर्थिक उपलब्धि पर फिदा हो जाता हैं। अगर साथी भविष्य को लेकर सुरक्षा की भावना, खुद को केअर करने वाला दिखाए तो प्रेम करने वाला साथी मंत्रमुग्ध होकर फिदा हो जाता हैं। अमीरी, कुलीनता और ऊंचे पद पर होना भी साथी को पसंद करने का कारण बन सकता हैं।

छटा भाग: लुडुस; ये दिखावटी प्रेम में आता हैं। इसमें, बहलाना, फुसलाना, सेक्स करने के लिए झूठ बोलना, चोचले बाज़ी करना इसमें आता हैं। और मकसद पूरा होने के बाद साथी से तुरंत अलग हो जाना इस प्रेम में आता हैं।



इन छः भागों में वर्गीकरण से पहले प्रेम को मात्र दो विस्तृत भागों में बाँटकर देखा जाता था। इनमें पहला भाग था रोमानी प्रेम; जिसकी भूमि भावपूर्ण, कामनाप्रधान, और अतार्किक होती थी। ऐंद्रिक और उन्मादी प्रेम इसके अंदर आते थे। और दूसरा भाग था सहचर उन्मुख प्रेम जो सचेत किस्म का माना जाता था और जिसकी समझ अपेक्षाकृत सोच-विचारकर साथी चुनने की होती थी इसमें, हम परोपकारी, मैत्रीपूर्ण और परिणामवादी प्रेम को सम्मिलित कर सकते हैं।

प्रेम का इन भागों में विभाजन का मतलब यह कतई नहीं हैं। कि प्रेमी-प्रेमिका एक ही भाग में फसकर रह जाते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं हैं। बल्कि, उनकी भवनाएं वक़्त के साथ बदलती रहती हैं। और वो एक भाग से दूसरे भाग में विसरण करते रहते हैं।


अब आते हैं। मनोविज्ञान में जो प्रेम के अलग ही तरह से व्याख्या करता हैं। एक महान मनोवैज्ञानिक कार्ल युंग और उनके साथियों की मान्यता हैं। कि रोमानी प्रेम किसी व्यक्ति के प्रति अचानक उत्पन्न हुए अचेत आकर्षण से उपजता हैं। युंग के मुताबिक इंसान की शख्शियत में एक अचेत हिस्सा होता हैं। और दूसरा जागरूक। आमतौर पर पुरूष के भीतर अचेत हिस्सा स्त्री का और स्त्री के भीतर पुरूष का होता हैं। युंग की बात का सार ये हैं। कि जब कोई व्यक्ति किसी से अचानक प्रेम करता हैं। तो इसका मतलब वह अपने ही उस चेतना के अचेत हिस्से से प्रेम कर रहा होता हैं। जो उसके अंदर भिन्न जेंडर का प्रतिनिधित्व कर रहा हैं। बस उसे इस बारे में पता नहीं हैं। और वो इससे पूरी तरह अनजान हैं। युंग का यह भी कहना हैं। कि व्यक्ति के इस अवचेतन की चालक शक्ति उसे विपरीत लिंग के अपने माता-पिता से मिलती हैं। यानी कि लड़के को माता से और लड़की को पिता से, इसलिए ही व्यक्ति अपनी कल्पना में अपनी प्रेमी/प्रेमिका के लिए वह छवि पालता हैं। जो उसके अवचेतन में मौजूद रहती हैं। हालांकि युंग के इस अध्ययन को सीधे सीधे प्रमाणित नहीं किया जा सकता पर कुछ अनोपचारिक परीक्षणों में पाया गया कि लोग ऐसे व्यक्तियों के प्रति आकर्षित होते हैं। जो उनके माँ-बाप की छवि से मिलते जुलते हैं।


अब आते हैं। प्रेम की समाजशास्त्रीय व्याख्या पर जिसमें एंथोनी गिडडेन्स ने रोमानी प्रेम के बरक्स(विरुद्ध) संगमी प्रेम की अवधारणा प्रस्तुत की; गिडडेन्स कहते हैं। कि रोमानी प्रेम लैंगिक लोकतंत्र की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, वे कहते हैं। कि रोमानियत से भरकर जब स्त्री पुरूष प्रेम में उतरते हैं। तो वो बस एक-दूसरे में समा जाना चाहते हैं। शुरुआत में अपने साथी के लिए उन्हें अपने अहं का त्याग करने में कोई हिचक नहीं होती, उन्हें ऐसा लगता है। उनका साथ इस जन्म का नहीं, जन्मों-जन्मों का साथी हैं। लेकिन यह समतामूलक स्तिथि तब तक ही कायम रहती हैं। जब तक शादी नहीं हो जाती। क्योंकि, शादी होते ही समाज द्वारा तय की गई जेंडर की भूमिकाएं प्रेम की रोमानियत में अपनी जगह बनाने लगती हैं। इश्क़ का शहर जल्दी ही बेतरतीबी की झुग्गियों में बदल जाता हैं। और अंत में आकर यौन संसर्ग की बुनियाद पर खड़े रिश्ते में महत्वकांछाओं से भरी बातें बैठने के लिए अपनी जगह ढूंढ़ने लगती हैं। यानी कि स्त्री को अपने कैरियर, से लेकर अपने अस्तित्व तक कि चिंता होने लगती हैं।

दूसरी तरफ संगमी प्रेम(confluenat love) के आधार में स्त्री और पुरूष की परस्पर पसंद मौजूद हैं। लेकिन इसमें प्रेम की यह समझौता वार्ता उन दो नदियों की तरह चलती हैं। जो साथ-साथ तोह बहती हैं। लेकिन एक खास मुकाम पर संगम करती हैं। और फिर अपनी-अपनी शख्शियत पर कायम रहते हुए अपने-अपने रास्ते चलती हैं। इसमें दोनों साथी एक दूसरे से उतना ही खुलते हैं। जितनी आवश्यकता होती हैं। ना कि रोमानी प्रेम की तरह एक दूसरे की सांसों में समाने की बातें करते हैं। संगमी प्रेम के अंदर विकसित होने वाली सेक्सुअलिटी को गिडडेन्स ने प्लास्टिक करार दिया हैं। जिसका मतलब सेक्सुअलिटी के परिवर्तित रूप से हैं।

कहते हैं। कि, स्त्री, पुरूष के मुकाबले प्रेम में जल्दी पड़ती हैं। और फिर टूटकर प्रेम करती हैं। इसका एक बड़ा कारण स्त्री का पुरुष से ज्यादा रोमांटिक होना बताया जाता हैं। जबकि, पुरूष न केवल पूरी तरह विचार करकर प्रेम में पड़ता हैं। बल्कि, कई बार उसका इरादा स्त्री का यौन दोहन करने का भी होता हैं। लेकिन यह धारना अनुसंधानों पर खरी नही उतरती! बल्कि देखा, यह जाता हैं। कि पुरुष स्त्री के मुकाबले जल्दी प्रेम में पड़ता हैं। और रिश्ता टूटने पर वह जज़्बाती तौर पर स्त्री के मुकाबले खुद को ज्यादा ठगा हुआ महसूस करता हैं। जबकि, इसके उलट स्त्री कभी भी ऐंद्रिक प्रेम में नहीं पड़ती। वह काफी सोच समझकर प्रेम करने का फैसला करती हैं। और इसकी वजह यह हैं। कि कहीं अगर प्रेम विफल हुआ तो ज्यादा सामाजिक और आर्थिक परेशानी ना उठानी पड़े।