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नर्क - 19

"अब 'विद्युदभि' तुम मुझे लाकर दोगी निशा" आयुष वापस अपने हत्यारे के रूप में आते हुए बोला।

निशा व्यंग्य से मुस्कुराते हुए-" जैसे तुम मुझे मजबूर कर ही लोगे आयुष। तुम मुझे मार तो सकते हो आयुष, पर मजबूर नहीं कर सकते।"

आऽ हाऽहाऽहाऽहा.....बड़ी मुर्ख हो तुम निशा, तुम्हे मार दूंगा तो मुझे 'विद्युदभि' कौन लाकर देगा..... ना... ना... ना..... निशा, इतना चौंकने की जरुरत नहीं। ये तो सिर्फ मैंने माफिया बॉस को उकसाने के लिए कहानी घड़ी थी। असलियत में तो विद्युदभि को कोई सरल ह्रदय ही छू सकता है। हाँ, वो चाहे तो उसे किसी को भी सौंप सकता है। याद है जब तुमने ही मुझे अपने हाथों से उठाकर इसे दिया था (पार्ट-13)। परन्तु मेरे हाथ से वापस गिरा दिया गया था। अब जब तुम मुझे ये सौंपोगी तो मैं किसी भी हालत में इसे नहीं छोडूंगा।

निशा मजाक उड़ाने वाले अंदाज में बोली -" अच्छा!!! मुझे याद नहीं आ रहा कि तुमने मुझे अपना गुलाम कब बनाया?? चलो याद दिलाओ।"

आयुष (आयुध) -" ओऽऽ प्यारी निशा, तुम तो जरा भी समझदार नहीं हो। ये मजाक तुम तब करती अच्छी लगती जब अगर तुम यहाँ अकेली आयी होती।"

निशा को आयुष की बात का मतलब समझ आता तब तक आयुष उसके पीछे खड़ी मधु तक बिजली की तेजी से पहुँचा और पीछे से मधु की गर्दन पकड़ कर उसे खिलोने की तरह हवा में उठा चूका था। निशा की आँखें भय से फैल गयी और मधु के पैर छटपटाने लगे।

निशा समझ गयी कि आयुष बिलकुल भी मजाक के मूड में नहीं है। वो उसकी दरिंदगी अपनी आँखों से देख चुकी थी। वो समझ गयी कि अगर उसने जरा-सी भी आनाकानी की तो आयुष मधु को मारने में जरा-सा भी नहीं हिचकेगा और उसके बाद निर्दोष लोगों का भी नंबर लग सकता है। उसने बिना कोई पल गंवाए तुरंत 'विद्युदभि' उठाकर आयुष को दे दिया और मधु को उसके हाथ से छुड़ाकर खींच कर ले गयी। मधु बुरी तरह खांस रही थी। उसकी आँखों में आँसू भरे थे। निशा उसे सँभालने लगी।

माफिया के लोग अब तक सदमे से उबर चुके थे, उनमें से कुछ ने भागने की कोशिश की, पर विद्युदभि में से आग की लपटें निकल कर उनको राख बना चुकी थी। अब आयुष ने वहाँ बचे लोगों से कहा -" अब मैं ब्रह्माण्ड का सर्व शक्तिशाली योद्धा हूँ। तुम्हारा बॉस मारा जा चूका है, या तो झुको या मरो।"

सब के सब गुंडे मव्वाली उसके सामने घुटनों पर बैठ गए। आयुष जोर-जोर से हंसने लगा। उसके हर ठहाके के साथ-साथ 'विद्युदभि' से ऊर्जा निकली और हर गुंडे को अपने घेरे में लेती गयी। निशा को ये देख कर बहुत डर लगा कि, जब वो एक-एक कर उस ऊर्जा घेरे से बाहर आये तब वो इंसान न रहे।

उनकी शक्लें कमोबेश बॉस जैसी बदल गयी थी। सबके सब नर्क के शैतान लग रहे थे। इधर किसी का ध्यान न गया था कि एक हाथ आयुष के परशु को उठा रहा था। वो परशु बदल कर अब तलवार बन गया था। वो तलवार आयुष (आयुध) की ही थी। जिसे उसने बदल कर परशु का रूप दे दिया था।

आयुष के लगातार ठहाकों को ब्रेक लग गया, जब उसे आवाज आयी -" अग्रज, उत्सव मनाया जा रहा है और अपने अनुज को विस्मृत कर बैठे??"

आयुष ने आवाज की दिशा में नजर घुमाई तो वह (पियूष) उसकी तलवार को पकडे खड़ा था। आयुष बोला-" आओ अनुज, आओ, तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी प्रिय। देखो तुम्हारे भ्राता ने 'विद्युदभि' पर अधिकार कर लिया है। मैं ही इसका अधिकारी था। मैं हर दृष्टिकोण से तुमसे श्रेष्ठ था। परन्तु पिताश्री ने मेरे साथ अन्याय किया। आज देखो मैं ब्रह्माण्ड का सर्वाधिक शक्तिशाली बन गया।"

पियूष की आँखों में आँसू थे। वो बोला -" अग्रज, शक्ति किसी अस्त्र-शस्त्र में नहीं होती, शक्ति स्वयं के अंदर होती है। तुम्हारी खड़ग्। भी सर्व शक्तिशाली होती यदि तुम ईर्ष्या के कारण अपनों से कपट न करते। पिताश्री ने हमेशा तुमसे सर्वाधिक प्रेम किया। पर ये तुम न समझ पाये। क्यूँकि यदि तुमने प्रेम किया होता तो तुम्हे उनका किया अन्याय न लगता।"

आयुष -" अनुज, मुझे आज भी तुमसे सर्वाधिक प्रेम है। मैंनें प्रतिक्षण तुम्हारा भला ही सोचा है। मेरी विनती है तुमसे, अपने अग्रज का सहयोग करो। हम इस ब्रह्माण्ड पर शासन करेंगे। मेरे साथ आओ अनुज।"

पियूष के चेहरे पर दुखभरी मुस्कराहट आ गयी -" शासन....!!! ....कैसा शासन?? भले ही हम कितने भी 'विद्युदभि' इकट्ठे कर लें, परन्तु पिताश्री के समकक्ष कभी नहीं खड़े हो सकते। तुम्हारी बुद्धि उस अँधेरे के सेवक ने विकृत कर दी है अग्रज। तुम अपना परिचय भूल चुके हो। परन्तु मैं तुम्हें एक अवसर अवश्य दूंगा। थम जाओ, वर्ना मुझे तुम्हें थामना पड़ेगा।"

आयुष (गुर्राते हुए) -" तुम.....!!!!.....तुम मुझे थामोगे अनुज। मूंछे कितनी भी बड़ी हो जाये रहती नासिका (नाक) के नीचे ही है। तुम धरती पर आने से पहले ही न सिर्फ अपनी समस्त शक्तियाँ त्याग चुके हो, अपितु तुम्हारा अधिकार 'विद्युदभि' पर भी न रहा। भावुक होकर विद्युदभि को त्यागना तुम्हारी सर्वाधिक बड़ी मूर्खता का परिचय था अनुज। अभी भी अवसर है अपने भ्राता के पास आओ। हम कुटुम्ब (परिवार) है और कुटुम्ब हमेशा सह निवास करता है।"

पियूष -" भाई, कुटुम्ब सह निवास करता है। तभी तो कहता हूँ, मेरे साथ आओ। पिताश्री से क्षमा प्रार्थना करो और प्रायश्चित करके शुद्ध हो जाओ और यदि इसके लिए सज्ज नहीं हो तो मेरे हाथ में थमी खड़ग् तुम्हारा प्रतिरोध करेगी और रही बात शक्ति की.. तो मुझे पाप का विनाश करने हेतु शक्ति की आवश्यकता नहीं है। पिताश्री का सिखाया हुआ युद्ध कौशल मेरी अपनी शक्ति है जो न मैं त्याग सकता हूँ और न ही मुझसे छीन सकती है। इसके भरोसे ही मैंने 'विद्युदभि' और शक्तियों का त्याग किया था। मैंने अंतिम चेतावनी प्रदान कर दी है, अब मेरा प्रतिकार सहन करो।"

आयुष क्रोध से कांपने लगा, उसने नर्क के अपने शैतानों की और देखा। शायद वो इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने चिल्लाते हुए बुरी तरह से हमला कर दिया। उनका हमला ऐसा था कि कोई कमजोर दिलवाला इंसान तो उनको देखते ही मर जाये। वो शैतान कूदते-फांदते चारों हाथों पैरों पर गुरील्लों की तरह तेजी से दौड़ते हुए बढ़ रहे थे। उनके नाखून इतने तीखे व लम्बे लग रहे थे जैसे स्टील की चद्दर भी फाड़ दे। उनके दांत शायद हड्डियाँ भी पापड़ की तरह चबा डालने को मचल रहे थे। उन शैतानों के आगे पूरी की पूरी सेना भी शायद न ठीक पाती, परन्तु......!!!!

....सामने कोई सेना नहीं बल्कि पियूष यानी आयु था। एक इंसान जितने दिन का जीवन नहीं जीता उस से कहीं अधिक लड़ाइयों का उसे अनुभव था। स्वयं उसके पिता यानि भगवान् ने उसे युद्ध कला सिखाई थी। बिना शक्ति के भी वो था तो भगवान् का बेटा ही। उसकी खड़ग् जब चलनी शुरू हुई तो उन भयानक शैतानों में भय व्याप्त हो गया। पियूष उनके हर प्रहार को बिजली की गति से मात करता हुआ उनकी गर्दन ऐसे रेत रहा था जैसे वो कोई कागज के पुतले हो। उन शैतानों की गति पियूष की चपलता के आगे वो स्थिर खड़े ही लग रहे थे।

बड़ी तेजी से उनकी संख्या कमी हो रही थी। आयुष खड़ा आश्चर्य के साथ देखता ही रह गया। उसे यकीन न हो रहा था कि पियूष बिना शक्ति के भी इतने शक्तिशाली शैतानों को इतनी आसानी से मार रहा था। जल्दी ही सारे शैतानों की लाशें यहाँ वहाँ पड़ी थी। पियूष ने हाथ में थमी आयुष की खड़ग् को सीधा किया उसमें से बिजली की कई किरणें निकली और उन शैतानों के शवों को राख बना डाला।

अब पियूष, आयुष के सामने रक्त सनी खड़ग् लिए खड़ा था। उसने कहा -" भ्राताश्री अब तक तो आपने विचार कर ही लिया होगा कि आपको क्या करना है। समर्पण कर दो अग्रज, सब ठीक हो जायेगा मेरा यकीन करो।"

आयुष की आँखों में क्रोध था। उसने तुरंत परशु संभाला और चिल्लाते हुए पियूष पर हमला कर दिया। दोनों हथियार दिव्य थे, परम शक्तिशाली थे। वो जब चल रहे थे तो कभी बिजलियाँ निकल रही थी तो कभी आग। आस-पास वातावरण में गर्मी बढ़ गयी थी। निशा और मधु उस गर्मी और भयानक दृश्य के कारण होश खो बैठी।

दोनों के बीच भयानक युद्ध चल रहा था, पर आयुष की आँखें आश्चर्य से फटने को बेताब हो गयी, जब पियूष के हाथ उसे दिखने ही बंद हो गए। पियूष उस पर भारी पड़ रहा था और आयुष सिवाय बचाव करने के कुछ न कर पा रहा था। जल्दी ही आयुष का मनोबल टूट गया और पियूष के एक सटीक वार ने उसके हाथ से परशु निकाल दिया। पियूष ने पीछे से आयुष के गले पर खड़ग् लगा दी और कहा -" कहा था न भ्राताश्री, हथियार शक्ति से कुछ नहीं होता बल्कि हमारी क्षमता से होता है।

परन्तु अचानक पियूष की आँखें फट पड़ी। उसने देखा कि एक हथियार का धारदार फल उसके सीने से पार हो गया......

To be continued......