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अग्निजा - 59

प्रकरण-59

घर वापसी के रास्ते पर भावना ने गुस्से से, प्रेम से, बिनती करके अनेक प्रश्न केतकी से पूछे। सभी प्रश्नों का मतलब एक ही था, “तुम्हें जीतू से शादी क्यों करनी है?”

केतकी का एक ही उत्तर था-मौन।

घर पहुंच केतकी कितनी ही देर यशोदा की गोद में सिर रखकर पड़ी रही। यशोदा ने भावना से इशारों में ही पूछा, क्या हुआ। भावना ने चिढ़ कर कहा, “उससे ही पूछो।”

भावना तेजी से कमरे में जा पहुंची जहां रणछोड़ और शांति बहन बैठे थे। उसे देखते ही रणछोड़ गुस्सा हुआ, “हो तुम छोटी ही, लेकिन उस अभागिन को कुछ समझाओ...तीन साल से उसके लिए रिश्ता तलाश रहा हूं लेकिन आज तक कोई आया क्या उसे देखने के लिए? भला हो उस बेचारे भिखाभा का कि उनकी कोशिश से ये रिश्ता आ गया और उनकी तरफ से उसको हां भी हो गई है...”

“ये तो हमारा नसीब अच्छा है कि बिना किसी बंधन वाला लड़का है यह...इकलौता है...बहन तो शादी करके चली जाएगी...फिर तो उस बदनसीब का ही राज चलेगा न स घर पर? ” शांति बहन ने अपना व्यवहार ज्ञान बघारा।

“...लेकिन इतनी बुद्धि कहां है उसके पास..? बड़ी आई...कहती है मुझे सोचने के लिए समय चाहिए...”

“इस घर में केतकी अकेली ही सबके लिए बोझ बन गई थी न? तो अब एक खुशखबरी सुनें और कुछ मीठा-वीठा बनाएं। उसने आत्महत्या करने का फैसला लिया है।”

दोनों चौंक गए। रणछोड़ खड़े होते-होते बोला, “आत्महत्या?”

“हां....केतकी दीदी ने आत्महत्या से भी भयंकर रास्ता चुना है। वह इस शादी के लिए तैयार है... ” इतना कह कर भावना रुंआसी होकर निकल गई। रणछोड़ तुरंत यशोदा के कमरे में पहुंचा। उसने धीरे से दरवाजा खोला, तो देखा यशोदा अपनी गोद में सिर रख कर लेटी केतकी के बालों से हाथ फेर रही थी। “मां तुम मेरी चिंता मत करो। मैं अपनी मर्जी से इस शादी के लिए तैयार हुई हूं।” इतना कह कर केतकी अचानक उठ कर बैठ गई। उसको दरवाजे पर ही खड़ा हुआ रणछोड़ दिखाई दिया। उसके मुंह से अपने आप ही निकल गया, “बधाई हो, खूब बधाई, मुझसे आपको छुटकारा मिल ही गया आखिर?” रणछोड़ देखता ही रह गया और केतकी वहां से एक झटके में बाहर निकल गई। केतकी बाहर निकल कर स्कूटी स्टार्ट कर ही रही थी कि भावना उसके पीछे आकर बैठ गई। केतकी ने पीछे मुड़ कर देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं और उसने गाड़ी शुरू कर दी।

रणछोड़ ने तुरंत की फोन करके भिखाभा को केतकी की रजामंदी की खबर दे दी और फिर भिखाभा ने मीना बहन को। फोन नीचे रख कर भिखाभा मन ही मन हंसा, “केतकी यदि तूने मेरा थोड़ा सा काम कर दिया होता, तो मैं चुनाव जीत गया होता। लेकिन मैंने तेरे लिए थोड़ा सा काम किया और अब तू जीवन भर हारती रहेगी। इसके अलावा मीना बहन को भी इस बात का संतोष होगा कि मैंने उसके किसी काम आया।”

उधर, मीना बहन सोच रही थीं, “भिखाभा, तुम मुझे बेवकूफ मत समझना...तुमको मैं इतनी आसानी से छोड़ने वाली नहीं...उस लड़की को परेशान करने के लिए तुमने मेरे बेटे का इस्तेमाल किया है...तुमने दांव चला है न...अब मेरी बारी है...”

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केतकी ने शंकर भगवान के मंदिर के पास स्कूटी खड़ी की। मंदिर के बाहर चबूतरे पर बैठ गई। उसके पीछे-पीछे भावना भी वहां आकर बैठ गई। केतकी ने मंदिर के ध्वज की ओर देखा। उसके बाद वह कहीं दूर नजरें गड़ा कर देखने लगी। भावना ने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर प्रेम से दबाया और वह रोने लगी। हिचकियां लेकर रोने लगी। केतकी ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा, “अरे पगली, मैं ससुराल जाने वाली हूं, श्मशान में नहीं।”

भावना ने उसका हाथ अपनी पीठ से दूर करते हुए कहा, “तुमको जहां जाना हो जाओ। मुझसे बात मत करो।”

“तो फिर मेरे पीछे-पीछे आई क्यों?”

“मेरी मर्जी। मुझे मेरी दीदी के साथ जहां जाने का मन करेगा, वहां जाऊंगी। तुम्हें उससे क्या करना है?”

केतकी ने हाथ जोडते हुए कहा, “मेरी मां, मुझे माफ करो।”

“माफ करूंगी, लेकिन मेरे प्रश्नों का जवाब दोगी, तब।”

केतकी ने धीमे से हंसते हुए हां कहा।

“शादी का फैसला अपने मन से और खुशी से लिया है?”

“हां...क्या तुमको लगता है कि मैं किसी दबाव के आगे झुकने वाली हूं?”

“ठीक, लेकिन ऐसा फैसला लेने के पीछे कारण क्या है?”

“कारण...सही कारण...तुमसे झूठ नहीं बोलूंगी...बोल भी नहीं सकती...मैं अपने घर से तंग आ गई हूं...मेरी और मां की चल रही उपेक्षा, अन्याय, अत्याचार...और कितने दिन तक सहन करूं? कितना करूं? किसलिए? जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता है हमारे साथ। अब देखा नहीं जाता...सहा नही जाता...बचपन से ही मुझे सपने देखने की अनुमति नहीं मिली, न कभी अच्छा सोचने का मौका मिला। एक ही चिंता हमेशा सताती रहती थी, सिर पर छत और दो समय का खाना। इन दो मूलभूत बातों के लिए कितनी यातनाएं सहनी पड़ीं? और सच कहूं तो मां की स्थिति अब मुझसे देखी नहीं जाती...मेरी भावनाएं अब मर चुकी हैं...जान जलती रहती है..विवेक मर चुका है...कुछ दिन और इस घर में रह गई तो किसी दिन मैं पागल ही हो जाऊंगी। मेरा मन अब यहां से आजाद होने के लिए बेचैन हो रहा है। मेरा दिमाग काम नहीं करता। मेरा संपूर्ण व्यक्तित्व ही मानो संवेदनाशून्य हो गया है। इस गुलामी से, इस काले पानी की कैद से भागने के लिए मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं..कुछ भी। ”

भावना स्तब्ध होकर सुनती रही। जिसके साथ वह घंटों गुजारती है, उस दीदी के मन में इतना गुस्सा, इतना संताप, विषाद और ज्वालामुखी भरा हुआ है, उसे भरोसा ही नहीं हो रहा था। उसने धीरे से पूछा, “लेकिन वास्तव में ये आजादी है क्या? तुम शेर से बचने के लिए भाग तो रही हो, लेकिन खाई में जाकर नहीं गिरोगी इसका क्या भरोसा?”

“कोई एतराज नहीं...दो संतोष होंगे, बाघ कब मुझे फाड़ कर खा जाएगा, इस इस डर से छुटकारा मिलेगा और नया दुःख मिलेगा, कम से कम दुःख का प्रकार तो बदल जाएगा। उसमें वेरायटी होगी। सच कहूं तो जीतू क्या, कोई भी पहला रिश्ता आता मैं उसके लिए हां ही कहने वाली थी। दूसरी लड़कियों की तरह मैंने कभी किसी राजकुमार के सपने नहीं देखे। उस तरह के सपने देखने की स्थितियां ही मेरे साथ नहीं बनीं। मुझे उसकी आज्ञा भी नहीं थी। मेरे लिए तो हमेशा से ही उन सपनों के लिए मनाही ही थी...”

“लेकिन, यह फैसला जल्दबाजी में और निराश होकर लिया हुआ नहीं लगता क्या? कम से मुझे तो जीतू अच्छा लड़का मालूम नहीं पड़ता.. ”

“नहीं होगा, छोटे-बड़े दोष सभी में होते हैं। लेकिन मुझे भरोसा है कि उसके घर में यहां कीत तुलना में अधिक सुखी रहूंगी। सालों से मैं लगातार ऐसी आग में जल रही हूं कि मुझे वहां के कष्ट भी आरामदेह लगेंगे।”

“कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता...”

“तो अपने मन को समझाओ...भगवान करे कि तुम पर कभी ऐसी नौबत न आने पाए।”

“ठीक है...अब आखिरी प्रश्न। मां की और तुम्हारी ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है?”

“वैसे देखा जाए तो दो लोग। तुम्हारे पिता और तुम्हारी दादी। उन्होंने लगातार अत्याचार किये। लेकिन उससे भी बड़ी गलती है मां की। उसने बड़ा अपराध किया है। क्यों उसने कभी इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई? अत्याचार सहन करते रहें, तो अत्याचारी को बढ़ावा मिलेगा ही न? मां ने अपने जीवन के साथ-साथ मेरे बचपन, किशोरावस्था और जवानी की बरबादी के लिए जिम्मेदार है। मैं उसको कभी भी माफ नहीं कर पाऊंगी। इसके अलावा, मेरे यहां से निकल जाने के बाद उस पर अत्याचार कम होंगे, उसके दुःख कम होंगे ऐसी भी एक धुंधली आशा है मन में।  ”

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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