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सिर्फ़ स्थगित होते हैं युद्ध

परत -दर-परत अनबिके संकल्प

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पुस्तक... सिर्फ़ स्थगित होते हैं युद्ध

लेखिका... डॉ. प्रभा मुजुमदार

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'लिखूँगी तो ज़रूर'की पीड़ा से छटपटाती इन 65 रचनाओं की यात्रा आज की वास्तविकता पर आकर एक साँस लेने का प्रयास करती दृष्टिगोचर होती है | फिर भी कहाँ थम पातीं हैं घायल संवेदनाएं --यहीं आकर लंबी साँस लेते हुए कवयित्री पार करती हैं अनेकों पड़ाव जिससे गुजरते हुए, कसैले लम्हों को पीते हुए वे एक लंबी, थकान भरी यात्रा से गुजरती महसूस होती हैं|

'सिर्फ़ स्थगित होते हैं युद्ध ' पर आकर वे एक आह छोड़ती, छटपटाती दिखाई देती हैं | युद्ध जितना बाहर दिखाई देता है उससे तो कहीं अधिक उनके भीतर चलता रहता है और उसकी भीषणता से वे कभी असहज होती हैं, कभी भयभीत तो कभी करुणा से भी भर उठती हैं |

इन दिनों

बढ़ते जा रहे हैं नाखून

बेतहाशा.......

और नुकीले होते जा रहे

हथियारों की तरह

लेकिन अपनी संवेदनाओं के लिए वे सम्बद्ध हैं 'लिखूँगी तो ज़रूर' --उनकी सभी रचनाओं का सार दिखाई देता है जो उनके इन शब्दों में दृढ़ता से जमकर बैठा है | वह चुप है किन्तु पैना है, वह कुरेदता है, पहचानता है आदमी के भीतर सुलगती हुई चिंगारी को भड़काता है और वह तभी देता साहस कहने का ----'डरूँगी तो कतई नहीं '!

'लिखूँगी तो ज़रूर' भीतर के युद्ध का स्पष्ट चित्रण है, एक घायल आद्रता ! यह लिखना एक बेबसी है, शौक नहीं, यह उत्तेजना नहीं , असहजता है, यह लोरी नहीं, शोक-गीत है |

बरसों से डॉ प्रभा मुजुमदार को देखते, पढ़ते, सुनते हुए उनके भीतर को पहचानने में शायद भूल तो नहीं ही करूंगी | इस बात की भी तसल्ली है कि प्रभा की पहली पुस्तक की समीक्षा करते, पढ़ते गुजराती साहित्य परिषद के प्रांगण का चित्र आज भी मेरी आँखों के सामने चित्रित है | बरसों व्यतीत हो गए हैं लेकिन प्रभा में कोई बदलाव नहीं है | जैसी सरल, सहज व्यक्तित्व की मलिका वे हैं वैसे ही अपने विचारों की नींव में गरिष्ठता की गरिमामायी संवेदनाओं को सहेजने का माद्दा है उनमें ---

प्रभा की रचनाओं में समसमायिक आद्रता दिखाई देती जो हर आँधी -तूफ़ान का सामना करते हुए समाज की नब्ज़ को पकड़कर चलती है | जिसमें आँसू बहते नहीं, सूखकर पपड़ी बन जाते हैं जो धीरे-धीरे जमा होते रहते हैं और किसी लम्हे पर आकर पथराने से पहले ही सूख जाते हैं |

पथरा जाने से पहले

आँखों ने ही

सोख लिए हैं सारे आँसू

कवयित्री के मन में सदा एक क्षोभ जन्मता रहा है जिसको न समझने की पीड़ा उनके शब्दों में कुछ ऐसे उतरती है जैसे स्लाइड्स से बच्चे फिसलते हैं | यह उनकी मानसिकता की स्पष्ट जादूगरी है कि वे अपने पाठक को भी उस स्लाइड पर खींच लाती हैं, वह भी उस स्लाइड से उनकी संवेदनाओं का पल्लू थामे उनके साथ हो लेता है| कुंठित हो जाती है ---

मई लॉर्ड ---

यूँ भी मेरे कंधे बहुत दुर्बल हैं, 

सत्ता और व्यवस्था से

लड़ने की सामर्थ्य नहीं है मुझमें ----

और हाँ----

मुझे कुछ भी याद नहीं मी लॉर्ड ---

छीजती संवेदनाओं के बीच -----

तंज़ पढ़कर बहुत कुछ कसकता है भीतर और कलम बोल उठती है --

अभिव्यक्ति की आजादी

सिर्फ़ हाँ कहने के लिए है ---

वे असहज हैं, बार-बार होती हैं असहज और कितने ही प्रश्न सहज ही उनके व्यंग्य के कठघरे में उछलने लगते हैं --

अलग अलग किताबों के पन्नों से

मनचाही पंक्तियाँ जोड़ तोड़कर

रच लेते हो कुछ सूत्रवाक्य

और इतराते हो वाक चातुर्य पर ----

प्रभा को पढ़ते हुए मुझे कभी समझ ही नहीं आया, उनके किन अंशों को उतारूँ ? सबमें ही कुछ न कुछ ऐसा है जो मुझे और मुझे ही क्या उनके पाठक को असहज कर, गहरे जाने के लिए बाध्य करता है |

उनके तंज झिंझोड़ते हैं, बहुत सारे प्रश्नों को ला खड़े करते हैं ---

मुर्दों के शहर में

ज़ाहिर है

सब मुर्दे ही रहते हैं

हालाँकि वे चलते फिरते हैं --

और यह भी कि, 

मुर्दे नहीं बताते अपनी राय ---

कवयित्री इतनी असहज हो जाती हैं कि महसूसने लगती हैं, पूछने लगती हैं खुद से ही, इतना बड़ा सवाल ;

अक्सर पूछने लगी हूँ अपने से 
क्या ज़िंदा रहना जरूरी है

इस तरह ---

अनेकों झंझावातों, बेबसियों, रुष्टता के बीच एक कोमल भावना जिलाए रखती है उन्हें -- एक माँ की कोमल संवेदना से खिली हुई वे इतनी पीड़ा के बावज़ूद भी एक तृप्ति की मुस्कान से स्वयं को तरबतर पाती हैं --

तुम्हारी नन्ही हथेलियों ने

मेरे हाथों में भर दिए थे

तमाम रेशमी अहसास !

कितना प्यारा अहसास है, छुअन है, इतने अंगारों के बीच जल सी शीतलता है और वे तृप्त भी हो जाती हैं --

जितना भी कुछ दे सकी तुम्हें, 

पाती रही उससे बहुत अधिक ----

इस अत्यधिक संवेदनशील कवयित्री के मन में छिपा हुआ एक और दिल है जो किसी स्थान को छोड़ते जाते समय खालीपन से भर उठता है --

सच तो है कि

इस शहर को छोड़ते हुए

शहर से नहीं ----

और एक संवेदनशील बेबसी का अहसास, कुछ इस तरह ---

यादों, संबंधों, अनुभूति और अनुभवों से ही नहीं

अपनी ही बसाई एक दुनिया से

विस्थापित होती हूँ मैं ---

और नए स्थान में, नया घर, नए वातावरण, नए बनाने की भावास्थिति से वे कुछ इस प्रकार अनजान सी बनकर रह जाती हैं ---

जबकि कतई अपना नहीं लगता

नया बसा वह ठिकाना ---

वे सिलती हैं फटे रिश्तों को, जज़्बातों को, अहसासों को ---

उधड़ी सीवन सिलते-सिलते

बींध लेती हैं ऊँगलियाँ ---

आहत हैं, सबके भीतर पाती हैं स्वयं को, यही प्रभा के लेखन की असलियत है--

मैं मुज़फ्फरनगर में थी

मुरथल और मंदसौर में भी

हाल ही में भीमा गोरेगांव और

कासगंज में भी मारी जानी थी -----

मन के कोने में बैठी संवेदना कहाँ-कहाँ छलाँग लगती है --और

पुल इन दिनों चरमराने लगे हैं ---

क्या कवयित्री भविष्यवक्ता हो गई हैं ?

ये पुल-दुर्घटना हाल ही में गुजरात में घटी लेकिन मन के पुलों को टूटने के जो सांकेतिक अर्थ यहाँ निकले, उन्होंने मुझे 2019 में प्रगट हुई इस पुस्तक के लेखन से को-रिलेट कर दिया --

प्रत्येक व्यक्ति शांति की तलाश में है |

निम्न पंक्तियों में प्रभा कितनी सच्ची बात कह जाती हैं --

-सच तो यह है कि

हर युद्ध के लिए साहस चाहिए

और उससे भी अधिक साहस

शांति बनाए रखने के लिए चाहिए ---

राजा रवि वर्मा के प्रभावी चित्र से सजे पुस्तक का कलेवर जैसे पुकारकर कहता है कि झाँको मुझमें, पढ़ो मुझे और सोचो --कुछ तो सोचो ---

'परिदृश्य प्रकाशन' से 2019 में प्रकाशित इस संग्रह को पढ़ना उन प्रश्नों को खंगाले जाने का एक सफ़ल प्रयास भी हो सकता है | मस्तिष्क की सोती हुई नसों में हलचल न हो, यह तो संभव ही नहीं है |

प्रिय डॉ प्रभा मुजुमदार को बधाई देते हुए आत्मिक संतुष्टि होती है |

कुछ प्रकाशन की छपाई में कुछ त्रुटियाँ नज़र आती हैं लेकिन वे रचनाओं को अस्पष्ट नहीं करतीं | प्रबुद्ध पाठक उन्हें समझने में सक्षम है |

इसके बाद एक नए कदम की प्रतीक्षा में!

सस्नेह

डॉ प्रणव भारती

अहमदाबाद