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अग्निजा - 97

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-97

केतकी मंदिर के चबूतरे पर बैठ कर विचारों में खो गयी। मंदिर में चल रही आरती की गूंज उसके कानों से टकराकर वापस जा रही थी।‘ हे महादेव, मैं कभी भी तुम्हारे मंदिर के भीतर नहीं आयी। या यह कहूं कि तुमने मुझे कभी अंदर आने ही नहीं दिया। मैं गंजी होने वाली हूं, ये तुम जानते थे इसलिए मुझे अपने से दूर रखा क्या हमेशा? नाना ने मेरा नाम जब केतकी रखा तब मुझे समझाया था कि साल में एक समय ऐसा आता है कि जब तुमको केतकी के फूलों की जरूरत पड़ती है। उस दिन सभी केतकी केतकी पुकारते हैं। लेकिन मेरे लिए वह एक दिन भी तुम मेरे भाग्य में देना भूल गये शायद। शायद नियति का लिखा हुआ सबको भोगना ही पड़ता है, इससे किसी का छुटकारा कहां, तुम्हारा भी नहीं?’

अचानक एक आवाज हुई और केतकी की आंखें खुल गयीं। उसने देखा तो सात-आठ श्वान उसके आसपास जमा हो गये थे और उसकी ओर ताक रहे थे। उनकी निगाहों में किसी तरह की अपेक्षा नहीं थी, वे सिर्फ अपनेपन से देख रहे थे। केतकी को लगा कि ये किस तरह सीधे-सादे बच्चों की तरह बैठे हुए हैं, बिस्किट के लिए धमाचौकड़ी नहीं मचा रहे, कोई हो-हल्ला नहीं। यही मेरे सच्चे मित्र हैं। सगे-संबंधी हैं। वह खड़ी हुई और सब पर ममता से हाथ फेरा। ‘दो मिनट में वापस आती हूं...भी यहीं बैठे रहो...कही मत जाना...’और सच में जब केतकी उठ कर जाने लगी तो एक भी श्वान अपनी जगह से हिला नहीं। वह आठ-दस पैकेट बिस्किट के लेकर आयी और सभी को खाने के लिए दिये लेकिन एक ने भी उसको मुंह नहीं लगाया। सभी उसके चेहरे की तरफ ही देख रहे थे। केतकी ने एक-एक को खींच कर अपने पास लिया। उनके सिर, पीठ पर से हाथ फेरा। सारे श्वान आनंदित हो गये और फिर खुश होकर कूद फांद मचाने लगे। यह देखकर केतकी को भी खुशी हुई। उसने सभी बिस्किटों के पैकेट खोले और उन्हें खिलाने लगी, ‘चलो पहले खा लो...फिर मस्ती और खेलकूद करना। ’

केतकी का आदेश मानकर सभी श्वान बिस्किटों पर टूट पड़े। केतकी उनके बीच इनी रम गयी कि उसके पर्स में रखा मोबाइल बज कर कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला।

बिस्किट खत्म करने के बाद सभी श्वान उसकी तरफ मासूमियत से देखने लगे। उन्हें इस तरह बैठा देख कर केतकी को हंसी आ गयी। सब को प्रेम किया और सोचा इन मूक प्राणियों से मिल रहे प्रेम से आधा यदि मुझे मनुष्यों से मिल गया होता तो?

केतकी उठ खड़ी हुई। निकलने से पहले एक बार और बैठी। सबको प्रेम किया,गोद में बिठाया, दोनों हाथों में पकड़कर गले से लगाया और अपनी आंखें बंद कर ली। उसकी आंखों से आंसू झरने लगे। उसके आंसुओं की बौछार से मानो वे श्वान भी दुखी हो गये। उन्हें छोड़कर जाने का केतकी का मन नहीं था। लेकिन उसके पास चारा नहीं था, वह उठ कर चलने लगी। सभी श्वान उसके पीछे-पीछे चलने लगे। उनका उसके पीछे आना केतकी को अच्छा लगता था। वह अपने ही विचारों चलती जा रही थी और उसके पीछे-पीछे वे मूक प्राणी भी। स्कूटी के पास पहुंचते ही उसने पीछे मुड़कर देखा तो सभी उसके पास आकर खड़े हो गये थे। केतकी ने थोड़ा हंसकर और थोड़ा गुस्से से कहा. ‘चलो...अब निकलो यहां से....’ उसकी यह बात उन्हें पसंद नहीं आयी पर फिर भी सभी एक-एक करके वहां से चले गये। एक पिल्ला लेकिन केतकी के पैरों के पास आकर बैठ गया। मानो बालहठ कर रहा हो। केतकी ने उसे प्रेम से उठा लिया, ‘तुम मेरे भाई हो...छोटे भाई...दीदी जो कहे वो मानना...सुंदर सुंदर है मेरा छोटा भाई....’ इतना कहकर उसने उसे नीचे उतार दिया लेकिन वह वहां से हटने को ही तैयार नहीं था। केतकी ने प्रेम से कहा, ‘अभी जाओ भाई...मैं जल्दी ही वापस आऊंगी...’ इतना सुनते ही वह भाग गया। केतकी उसकी तरफ देखती ही रही। मैं वापस आऊं, किसी को तो ऐसा लगता है। केतकी यदि कुछ देर और वहां उस पिल्ले को देखती खड़ी रहती तो फिर उसे वहां से हटना मुश्किल हो जाता।

उसने स्कूटी स्टार्ट की। आज वह अपना घर, भूख-प्यास, भावना, यशोदा सभी को भूल गयी थी। स्कूटी की गति के साथ उसके विचारों का चक्र भी चल रहा था। उसने एक मेडिकल स्टोर के पास गाड़ी रोकी। जरूरत की चीजें खरीदीं और फिर घर पहुंची। तब, भावना दरवाजे पर ही उसकी प्रतीक्षा करते हुए दिखायी दी। मां रसोई घर के दरवाजे पर खड़ी थी। किसी से भी कुछ न कहते हुए वह अपने कमरे में चली गयी। उसे देख कर शांति बहन को राहत हुई, ‘अच्छा हुआ....’ केतकी को आश्चर्य हुआ, तभी रणछोड़ बोला, ‘और क्या, कहीं कुंए में जाकर जान दे दी होती तो कल सुबह अंबाजी जाने का कार्यक्रम ठप्प हो जाता। मां तुम और जयश्री अपना सामान फटाफट बांधो। मुझे इन तीनों के नाटक में जरा भी रुचि नहीं। मैं जरा बाहर से होकर आता हूं। कल सुबह जल्दी उठना है, यह ध्यान में रखना। ’

केतकी अपने कमरे में गयी और मेडिकल स्टोर से खरीदी हुई वस्तुएं अपनी आलमारी में रखने लगी। उसके पीछे-पीछे भावना भी आ गयी। वह केतकी की ओर देखती ही रह गयी। उसने केतकी के पर्स से मोबाइल निकाला और केतकी को दिखाया। उसमें भावना के 30-32 मिस कॉल थे। ‘ये क्या तरीका है? इतनी देर कहां थी, कोई समस्या थी क्या?’

‘एक ही समस्या है।’

‘क्या?’

‘क्या नहीं, पूछो कौन...समस्या का नाम है केतकी। केतकी जानी। हां, मैं...केतकी जानी। मेरे लिए मैं ही सबसे बड़ी समस्या हूं। तुम लोगों के लिए भी...सभी के लिए मैं ही एक समस्या हूं।’

‘व्हाट नॉनसेंस? तुम इस तरह से बात करती हो तो मुझे कितनी परेशानी होतीहै, इसका विचार भी करती हो?’

‘हां, बस वही विचार करती हूं।’

‘कौन सा विचार?’

‘तुम अब सवाल पूछती मत बैठो। तुम्हें भूख लगी होगी। जाओ, खाना लेकर आओ।’

‘मुझे भूख नहीं है, और यदि हो भी तो मुझे खाना नहीं खाना है।’

‘मेरी गुड़िया इस तरह रूठ जाएगी तो कैसे काम चलेगा?’

‘सब चलेगा...’

‘ ओके, ओके....हमको क्या? सुबह चाय-नाश्ता होता ही नहीं, दोपहर का खाना भी नहीं। अब शाम की चाय भी नहीं और रात का खाना भी नहीं चाहिए। चलो...बाय बाय...गुड नाइट...’ इतना कह कर केतकी बिस्तर पर लेट गयी। भावना ने उसका हाथ खींचा, ‘बड़ी आयी गुडनाइट कहने वाली. आज मैंने खुद इडली बनाई है पहली बार, वह कौन खाएगा? मेरा बाप?’

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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