Param Bhagwat Prahlad ji - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लादजी -भाग6 - भ्रातृ-वध से व्याकुलता

[तपोभूमि की यात्रा]
जब से हिरण्याक्ष को वाराह भगवान् ने मारा, तब से हिरण्यकश्यपु का चित्त कभी शान्त नहीं रहा। यद्यपि वह राजकाज करता था, खाता-पीता था और यथा-शक्ति सभी कार्य करता था, तथापि चिन्तितभाव से,निश्चिन्त होकर नहीं। उसको रात-दिन यही चिन्ता घेरे रहती थी कि हम अपने भाई का बदला कैसे लें? और विष्णु भगवान् तथा उनके नाम निशान को संसार से कैसे मिटा दें? उसने अपने राज्य में आज्ञा दे रखी थी कि, हमारे राज्य में कोई विष्णु की पूजा न करे। उनके मन्दिर न बनवावे और जो मन्दिर कहीं भी हों, उनको नष्ट-भ्रष्ट करके उनके स्थान में भगवान् शंकर के मन्दिर बनवाये जायँ। उसके आज्ञानुसार उसके अधिकारी असुर बराबर विष्णु मन्दिरों और वैष्णवों पर भीषण अत्याचार करने लगे। बेचारे निरीह वैष्णव लुक-छिपकर अपना जीवन, धन और धर्म बचाते और येन केन प्रकार से भगवान् के मन्दिरों की रक्षा करते थे। हिरण्याक्ष के वध से हिरण्यकश्यपु का चित्त जितना ही क्षुब्ध हो रहा था उतना ही भयभीत भी था। वह समझता था कि मुझसे भी अधिक पराक्रमी मेरा भाई जब मार डाला गया, तब मेरे मारे जाने में क्या कठिनाई है? और सम्भव है कि, देवताओं का पक्षपाती विष्णु मुझ पर भी किसी अवसर पर आक्रमण करे। इसी भय से वह राज्य के कार्यों को करता हुआ भी अन्यान्य राजाओं और देवताओं पर आक्रमण नहीं करता था। एक दिन रात का समय था। उसकी पतिव्रता धर्मपत्नी 'कयाधू' उसके समीप गयी, उसने जाकर देखा कि स्वामी न सोते हैं न जागते हैं। समाधि सी दशा में चिन्ता-ग्रसित बैठे हैं। महारानी कयाधू के आने पर भी जब दैत्यराज सावधान नहीं हुआ, तब महारानी ने हाथ जोड़कर कहा “प्राणनाथ! इस समय जब कि दीन-दुखिया प्रजाजन भी अपनी-अपनी चिन्ताओं से निवृत्त होकर आनन्दपूर्वक सो रहे हैं, आप जैसे परम यशस्वी और प्रतापी सम्राट् किस चिन्ता में लीन हो रहे हैं? भगवन! क्या मुझ दासी से कहने योग्य कोई बात है जिसके कारण आपने अभी तक इस आनन्ददायिनी शय्या को सुशोभित नहीं किया है?”
हिरण्यकश्यपु– “हे सुभगे! अवश्य ही राजनीति में लिखा है कि स्त्रियों के सामने रहस्यमयी कोई भी बात प्रकट न करनी चाहिए, किन्तु जिस विषय की हमको इस समय चिन्ता है उससे तुम्हारा भी घनिष्ट सम्बन्ध है। अतएव हम अपनी हृदयगत चिन्ता की बात को तुम्हारे सामने प्रकट करते हैं, किन्तु तुम इसे अपने ही मन में रखना। इसकी किसी से चर्चा न करना। प्राणप्रिये! जब से हमारे भ्राता को विष्णु ने वाराह रूप धारण करके मारा है और देवताओं की सहायता की है, तब से दिनोंदिन देवताओं का उत्साह बढ़ता जा रहा है और हमारे सेनानायकों तक के मन में उदासीनता छायी रहती है। ये लक्षण बुरे हैं। तुम्हारे पुत्र धीर, वीर और गम्भीर हैं, किन्तु देवताओं का सामना करना उनकी शक्ति के परे की बात है। अनेक बार देवताओं ने ऐसे प्रसंग हमारे प्रति छेड़े कि जिनमें उनके साथ युद्ध करना आवश्यक था किन्तु हमने अपनी परिस्थिति को ध्यान में रख, उन प्रसंगों पर युद्ध छिड़ने नहीं दिया और उनको टाल दिया, किन्तु जब शत्रु का उत्साह बढ़ रहा है और वह जानता है कि, हम अपनी परिस्थिति के कारण युद्ध को टाल रहे हैं, तब भावी युद्ध अधिक दिनों तक टाला नहीं जा सकता और युद्ध छिड़ने पर हमको अपना भविष्य भयानक दिखलायी पड़ता है। अतएव हम चिन्तित हैं और सोच रहे हैं कि, इस समय हमको क्या करना चाहिए?”
कयाधू– “जीवनाधार! आपके विचार यथार्थ हैं। शत्रुओं से विशेषतः अपने भाइयों से जब शत्रुता हो तो अधिक सावधान रहना चाहिए। मेरे विचार में आप मेरे पिताजी की सम्मति से दानवी सेना और दैत्य-सेना को सुसज्जित करके देवताओं पर पुनः एक बार आतंक जमावें और उस समय उनसे सन्धि कर लें और ऐसी सन्धि कर लें कि जो स्थायी हो। ऐसा करने से आपकी चिन्ता दूर होगी और दैत्यकुल का भय सदा के लिये जाता रहेगा।”
हिरण्यकश्यपु– “वल्लभे! तुम्हारी बातें अवश्य ही नीतियुक्त और विचारणीय हैं। किन्तु इस समय देवताओं का उत्साह ऐसा बढ़ गया है कि, उन पर पुनः आतंक जमा लेना सहज काम नहीं है और यदि वे न दबे तो युद्ध की आयोजना करने के पश्चात् युद्ध न करना हमारे लिये अपकीर्तिकर होगा, जो मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है। युद्ध करने में हमको भय है कि भाई के समान ही विष्णु सम्भव है हमारे ऊपर भी आक्रमण करे। हमको न तो देवताओं का भय है और न हमको युद्ध में मरने ही का भय है किन्तु भाई का बदला न लेकर यों ही मरने से हमारे मन की बात मन ही में रह जायगी। अतएव हमने यह सोच रखा है कि, हम शीघ्र ही जाकर एकान्त में तपस्या करें और अमरत्व प्राप्त करने के पश्चात् लौटें। वर प्राप्त करके जब हम लौट आवें तब इन देवताओं तथा इनके पक्षपाती विष्णु की खबर लें। जब तक हम तपस्या से निवृत्त होकर घर को न लौटें तब तक तुम अपनी अवधानता में अपने पुत्रों तथा हमारे सुयोग्य मन्त्रियों और सेनापतियों के द्वारा शासन-सूत्र चलाओ।”
कयाधू– “स्वामिन्! यद्यपि आपका क्षणभर का वियोग मेरे लिये सर्वथा असहनीय है, तथापि आपके तथा अपने हित के लिये ही नहीं, सारे असुरकुल के लिये, आपका विचार अत्यन्त हितकर है। जब देवताओं ने विष्णु का सहारा लिया है, तब आपको भी किसी ईश्वरीय शक्ति का सहारा लेना आवश्यक है। भगवान् करें आप अपनी तपस्या में सफल होकर मुझे शीघ्र ही पुनः अपने चरण की धूलि से कृतकृत्य करें। भगवन्! आपके आज्ञानुसार मेरे पुत्र शासनभार को सँभाल लेंगे, आप किसी प्रकार की भी चिन्ता न करें। भगवान् शंकर हम लोगों की रक्षा करेंगे ऐसा मेरा पूरा पूरा विश्वास है।”
महारानी कयाधू की बातें सुन कर हिरण्यकशिपु बहुत ही प्रसन्न हुआ और वार्ता समाप्त होने पर उसने निश्चिन्त होकर शयन किया। प्रातःकाल उठ कर नित्यनैमित्तिक कृत्यों से निवृत्त हो हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों तथा मन्त्रियों को समय से पहले ही बुलवाया। संह्राद आदि पुत्र तथा राजमन्त्रियों के आ जाने तथा नियमानुसार प्रणामादि के पश्चात् दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने अपना अभिप्राय प्रकट किया और मन्त्रियों पर राजभार सौंप कर अपने पुत्रों को उनके अधिकार में दे सुन्दर सर्वार्थसिद्धिकारक मुहूर्त्त में तपस्या करने के लिये कैलाश पर्वत की यात्रा की। यात्रा के समय यद्यपि अनेक प्रकार के अमंगलसूचक अपशकुन पृथिवी और आकाश में दिख पड़े और मन्त्रियों ने तथा विद्वान् ब्राह्मणों ने यात्रा को स्थगित करने की सम्मति भी दी किन्तु दैत्यराज हिरण्यकश्यपु ने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया और अपने विचार पर दृढ़ रहकर यात्रा कर दी। हिरण्यकश्यपु अपने थोड़े से अनुचरों के सहित तप करने के लिये कैलास पर्वत के शिखर पर जा पहुँचा और घोर तप करने लगा। उसकी तपस्या के समाचारों को सुनकर देवताओं के प्राण पखेरू उड़ने लगे। सारे-के-सारे देवता अपने स्वामी इन्द्र के पास पहुँचे, इन्द्र ने देवताओं की बातें सुनीं और यह जानकर कि हिरण्यकश्यपु हम लोगों के साथ युद्ध करने के लिये ही तपस्या कर रहा है, घबरा गये। देवताओं के सहित देवराज इन्द्र ब्रह्माजी के पास पहुँचे और उनसे सारी कथा कह सुनायी। ब्रह्माजी ने द्वेषाग्नि से पीड़ित देवताओं की बातें सुन कर कहा कि “आप लोग अपने-अपने स्थान को जाइये। हम इस सम्बन्ध में यथोचित विचार और उपचार करेंगे। आप लोग भयभीत होकर नहीं, शान्तचित्त से भगवान् लक्ष्मीनारायण का स्मरण करें। वे आप लोगों की रक्षा करेंगे।”
देवताओं के चले जाने पर जगत्त्रष्टा ब्रह्माजी विचारने लगे कि, इस समय हमको क्या करना चाहिए? कौन-सा ऐसा उपाय है जिससे दैत्यराज हिरण्यकशिपु अपने घोर तप से निवृत्त हो जाय? इस चिन्ता में ब्रह्माजी मग्न ही थे कि, इसी बीच में महर्षि नारदजी जा पहुँचे।

नारदजी ने कहा “पूज्यपाद पितृचरण! आप किस चिन्ता में इस समय लीन हैं? क्या आप दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की तपस्या को भंग करना चाहते हैं? यदि आप यही चाहते हैं, तो मुझे आज्ञा दें। मैं जाता हूँ और अनायास ही उसको तपस्या से विरक्त किये देता हूँ।” ब्रह्माजी नारदजी के इन वचनों को सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और नारदजी भी आज्ञा लेकर वहाँ से विदा हुए।

नारदजी ने मार्ग में पर्वत मुनि को भी साथ में लिया और दोनों ही महर्षि अपनी सिद्धि के प्रभाव से 'कलविङ्क' नामक पक्षी बनकर कैलास के शिखर की ओर चल दिये। थोड़े ही समय में दोनों ही 'कलविङ्क' पक्षी वहाँ पर जा पहुँचे, जहाँ दैत्यराज हिरण्यकश्यपु घोर तप में संलग्न था। पक्षियों ने दैत्यराज के समीप में जाकर उच्च स्वर से कहा “ॐ ओम नमो नारायणाय।” ध्यानावस्थित दैत्यराज के कर्ण में यह मन्त्र वज्रपात के समान हुआ और विष्णुनाम से उसका ध्यान भंग हो गया किन्तु फिर भी उसने चित्त को शान्त कर लिया और तपस्या छोड़ी नहीं। कुछ ही समय बाद दोनों ही पक्षियों ने पुनः ने उच्च स्वर से कहा "ॐ नमो नारायणाय।" इस बार दैत्यराज हिरण्यकशिपु से क्रोध संभाला नहीं गया और उसने तपस्या छोड़ अपना धनुष उठाया और पक्षियों को मारने के लिये बाण चढ़ाया। ज्यों ही दैत्यराज धनुष उठाने लगा त्यों ही महर्षि नारद और पर्वत मुनि दोनों ही जो पक्षी के रूप में थे वहाँ से उड़ गये‌। पक्षी तो उड़ गये किन्तु हिरण्यकशिपु का क्रोध शान्त नहीं हुआ और वह उसी क्रोध के वशीभूत हो तपस्या को परित्याग कर अपने स्थान को चला आया।

यद्यपि दैत्यराज असफल मनोरथ होने के कारण उदासीन था, तथापि उसके आगमन से राजधानी में आनन्द मनाया जाने लगा। लोग प्रसन्नचित्त से दैत्यराज के दर्शनों को पहुँचने लगे। दैत्यराज ने भी दरबार में अपना अभिप्राय प्रकट नहीं किया और शान्तचित्त से किन्तु उदासीनता के साथ वह राजकाज की देखभाल करने लगा।‌

किसी प्रकार दिन बीत गया और रात्रि का समय आया। दैत्यराज भी अपने कार्यों से निवृत्त होकर शयनागार में जा विराजा और महारानी कयाधू भी धीरे-धीरे वहाँ जा पहुँची। महारानी कयाधू उसी दिन ऋतुस्नान से निवृत्त हुई थी और अपने प्राणपति की सेवा के लिये लालायित थी। महारानी ने जाकर पति को प्रणाम किया और आज्ञा पाने पर बैठ गयी। दोनों में बातें होने लगीं। और दोनों ही दाम्पत्यप्रेम में संलग्न हो गये किन्तु समय पाकर महारानी कयाधू ने कहा “प्राणनाथ! आपने चिरकालीन तपस्या के लिये प्रस्थान किया था, किन्तु आप तो शीघ्र ही लौट आये हैं, इसका कारण क्या है? क्या वह कारण मेरे जानने योग्य है ?
हिरण्यकश्यपु “हे कामिनि! हमने अपने मन्त्रियों तथा विद्वान् ब्राह्मणों के वचनों को नहीं माना और भाँति-भाँति के अपशकुनों के होते हुए भी यात्रा की थी उसका जो फल होना चाहिए था वही हुआ। यही तुम कुशल समझो कि केवल यात्रा ही असफल हुई और कोई विघ्न नहीं हुआ।”
कयाधू— “स्वामिन्! क्या तपस्या के योग्य समुचित स्थान नहीं मिला? अथवा तपस्या में कोई विघ्न उत्पन्न हो गया?”
हिरण्यकश्यपु– “प्राणप्रिये! तपस्या के लिये स्थान तो बड़ा ही सुन्दर और एकान्त कैलास पर्वत का शिखर था और हमने तपस्या आरम्भ भी कर दी थी। किन्तु जहाँ पर हम तपस्या कर रहे थे वहीं पर दो 'कलविङ्क' पक्षी पहुँच गये और वे जोर-जोर से कहने लगे ‘ॐ नमो नारायणाय, नमो नारायणाय।’ एक बार तो हमने अपना क्रोध सँभाला और ध्यान टूटने पर भी हम पुनः ध्यानावस्थित हो गये, किन्तु जब बारम्बार उन दोनों पक्षियों ने हमारे घोर शत्रु के स्तुतिरूपी 'ॐ नमो नारायणाय' मन्त्र का उच्चारण किया, तब तो हमारा क्रोध सीमा से बाहर हो गया और हमने तपस्या करना छोड़ उन पक्षियों को मारने के लिये धनुष-बाण उठाया, किन्तु हमारे सावधान होने से पहले ही वे दोनों पक्षी न जाने किस दिशा की ओर उड़ गये। हमारा क्रोध इतना बढ़ गया था कि, फिर शान्त नहीं हो सका और हमने तपस्या छोड़ घर के लिये प्रस्थान कर दिया। यही कारण है हमारे शीघ्र एवं बिना मनोरथ सिद्धि के वापस आने का।”

जिस समय दैत्यराज हिरण्यकश्यपु ने 'ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्र को उच्चारण किया, उसी समय महारानी कयाधू को गर्भाधान हो गया। मन्त्र के प्रभाव से ही उस दैत्यराज के वीर्य और दानवी महारानी कयाधू के गर्भ में एक ऐसा परमभागवत जीव जा पहुँचा जिसकी महिमा आज तक सारा संसार गा रहा है। परमभागवतों की कथाएँ भागवत लोग गाते हैं, किन्तु वह ऐसा परमभागवत था, जिसके यश को आस्तिक एवं नास्तिक सभी लोग गाते हैं और उसी के पदानुगामी बनने तथा अपनी सन्तानों को उसका पदानुगामी बनाने में अपने आपको कृतकृत्य समझते हैं।

पाठकगण! 'दानवी कयाधू' के गर्भ में वह कौन महापुरुष था? कौन-सा परमभागवत था? कदाचित् आप लोग समझ गये होंगे किन्तु हम भी स्पष्ट बतला देना चाहते हैं कि वह महापुरुष था हमारा चरित्रनायक परमभागवत दैत्यर्षि प्रह्लाद। अवश्य ही पूर्वजन्म के सुकृतों के फल से वे दैत्यकुल में उत्पन्न होकर भी, सारे आस्तिक संसार के प्रातःस्मरणीय हुए हैं किन्तु वस्तुतः उनके गर्भाधान का संस्कार, उनकी परमभागवतता के बढ़ाने एवं प्रसिद्ध करने में अधिक सहायक हुआ होगा, इसमें भी सन्देह नहीं। इसी को कहते हैं कि “जैसी हो भवितव्यता, वैसी उपजे बुद्धि।” हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यपु के गर्भाधान के समय की घोर सन्ध्या बेला का फल तदनुरूप तथा परमभागवत प्रह्लाद के गर्भाधान के समय का 'नारायण' मन्त्र का उच्चारण और उसका फल देखकर क्या भारतवासी अपने महर्षियों के प्रतिपादित गर्भाधान की शुद्धता और महत्ता का अनुमान करेंगे तथा इन उदाहरणों से अपने तथा अपनी सन्तानों के लिये कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगे?