Kalvachi-Pretni Rahashy - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य--भाग(१)

त्रिजटा पर्वत श्रृंखला पर घनें वन के बीच एक पुराना महल बना है जहाँ रहती है एक प्रेतनी,जिसका नाम कालवाची है,उसकी आयु लगभग पाँच सौ वर्ष होगी,किन्तु वो अभी भी नवयौवना ही दिखाई पड़ती है,इसका कारण है कि दस दिनों के पश्तात् किसी भी नवयुवक या नवयुवती का हृदय उसका भोजन बनता है,जब उसे किसी नवयुवक या नवयुवती का हृदय खाने को नहीं मिलता तो वो वृद्ध होती जाती है,उसके केश श्वेत होते जाते हैं,आँखें धँस जातीं हैं एवं उसका त्वचा की रंगत समाप्त होती जाती है,इसलिए वो इस बात का बहुत ध्यान रखती है,अपनी इस अवस्था के आने पहले ही वो किसी नवयुवक या नवयुवती का हृदय खा लेती है और इसी कार्य हेतु वो कुछ समय पहले राजा कुशाग्रसेन के राज्य वैतालिक राज्य गई थी......
वैतालिक राज्य में उसने भ्रमण किया और उसे वैतालिक राज्य अत्यधिक पसंद आया तो उसने सोचा क्यों ना मैं कुछ दिनों के लिए इस राज्य में रूक जाऊँ,यहाँ मुझे सरलता से हृदय का भक्षण करने को मिल जाया करेगा,फिर मैं तो प्रेतनी हूँ किसी भी वृक्ष पर सरलता से वास कर सकती हूँ,अपनी गोपनीयता बनने में मुझे यहाँ सरलता भी रहेगी,दिन में सुन्दर युवती का वेष धर लिया करूँगी और रात को किसी वृक्ष पर सो जाया करूँगी और फिर यही सब सोचकर कालवाची ने वैतालिक राज्य में रहने का निर्णय लिया.....
वो वैतालिक राज्य में रहने लगी,उसे वहाँ अत्यधिक आनन्द आ रहा था,सरलता से वो नवयुवक एवं नवयुवती की हत्या करती एवं उनका हृदय निकालकर खा लेती,अब उसे नवयुवक एवं नवयुवतियों की कमी नहीं थी इसलिए जब भी उसका मन करता तो वो किसी को कभी भी मारकर खा लेती,दिन प्रतिदिन उसका यौवन कान्तिमय होता जा रहा था,उसके अंगों में लावण्य एवं स्वस्थता का वास हो गया था,वो प्रसन्न थी एवं चिन्तामुक्त थी,क्योंकि उसे यहाँ भोजन की प्रचुरता थी....

किन्तु राजाकुशाग्रसेन को जब ये ज्ञात हुआ कि आएं दिन उनके राज्य में हत्याएंँ हो रहीं हैं किन्तु इतने प्रयासों के उपरान्त भी हत्यारे को बंदी ना बनाया जा सका तो उन्हें अत्यधिक चिन्ता हुई,उन्होंने तब अपने वृद्ध माता पिता से इस विषय पर बात की तब उनके वृद्ध पिता प्रकाशसेन बोलें.....
पुत्र!ये अत्यधिक चिन्ता का विषय है,मेरे विचार ये है कि तुम्हें स्वयं इस बात की जड़ तक पहुँचना चाहिए,कदाचित तभी तुम्हें सफलता मिलेगी,यदि अब तक गुप्तचर एवं सेनापति उस हत्यारे तक नहीं पहुँच हैं तो इसका तात्पर्य है कि हत्यारा कोई साधारण व्यक्ति नहीं है,इस प्रकार निर्मम प्रकार से हत्या करना किसी साधारण व्यक्ति का कार्य कभी नहीं हो सकता....
कदाचित!आप ठीक कह रहे हैं पिताश्री!मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ,कुशाग्रसेन बोले....
तब कुशाग्रसेन की माता मृगमालती बोलीं....
किन्तु पुत्र!मुझे संदेह सा हो रहा है...
कैसा संदेह माताश्री!तनिक मुझसे भी कहें,कुशाग्रसेन ने पूछा...
तब मृगमालती बोलीं....
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ये किसी भूत-पिशाच का कार्य है,क्योंकि साधारण व्यक्ति केवल हत्या करता तो धन के लिए,किन्तु ये हत्यारा हत्या करता और धन भी नहीं लूटता केवल हत्या करके मृतकों का हृदय भक्षण करता है,मुझे तो भय लग रहा है कि कहीं हमारे राज्य पर कोई विपत्ति ना आ गई हो....
ये कैसी बातें कर रही हैं?माताश्री !ऐसा कुछ भी नहीं है,कुशाग्रसेन बोला...
किन्तु यदि ऐसा हुआ तो,मृगमालती बोली.....
उन सभी के मध्य वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी कक्ष के द्वार पर दासी आकर बोली....
महाराज!आपको महारानी ने याद किया है....
तब कुशाग्रसेन बोलें...
उनसे कहो कि मैं अभी आता हूँ....
जी!महाराज!एवं ऐसा कहकर दासी ने वहाँ से प्रस्थान किया.....
तब कुशाग्रसेन ने अपने माता-पिता से कहा...
माताश्री एवं पिताश्री मैनें आज रात्रि ही उस हत्यारे को खोजने का निर्णय लिया है,सायंकाल हो चली है,कदाचित रात्रि को समय ना मिला तो आप दोनों मुझे अभी आशीर्वाद दे दीजिए,ताकि मैं आपने कार्य में सफल हो सकूँ...
हम दोनों का आशीर्वाद तो सदैव तुम्हारे साथ है पुत्र!ईश्वर तुम्हें अवश्य सफल करेगें,प्रकाशसेन बोलें...
अन्ततः कुशाग्रसेन अपने माता पिता का आशीर्वाद लेकर अपने कक्ष में लौटे ,जहाँ उनकी पत्नी कुमुदिनी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी,जैसे ही कुशाग्रसेन ने कक्ष में प्रवेश किया तो कुमुदिनी बोली....
महाराज!मैं ये क्या सुन रही हूँ?आप आज रात्रि उस हत्यारे को बंदी बनाने हेतु राज्य में जा रहे हैं,मुझे ये बात सेनापति जी से ज्ञात हुई.....
हाँ!प्रिऐ!ये मेरी विवशता है,मुझे अपने राज्य की रक्षा हेतु ये करना ही होगा,ना जाने कौन है जिसने राज्य में प्रवेश कर ऐसा घिनौना कार्य प्रारम्भ कर दिया है,कुशाग्रसेन बोले....
आपको ज्ञात है ना कि ये अत्यधिक संकट भरा हो सकता है,आपके प्राण भी संकट में आ सकते हैं,कुमुदिनी बोली...
किन्तु इसके सिवा और कोई मार्ग शेष नहीं बचा है,मैने सभी प्रयास करके देख लिए है किन्तु वो हत्यारा अभी तक पकड़ा नहीं जा सका,कुशाग्रसेन बोले...
दोनों के मध्य यूँ ही वार्तालाप चलता रहा और राजा कुशाग्रसेन अर्द्धरात्रि के समय साधारण वेष में राज्य की ओर अकेले ही चल पड़े,उन्होंने सारे राज्य का भ्रमण किया किन्तु उन्हें कोई नहीं दिखा,तब उन्होंने राज्य से लगे वन की ओर प्रस्थान किया,वें वन में पहुँचे एवं एक झरने के समीप एक उचित स्थान देखकर वहाँ विश्राम करने का सोचा....
पूर्णिमा भरी रात्रि थी,चन्द्रमा की धवल चाँदनी चहुँ ओर फैली थी, पहले तो उन्होंने कुछ लकड़ियाँ बीनी,इसके पश्चात दो पत्थरों को आपस में रगड़कर अग्नि प्रज्जवलित की,अग्नि जलाकर वें वृक्ष तले विश्राम करने लगें,वें विश्राम अवश्य कर रहे थे किन्तु सोए नहीं थे,वे तो इस ताक में थे कि वन में उन्हें कहीं से कोई स्वर सुनाई दे तो वें उस ओर जाएं,किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ,कुछ समय की प्रतीक्षा के पश्चात उन्हें निंद्रा ने घेर लिया.....
अर्द्धरात्रि बीत चुकी थी,तीसरा पहर भी समाप्त होने को था,तब कालवाची अपना भोजन करके वन की ओर लौटी और उसने देखा कि जिस वृक्ष पर वो रात्रि को वास करती है,आज तो उस वृक्ष के तले एक सुन्दर युवक विश्राम कर रहा है,अग्नि का बसंती प्रकाश कुशाग्रसेन के मुँख पर पड़ रहा था एवं उस प्रकाश में उनकी सुन्दरता अत्यधिक निखर कर आ रही थी,कालवाची ने कुशाग्रसेन को देखा तो अपनी सुधबुध खो बैठी और प्रथम दृष्टि में ही कुशाग्रसेन पर अपना हृदय हार बैठी,वो रात को उसके बगल में बैठकर उसे ऐसे ही निहारती रही,जैसे ही सूरज की लालिमा पसरी तो वो उस वृक्ष पर उड़कर पहुँच गई एवं उसने अपना रूप बदलकर एक मोरनी का रूप ले लिया,.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....