Kalvachi-Pretni Rahashy - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

कालवाची--प्रेतनी रहस्य--भाग(३)

कालवाची वृक्ष पर मोरनी के रूप में यूँ ही अचेत सी लेटी थी,तभी एक कठफोड़वा उसके समीप आया एवं उसके बगल में बैठ गया,पक्षियों की भाषा में उसने कालवाची से कुछ पूछा,किन्तु कालवाची पक्षी होती तो उसकी भाषा समझ पाती,इसलिए उसकी भाषा समझने हेतु उसने उसे मानव का रूप दे दिया एवं स्वयं युवती का रूप धारण कर लिया....
ऐसा चमत्कार देखकर पक्षी स्तब्ध रह गया एवं अब उसका रूप मनुष्य की भाँति हो गया हो गया था इसलिए वो मनुष्यों की भाँति वार्तालाप भी कर सकता था,अन्ततः उसने कालवाची से पूछा....
तुम कौन हो एवं यहाँ वृक्ष पर क्या रही हो?तुम्हारा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं लग रहा है एवं तुमने अपना रूप कैसे बदल लिया?तुमने मुझे भी मनुष्य रूप में परिवर्तित कर दिया,ऐसी शक्तियांँ तुम्हारे पास कहाँ से आई?
कठफोड़वें के प्रश्नों को सुनकर कालवाची मुस्कुरा उठी एवं उससे बोली...
इतने सारे प्रश्न एक साथ पूछोगे तो मैं उत्तर कैसें दे पाऊँगी,तनिक धैर्य तो धरो सब बताती हूँ,किन्तु इससे पहले मैं तुम्हें एक सुन्दर सा नाम देना चाहती हूँ....
मेरे नाम की चिन्ता मत करो,पहले तुम अपना परिचय दो,मैं तुम्हारा परिचय जानने को कितना व्याकुल हूँ ये तुम नहीं ज्ञात कर सकती,कठफोड़वा बोला...
परन्तु!तुमसे वार्तालाप करने हेतु तुम्हें कोई नाम तो देना होगा ना,नहीं तो मैं तुमसे वार्तालाप कैसें कर पाऊँगी?कालवाची बोली....
तो ठीक है,शीघ्रता से मेरा नामकरण करो एवं मेरे प्रश्नो का उत्तर दो,कठफोड़वा बोला...
ठीक है तो आज से तुम्हारा नाम होगा कौत्रेय! तुम्हें पसंद आया अपना नाम,कालवाची बोली...
हाँ...हाँ...बहुत सुन्दर है,अब तुम अपने विषय में कहो,कौत्रेय बोला...
तब कालवाची बोली.....
मैं....मैं एक प्रेतनी हूँ,मुझे मेरे माता पिता के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं,ना जाने वें किस लोक से आएं थे और मुझे इस धरती पर छोड़ गए,जब मुझे इस संसार की समझ हुई तो तबसे मैं अकेली हूँ,मेरे माता पिता एक बूढ़ी दासी के सहारे मुझे छोड़कर ना जाने कहाँ चले गए?उस दासी ने मुझे बताया था कि मुझे जीवित रहने के लिए किसी मनुष्य के हृदय का भक्षण करना पड़ेगा,जब तक मैं छोटी थी तो वो दासी ही मेरे लिए मनुष्यों को मारकर उनका हृदय लाती रही,लेकिन जब मैं नवयुवती हुई तो ये कार्य स्वयं करने लगी,जब वो दासी अत्यधिक वृद्ध एवं लाचार हो गई तो उसने मुझे उसका हृदय खाने को कहा,मैं ने उसे मना किया तो वो बोली....
आज तक तेरे लिए ही जीती आई हूँ और अब तेरे लिए ही मरना चाहती हूँ,मेरी ये अन्तिम इच्छा पूरी नहीं करोगी...
मैं उसकी इस विनती को टाल ना सकी और उसके हृदय को उसके शरीर से निकालकर ग्रहण लिया,इसके पश्चात उसके शरीर को अग्नि में समर्पित कर दिया,ताकि उसकी आत्मा भटकती ना रहें,मैं पाँच सौ सालों से जीवित हूँ,पहले त्रिजटा पर्वत श्रृंखला में स्थित एक पुराने महल में रहती थी,किन्तु एक दिन मेरा इस वैतालिक राज्य में आना हुआ और मैं यही की रह गई,मैं यहाँ प्रसन्न थी क्योंकि मुझे यहाँ प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध था,किन्तु एक रात्रि मैंने इसी वृक्ष के तले एक सुनकर नवयुवक को विश्राम करते पाया एवं मैं उस पर अपना हृदय हार बैठी,तबसे अचेत सी इस वृक्ष पर पड़ी रहती हूँ,कई दिनों से मैने भोजन भी नहीं किया इसलिए इस अवस्था में आ पहुँची....
यदि मैं दस दिनों तक किसी मनुष्य के हृदय का भक्षण ना करूँ तो मैं वृद्ध होती जाती हूँ,मेरी ये कोमल काया मुरझा जाती है,मेरे सुन्दर व्योम के समान केश श्वेत होते जाते हैं,अब मेरे शरीर को भोजन की आवश्यकता है.....
इतना कहकर कालवाची चुप हो गई ,परन्तु कौत्रेय के प्राण सूख गए एवं उसने भयभीत होकर कहा.....
कहीं तुमने मुझे मनुष्य इसलिए तो नहीं बनाया कि मेरे हृदय का भक्षण कर सको,यदि ऐसा है तो मुझे मेरे पहले वाले रूप में परिवर्तित कर दो,अपनी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं इस वृक्ष पर कभी नहीं आऊँगा और ना ही तुमसे कोई प्रश्न पूछूँगा....
कौत्रेय की बात सुनकर कालवाची मुस्कुराई और कौत्रेय से बोली....
मुझे ऐसा कार्य करना होता तो मैं तुम्हें अपने विषय में सबकुछ क्यों बताती?मैं ऐसा क्यों करूँगी भला?मैं तो स्वयं को असहाय अनुभव कर रही हूँ,मैं उस युवक से प्रेम करने लगी हूँ किन्तु उससे कुछ कह नहीं सकती,मेरे अस्वस्थ होने का यही कारण है....
कालवाची की बात सुनकर कौत्रेय बोला....
तो ये जो तुम अपने संग कर रही हो ना!वो सही नहीं है,स्वयं को अस्वस्थ करके भला तुम्हें क्या मिलेगा?सर्वप्रथम तुम्हें भोजन ग्रहण करना चाहिए,क्षण-क्षण क्षीण होते शरीर के साथ तुम कुछ नहीं कर पाओगी,यदि तुमने उस युवक स प्रेम किया है तो जाकर उससे अपना प्रेम व्यक्त करो,कौत्रेय बोला....
किन्तु!वो एक मनुष्य है एवं मैं प्रेतनी,मेरा उसका मिलन कदापि नहीं हो सकता,कालवाची बोली....
परन्तु!उस युवक को कैसें ज्ञात होगा कि तुम एक प्रेतनी हो,जब तक कि तुम स्वयं उससे नहीं कहोगी,कौत्रेय बोला....
तो क्या मैं उससे विश्वासघात करूँ?कालवाची ने पूछा...
ये विश्वासघात नहीं, प्रेम है,कौत्रेय बोला...
ये प्रेम नहीं विश्वासघात ही होगा कौत्रेय!हर क्षण मुझे भय लगा रहेगा कि कहीं मेरा भेद ना खुल जाए,कालवाची बोली....
प्रेम में सब कुछ उचित होता है,कौत्रेय बोला....
मैं नहीं मानती,कालवाची बोली....
ऐसा वार्तालाप करने का ये उचित समय नहीं है,पहले तुम भोजन ग्रहण करो,इसके उपरान्त हम दोनों इस विषय पर वार्तालाप करेगें,कौत्रेय बोला....
किन्तु!अभी तो सायंकाल ही हुई है,मैं रात्रि में भोजन ग्रहण करने जाऊँगी,कालवाची बोली....
ठीक है तो कल प्रातःकाल हम इस विषय पर वार्तालाप करेगें,कौत्रेय बोला....
और उस रात्रि कालवाची ने अपने भोजन हेतु वैतालिक नगर में प्रवेश किया एवं उस रात्रि उसने राजमहल की अश्वशाला के पहरेदार के हृदय को अपना भोजन बनाया,भोजन ग्रहण करते ही वो पुनः नवयुवती हो गई,उसका रूप लावण्य भी लौट आया,पहरेदार के मृत शरीर को वो वहीं छोड़कर उस वृक्ष पर पुनः लौट आई ,जहाँ कौत्रेय सो रहा था,अभी कौत्रेय कठफोड़वें के रूप में था क्योंकि कालवाची को उस पर संदेह था कि कहीं मनुष्य रूप में वो किसी और व्यक्ति के समक्ष उसकी सच्चाई ना कह दे...
जब कालवाची वृक्ष पर आई तो कौत्रेय तब जाग रहा था परन्तु जैसे ही कालवाची वृक्ष पर लौटी तो वो वृक्ष पर निश्चिन्त होकर सो गया....
प्रातःकाल हुई तो राजमहल में भय की स्थिति थी,क्योंकि अब वो हत्यारा राजमहल तक घुस आया था,अब राजा कुशाग्रसेन की चिन्ता अत्यधिक बढ़ चुकी थी,उन्होंने सोचा कि अब तो कुछ ना कुछ करना ही होगा,उस हत्यारे का साहस तो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है,वो राजमहल तक आ पहुँचा एवं उस रात कुशाग्रसेन ने अकेले ही पुनः वैतालिक राज्य का भ्रमण करने का सोचा,वें सारी रात्रि वैतालिक राज्य का भ्रमण करते रहे किन्तु उन्हें कोई भी गतिविधियांँ होतीं नहीं दिखीं.....
तभी दूर से उन्हें कोई स्वर सुनाई दिया एवं वें उस ओर भागे,वो स्वर उन्हें वन की ओर से आता सुनाई दे रहा था,वें उस ओर गए,किन्तु अब उन्हें कोई स्वर सुनाई नहीं दे रहा था,अन्ततः उन्होंने उस दिन की भाँति छोटे छोटे पाषाणों को रगड़कर अग्नि प्रज्वलित की ,इसके पश्चात एक अग्निशलाका तैयार करके ,वें उस अग्निशलाका के प्रकाश में उस हत्यारे को खोजने लगे,अत्यधिक खोजने के पश्चात उन्हें एक मनुष्य का मृत शरीर प्राप्त हुआ,अब उनका संदेह मिट चुका था उन्हें पूर्णतः विश्वास हो चला था कि वो हत्यारा वहीं कहीं आस पास ही था.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....