Ek Yogi ki Aatmkatha - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

एक योगी की आत्मकथा - 4

{ हिमालय की ओर मेरे पलायन में बाधा }

“कोई भी छोटा-मोटा बहाना बनाकर अपनी कक्षा से बाहर निकल आओ और एक घोड़ागाड़ी किराये पर ले लो। हमारी गली में ऐसी जगह आकर ठहरना जहाँ तुम्हें मेरे घर का कोई सदस्य न देख सके।”

हिमालय में मेरे साथ जाने की योजना बनाने वाले उच्च माध्यमिक विद्यालय के अपने सहपाठी अमर मित्तर को मेरा यह अंतिम निर्देश था। अपने पलायन के लिये हम लोगों ने अगला दिन तय किया था। अनन्त दा मुझ पर कड़ी दृष्टि रखते थे, इसलिये सावधानी बरतना आवश्यक था। उन्हें पूरा सन्देह था कि मेरे मन में भाग जाने की प्रबल इच्छा है, और वे मेरी योजना को विफल बनाने के लिये कृतसंकल्प थे। तावीज चुपचाप अपना कार्य करता हुआ मेरे अन्दर आध्यात्मिक उफान ला रहा था। मुझे आशा थी कि हिमालय में मुझे अपने वे गुरु मिल जायेंगे जिनका चेहरा प्रायः मुझे अपने अंतर्मन के दिव्य दर्शनों में दिखायी देता था।

पिताजी का स्थायी रूप से कोलकाता में स्थानान्तरण हो गया था और अब हमारा परिवार वहीं रह रहा था। पितृसत्ताक भारतीय परम्परा के अनुसार अनन्त दा भी अपनी नववधू के साथ हमारे घर में रहने आ गये थे। वहाँ मैं अटारी पर स्थित एक छोटे से कमरे में नित्य ध्यान करके अपने मन को ईश्वरानुसंधान के लिये तैयार कर रहा था।

उस अविस्मरणीय दिन का उदय अमंगलकारी वर्षा के साथ हुआ। सड़क पर अमर की घोड़ागाड़ी की आवाज़ सुनते ही मैंने जल्दी-जल्दी एक कम्बल में एक जोड़ा खड़ाऊँ, दो कौपीन, एक जपमाला, लाहिड़ी महाशय की फोटो और भगवद्गीता की एक प्रति बाँध ली। यह पोटली मैंने तीसरी मंज़िल की अपनी खिड़की से नीचे फेंक दिया। मैं भागते हुए सीढ़ियों से नीचे उतरा और द्वार पर मछली खरीद रहे चाचाजी की बगल से आगे बढ़ गया।

“क्या जल्दी हैं ?” उन्होंने सशंक दृष्टि से मुझे ऊपर से नीचे तक देखा।

बिना कोई उत्तर दिये एक उदासीन मुस्काराहट के साथ उनकी ओर देखते हुए मैं गली की ओर चल पड़ा। अपनी पोटली उठाकर षड़यंत्रकारी सावधानी बरतता हुआ मैं अमर से जा मिला। हम गाड़ी में बैठकर शहर के एक बाज़ार क्षेत्र चांदनी चौक में गये। अंग्रेज़ी पोशाक खरीदने के लिये हम कई महीनों से अपने प्रतिदिन जलपान के लिये मिलनेवाले थोड़े-थोड़े पैसे बचाते आये थे। हम जानते थे कि मेरे चालाक भाई एक गुप्तचर की भूमिका निभा सकते हैं, इसलिये यूरोपियन पोशाक पहनकर हम उन्हें चकमा देना चाहते थे।

स्टेशन जाते-जाते रास्ते में हम सभी मेरे चचेरे भाई जतिन घोष, जिन्हें मैं जतिन दा कहता था के लिये रुके। वे नये-नये ही हमारे पंथानुयायी बने थे और हिमालय में किसी गुरु की शरण प्राप्त करने के आकांक्षी बने थे। हमारे पास पहले से तैयार नया सूट उन्होंने पहन लिया। “अब हमें कोई नहीं पहचान सकता”, हमने सोचा! हमारे मन गहरे उल्लास से खिल उठे।

“बस, अब केवल कैनवस जूतों की कमी है।” मैं उन दोनों को एक दुकान पर ले गया जहाँ रबड़ के तले लगे जूतों को सजाया गया था। “ऐसी पवित्र यात्रा में जीव हत्या द्वारा प्राप्त हुई चमड़े की चीजें नहीं ले जानी चाहियें।” अपनी भगवद्गीता की चमड़े की जिल्द और विलायती हैट पर लगे चमड़े के फीते निकालकर फेंकने के लिये मैं बाहर सड़क
पर रुक गया।

स्टेशन पर हम लोगों ने बर्दवान के टिकट खरीदे। हम बर्दवान में हिमालय के चरणों में स्थित हरिद्वार जाने के लिये गाड़ी बदलने वाले थे। जब गाड़ी भी हम लोगों के समान ही भागने लगी, तो मैंने अपनी कुछ महान् आशाओं को शब्द प्रदान किये।

“जरा कल्पना तो करो!” मैंने उत्साह पूर्वक कहा। “महान् गुरुओं से दीक्षा लेकर हम लोग ब्रह्मचैतन्य की समाधि का अनुभव करेंगे। हमारे शरीरों में ऐसी चुम्बकीय शक्ति पैदा हो जायेगी कि हिमालय के वन्य पशु पालतु जानवरों की भाँति हमारे पास आयेंगे। बाघ हमारा दुलार पाने की प्रतीक्षा में बैठी रहनेवाली घरेलु निरीह बिल्लियों से अधिक कुछ न होंगे!”

भविष्य का चित्र प्रस्तुत करने वाला यह वर्णन, जिसे मैं लाक्षणिक तथा वास्तविक, दोनों दृष्टियों से चित्तमोहक मान रहा था, अमर के होठों पर उत्साहपूर्ण मुस्कान ले आया। परन्तु जतिन दा ने अपनी दृष्टि दूसरी ओर घुमा ली और खिड़की से बाहर भागते हुए प्राकृतिक दृश्यों को देखने लगे।

“पैसे को तीन हिस्सों में बाँट लेते हैं।” जतिन दा ने इस प्रस्ताव के साथ अपने दीर्घ मौन को तोड़ा। “बर्दवान में हमें अपने टिकट अलग-अलग खरीदने चाहिये। इससे किसी को सन्देह नहीं होगा कि हम लोग साथ-साथ भाग रहे हैं।”

मैं बिना किसी आशंका के सहमत हो गया। सूर्यास्त के समय हमारी ट्रेन बर्दवान स्टेशन पर रूकी। जतीन दा टिकट घर में घुस गये; अमर और मैं प्लेटफार्म पर बैठे रहे। हम लोगों ने पन्द्रह मिनट तक प्रतीक्षा की, और फिर उनके विषय में निष्फल पूछताछ की। चारों ओर खोज लेने के बाद हम लोगों ने भय-व्याकुल होकर जोर-जोर से जतिन दा को आवाज़ें दीं। परन्तु वे तो उस छोटे-से स्टेशन के चारों ओर फैले अन्धकार में न जाने कहाँ लुप्त हो गये थे।

मैं पूर्णतः घबरा गया और इस आघात से मेरे हाथ-पाँव फूल गये। भगवान को भी यह निराशाजनक घटना मंजूर थी ? भगवान के लिये मेरे प्रथम सुनियोजित पलायन के रोमांचक अवसर पर विषाद का निर्मम साया पड़ चुका था।

“अमर! हमें घर लौट जाना चाहिये।” मैं छोटे बच्चे की तरह रो रहा था। “जतिन दा का निष्ठर प्रयाण अनिष्टसूचक संकेत है। विफल होना ही इस यात्रा की नियति है।”

“यही है तुम्हारा ईश्वर प्रेम? एक विश्वासघाती साथी के रूप में ली गयी छोटी-सी परीक्षा को भी तुम सह नहीं सकते?”

अमर द्वारा इसे ईश्वरीय परीक्षा बताये जाने पर मेरा मन शांत हुआ। हमने बर्दवान के सुविख्यात सीताभोग और मोतीचूर का नाश्ता किया।

कुछ ही घंटों में हम बरेली होकर हरिद्वार जाने वाली गाड़ी में बैठ गये। अगले दिन मुग़लसराय में हमने गाड़ी बदलते हुए जब हम प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा कर रहे थे, तब हमने एक महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श किया।

“अमर, सम्भव है कि शीघ्र ही हमें रेलवे अधिकारियों की गहरी पूछताछ का सामना करना पड़े। मैं अपने भाई की चतुरता को कम महत्व नहीं देता। परिणाम चाहे जो भी हो, मैं झूठ नहीं बोलूँगा।”

“मुकुन्द, मेरा तुमसे इतना ही अनुरोध है कि तुम चुप रहना। मैं जब उनसे बात करूँ, तो तुम मुस्कराना या हँसना नहीं।”

इतने में ही एक यूरोपियन रेलवे अधिकारी मेरे पास आया। उसने एक तार-पत्र हिला कर मुझे दिखाया जिसका आशय मैं तुरन्त समझ गया।

“क्या तुम लोग गुस्से में घर से भाग रहे हो?”

“जी नहीं!” मैं प्रसन्न था कि उसके चुने हुए शब्दों ने मुझे सुस्पष्ट उत्तर देने की अनुमति दे दी। मैं जानता था कि क्रोध नहीं, बल्कि दैवी-वैराग्य मेरे इस अस्वाभाविक व्यवहार का कारण था।

फिर वह अधिकारी अमर की ओर मुड़ा। उन दोनों के बीच बुद्धि-चातुर्य का जो द्वन्द्व हुआ उसे सुनते हुए निर्विकार गाम्भीर्य बनाये रखने के अनुरोध का पालन करना मेरे लिये कठिन से कठिनतर होता गया।

अधिकारी ने अपनी आवाज़ में अपने अधिकार को पूरी तरह ध्वनित करते हुए पूछा– “तीसरा लड़का कहाँ है ? चलो, सच बोलो!”

“साहब! आपने चश्मा पहना हुआ है। क्या फिर भी आपको दिखायी नहीं देता कि हम केवल दो ही हैं?” अमर धृष्टतापूर्वक मुस्काराया। “मैं कोई जादूगर नहीं हूँ कि एक तीसरा लड़का निकाल दूँ।”

अधिकारी ने इस धृष्टता से स्पष्ट रूप से हड़बड़ा कर, आक्रमण का नया पैंतरा लिया। “तुम्हारा नाम क्या है ?”

“मुझे टॉमस कहते हैं।” मैं अंग्रेज माता और भारतीय धर्मांतरित ईसाई पिता की संतान हूँ।

“तुम्हारे मित्र का क्या नाम है ?”

“मैं उसे टॉमसन कहता हूँ।”

अब तो अन्दर ही अन्दर मेरी हँसी चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी। मैं किसी से कुछ कहे बिना ट्रेन की ओर चल पड़ा जो भगवान की दया से प्रस्थान करने के लिये सीटी बजा रही थी। अमर भी उस अधिकारी के साथ मेरे पीछे-पीछे ही चला आया जो अब उसकी बातों पर इतना विश्वास करने लगा था कि उसने शिष्टतापूर्वक हमें यूरोपियन लोगों के लिये निर्धारित डिब्बे में आराम से बिठा दिया। स्पष्ट था कि दो अर्द्ध-अंग्रेज़ बालकों को हिंदुस्तानियों के डिब्बे में यात्रा करते देखना उसके लिये कष्टदायक था। उसके वहाँ से विनयपूर्वक प्रस्थान करने के बाद मैं सीट पर लेट गया और जोर-जोर से हँसता रहा। एक अनुभवी अंग्रेज अधिकारी को बुद्धिचातुर्य में मात देने का आनंदपूर्ण संतोष अमर के चेहरे पर व्याप्त था।

प्लेटफार्म पर मैंने तार को चोरदृष्टि से पढ़ लिया था। तार मेरे भाई अनन्त का था। उसमें लिखा था : “यूरोपियन पोशाक पहने तीन बंगाली लड़के घर से भागकर मुग़लसराय के मार्ग से हरिद्वार की ओर जा रहे हैं। मेरे पहुँचने तक उन्हें कृपया रोके रखें। आपकी सेवाओं के लिये योग्य पुरस्कार दिया जायेगा ।”

“अमर! मैंने तुम्हें कहा था कि निशान लगाये हुए टाईम टेबल को घर में मत छोड़ना।” मेरी आँखों में नाराजगी थी। “मेरे भैया को अवश्य ही वहाँ ऐसा कोई टाईम टेबल मिल गया होगा।”

मेरे मित्र ने झेंपकर इस डाँट को स्वीकार किया। हम थोड़ी देर के लिये बरेली में रूके जहाँ द्वारका प्रसाद अनन्त द्वारा भेजी एक तार के साथ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। द्वारका ने हमें रोक रखने का भरपूर प्रयास किया किन्तु मैंने उसे अच्छी तरह विश्वास दिला दिया कि हमने यह पलायन हँसी-मजाक के तौर पर शुरू नहीं किया था। पहले की भांति इस बार भी द्वारका ने हमारे साथ हिमालय भाग चलने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।

उसी रात जब हमारी गाड़ी एक स्टेशन पर खड़ी हुई थी और मैं अर्द्धनिद्रित अवस्था में था, तब पूछताछ करते एक और अधिकारी ने आकर अमर को जगा दिया। वह भी ‘टॉमस’ और ‘टॉमसन’ नामों के इन्द्रजाल में फँस गया। भोर होते-होते गाड़ी ने हमें सफलतापूर्वक हरिद्वार पहुँचा दिया। हमें अपनी ओर बुलाते गौरवशाली पर्वत कुछ दूरी पर अस्पष्ट दिखायी दे रहे थे। हम लोग तेजी से भागते हुए स्टेशन से बाहर निकले और नगर की स्वतन्त्र भीड़ में प्रविष्ट हो गये। हमारा पहला काम था देशी पोशाक धारण करना, क्योंकि अनन्त दा को किसी प्रकार हमारे यूरोपियन छद्मवेष का पता लग गया था। पकड़े जाने के पूर्वाभास मेरे मन पर बोझ बन रहा था।

हरिद्वार से तुरन्त निकल जाना ही उपयुक्त मानकर हमने सदियों से अनेकानेक सन्तों की चरणरज से पवित्र हुए ऋषिकेश जाने के लिये टिकटें खरीद लीं। मैं पहले ही ट्रेन में बैठ गया था, जबकि अमर अभी पीछे प्लेटफार्म पर ही था। एक पुलिस वाले ने पुकारकर उसे रोक लिया। वह अवांछित प्रतिपालक हमें पुलिस स्टेशन के बंगले में ले गया और उसने हमारे सब पैसे ले लिये। उसने शिष्टतापूर्वक यह स्पष्ट किया कि मेरे बड़े भाई के आने तक हमें वहाँ रोककर रखना उसका कर्त्तव्य था।

यह जानकर कि इन दो भगोड़ों का गन्तव्य स्थल हिमालय था, उस सिपाही ने एक अद्भुत घटना सुनायी।

“मैं देख रहा हूँ कि तुम सन्तों के दीवाने हो! अभी कल ही मेरी जिस संत से मुलाकात हुई थी, उस से बड़ा सन्त तुम्हें कभी नहीं मिलेगा। मेरे एक सहयोगी ओर मैं उनसे पहली बार पाँच दिन पहले मिले थे। एक विशिष्ट हत्यारे की तीव्र खोज में हम गंगा के पास गश्त लगा रहे थे। उसे ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने का हमें आदेश था। उस के बारे में हमें सिर्फ यह ही ज्ञात था कि तीर्थयात्रियों को लूटने के लिये वह साधु का छद्मवेष धारण कर धूम रहा है। अपने सामने थोड़ी ही दूरी पर हमने एक आकृति देखी जो उस अपराधी के वर्णन से मिलती-जुलती थी। जब वह हमारे आदेश पर नहीं रुका तो उसे पकड़ने के लिये हम लोग दौड़े। उसके पीछे पहुँचकर मैंने उस पर पूरी शक्ति से फरसे का वार कर दिया। उसका दाहिना हाथ कटकर उसके शरीर से लगभग पूर्णतः अलग हो गया।

“आश्चर्य यह है कि किसी प्रकार की कोई आवाज़ निकाले बिना और उस भयंकर घाव पर दृष्टि भी डाले बिना वह अजनबी अपनी तेज गति से चलता ही रहा। जब हम लपक कर उसके सामने खड़े हो गये, तो उसने शान्त भाव से कहा:

“जिस हत्यारे की तुम्हें तलाश है, वह मैं नहीं हूँ।”

“यह देखकर मुझे गहरा आघात लगा कि मैंने दिव्य पुरुष से दीखनेवाले एक संत के शरीर को घायल कर दिया था। मैं उनके चरणों में साष्टांग लोट गया और कातर स्वर में क्षमायाचना करने लगा तथा तेज़ी से निकलते खून की धार को रोकने के लिये मैंने अपनी पगड़ी का कपड़ा उन्हें दिया।

“ ‘बेटा! तुम्हारी भूल स्वाभाविक ही थी।’ उस महापुरुष ने मेरी ओर दया और स्नेह से देखते हुए कहा। ‘जाओ और पश्चात्ताप मत करो। परमप्रिय जगन्माता मेरी देखभाल कर रही हैं।’ उन्होंने अपनी लटकती भुजा को पकड़कर उसके स्थान पर लगाया और चमत्कार! वह जुड़ गयी; और आश्चर्यजनक रूप से रक्त प्रवाह भी तुरन्त बन्द हो गया।

“ ‘तीन दिन बाद मुझसे उस पेड़ के नीचे आकर मिलो। तुम मुझे पूर्णतः स्वस्थ पाओगे। इस प्रकार तुम्हें पश्चात्ताप नहीं रहेगा।’

“कल ही मैं अपने सहयोगी के साथ वहाँ गया था। वह सन्त वहीं थे और उन्होंने हमें अपनी बाँह का निरीक्षण करने दिया । वहाँ पर न तो घाव का कोई चिह्न था, न ही चोट का कोई लक्षण!

“ ‘मैं ऋषिकेश होते हुए हिमालय के निर्जन प्रदेशों में जा रहा हूँ।’ महात्मा ने वहाँ से तुरन्त प्रस्थान करते हुए हमें आशीर्वाद दिया। मुझे लगता है कि उनकी पवित्रता से मेरा जीवन भी उन्नत हो गया है।”

उस अफसर ने पवित्र उद्गार के साथ अपनी कथा समाप्त की; उसके अनुभव ने स्पष्टतया उसके भीतर की नयी गहराइयों को छू लिया था। एक प्रभावशाली ढंग से उसने उस चमत्कार के सम्बन्ध में छपी हुई समाचार
हिमालय की ओर मेरे पलायन में बाधा पत्र की कतरन मुझे दी। एक सनसनीखेज समाचार-पत्र में साधारणतया जिस तरह तोड़-मरोड़कर समाचार प्रकाशित किये जाते हैं (खेद हैं कि इसका भारत में भी अभाव नहीं है), उसी तरह संवाददाता ने भी अपने विवरण में घटना को कुछ बढ़ा-चढ़ा कर छाप दिया था उसमें लिखा था कि साधु का सिर ही धड़ से लगभग अलग हो गया था!

अमर को और मुझे अत्यंत खेद हुआ कि हम ऐसे महान योगी के दर्शन-लाभ से वंचित रह गये, जिन्होंने अपने पर अत्याचार करने वाले को भी ईसा मसीह के समान क्षमा कर दिया। भारतवर्ष पिछली दो शताब्दियों आर्थिक दृष्टि से भले ही गरीब हो गया हो, परन्तु अभी भी उसके पास दैवी सम्पदा का अक्षय भण्डार है। कभी-कभी एसे पुलिस अधिकारी सांसारिक लोग भी आध्यात्मिक जगत् के गगनचुम्बी व्यक्तित्वों के अनायास ही दर्शन पा जाते हैं।
अपनी इस अद्भुत कहानी से हमारा समय बिताने के लिये हमने पुलिस अधिकारी का धन्यवाद किया। संभवतः वह हमें सूचित कर रहा था कि वह हमसे अधिक भाग्यवान था उसे अनायास ही एक आत्मज्ञानी संत के दर्शन हो गये थे, जब कि हमारी उत्कट खोज ने हमें किसी सिद्ध पुरुष के चरणों में नहीं, बल्कि एक घटिया पुलिस स्टेशन में पहुँचा दिया था !

हिमालय के कितने निकट, किन्तु फिर भी बन्धन में होने के कारण कितने दूर! मैंने अमर से कहा कि इस बन्धन से मुक्त होने के लिये मेरा मन दुगने उत्साह से जोर मार रहा है।

“अवसर मिलते ही, यहाँ से खिसक चले। पुण्यतीर्थ ऋषिकेश तक तो हम पैदल भी जा सकते हैं।” प्रोत्साहन देने के लिये मैं मुस्कराया।

परन्तु मेरा मित्र उसी समय निराशावादी बन गया था, जैसे ही हमसे पैसे का मज़बूत सहारा छीन लिया गया था।

“यदि हम ऐसे खतरनाक जंगल से पैदल चले, तो उस साधु-संतों के नगर में नहीं, बल्कि बाघों में पेट में पहुँच जायेंगे!”

अनन्त और अमर के भाई तीन दिन बाद पहुँचे। अमर ने मुक्ति के आनन्द से अपने भाई का सस्नेह स्वागत किया। परन्तु मुझे इस पुनर्मिलन में कोई रुचि नहीं थी; अनन्त को मुझ से कठोर उलाहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला।

“तुम्हारे मन की भावना मैं समझता हूँ।” अनन्त दा सांत्वनात्मक शब्दों में बोले। “मैं तुमसे केवल इतना ही चाहता हूँ कि तुम एक बार मेरे साथ बनारस चलो, वहाँ एक विशिष्ट संत से मिल लो और वहाँ से फिर कुछ दिनों के लिये दुःखित पिताजी से मिलने कोलकाता चले जाओ। उसके बाद तुम यहाँ अपने गुरु की खोज पुनः आरम्भ कर सकते हो।”

यहाँ पर अमर हमारे वार्तालाप में टपक पड़ा; उसने कहा कि मेरे साथ पुनः हरिद्वार आने का उसका कोई इरादा नहीं है। वह पारिवारिक स्नेहसुधा का उपभोग कर रहा था। परन्तु मुझे विश्वास था कि मैं कभी भी अपने गुरु की खोज का परित्याग नहीं करूँगा।

हमारी मण्डली बनारस के लिये रेलगाड़ी पर सवार हो गयी। वहाँ मुझे अपनी प्रार्थना का एक अद्भुत और प्रत्यक्ष उत्तर मिल गया।

अनन्तदा ने पहले से ही एक कौशलपूर्ण व्यूहरचना कर रखी थी। हरिद्वार में मुझ से मिलने से पहले वे बनारस में उतर गये थे और वहाँ उन्होंने एक शास्त्रपंडित से मिलकर मुझे उससे उपदेश दिलाने की व्यवस्था कर रखी थी। पंडित और उनके सुपुत्र ने भी मुझे संन्यास पथ से विरत कर देने का प्रयास करने का अनन्त दा को वचन दे रखा था।

अनन्तदा मुझे उनके घर ले गये। पंडितजी के अति उत्साही स्वभाववाले युवा पुत्र ने आगे बढ़कर आँगन में ही मेरा स्वागत किया उसने मुझे एक लम्बे दार्शनिक तर्क-वितर्क में उलझा लिया। अपनी अतींद्रिय दृष्टि से मेरे भविष्य को देख पाने का दावा करते हुए उन्होंने मेरे संन्यासी बनने के विचार पर असहमति प्रकट की।

“यदि तुम अपने साधारण उत्तरदायित्वों को त्याग देने का हठ करोगे तो निरन्तर दुर्भाग्य का शिकार बनोगे और ईश्वर को पाने में असमर्थ रहोगे! सांसारिक अनुभव के बिना तुम अपने पूर्व कर्मों को समाप्त नहीं कर सकते।”

उत्तर में भगवद्गीता के सनातन शब्द मेरे होठों पर उभर आये :

“यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मुझे भजता है; तो उसके पिछले दुष्कर्मों का प्रभाव शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। महात्मा बनकर वह शीघ्र शाश्वत शान्ति को प्राप्त करता है। हे कुन्तीपुत्र, तुम यह निश्चित रूप से जान लो जो भक्त मुझमें पूर्ण विश्वास रखता है उसका कभी विनाश नहीं होता!”

किन्तु उस युवक द्वारा दृढतापूर्वक की गयी भविष्यवाणी ने मेरे विश्वास को थोड़ा-सा हिला दिया था। अपने हृदय की पूर्ण भक्ति से मैंने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की :

“ अभी यहीं और इसी क्षण मेरी सारी व्यग्रता को दूर कर मुझे उत्तर दो, तुम क्या चाहते हो, मैं संन्यासी का जीवन व्यतीत करूँ या संसारी मनुष्य का? ”

पंडितजी के घर की चहारदीवारी के निकट ही बाहर मैंने एक उदात्त वदन साधु को खड़े देखा। स्पष्टतया उन्होंने मेरे और स्वघोषित दिव्य द्रष्टा के बीच का वार्तालाप सुन लिया था, क्योंकि उन्होंने अपरिचित होते हुए भी मुझे अपने पास बुलाया। उनके प्रशांत नेत्रों से मैंने एक प्रचण्ड शक्ति को प्रवाहित होते अनुभव किया।

“वत्स ! उस मूढ़ की बातें मन सुनो। तुम्हारी प्रार्थना के प्रत्युत्तर स्वरूप ईश्वर मुझे तुम्हें यह आश्वासन देने का निर्देश दे रहे हैं कि तुम्हारे जीवन का एकमेव मार्ग संन्यास ही है।”

विस्मय और कृतज्ञता के साथ इस निर्णायक सन्देश पर मैं प्रसन्नता से मुस्कराया।

“उस आदमी से दूर होकर इधर चले आओ!” आंगन से वह मूढ़ मुझे बुला रहा था। मेरे उस सन्तवत् मार्गदर्शक ने आशीर्वाद मुद्रा में हाथ उठाया और वे धीरे-धीरे चले गये।

“वह साधु भी तुम्हारे समान पागल ही है।” यह मनोज्ञ टिप्पणी करने वाले श्वेतकेशधारी पंडितजी थे। वे और उनके सुपुत्र मेरी ओर शोचनीय दृष्टि से देख रहे थे। “मैंने सुना है कि उसने भी ईश्वर की सन्दिग्ध खोज के लिये अपना घर-बार छोड़ दिया है।”

मैंने मुँह फेर लिया। अनन्त दा की ओर मुड़कर मैंने कहा कि मैं इन लोगों से और किसी तर्क में नहीं उलझना चाहता। मेरे हतोत्साहित भाई तत्काल प्रस्थान के लिये मान गये। हम लोग शीघ्र ही कोलकाता जानेवाली गाड़ी पर सवार हो गये

“श्रीमान गुप्तचरजी! यह तो बताइये कि आपको कैसे पता चला कि मैं दो साथियों के साथ भागा हूँ?” मैंने अपनी उबलती जिज्ञासा शांत करने के लिये घर जाते हुए रास्ते में अनन्त दा से पूछा। वे शरारत भरे ढंग से मुस्कराये।

“तुम्हारे स्कूल में मुझे पता चला कि अमर अपनी कक्षा से बाहर चला गया था और लौटकर नहीं आया था। मैं अगले दिन सुबह उसके घर गया और वहाँ एक निशान लगाया हुआ एक टाईम-टेबल खोज निकाला। अमर के पिता उसी समय घोड़ागाड़ी से बाहर जा रहे थे और कोचवान से बातें कर रहे थे।

“ ‘आज मेरा बेटा स्कूल जाने के लिये मेरे साथ गाड़ी में नहीं आयेगा। वह गायब हो गया है!’ पिता ने दुःखभरे स्वर में कहा।

“ ‘मैंने एक साथी कोचवान से सुना है कि आपका बेटा और दो अन्य लड़के यूरोपियन पोशाक पहने हावड़ा स्टेशन में एक गाड़ी में चढ़कर कहीं चले गये हैं।’ कोचवान ने कहा, ‘अपने चमड़े के जूते उन्होंने उस कोचवान को दे दिये।’

“इस प्रकार मुझे तीन सूत्र मिल गये — टाईम टेबल, तीन लड़कों की मण्डली और अंग्रेज़ी वेश।”

अनन्तदा के रहस्योद्घाटनों को मैं हँसी और खीझ के मिलेजुले भावों के साथ सुन रहा था। कोचवान के प्रति हमारी उदारता कुछ अपात्र दान ही ठहरी।

“यह तो स्वाभाविक ही था कि मैंने अमर द्वारा टाईम टेबल में निशान लगाये गये शहरों के रेलवे अधिकारियों को तत्काल तार भेज दिये। उसने बरेली पर भी निशान लगाया था, इसलिये मैंने वहाँ तुम्हारे दोस्त द्वारका को तार भेज दिया था। कोलकाता में अपने पड़ोस में पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि हमारे चचेरे भाई जतिनदा एक रात के लिये गायब रहे पर दूसरे दिन सुबह ही अंग्रेज़ी वेश में वापस आ गये थे। मैंने उन्हें खोजा और भोजन पर निमन्त्रित किया। उन्होंने मेरे मैत्रीपूर्ण व्यवहार से निःशंक होकर निमन्त्रण स्वीकार किया। रास्ते में सन्देह-रहित ढंग से मैं उन्हें एक पुलिस स्टेशन में ले गया। वहाँ उन्हें अनेक पुलिस अधिकारियों ने घेर लिया जिन्हें मैंने उनकी डरावनी सूरत के कारण पहले से ही चुन रखा था। उनकी भयावह दृष्टि के आगे जतीनदा अपने रहस्यात्मक व्यवहार का स्पष्टीकरण देने के लिये तैयार हो गये।

“ ‘आध्यात्मिक भावनामय उत्साह में मैं हिमालय की ओर चल पड़ा’, उन्होंने कहा। ‘सिद्ध महात्माओं के दर्शनों के विचार ने मेरे अंतः करण को प्रेरणा से भर दिया था। परन्तु जैसे ही मुकुन्द ने कहा, “हिमालय की गुफाओं में जब हम समाधि में बैठ जायेंगे, तब बाघ भी वशीभूत होकर हमारे इर्दगिर्द पालतू बिल्लियों की भाँति बैठेंगे”, तो मेरा सारा जोश ठंडा हो गया और ललाट पर पसीने की बूँदें झलकने लगी। मैंने सोचा: “तब क्या होगा ? यदि हमारे योगबल से हिंसक बाघों का स्वभाव नहीं बदल सका तो क्या वे हमारे साथ घरेलू बिल्लियों का-सा आचरण करेंगे?” अपने मनश्चक्षु में मैंने पहले से ही स्वयं को किसी बाघ के पेट के बलात् अंतर्वासी के रूप में देखा; वहाँ सम्पूर्ण शरीर के साथ एक ही बार में प्रवेश करके नहीं बल्कि शरीर के विभिन्न हिस्सों की अनेक किस्तों में!”

जतिन दा के अदृश्य हो जाने के कारण जो मेरा क्रोध था, वह हँसी में बदल गया। उन्होंने मुझे जो संताप दिया था उसका सारा मूल्य रेलगाड़ी में मिले लोटपोट करनेवाले स्पष्टीकरण से चुकता हो गया। मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि मुझे इस बात से कुछ सन्तोष अवश्य हुआ कि जतिन दा भी पुलिस की खातिरदारी से नहीं बचे थे !

“अनंतदा! आप जन्मजात गुप्तचर हैं!” मेरी विनोदपूर्ण दृष्टि पूर्णतः क्रोधरहित नहीं थी। “और मैं जतिनदा से कहूँगा कि मुझे खुशी है कि वे विश्वासघात के किसी उद्देश्य से नहीं, जैसा कि प्रतीत होता था, बल्कि केवल आत्मरक्षा की सतर्क सहजप्रवृत्ति से प्रेरित हुए थे।”

कोलकाता में घर पहुँचने पर पिताजी ने अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से मुझसे अनुरोध किया कि कम से कम उच्च विद्यालय की पढ़ाई पूरी कर लेने तक मैं अपने घूमते पाँवों पर अंकुश लगाऊँ। मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने एक सन्तवत् महात्मा पंडित स्वामी केवलानंदजी के नियमित हमारे घर आने की व्यवस्था की एक प्रेमपूर्वक योजना बनायी थी।

“ये ऋषितुल्य महात्मा तुम्हारे संस्कृत शिक्षक होंगे”, पिताजी ने विश्वस्त ढंग से घोषणा की।

पिताजी को आशा थी कि वे मेरी आध्यात्मिक पिपासा एक विद्वान दार्शनिक से शिक्षा दिलाकर शान्त कर देंगे। परन्तु परिणाम रहस्यपूर्ण ढंग से उलटा हुआः मेरे नवनियुक्त शिक्षक मुझे शुष्क बौद्धिक ज्ञान देने के बदले मेरी ईश्वराकांक्षा के अंगारों को हवा देने लगे। पिताजी को यह ज्ञात नहीं था कि स्वामी केवलानंदजी लाहिड़ी महाशय के एक उन्नत शिष्य थे। उस अद्वितीय गुरु के सहस्रों शिष्य थे जो उनकी अमोघ दैवी शक्ति के चुम्बकीय प्रभाव से अपने आप उनकी ओर आकर्षित हो गये थे। मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि लाहिड़ी महाशय केवलानन्दजी को प्रायः ऋषि कहकर संबोधित करते थे।¹

लम्बे घुंघराले केश मेरे शिक्षक के सुन्दर मुख मण्डल की शोभा बढ़ा रहे थे। उनकी काली आँखें शिशु-नेत्रों की भाँति निश्छल और भोली थी। उनके छरहरे शरीर की सब गतिविधियों में एक प्रशान्त गम्भीरता थी। सदैव शान्त और स्नेहमय केवलानन्द जी अनन्त ब्रह्म के चैतन्य में दृढ़ता के साथ स्थिर हो गये थे। हम दोनों के सहवास के अनेक आनन्दमय प्रहर गहरे क्रिया योग ध्यान में बीतते थे।

केवलानन्द जी प्राचीन शास्त्रों के सुप्रतिष्ठित पंडित थे; उनके इस अगाध ज्ञान के कारण ही उन्हें शास्त्री महाशय की उपाधि मिली थी जिसके द्वारा वे प्रायः सम्बोधित किये जाते थे। परन्तु संस्कृत पांडित्य में मेरी प्रगति अनुल्लेखनीय थी। मैं सदा इसी सुयोग की ताक में रहता था कि किस तरह नीरस व्याकरण से जान बचे और योग तथा लाहिड़ी महाशय की चर्चा शुरू हो। मेरे शिक्षक महोदय ने एक दिन लाहिड़ी महाशय के साथ बिताये गये अपने जीवन के बारे में कुछ बताने का अनुग्रह किया। :

“मुझे दस वर्ष तक लाहिड़ी महाशय के पास रहने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ था। बनारस में उनका घर मेरा रात्रिकालीन इष्ट तीर्थस्थान था। नीचे के तल्ले पर सामने वाली छोटी-सी बैठक में वे सदा विराजमान रहते थे। लकड़ी की चौकी पर पद्मासन में बैठे हुए वे अपने शिष्यों से एक माला की भांति अर्धवृत्ताकार में घिरे रहते थे। उनकी आँखें चमकती हुई तथा ईश्वरीय आनंद से नाचती रहती थीं। उनकी सदैव अद्धोन्मीलित रहने वाली आँखें भीतर के दूरदर्शी गोलक में से सदा शाश्वत-आनंद के लोक में झांकती रहती थीं। वे कदाचित् ही अधिक समय के लिये बोलते थे । यदा-कदा उनकी दृष्टि किसी ऐसे शिष्य पर केन्द्रित हो जाती जिसे सहायता की आवश्यकता होती थी; तब शांतिप्रद वचन उनके मुख से प्रकाश के हिमप्रपात की भाँति झरने लगते।

“गुरुदेव के एक दृष्टिपात मात्र से मेरे अन्दर एक अवर्णनीय शान्ति खिल उठती थी। मैं उनकी सुगन्ध से भर जाता था जैसे वह अनंत के किसी पद्म की सुगंध हो । उनके साथ अनेकानेक दिनों तक एक शब्द भी बोले बिना भी रहना एक ऐसा अनुभव था जो मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को परिवर्तित कर देता। यदि मेरी एकाग्रता में कोई अदृश्य बाधा आ खड़ी होती तो गुरु के चरणों में ध्यान करने बैठ जाता। वहाँ सबसे सूक्ष्म अवस्थाओं का भी मुझे सहजबोध हो जाता। ऐसी अनुभूतियाँ मुझे निम्नतर कोटि के गुरुओं के सान्निध्य में नहीं होती थीं। गुरुदेव ईश्वर के सजीव मन्दिर थे जिनके गुप्तद्वार भक्ति के माध्यम से सभी शिष्यों के लिये खुले रहते थे।

“लाहिड़ी महाशय शास्त्रों के पुस्तकीय टिकाकार नहीं थे। वे सहज ही ‘दैवी पुस्तकालय’ में डुबकी लगा लेते थे। शब्दों का फेन और विचारों की फुहारें उनकी सर्वज्ञता के फव्वारे से फूट पड़ते थे। वेदों² में युगों पहले अस्तमान हुए गहन दर्शनों के विज्ञान के रहस्यों को खोलने का अद्भुत कौशल उन्हें प्राप्त था। प्राचीन शास्त्रों में उल्लिखित चेतना के विविध स्तरों को समझाने का अनुरोध करने पर वे मुस्कराकर स्वीकार कर लेते थे।

“ ‘मैं अभी उन अवस्थाओं में प्रवेश करता हूँ और अपनी अनुभूतियाँ तुम्हें बताता हूँ।’ इस प्रकार वे उन गुरुओं से बिल्कुल विपरीत थे जो शास्त्रों को कंठस्थ कर बिना किसी वास्तविक अनुभूति के अपनी कल्पना से ही उनका अर्थ बताते हैं।

“ ‘श्लोकों का अर्थ तुम्हें जिस रूप में समझ आये, उसी प्रकार उनकी व्याख्या करो।’ मितभाषी गुरुदेव प्रायः अपने पास बैठे किसी शिष्य को यह निर्देश देते। ‘मैं तुम्हारे विचारों को परिचालित करूँगा ताकि सही अर्थ तुम्हारे मुख से उच्चरित हो।' इस प्रकार लाहिड़ी महाशय की अनेक अनुभूतियों को उनके विभिन्न शिष्यों ने विस्तृत भाष्यों सहित लिपिबद्ध कर लिया।

“किसी बात पर आँख बंद कर विश्वास कर लेने की सलाह गुरुवर कभी नहीं देते थे। ‘शब्द खोखले हैं’, वे कहते थे। ‘ईश्वर की उपस्थिति के दृढ़ विश्वास को ध्यान में अपने परमानंदमय सम्पर्क से प्राप्त करो।’

“शिष्य की समस्या चाहे जो भी हो, उस के समाधान के लिये गुरुदेव क्रिया योग के अभ्यास का ही परामर्श देते थे।

“ ‘तुम्हारा मार्गदर्शन करने के लिये जब मैं इस शरीर में नहीं रहूँगा तब भी इस यौगिक कुंजी का सामर्थ्य कम नहीं होगा। यह प्रविधि भव्य प्रेरणाओं की तरह जिल्द बाँधकर, अलमारी में रखकर भूल जाने की वस्तु नहीं है। क्रिया योग के माध्यम से अनवरत अपने मुक्तिपथ पर चलते जाओ। जिस (क्रिया) की शक्ति इसके अभ्यास में निहित है।’

“मैं स्वयं क्रिया को मानव के अभी तक स्वतः प्रयास द्वारा अनंत ईश्वर की खोज के लिये विकसित साधनों में सबसे अधिक प्रभावशाली मानता हूँ।” केवलानन्दजी ने इस उत्साहपूर्ण प्रमाण के साथ अपना कथन समापन किया। “इस के अभ्यास से सभी मनुष्यों में छिपे सर्वव्यापी ईश्वर लाहिड़ी महाशय और उनके अनेक शिष्यों की देह में प्रत्यक्ष रूप में अवस्थित हुए प्रकट।”

ईसा मसीह की तरह एक चमत्कार लाहिड़ी महाशय द्वारा केवलानन्दजी की उपस्थिति में हुआ। एक दिन उन्होंने वह कहानी मुझे सुनायी। सामने मेज पर पड़ी संस्कृत की पुस्तकों से हटी उनकी आँखें सुदूर कहीं लगी हुई थीं।

“एक दृष्टिहीन शिष्य रामू के लिये मैं करुणार्द्रता अनुभव करने लगा। क्या उसकी आँखों की ज्योति कभी लौटकर नहीं आ सकती, जब वह इतनी श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ हमारे गुरुदेव की सेवा कर रहा था, जिनमें ईश्वरत्व अपने पूर्ण तेज के साथ दीप्तिमान था ? एक दिन सुबह मैं रामू से बात करना चाह रहा था, परन्तु वह शांति पूर्वक घंटों तक गुरुदेव पर पंखा झलता रहा। अंततः जब वह कमरे से बाहर निकला तो मैं उसके पीछे हो लिया।

“ ‘रामू ! तुम कब से अंधे हो ?’

“ ‘जन्म से ही, महाशय! मेरी आँखों को कभी भी सूर्यदर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।’

“ ‘हमारे सर्वशक्तिमान गुरु तुम्हारी सहायता कर सकते हैं। एक बार उनसे प्रार्थना तो करो।’

अगले दिन रामू कुछ संकोचपूर्वक लाहिड़ी महाशय की सेवा में उपस्थित हुआ, किन्तु अपने अतुल आध्यात्मिक ऐश्वर्य में शारीरिक सम्पदा को जोड़ने का अनुरोध करना उसे लगभग लज्जास्पद लग रहा था।

“ ‘गुरुदेव ! ब्रह्माण्ड को प्रकाश देनेवाला ईश्वर आप में विद्यमान है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस की ज्योति मेरी आँखों को भी प्रदान करें ताकि मैं सूर्य के गौण तेज को देख सकूँ।’

“ ‘रामू! किसी ने मुझे कठिन परिस्थिति में डालने की योजना बनायी है। मेरे पास किसी को स्वस्थ करने की कोई शक्ति नहीं है।’

“ ‘गुरुदेव ! आपमें विराजमान अनंत ईश्वर निश्चय ही मुझे स्वस्थ कर सकते हैं।’

“ ‘यह तो सचमुच अलग बात है, रामू ! ईश्वर की कोई सीमा नहीं है! वह जो तारों को चमक देता है और शरीर कोशिकाओं में रहस्यमय प्राणशक्ति संचारित करता है, निश्चय ही वह तुम्हारे नेत्रों को भी ज्योति प्रदान कर सकता है।’ तत्पश्चात् गुरुदेव ने रामू के माथे पर दोनों भौहों के बीच में स्पर्श किया।³

“ ‘अपने मन को यहाँ केन्द्रित रखो और सात दिनों तक बारम्बार राम नाम का जप करो। सूर्य का वैभव तुम्हारे लिये विशेष उषाकाल का दृश्य प्रस्तुत करेगा।’

“और एक सप्ताह में ठीक ऐसा ही हुआ। रामू ने प्रकृति के सुन्दर रूप को प्रथम बार देखा। सर्वज्ञ गुरुदेव ने अपने शिष्य को राम नाम जपने का आदेश दिया क्योंकि राम ही उसके इष्टदेवता थे। रामू के विश्वास ने भक्ति से जोती हुई जमीन का काम किया जिसमें गुरुदेव का स्थायी रूप से स्वस्थ कर देने वाला शक्तिशाली बीज अंकुरित हो गया। ”

केवलानन्द जी ने क्षणभर मौन रहने के बाद गुरु के चरणों में एक और श्रद्धासुमन अर्पित किया।

“लाहिड़ी महाशय ने जितने भी चमत्कार किये, उन सब में एक बात स्पष्ट रूप से पता चलती थी कि उन्होंने अहं तत्त्व⁴ को कभी भी स्वयं को कारण तत्त्व या कर्ता नहीं मानने दिया। सर्वोच्च रोग निवारक शक्ति, अर्थात् ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण के कारण गुरुदेव उस शक्ति का अपने में से मुक्त रूप से प्रवाहित होना सुलभ बना देते थे।

“लाहिड़ी महाशय ने जिन अनेकानेक शरीरों को चमत्कारपूर्ण ढंग से स्वस्थ किया उन्हें अंततः चिताग्नि की ज्वालाओं का भक्ष्य बनना ही पड़ा। परन्तु उन्होंने लोगों के अंतर में जो आध्यात्मिक जागृति उत्पन्न की, जो ईसा समान शिष्य तैयार किये, वही उनके अजरामर चमत्कार हैं। ”
मैं संस्कृत का विद्वान कभी नहीं बना, केवलानन्दजी ने मुझे उससे भी भव्य-दिव्य भाषा पढ़ा दी I

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¹ [जब केवलानन्दजी से मेरी भेंट हुई तब उन्होंने संन्यास ग्रहण नहीं किया था। सामान्यतया सभी उन्हें शास्त्री महाशय के नाम से सम्बोधित करते थे। लाहिड़ी महाशय और मास्टर महाशय (प्रकरण ९ ) के नामों के साथ साम्य के कारण कोई सम्भ्रम उत्पन्न न हो इसलिये मैं अपने संस्कृत शिक्षक का उल्लेख केवल उनके संन्यासोत्तर नाम स्वामी केवलानन्दजी से कर रहा हूँ। उनकी जीवन कथा हाल ही में बंगाली भाषा में प्रकाशित हुई है। बंगाल के खुलना जिले में १८६३ में जन्मे केवलानंदजी ने अड़सठ वर्ष की आयु में अपने शरीर का बनारस में त्याग किया। उनका पारिवारिक नाम आशुतोष चटर्जी था।]

² [प्राचीन चार वेदों पर एक सौ से भी अधिक ग्रंथ आज भी विद्यमान हैं। इमर्सन ने अपने जर्नल में इन शब्दों में वैदिक विचारधारा के प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये हैं: “यह पवित्र अग्नि, नीरव रात्रि और तरंगहीन सागर के समान महान् है। इस में प्रत्येक धार्मिक भावना, प्रत्येक महान कविचित्त में कभी न कभी उठनेवाले उदात्त नीतिशास्त्र के विभिन्न अंगों का समावेश है....इस ग्रंथ को अलग रख देने का कोई अर्थ नहीं है; यदि घने जंगलों में या पानी पर नाव में मैं अपने आत्मभाव में स्थिर रह सकूँ, तो प्रकृति मुझे तत्काल ब्राह्मण बना देगी : शाश्वत आवश्यकता, शाश्वत क्षतिपूर्ति, अगाध शक्ति, अटूट शान्ति..... यही उसका मार्ग है वह मुझ से कहती है कि शांति, पवित्रता और सम्पूर्ण त्याग वह त्रैलोक्य चिन्तामणि हैं जो सब पापों का परिमार्जन कर देते हैं और तुम्हें अष्टदेवों की परमगति प्रदान करते हैं।]

³ [दिव्य चक्षु या तृतीय नेत्र का स्थान मृत्यु के समय मनुष्य की चेतना साधारणतया इसी पवित्र स्थान की ओर आकृष्ट हो जाती है; मृतकों की आँखें ऊपर की ओर उठी होने का यही कारण है।]

⁴ [अहंतत्त्व या अहंकार (शब्दशः, मैं करता हूँ) ही मनुष्य और उसके स्रष्टा के बीच प्रतीत होनेवाले वियोग या द्वैतवाद का मूल कारण है। अहंकार मनुष्य को माया के अधीन कर देता है। जिसके कारण कर्म करनेवाला (अहंतत्त्व) ही कारण होने का आभास होता है और सृष्ट जीव अपने को ही स्रष्टा मानते हैं।

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तां मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्नन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥ ८॥ प्रलपन्विसृजन्गृहशुन्मिषन्निमिचन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ९ ॥
—श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५


तत्व को जाननेवाला, ईश्वर के साथ एक होने के कारण स्वयमेव अनुभव करता है कि “मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता” — जबकि वह देखता है, सुनता है, चलता है, सोता है, श्वास लेता है, बोलता है, अस्वीकार करता है, रखता है, आँखें खोलता और बन्द करता है क्योंकि वह समझ जाता है कि ये तो केवल इन्द्रियाँ हैं जो ( प्रकृति द्वारा कार्यान्वित होकर ) इन्द्रिय-विषयों में अपना-अपना काम कर रही हैं।

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ २९ ॥
— श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १३

जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममामया ॥ ६ ॥
— श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ४


मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥
—श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ७

यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परन्तु जो लोग केवल मुझ को ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को लॉघ जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।]