Shailendr Budhouliya ki Kavitayen - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

शैलेन्द्र बुधौलिया की कवितायेँ - 2

।।। दिल की बात ।।।     (5)

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जुवां पर आकर थम जाती है

कैसे कह दूँ  दिल की बात ।

कोई भी मरहम न दे सका

सभी से मिले मुझे आघात ।।

जुवां पर आकर थम जाती है

कैसे कह दूँ दिल की बात ।।

 

हंसी है पलभर की मेहमान

छलों का छाया घना वितान ।

गम के गीत सुनाता नित्य

दर्द के हैं लाखों एहसान ।।

हुआ है कोईबार यैसा भी,

संग संग जागा सारी रात ।

जुवां पर आकर थम जाती है

कैसे कह दूँ दिल की बात ।।

 

समझ न पाओ परिभाषा

न थी तुमसे यैसी आशा ।

नित्य गहराई नापा किया

घाट पर बैठ रहा प्यासा ।।

अधर पिहु पिहु न चिल्ला सके

निठुर घन ने न की बरसात ।

जुवां पर आकर थम जाती है

कैसे कह दूँ दिल की बात ।।

 

 

                   ।।। रत्नावली ।।।        (6)

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बड़े सुख चैन से रहता था जो अपने ही मंदर में

प्रिया से प्रेम था इतना न गहराई समंदर में ।

 

प्रिया भी पूजती थी नित्य पती को पुष्पहारों से

मगर कुछ खिन्न थी अपने पिया के इन विचारों से ।

 

था उनका ये कहना कि हमसे मत खफा होना

रहेंगे उम्रभर यूँ ही न एक पल को जुदा होना ।

 

कसम इन स्याह जुल्फों की न तुम बिन जी सकूंगा

जुदाई की तेरी जहरीली मय न मैं पी सकूंगा ।

 

एकदिन उसको लिवाने उसके वीरन आ गये

और अपनी लाड़ली को साथ ही लिवा गये ।

 

सोचती ही रह गई क्या मुझबिन जी सकेंगे वो

जुदाई का मेरी कड़वा जहर क्या पी सकेंगे वो ।

 

पिय जब प्रिय विरह की आग को न सह सका

बोल न पाया किसी से और कुछ न कह सका ।

 

इस तरह दिल में धधकता प्यार जब जलने लगा

और अरमानों का वो ताज जब छलने लगा ।

 

पिय तड़प उट्ठा तभी अपनी प्रिया के साथ को

प्रिय मिलन को चल पड़ा वह तब अंधेरी रात को ।

 

उस तरफ प्रिय भी न सोई थी विरह की रात में

नयन मूंदे खोई थी बानो पिया की याद में ।

 

जब उसे यह सुन पड़ा रत्नावली - रत्नावली

तो उसे यैसा लगा कि अब मैं कुछ कुछ सो चली ।

 

बंद थीं पलकें तो उनपर अश्क के मोती जड़े थे

आँख जो खोली तो उसके सामने प्रियतम खड़े थे ।

 

खो गई तब नींद मानो स्वप्न सारे उड़ गये

नयन जो खोले तो जाकर नयन ही से जुड़ गये ।

 

इस तरह प्रियतम का आना प्रिय को न अच्छा लगा

और अपना प्यार ही अपने को जब कच्चा लगा ।

 

कहने लगी पिय से वो तब धिक्कार है धिक्कार है

अस्थि चर्म मय देह से तुमको जो इतना प्यार है ।

 

तुम अगर इतना ही करते प्रेम राजाराम को

तो मुझे विश्वास है पा जाते उनके धाम को ।

 

जुट गये तब ही से लिखने राम के गुनगान को ।

धन्य है तुलसी तुझे तेरी प्रिया के ज्ञान को ।

 

 

 

 

 

 

          ।।। आधुनिक नारी ।।।          (7)

 

हम अजीब रूप में, गरीब के स्वरूप में ।

थे खड़े बजार में, डूबे कुछ विचार में ।।

और हम खड़े खड़े, बजार देखते रहे ।

सुन्दरी गुजर गई, श्रंगार देखते रहे ।।

 

बाल थे उड़े कि थी, घटा सी जैसे छा गई

पास मेरे आयी तो, बहार सी थी आ गई ।

जिसकी भी नजर पड़ी, नजर पड़े ही भा गई

और सब बजार में, वही वही थी छा गई ।।

गाल थे गुलाल से, ओंठ सुर्ख लाल से ।

जुल्फ की कटिंग भी थी, हुई बड़े कमाल से ।।

और हम रुके रुके, मोड़ पर दुके दुके ।

सुन्दरी के रूप का, खुमार देखते रहे ।।

सुन्दरी गुजर गई, श्रंगार देखते रहे ।।

 

आँख पर चड़ा हुआ, अजीब नील रंग था

पैर अर्धनग्न थे, कमीज बहुत तंग था ।

पर्स उनके हाथ था, कि श्वान उनके संग था

क्या अजब सी चाल थी, गजब का रूप रंग था ।।

भोंह थी बनी हुई, तीर सी तनी हुई ।

और आँख यैसी कै, नशे में हो सनी हुई ।।

हम भी कुछ अजान से, पान की दुकान से ।

सुन्दरी के मुंह लगी, सिगार देखते रहे ।।

सुन्दरी गुजर गई, श्रंगार देखते रहे ।।

 

।।। यादें ।।।           (8)

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अब न फिर आयेंगी यादें

             अब न तड़पायेंगी यादें ।

अब न सजेगीं चाँदनी रातें

            अब न होंगी प्यार की बातें ।।

अबतक थी मन में एक आश

                 आयेंगे वो हमारे पास

गुजरेंगे मेरी राहों से

                 लिपटेंगे मेरी वाहों से

हमको जीभर प्यार करेंगें

               साथ जियेंगे साथ मरेंगे

लेकिन मुझे हुआ यह ज्ञात

           कुछ दिन पहले की है बात

उनके घर परदेशी आया

            डोली भी अपने संग लाया

जिसके संग थे बहुत बराती

          वह था उनका जीवन साथी

उसके घर शहनाई बजी थी

       वह भी उस दिन बहुत सजी थी

पावों में माहुर था उसके

               हाथों में उसके मंहदी थी

फागुन मास दुफरिया को वो

           ओड़ के लाल चुनरिया को वो

सिसक सिसक कर अपने पिय संग                  चले…