Shailendr Budhouliya ki Kavitayen - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

शैलेन्द्र बुधौलिया की कवितायेँ - 4

       ।।। विदाई ।।।              (13)

 

जाना ही है तो जाओ ।

जो रुक ना सको तो जाओ ।।

नियति गमन है जाओ ।

पर शपथ मिलन की खाओ ।।

 

जाने से तुमको रोक सकूं मेरा क्या हक है

मिलन एक संयोग बिछुड़ना आवश्यक है

आज बिछुड़ने से पहले तुम गीत प्रीत के गाओ

जाना ही है तो जाओ .........

 

महक उठे घर आँगन सारा महके क्यारी क्यारी

पुलकित प्रांण पखेरू महकें महके हर फुलवारी

जहाँ रहो जैसे भी हो फूलों सी गंध लुटाओ

जाना ही है तो जाओ ..........

 

जाने फिर कब मिलें पुराने संगी साथी

किसकी कसको कहां कबमिले स्नेहिल पाती

आज बिछुड़ने से पहले तुम एकबार मुस्काओ

जाना ही है तो जाओ ...........

 

मगर आज मेरी है तुमसे हाथजोड़ फरियाद

कि भूले भटके कभी हमारी भी कर लेना याद

हमतो तुम्हें न भूल पायेंगे तुम चाहे विसराओ

जाना ही है तो जाओ ...........

 

अगर कभी मिल जाओ कहीं जीवन राहों में।

तो मुझे खींच भींच लेना अपनी वाहों में।।

 

पर हो सकता हो साथ तुम्हारे कुछ मजबूरी।

रखना चाहो जो मुझसे शारीरिक दूरी।।

 

तो चक्षु आवरण डार कमल कर जरा उठाना।

और अधर कंपित कर थोड़ा दे मुस्काना।।

 

मैं लोचन कर लुप्त नमन तुमको कर लूँगा।

और अतीत के संस्मरण से मन वर लूँगा।।

 

तब यादें नाच उठेंगी मेरे हृदयस्थल पर।

चित्रांकित हो यावेंगी इस दृष्टिपटल पर।।

 

हर नई याद मन खींचेगी ख़वाबी दलदल से।

हर चित्र धुलेगा स्मृति का मेरे दृग जल से।।

 

नयन सजल हो जायेंगे मन भर आयेगा।

हर पवन झकोरा गीत पुराने ही गायेगा।।

 

तब याद आयेगा जब तब का कक्षा में जाना।

और जब जाना तब न आने का नया बहाना।।

 

दृष्टिपिंड पर तभी किसी आकार ने आकर।

कुछ बोला तन पुलक उठा वह दर्शन पाकर।।

 

मन विस्मित यह मुझे देख क्यों मुस्काता है।

अरे हिल रहे हैं लब शायद कुछ गाता है ।।

 

तब अंतस से कुछ शब्द उमड़ कर आयेंगे।

मानो स्वयं तिवारी जी ही गायेंगे ।।

 

"कितनी खामोश हवा कितना अंधेरा।

लेकर दोमुहां सांप फिर आ गया सपेरा"।।

 

बाद उसी के चित्र दूसरा सामने आया।

दोखो तो यह मधुर कंठ से किसने गाया।।

 

यह तो कुछ रामायण जैसी बातें लगतीं।

क्या मानस विश्वास एकटक आँखें तकतीं।।

 

चित्र निमिष भर बाद न जाने कहाँ खो गया।

प्रकट वहां फिर तभी तीसरा चित्र हो गया ।।

 

और एकाएक पांडेय जी कुछ बोल उठेंगे।

तन मन में वाणी से अमृत घोल उठेंगे ।।

 

"अंधकार के साथ खुशी से

     संधिपत्र लिख दिये जिन्होंने

उन्हें सूर्य के संघर्षों का

       कोई क्या महत्व समझाये"

 

सभी दिमागी नसें दिखाकर करतब अपना।

चल चित्रों की तरह चलायेंगी वह सपना ।।

 

चित्र सभी के आयें जायें जैसे के तैसे।

मन अतीत के छबिगृह में बैठा हो जैसे ।।

 

अंधकूप में फिर कोई भूकंप आयेगा।

दृष्टि पटल भी चित्र विचित्र बनायेगा ।।

 

अरुणां नीलम का हार पहनकर आयेगी।

किरण भाल पर कुमकुम शोभा पायगी ।।

 

गीता वीणां में मींड़ लगा स्वर सम पर लाती।

और तभी दिखेगी कक्षा में रक्षा कुछ गाती ।।

 

हवा आई और कुछ कह गई कांनों में आकर।

यैसा लगा कह गयीं हों रक्षा खुद गाकर ।।

 

 "भूलें किसे और भुलाये कौन

            अब नये शिरे से याद आये कौन"

 

इतना कहकर वह विम्ब मौन।

फिर कौन अरे यह कौन कौन ।।

 

प्रतिभा दिखती तब दूर खड़ी

          चुपचाप अकेली मौन पिये ।

है जो असार सागर जैसा

                       गाम्भीर्य लिये ।।

 

रहती तो सबके साथ

         मगर कुछ छूटी से ।

दिखती तो सृंखलाबद्ध

          मगर कुछ टूटी से ।।

 

वैसे तो प्रतिभा आज सभी से रूठी है ।

जो यह प्रतिभा रूठी तो कौन अनूठी है।।

 

नाम याद एक और इसी श्रेणीं का आया

तभी दिमागी पट पर विम्ब विभा का छाया।

और मन मेरा यह बार बार कहकर चिल्लाया ।।

 

कि रत्नों की इस माला का रत्नेश कहां है ?

जहां विचरते ईश यहां वह देश कहां है ।।

 

आओ मेरे आराध्य तुम्हारा अभिनन्दन

आओ मेरे आराध्य तुम्हें शत शत वंदन

आओ मेरे आराध्य तुम्हारा यह किंचन

तुम पर वार रहा है अपना तन मन धन

 

बादल बरसे बिजली कड़की,  

भिर भी सूखा है सावन ।

मन तो रोया

लेकिन भीगे नहीं नयन ।।

 

हृदय गगन में मन यादों के बादल सा ।

उमड़ घुमड़ कर आता गाता पागल सा ।।

 

जल बर्षे तब बर्षा का आभास हो ।

आँखें रौयें तब जग को विश्वास हो ।।

 

लेकिन घन मजबूर बरस न पायेगा ।

वह तो केवल उमड़ घुमड़ मड़रायेगा ।।

 

।। चाहत ।।।               (14)

 

मेरी चाहत दर दर भटकी

और आ ठहरी तेरे द्वारे ।

अब निष्कर्ष तेरे हाथों में

चाहे प्यार करे दुत्कारे ।

मैंने देखे इसके अपने

चलन निराले थे ।

वह भी दिन गुजरे जब

सौ सौ चाहने बाले थे ।

पर इसको उन दीवानों से

कोई प्यार न था ।

सौदे बाजों से कोई

विनिमय व्यौहार न था ।

जब जब बाजारी बाजीगर

हमसे हाथ मिलाते।

छुप छुप कर रोती 

चाहत के आँसू भर भर आते ।

बर्षों इसने अपने गम को

मुझसे नहीं कहा ।

पागल दीवानी सी होकर

तन्हा दर्द सहा ।