Saint Samarth Guru Ramdas Swami in Hindi Biography by Renu books and stories PDF | सन्त समर्थ गुरु रामदास स्वामी

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सन्त समर्थ गुरु रामदास स्वामी

दोस्तों सन्त समर्थ गुरु रामदास स्वामी महाराष्ट्र ही नही अपितु पुरे भारत वर्ष में सनातन धर्म के सच्चे शिरोमणि कहलाते हैं। धर्म, समाज, राजनीति तथा मानवमात्र की सेवा के लिए उन्होंने जो कुछ किया, वह नि:सन्देह सभी के लिए प्रेरणास्पद रहेगा, किसी ने सच ही कहाँ है संत जन्म लेते ही हैं परमार्थ के लिए हैं।

मित्रों महाराष्ट्र के इन महान् सन्त स्वामी समर्थ गुरु रामदास बड़े महात्मा, साधु ही नहीं, अपितु विद्वान्, कवि, राजनीतिज्ञ और संगठनकर्ता भी थे तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक बुराइयों को दूर करने में, तथा सामान्य जनता के लिए सच्चाई का मार्ग प्रशस्त करने में उनकी महती भूमिका रही थी। हिन्दू धर्म के लिए किये गए उनके कार्य को आज भी कोई सच्चा सनातनी नकार नहीं सकता है।

समर्थ गुरु रामदास स्वामी छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु थे। और उन्हें महाराष्ट्र के अलावा पुरे भारत के संतो में महान संत के रूप में माना जाता हैं। समर्थ गुरु रामदास जी बचपन से ही राम भक्ति से जुड़ गए थे और 12 वर्ष की आयु से 24 वर्ष की आयु तक लगभग 12 सालो तक मर्यादा पुर्षोतम राम की तपस्या की। जिसके बाद उन्होंने शिवाजी के साम्राज्य में हिन्दू धर्मं में प्रचार-प्रसार किया।

दक्षिण भारत में इन्हें आज भी प्रत्यक्ष भगवान हनुमान का अवतार मानकर पूजा जाता हैं। इन्होंने कई पुस्तकों का लेखन किया था। समर्थ गुरु रामदास ने तीन ग्रंथो की रचना की थी, जिनके नाम इस प्रकार है– दासबोध, आत्माराम, मनोबोध। जिसमे से प्रमुख पुस्तक “दासबोध” हैं। जो कि मराठी भाषा में लिखी गयी थी। समर्थ गुरु रामदास के समाधी दिवस को “दास नवमी” के रूप में मनाया जाता हैं।

स्वामी समर्थ रामदासजी का जन्म हैदराबाद राज्य के मराठवाड़ा प्रदेश (वर्तमान संभाजी नगर महाराष्ट्र) में जांब नाम के एक कस्बे में चैत्र शुक्ल 9, {रामनवमी} के दिन अप्रैल 1608 में दोपहर बारह एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम सूर्याजीपंत ठोसर और माँ का नाम राणुबाई था समर्थ रामदास का असल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी था। उनके पिताजी सूर्य देव के उपासक थे और नगर पटवारी के रूप में गाँव में काम किया करते थे।

रामदासजी के पिता को सूर्यदेव ने 36 वर्षो तक की उपासना के बाद प्रसन्न होकर स्वप्न में वरदान दिया कि तुम्हारे दो तेजस्वी पुत्र होंगे। आगे चलकर उनके दो पुत्र हुए। बढ़े गंगाधर और छोटे नारायण। यही नारायण आगे चलकर समर्थ रामदास के नाम से मशहूर हुए।

समर्थ रामदासजी की बाल्यावस्था से ही स्मरणशक्ति अत्यन्त तेज थी। सामान्य बच्चों की तरह उन्हें खेलना-कूदना भाता था। बाल्यावस्था में पिता सूर्याजी का देहावसान हुआ, तो माता राणुबाई ने अपने दोनों पुत्रो को पढ़ाया-लिखाया, रामदासजी के बड़े भाई गंगाधरपंत ईश्वर के परम भक्त थे। उनके पास जो गुरु मंत्र था, रामदास जी ने जब उसकी मांग की, तो उन्होंने बड़े होने पर देने का वचन दिया। वचन पाने के बाद भी रामदास हठपूर्वक हनुमान मन्दिर में तपस्या करते बैठ गये। कहा जाता है कि 1673 की श्रावण शुक्ल अष्टमी को भगवान् राम हनुमान के साथ प्रकट हुए थे।

12 साल की उम्र में समर्थ रामदास (नारायण) के माता-पिता उनका विवाह करा देना चाहते थे लेकिन वह इस विवाह से बिलकुल भी खुश नहीं थे। वह जानते थे कि उन्हें कहाँ जाना हैं। विवाह के दिन वह मंडप से भाग गए। जिसके बाद वह कभी भी घर वापस नहीं गए। घर से भागकर 11 दिन की यात्रा में नासिक, पंचवटी पहुंचे और वहां महाराष्ट्र के नासिक के पास टाकली ग्राम के पास एक गुफा में रहने लगे। गोदावरी नदी के बहते जल में सुबह-शाम गायत्री तथा राम नाम का जप घण्टों खड़े रहकर करते थे। टाकली नामक स्थान को उन्होंने अपना तपोस्थान चुना और 12 वर्षों तक मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम की पूजा अर्चना में लगे रहे। उस समय वह खुद को राम का दास बताते थे इसी कारण उनका नाम “रामदास” पड़ गया।


रामदासजी को भिक्षा से जो कुछ प्राप्त होता, पहले तो भगवान राम की मूर्ति को भोग लगाते। उसके पश्चात् ही खुद भोजन करते थे। यहीं पर उन्होंने नासिक के ब्राह्मणों से वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत का विधिवत ज्ञान प्राप्त किया। इस तरह 12 वर्ष तपस्या में व्यतीत करते हुए कई ग्रन्धों की रचना की थी।

दोस्तों कहाँ जाता है, एक दिन रामदास जी गोदावरी नदी में खड़े होकर जाप कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मणी विधवा सती होने से पूर्व नदी में स्नान करने चली थी। उसने रामदास को देखकर प्रणाम किया, रामदास जी ने बिना देखे ही उसे “अष्टपुत्रवती सौभाग्यवती भव” होने का आशीर्वाद दिया। उसने रोते-रोते संत को उधर शव की और देखने का संकेत किया। संत ने पास ही बह रही गोदावरी नदी से चुलू भर पानी लिया और ईश्वर से प्रार्थना करते हुई वह जल शव पर झिड़क दिया। मुर्दे ब्राह्मण मे जान आ गयी और ब्राह्मण जी उठ गये। समर्थ गुरु रामदास जी ने अपना समस्त जीवन राष्ट्र को अर्पित कर दिया था। ब्राह्मण दम्पती ने अपने पहले पुत्र को समर्थ रामदास के चरणों में समर्पित कर दिया जो आगे चलकर रामदास का प्रिय शिष्य उद्धव गोस्वामी के नाम से विख्यात हुआ। समर्थ रामदास जी ने अब रामजी की आज्ञानुसार धर्म और समाज के कल्याण की राह पकड़ ली। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण करने का विचार किया। सर्वप्रथम टाकली में हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना कर वहां उद्धव गोस्वामी को नियुक्त किया था।

छत्रपति शिवाजी महाराज की सहायता से हिन्दू स्वराज्य की स्थापना का संकल्प पूरा करने हेतु वे वहीं रह गये। शिवाजी उनके प्रिय शिष्यों में से एक थे। छत्रपति शिवाजी को कई बार उन्होंने अपनी चमत्कारिक शक्ति से मुगलों के अत्याचारों से बचाया था। उन्होंने छत्रपति शिवाजी को एक अहंकारहीन राष्ट्रभक्त मानव बनाने के साथ-साथ उनमें श्रेष्ठ चारित्रिक गुणों का विकास किया।

शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद उन्होंने उनके पुत्र संभाजी महाराज को सही मार्ग पर चलने की सलाह दी थी। अपने पीछे शिष्यों की बहुत बड़ी संख्या छोड़ने वाले इस सन्त ने महाराष्ट्र में एक नया जोश उत्पन्न किया। के उनके काल में हनुमान जयन्ती जैसे उत्सवों ने लोगो में धार्मिक जागति का सूत्रपात किया।

जब समर्थ गुरु रामदास को 12 वर्ष तक कठिन तपस्या करने के बाद भगवान राम के साक्षात दर्शन हुए तब उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ। तब उनकी आयु मात्र 24 वर्ष थी। जिसके बाद वह अगले बारह वर्ष के लिए भारत भ्रमण की यात्रा पर निकल पड़े। भारत भ्रमण के दौरान समर्थ गुरु रामदास की भेट सिखों के चौथे गुरु हरगोविन्द जी से श्रीनगर में होती हैं गुरु हरगोविन्दजी उनको मुग़ल साम्राज्य में हो रही लोगों की दुर्दशा के बारे में बताते हैं मुस्लिम शासकों के अत्याचार, आम जान की आर्थिक स्थिति को देखकर समर्थ रामदास का मन पसीज उठा। जिसके बाद समर्थ गुरु रामदास जी ने अपने जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति से बदलकर स्वराज्य स्थापना कर लिया। जिसके बाद वह पूरे भारतवर्ष में जनता को संगठित होकर शासकों के अत्याचार से मुक्ति प्राप्त करने के उपदेश देने लगे। उनके इसी उद्देश्य प्राप्ति के दौरान उनकी मुलाकात छत्रपति शिवाजी से हुई। छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदास जी के गुणों से बेहद प्रभावित हुए और उन्हें गुरु मानकर अपना पूरा मराठा राज्य दान कर दिया था। समर्थ रामदास शिवाजी से कहते हैं “यह राज्य न तुम्हारा हैं न ही मेरा, यह राज्य श्री राम का हैं, हम सिर्फ न्यासी हैं।”

सारे देश में उनके शिष्यों और अनुयायियों का जाल फैल गया। शिवाजी महाराज को परेशान करने वाला औरंगजेब तथा उसके अत्याचार से मुक्ति का संकल्प उन्होंने लिया। अत: महाराज शिवाजी की शिक्षा-दीक्षा का भार उन्होंने अपने कन्धों पर लिया था।

दोस्तों समर्थ गुरु रामदास जी ने भारत भर्मण के दौरान कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कुल 1100 मठ और अखाड़ों की स्थापना की। जिसमे लोगों को खुद को सशक्त कर जुर्म और अत्याचार से बचने की शिक्षा दी जाती थी। 12 वर्षो के भ्रमणकाल में समर्थ रामदास काशी (वाराणसी), प्रयागराज, अयोध्या, मथुरा, वृन्दावन, द्वारिका, बद्रीनाथ, केदारनाथ, श्रीनगर, मानसरोवर, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, श्री लंका, महाबलेश्वर, पैठण, पंढरपुर तक भर्मण और मठ और अखाड़ों की स्थापना की। हर स्थान पर रामचन्द्रजी तथा हनुमानजी की मूर्ति स्थापित कर किसी धार्मिक व्यक्ति को उसके प्रबन्ध हेतु रखा। रामदास जी इस अतुल्य योगदान के लिए हर सनातनी को ऋणी कर गए।

समर्थ गुरु रामदास जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण मराठा साम्राज्य के सातारा के पास परली के किले में बिताये। इस किले को अब सज्जनगढ़ के किले के नाम से भी जाना जाता हैं। तमिलनाडु के एक अंध कारीगर अरणिकर के हाथो से निर्मित भगवान श्री राम जी, और माता सीता जी और लक्ष्मण जी की मूर्तियों के सामने ही समर्थ गुरु रामदास जी ने पांच दिन का निर्जला उपवास किया और पूर्व सूचना देकर सन 1682 की माघ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को ब्रह्मसमाधी में लीन हो गए। समाधी के समय उनकी आयु 73 वर्ष थी। ब्रह्मसमाधी के स्थान पर आज भी सज्जनगढ़ में उनकी समाधी स्थित हैं। उनके निर्वाण दिवस को दास नवमी के रूप में मनाया जाता हैं। हर वर्ष इस दिन लाखों श्रद्धालु भारत के कोने-कोने से यहाँ पहुँचते हैं और इनकी पवित्र समाधी के दर्शन करते हैं। 🙇