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ओरछा-अध्यात्म व इतिहास की यात्रा

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"अध्यात्म एवं इतिहास में विचरण करती एक यात्रा"
उम्र के किसी मौसम में कभी-कभी यादों के पलों के ऐसे तेज झोंके आते हैं कि बीते हुए दिनों की किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। एक लंबे समय का इतिहास समेटे यह पन्ने अनुभवों की ऐसी लिखावट होते हैं कि उन्हें पढ़कर मन पुलक उठता है। छात्र अवस्था से अधिक निश्चिन्त सुखद और उमंग भरा समय शायद ही कोई और होता हो, फिर छात्र अवस्था भी ऐसी जिसमें किताबों के अलावा सारी आंतरिकता मित्रों से अभिव्यक्त होती हो । कुछ ऐसे ही पन्ने खुल गए और मैं जा बैठा एम. ए. हिंदी की कक्षा में । उस समय की कक्षाओं की कल्पना भी आज नहीं की जा सकती उस पर यह अद्भुत संयोग की संख्या की दृष्टि से भरी पूरी उस कक्षा में हम सभी छात्र-छात्राओं में परस्पर मित्रता का ऐसा व्यवहार कि किसी का भी कुछ गोपनीय नहीं ।
प्रसंग बना एक यात्रा का, गंतव्य चुना गया इतिहास और भक्ति का प्रख्यात स्थल ओरछा । उस दिन साथ ले जाने वाले भोजन की तैयारी में सभी के रसोई घर भोर के पहले पहर से ही हलचल मचाने लगे, डिब्बों में खाना नहीं बल्कि अनेक स्वादों की खुशियां भरी हुई थी । मुक्ति में स्वच्छंद क्रियाओं के ढक्कन खुल खुल जा रहे थे । दिनांक 23 जनवरी 1981 को सुबह 6:00 बजे दतिया टीकमगढ़ बस द्वारा ओरछा जाने का प्रोग्राम विभाग प्रमुख प्रो. डॉक्टर पी.सी.तिवारी ने पूर्व से ही कक्षा में सभी को बता दिया था । मैं दिनांक 23 जनवरी को सुबह 5:00 बजे तैयार होकर बस स्टैंड की ओर चल पड़ा । आसमान में बादल छाए हुए थे तथा बादलों की वजह से ठंड कुछ कम थी, मैं चौराहे पर पहुंचा तो महंत दशरथी दास के मंदिर की नुक्कड़ पर मुझे प्रो. डॉक्टर रत्नेश तथा हमारे सहपाठी शमशेर अली, अमृत शर्मा, राजेन्द्र तिवारी तथा बेड़िया आदि कक्षा के कुछ छात्र नजर आये । डॉ. रत्नेश ने बताया कि प्रो. पी.सी. तिवारी एवं डॉ. मानस विश्वास बस स्टेंड पर पहुंच चुके हैं । हम बातें ही कर रहे थे कि एक तांगा जो शहर की ओर से आ रहा था, चौराहे पर आकर रुका जिसमें कुछ छात्राएं थीं । कुछ छात्र उन्हें तांगे तक लेने चले गए मैं उस समय नेता के होटल पर चाय पी रहा था सुबह 6:35 बजे बस चौराहे पर आ गई तभी एक तांगा और आया जिसमें कुछ छात्राएं ही आईं कुछ छात्र भी एक-दो करके और आए, और इस समय प्रोफेसर डॉक्टर के.बी.एल. पांडे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठकर वहां आ गए जिसे निलय गोस्वामी चला रहे थे । अब 6 बजकर 40 मिनट हो चुके थे, बस ड्राइवर अली अपनी सीट पर जा बैठे बस चलने लगी और हम लोगों की आंखें किरण और सिद्धिदात्री की प्रतीक्षा में अपलक थीं । बस चलने लगी और वह नहीं आयीं तो प्रोफेसर तिवारी ने पीछे आने वाली बस वाले से कहा कि वह दो छात्राएं अगर आ जाएं तो उन्हें झांसी तक ले आना हम तुम्हारी बस का झांसी में इंतजार करेंगे । बस चल पड़ी तो सभी अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए मैं अली के पास बस के बोनट पर जा बैठा तभी अमृत शर्मा हमारे पास आए और वह भी बस के बोनट पर बैठ गए अली ने अमृत से शंकर जी की मूर्ति पर अगरबत्ती लगाने को कहा और अमृत ने अगरबत्ती जलाकर भगवान शंकर के सामने लगा दी उसके बाद सभी लोग अपनी अपनी बातों में मस्त हो गए । कहीं से किसी की मुस्कुराहट दिखाई देती तो कहीं से किसी के खिल खिलाने की आवाज सुनाई दे जाती मगर जैसे ही छात्र-छात्राओं की बातों का शोर कम होता तो उसी समय अस्फुटित से शब्दों में प्रोफेसर डॉक्टर मानस विश्वास के गुनगुनाने की आहट सुनाई दे जाती । इस तरह हंसते खेलते माहौल में झांसी का इलाईट चौराहा आ गया बस के रुकते ही कुछ लोगों की आंखें इलाईट टॉकीज के पोस्टरों तथा कुछ एक की निगाहें अन्य टॉकीजों के लगे इश्तहारों को खोजने लगीं बस कुछ देर रुक कर वहां से आगे बढ़ गई और बस स्टैंड पर जाकर खड़ी हो गई ।
बस के खाली हो जाने के बाद हम लोग बस से उतरे और खुली हवा का आनंद लेने लगे तभी डॉक्टर पी.सी. तिवारी ने मेरे पास आकर कहा कि इन लड़कियों को चाय वगैरा पीने जाना हो तो जा सकती हैं, उसके बाद मैं और मेरे साथ कुछ छात्र और छात्राएं झांसी बस स्टैंड पर स्थित तिवारी के होटल की ओर बढ़ गए और वहां जाकर चाय पी । हम चाय ही पी रहे थे कि किसी ने मेरी तरफ एक कागज का बड़ा सा लिफाफा बढ़ा दिया देखने पर पता चला कि उसमें अंदर समोसे और कचौड़ियां हैं देने वाली की निगाहों से प्रतीत हो रहा था कि वह मुझे उनमें से समोसे उठा लेने का आग्रह कर रहा है मैंने उसमें से एक कचौड़ी उठा ली और खाने लगा वहां हमारे साथ कोई प्रोफेसर नहीं था यह सब लोग सड़क पर ही रह गए थे अतः बचे हुए समोसे रहे हुए लोगों के लिए रख लिए गए । जब मैं और मेरे सभी साथी चाय पीकर बाहर आए तो पांडे जी और रत्नेश जी सामने वाले ठेले पर कुछ खा रहे थे मैंने वहीं से उन्हें देखा उन्होंने भी मुझे देखा और मुस्कुरा दिए थोड़ी देर बाद वह भी बस के नजदीक आ गए बस वहां काफी देर तक खड़ी रही मैं सड़क पर ही था कि सामने से अमृत मूली लिए हुए आता दिखाई दिया शायद खरीद कर लाया था डॉक्टर रत्नेश ने भी केले खरीद लिए थे और लाकर बस में वहां रख दिए जहां डॉक्टर विश्वास एवं प्रोफेसर पी.सी. तिवारी बैठे थे कुछ छात्राएं सड़क पर उस और घूमने निकल गयीं जहां झांसी से समथर की ओर जाने वाली बसें खड़ी होती हैं । गाड़ी के जाने का समय हो चुका था अतः चालक अली अपनी सीट पर जा बैठा बस चलने लगी तभी अमृत ने छात्राओं को बुलाया वह सब बस में अपनी-अपनी सीट पर आकर बैठ गईं अब बस में पहले से अधिक भीड़ थी उस समय सुबह के 8:10 होने को थे धूप निकलने का समय हो चुका था परंतु आसमान बादलों से घेरा हुआ था और हर पल ऐसा लगता था कि बस अब बरसात होने ही वाली है परंतु पानी बरसना नहीं चाहता था और ना ही वह बर्षा । जब सब बस में बैठ चुके तब मैं बस में चढ़ा और बस के बोनट पर जा बैठा,, अली ने आंखों के इसारे से चलने की बात पूछी और मैंने आंखें बंद करके उसे चलने का इशारा किया बस आगे चल पड़ी अभी बस झोकन बाग के मोड़ पर ही आई थी कि दतिया से आने वाली बस के ड्राइवर ने हमारी बस को रोका अली ने बस रोक दी मैंने बस से उतरकर दतिया से आने वाली बस में किरण कटारे और सिद्धीदात्री को देखा परंतु वहां मुझे निराशा ही हाथ लगी क्योंकि आने वाली सवारी कोई और थी । मैं बस में आ गया और बस आगे बढ़ गई तभी मुझे गोस्वामी जी के गुनगुनाने की आवाज सुनाई थी मैं बोनट पर आंखें बंद किये उनकी स्वर लहरियों में डूबता चला जा रहा था कि तभी किसी की हंसी ने मेरी तंद्रा भंग कर दी शायद किसी छात्रा की खिलखिलाहट थी वह मेरी बगल वाली सीट पर बैठीं आपस में किसी हास्य प्रसंग पर चर्चा कर रहीं थीं । उनकी सीट पर झांसी से कोई अपरिचित महिला आ बैठी थी जो अपने सॉल के अंदर माला लिए हुए जाप कर रही थी । उसे इन लोगों की बातों से तो तकलीफ हो ही रही थी मगर उसकी तकलीफ उसे समय असहनीय सी जान पड़ी जब कुछ छात्राओं ने अपनी खिड़कियों के शीशे खोल लिए उस महिला ने सॉल से अपने कानों को अच्छी तरह ढका और साहमी सी सीट के नुक्कड़ पर बैठकर माला फेरने लगी । बस में अपने-अपने गुटों में बैठे लोग अलग-अलग प्रसंगों पर चर्चा कर रहे थे कि तभी अमृत ने गोस्वामी जी की निगाहें बचा कर आगे रखे केले उठा लिए और उन्हें खाते-खाते हम लोग ओरछा में प्रवेश कर गए ।
बस से उतरते समय सभी के चेहरों पर मुस्कुराहट थी ओरछा पहुंचने पर डॉक्टर तिवारी ने सभी के समान का निरीक्षण किया और उसे पास ही में बने पशु औषधालय में रखवा दिया तदोपरांत सभी सदस्यों की गिनती कर इकट्ठे होकर हम सभी बेतवा नदी की ओर चल पड़े कुछ दूर चलने के बाद ही बेतवा का स्वच्छ जल दिखाई देने लगा बेतवा नदी के पास आते ही इतिहास के कुछ पन्ने स्मृति की जिल्द में से निकलकर पड़े जाने का आग्रह करने लगे, सैकड़ो वर्ष पहले बुंदेलों ने गड़कुंडार छोड़कर ओरछा में राजधानी स्थापित की थी । सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से तुंगारण्य के गहन वन प्रांतर में इस नगर को बसाया था, जिसे दूसरी ओर से बेतवा अगम्य बनाती है । इस जल राशि के बीच में किसने की होगी श्याम वर्ण शिवलिंग की स्थापना जिसका निरंतर अभिषेक नदी का पानी करता रहता है । ओरछा के दुर्ग को छूती हुई बेतवा मानो उस नगर को अभय वरदान देती है । उस घाट की तरफ भी हम लोगों की दृष्टि गई जिसे कंचना घाट कहा जाता है, और इसके बारे में यह मान्यता है कि वहां राज परिवार की महिलाएं स्वर्ण आभूषणों सहित स्नान करती थीं, तो जाने कितना सोना पानी की धार में मिलता होगा । सभी लोगों ने नदी में उतरकर हाथ पैर धोए पर अमृत शर्मा का ग्रामीण मन इतनी जल राशि को देखकर काबू में ना रहा और धार के साथ तैरता हुआ उसका शरीर खिलौने करने लगा पानी के तेज बहाव में उन्हें कुछ दूर तक वहता जाता देख कुछ देर के लिए सभी चिंतित हो गए मगर उन्हें सही जगह पर पहुंचते देख सभी ने मन में संतोष की सांस ली । नहाने के पश्चात सभी लोग ओरछा के रामराजा मंदिर की ओर चल पड़े गोस्वामी जी तब भी कुछ गुनगुना रहे थे।
सड़क के सामने ही एक विशाल दरवाजा जिसे पार करने के बाद सामने से ही राम राजा के मंदिर की बाहरी शोभा दृष्टिगोचर होती थी, बड़े दरवाजे से लेकर मंदिर के द्वार तक हल्की मोड़ लिए सड़क, सड़क के दोनों तरफ बैठीं मालिनें, फूलों से भरी डालियां और मालायें तथा कुछ मिठाई वाले । प्रोफेसरों छात्र-छात्राओं ने फूल मलायें प्रसाद आदि लिया और हम सभी भगवान रामराजा के मंदिर में प्रविष्ट हो गए ।
रामराजा की मूर्ति महाराज मधुकर शाह की धर्मपत्नी रानी गणेश कुँवर संवत 1631 में अयोध्या से लाई थीं, वह राम की उपासक थीं ।
कहा जाता है कि महाराज मधुकर शाह ने रानी गणेश कुंवर से कहा कि यदि तुम्हारी राम के प्रति इतनी ही भक्ति है तो स्वयं अयोध्या जाकर राम को ओरछा ले आओ । कहते हैं रानी अयोध्या गयीं और सरयू में स्नान करते समय भगवान श्री राम की मूर्ति उनकी गोद में आ गई । यह भी माना जाता है की रानी को मन में इस आदेश का आभास हुआ कि श्रीराम कह रहे हैं कि मैं केवल पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करूंगा, ओरछा का राजा अब मुझे माना जाएगा और ओरछा में जहां मेरी मूर्ति रख दी जावेगी वहां से मैं नहीं हटूंगा । आज भी ओरछा के राजा राम ही माने जाते हैं ।
मंदिर का विशाल चौक पार करने के बाद भगवान श्री राम-जानकी का मन मोहित कर लेने वाला विग्रह सामने था, मूर्तियों का कलात्मक स्वरूप देवत्व की प्रतीति दे रहा था, वास्तविक अमूल्य स्वर्ण आभूषण विग्रह को सजीवता प्रदान कर रहे थे ।
यह मंदिर पहले नौ चौका था जिसे महाराज भारतीचंद ने संवत 1589 में बनवाया था । मंदिर वाले चौक में मधुकर शाह स्वयं रहा करते थे । मंदिर का भीतरी आकर भी महलों जैसा ही है । अतः उसे बाद में बाहर से मंदिर का रूप दिया गया । भगवान श्री राम जानकी के अनुपम सौम्य एवं असीम सौंदर्य युक्त विग्रह के दर्शन से अपने चक्षु तृप्त करने के बाद में आगे बढ़ गया, कुछ लोगों ने राम राजा को प्रसाद चढ़ाया, पुष्प मालायें पुजारी जी के हाथों अर्पित कीं । डॉक्टर रत्नेश एक छोटी सी पुस्तक लेकर बड़ी देर तक भगवान राम राजा के सामने बैठकर पाठ करते रहे । वहां से आगे चलकर मंदिर के ही चौक में दाहिने हाथ की तरफ एक और छोटा सा मंदिर है जिसमें जगत जननी जगदंबा, भैरव जी तथा भगवान शंकर के कई रूपों की काले रंग की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं , जिनकी सुंदरता को देखकर मन उन मूर्तियों का निर्माण करने वाले शिल्पी की तारीफ करने को विवश हो जाता है । सभी लोग मंदिर के चौक में खड़े होकर उसकी विशालता से स्तब्ध होते रहे, लग रहा था जैसे अध्यात्म और कला के अपार महासागर में हम सब निश्चेष्ट भाव से आत्मविस्मृत हो गए थे ।
कुछ देर बाद हम सभी बाहर की तरफ चल पड़े रास्ते में बैठे भिखारियों को डॉक्टर रत्नेश ने पैसे बांटे और बाहर आकर सभी ने एक दूसरे को प्रसाद दिया । अमृत का खिलन्दड़ और चालक मन मुस्करा रहा था और उसने अपना प्रसाद नहीं बांटा । प्रसाद खाते हुए सभी लोग भगवान चतुर्भुज के मंदिर की ओर चल पड़े । चतुर्भुज राय का मंदिर जिसका गगनचुंबी शिखर मीलों दूर से दिखाई देता है, जिसकी दीवालों पर प्राचीन शिल्पकारों द्वारा की गई कारीगरी को देखकर ही उसकी महानता, भव्यता एवं विशालता को समझा या अनुमाना जा सकता है, सुनकर या पढ़कर नहीं । चतुर्भुज मंदिर से बाहर निकालने के बाद भूख चोरी की प्रेरणा दे रही थी और इस पवित्र कार्य में डॉक्टर रत्नेश और मैं यानी गुरु और शिष्य एक साथ प्रवृत्त हुए, और मैंने व डॉक्टर रत्नेश जी ने किसी के टिफिन से निकालकर दो पूणियां टिफिन के ही दूसरे खंड में रखी आलू मटर की सब्जी के साथ खालीं और मुंह पर हाथ फेरते हुए हम लोग नीचे आ गए जहां इकट्ठे होकर सब लोग आगे जाने का कार्यक्रम बना रहे थे । तभी किरण व सिद्धीदात्री तिवारी दतिया से 8:00 बजे चलने वाली दतिया टीकमगढ़ बस द्वारा ओरछा पहुंच गई, उन्हें आता देखकर कुछ छात्राएं उनकी तरफ बड़ी और दौड़कर उन्हें पकड़ लिया । वह दोनों भी अपने को सभी के बीच पाकर काफी प्रसन्न हुई और फिर हम सभी वहां से आगे की ओर चल पड़े आगे से गोस्वामी जी के गुनगुनाने की आवाज अभी भी मेरे कानों तक आ रही थी, और पीछे से सिद्धि द्वारा अमृत के थैले में रखे प्रसाद की छीना झपटी का शोर । रास्ते में सभी हंसते खेलते चल रहे थे सड़क पर बाएं हाथ की ओर मुड़ने पर बिल्कुल जीर्णावस्था वाला एक मकान जिसमें हम सभी भीतर प्रवेश कर गए अंदर दीवारों पर लगी घास तथा भीतर के कमरों की स्थिति से स्पष्ट हो रहा था कि अब वहां किसी का निवास नहीं है और न ही वर्षों से इसे साफ किया गया है । बाहर निकलकर डॉक्टर रत्नेश जो हम लोगों को गाइड कर रहे थे उन्होंने बताया कि यह वही भवन है इसमें महाराज रामशाह के समय में महाकवि केशव रहा करते थे। बाहर निकाल कर हम आसपास उस कुएं की खोज करने लगे जहां रूपवती नव युवतियों ने केशव को आदर के साथ बाबा कह दिया होगा, और केशव ग्लानी से भरकर का उठे होंगे -
"केशव केसन अस करी, जस हरि हूं ना कराहि।
चंद्र बदनि मृग लोचनी, बाबा कहि-कहि जाहि।।"
आगे चलकर हम सभी लक्ष्मी नारायण के मंदिर में पहुंच गए, वहां भगवत दर्शनों से लोचन लाभ लेने के बाद सभी लोगों ने वहां के गर्भ गृह की दीवालों पर बनी चित्रकला देखी, जिसमें चित्रित व
बेल बूटों की प्रतिकृति बनारसी साड़ियों के निर्माता ले जाते थे । दीवालों पर अंकित राम रावण युद्ध, महाभारत तथा उसके बाद मुगलों के समय का इतिहास और अंत में भारत में अंग्रेजी काल में घटी घटनाओं को चित्रों द्वारा व्यक्त किया गया था । डॉक्टर रत्नेश ने सभी को उन चित्रों के काल और समय के बारे में समझा कर बताया । मैं जब मंदिर से बाहर निकाला तो गोस्वामी जी अकेले में आंखें बंद किए सस्वर किन्हीं शब्दों का उच्चारण कर रहे थे जिसके अंतिम बोल मुझे स्पष्ट सुनाई पड़े "ओस कन जैसे" । सभी लोग मंदिर से बाहर आए तो कुछ छात्राएं बेबी राजा, सिद्धिदात्रि, सलमा आदि मंदिर के ऊपरी भाग में घूमने चली गयीं मैं उन्हें लेने चला गया और ऊपरी भाग जहां से झांसी का किला दिखाई देता है को देखने के बाद जब हम नीचे आए तो सभी लोग वहां से जा चुके थे छात्रायों ने तेज कदमों से चलकर सभी का साथ पकड़ा । मैं धीरे-धीरे चल रहा था कि रास्ते में मुझे एक पेड़ के नीचे रामस्वरूप साहू तथा शमशेर अली किसी के टिफिन में से चोरी-चोरी कुछ खाते दिखे हमारे आ जाने की वजह से उन्हें इतनी सी तकलीफ हुई की चोरी के माल में से एक तिली का लड्डू मुझे भी देना पड़ा, बाद में मालूम हुआ कि यह टिफिन अरुणा गुप्ता का था ।
लड्डू खाते हुए हम लोग आगे बढ़े तो सभी लोग एक बगीचे में दिखाई दिए वहां हरदेवा - हरदौल का चबूतरा था उसी बगीचे में उनका सभा भवन था तथा वह तथाकथित प्याला भी था जिसमें हरदौल ने भाभी द्वारा दी गई बिषाक्त खीर खाई थी । यह किस्सा विक्रमी संवत 1687 का है, जब मुगलों के दुराचारों से असंतुष्ट होकर हरदौल ने बगावत कर दी तथा ओरछा के जहांगीर महल से बादशाह के संबन्धियों को मार भगाया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें भाभी के हाथों जहर खाना पड़ा जो बादशाह की ही साजिश थी हरदौल अपने और अपनी भाभी के माथे से कलंक का टीका मिटाकर सदा सदा के लिए चिर निद्रा में सो गए, तभी से बुंदेलखंड वासी उन्हें देवता मानने लगे । बगीचे के बाहर दाएं तरफ दो बड़े-बड़े खंबे दिखाई दिए जो सावन भादो के नाम से जाने जाते हैं, जिनके बारे में कहीं जाने वाली लोक कथा के कोई तथ्य नहीं मिलते, कहा जाता है कि यह दोनों भाई भाई थे जो पत्नियों के डर से अलग-अलग रहते थे और आपस में चोरी चोरी मिला करते थे । अतः लोगों से आज भी यह बात सुनी जाती है कि सावन के महीने में यह दोनों खंबे आपस में मिल जाते हैं, वैसे यह कहानी निराधार एवं असत्य प्रतीत होती है क्योंकि उन्हें आपस में मिलते हुए आज तक किसी ने नहीं देखा । उसके बाद उन्ही मालिनों, मिठाई वालों और फूलों की डलियों से भरी हुई घुमावदार सड़क से होते हुए हम लोग उस विशाल द्वार के बाहर आ गए, जिसमें राम राजा की मंदिर की तरफ जाने के लिए पूर्व में प्रवेश किया था । मैं पांडे जी के साथ उनसे किसी मंदिर के विषय में जानकारी प्राप्त कर रहा था कि दरवाजे के बाहर बने एक छोटे से होटल की गद्दी पर बैठे किसी अपरिचित व्यक्ति ने पांडे जी को प्रणाम किया और अपने पास बुलाकर बात की फिर चाय पीने का आग्रह करने लगा पांडे जी के चाय के मना करने पर उसने उन्हें तंबाखू खिलाई तंबाखू खाने के बाद पांडे जी वहां से चल दिए मैं फिर इस जानकारी की साध अपने मन में लिए उनके साथ हो लिया और मैं प्रश्न करना ही चाहता था कि फिर कुछ लोगों ने पांडे जी को बुला लिया वह उन लोगों के पास जा बैठे तो मैं अतृप्त जिज्ञासा लिए वहां चला आया जहां पर पशु औषधालय में रखे अपने-अपने सामान को उठाकर सभी छात्र जहांगीर महल की ओर जाने को तैयार खड़े थे । कुछ छात्र किसी खाद्य पदार्थ की खरीददारी सड़क की मोड पर बैठी एक महिला से कर रहे थे तो कुछ छात्र एवं छात्रायें उसी राज पथ पर आगे चलकर बने, एक छोटे से ब्रिज पर खड़े थे और उनमे से कुछ छात्र वहीं खड़े खड़े केले खा रहे थे । कुछ समय बाद वहां से सभी जहांगीर महल की ओर चल पड़े रास्ते में बने ब्रिज पर कुछ अपरिचित महिलाएं जो नवयोवना थीं उन्हें देखने के बाद हमारे साथ-साथ चल रहे छात्र छात्राओं में उन्हीं के संदर्भ में चर्चा होने लगी ऐसे ही बातें करते करते और हंसते-खेलते अभी पुल को पार ही किया था कि नीलम आरा खान ने जो किसी छात्र की डोलची लेकर चल रही थीं उसे छोड़ दी और वह डोलची अपने अंदर रखे खाने की टिफिन को साथ लेकर टन टन टन की आवाज करती दूर तक लुढ़कती चली गई नीलम ने उसे उठाया और डोलची वाले पर मन ही मन रोष प्रकट करते हुये डोलची अमृत शर्मा के हाथों में थमा दी। अमृत पहले ही बहुत सा सामान लिए हुए थे अतः यह डोलची लेने के बाद उन पर "मांगे कौ बैल मसक के जोतौ" वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी । हम लोगों ने जहांगीर महल के मुख्य द्वार में प्रवेश किया तो दाएं हाथ की तरफ सीढ़ियां चढ़ने के बाद कुछ मैदान जिसमें दाहिने हाथ की ही और खड़े थे डॉक्टर तिवारी, रत्नेश जी गोस्वामी जी तथा पांडे जी और कुछ छात्र-छात्राएं भी वहां पहुंचने पर डॉक्टर पांडे की निगाहें अमृत शर्मा पर पड़ी जो औरों के भजन से अपनी कमर दोहरी किए हुए खड़ा था । पांडे जी ने अपने शिष्यों को मीठे स्वर में डांटा और डोलची पुनः नीलम आरा खान के हाथों में आ गई । वही सब लोगों ने जहांगीर महल का सभा भवन देखा और महल की ओर अग्रसर हुए, दाहिनी तरफ लगभग 18 20 सीड़ियां चढ़ने के बाद दाएं हाथ की तरफ कुछ और सीढ़ियां पार करने के बाद पत्थरों के फर्श का एक बड़ा सा चौक जिसमें सामने की ओर दिखाई दे रही थी कुछ आड़ी सीढ़ियां, जिन पर से होते हुए जहांगीर महल में जाने का रास्ता तथा बाएं हाथ की तरफ बना जहांगीर महल का सबसे सुंदर भाग जिसे शीश महल के नाम से जाना जाता है जिसमें कभी रनवास हुआ करता था आजकल उसे शासन द्वारा बड़े शासकीय अफसरों उच्च स्तरीय राजनेताओं तथा संपन्न व्यक्तियों के ठहरने की व्यवस्था हेतु विश्रामगृह के काम में लिया जा रहा है । वहीं से खड़े होकर डॉक्टर पांडे ने हमें एक और इशारा किया जहां कभी अपने नूर और नृत्य से दिग्दिगांतरों में यश अर्जित करने वाली तथा केशव की शिष्या होने के नाते साहित्य में रुचि रखने वाली राज नर्तिकी राय प्रवीण निवास किया करती थी । उसे देखने के बाद सब लोग जहांगीर महल के भीतरी चौक में एकत्रित हुए वहां चौक के बीचों बीच बना एक छोटा सा पार्क जिसमें बीच में लगी घास तथा चारों तरफ लगे सुगंधित फूल देने वाले छोटे-छोटे पेड़ जिनमे फूल बहुत कम लगे थे । उनके पास ही चारों तरफ बनी पत्थर की ब्रेंच सभी प्रोफेसर उन ब्रेंचो पर जा बैठे । छात्रों ने अपने-अपने सामान को उन्हीं के पास रखा और महल की ऊपरी मंजिलों को घूमने चले गए, ऊपरी दीवालों पर बनी पुरानी तरह की बेलें कंगूरे तथा दीवालों पर लगे सरहीन पक्षियों के छोटे-छोटे बुत देखे । तथा होदों में बैठकर ठंडी-ठंडी हवा से अपने तन मन को लहलाकर हम नीचे आ गए । महल की ऊपरी बनावट कुछ-कुछ दतिया के पुराने महल जैसी ही थी ।
वीर सिंह देव ने संपूर्ण बुंदेलखंड का राजा बनने के बाद सम्वत् 1663 में इस महल का निर्माण कराया था । वीर सिंह देव के शासनकाल से ही ओरछा का अभ्युदय का युग प्रारंभ हुआ, उन्होंने ओरछा को (तत्कालीन मुगल शासक जहांगीर के नाम पर) जहांगीरपुर नाम दिया, तथा जहांगीर के ओरछा आगमन पर उनके स्वागत में जहांगीर महल का निर्माण करवाया था ।
धीरे-धीरे सभी चौक में आ गए और चौकीदार से सहमति लेने के बाद वहीं बैठकर खाना खाने की बात तै हो गई सभी ने अपने-अपने टिफिन खोले और खाने लगे । सभी खाते समय एक दूसरे के पास जाते तथा आपस में खाद्य वस्तुओं का विनिमय करते और इस तरह से अलग-अलग व्यंजनों के द्वारा अपनी स्वादेन्द्री को सुकून दे रहे थे । खाने के बाद सभी ने केले खाए और मैं जब केला भी खा चुका तो मेरी निगाहें उस तरफ गईं जहां रक्षा, नीलम आरा खान, बेबी राजा, सलमा, अरुणा, सिद्धि आदि बैठी थीं, उनमें से कुछ खा चुकी थी पर शुक्रवार का उपवास रखने वाली कुमारी रक्षा बुन्देला अभी भी उदरपूर्ती में व्यस्त थीं, उस दिन शुक्रवार ही था अतः मेरे यह पूछने पर की क्या दोनों समय का भोजन एक बार में ही कर डालने का विचार है, के जवाब में उन्होंने अपने धीरे-धीरे खाने का कारण बताया । खाना खाने के बाद बर्तन साफ कर तथा बचा हुआ भोजन चौकीदार को दे कर हम लोग वहां से चल दिए और बस स्टैंड पर आकर झांसी के लिए बस का इंतजार करने लगे लगभग 30 - 35 मिनट के अंतराल के बाद एक बस आई जो छतरपुर जा रही थी हम सब उसमें बैठकर तिगैला तक आ गए, वहां हम सभी बस से उतर कर सड़क पर खड़े ही हुए थे कि छतरपुर झांसी बस सामने से आती दिखाई दी जिसमें बैठकर हम सब झांसी के लिए रवाना हुए और सउल्लास झांसी आ गए । झांसी बस स्टैंड पर उतरने के उपरांत सभी लोगों ने इलाइट चौराहे की तरफ पैदल यात्रा शुरू कर दी, मैंने पास ही खड़े ठेले से बेर खरीदे और आपस में खाते हुए सभी के साथ इलाइट चौराहे तक आ गए । चौराहे पर आकर फिल्म देखने का प्रोग्राम बना और साथ ही साथ यह भी तय हुआ की कोई भी किसी भी थिएटर में जा सकता है परंतु उसे शाम 7:00 बजे तक इलाईट चौराहे पर उपस्थित होना होगा । तत्पश्चात् छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित होकर हम लोग अलग-अलग सिनेमा घरों की तरफ बढ़ गए । डॉक्टर पांडे जी ने फिल्म नहीं देखी उन्हें किसी कारण बस किसी अन्य जगह जाना था । डॉक्टर मानस विश्वास इंसाफ का तराजू देखना चाहते थे अतः उन्होंने और डॉक्टर पी.सी. तिवारी ने इंसाफ का तराजू नामक फिल्म देखी । मैं और मेरे साथ अरुणा, रक्षा, नीलम, सलमा, बेबी राजा, अमृत शर्मा, दिनेश, रामजी दांगी सभी लोग फिल्म दोस्ताना देखने के लिए झांसी के सदर बाजार में स्थित कृष्णा टॉकीज की ओर चल पड़े । अनबुझे रास्तों से कृष्णा मनोरंजन गृह को पूछते पूछते आपस की परिचर्चा में मंत्र मुग्ध होकर चले जा रहे थे कि किसी छात्रा का स्वेटर जिसे उन्होंने उतार कर सर पर डाल रखा था उड़कर मार्ग में गिर गया और हम लोग आगे बढ़ गए इस पथ से गुजर रहे एक स्कूटर चालक ने इस बात का आभास कराया तब मैंने जाकर स्वेटर उठाया और उसे यथा स्थान पहुंचा दिया । इस तरह सभी के साथ पूछते पूछते ऐसी जगह आ गए जहां से कृष्णा थियेटर सामने ही दिख रहा था, वहां पहुंचकर अमृत ने टिकट लिए फिर सभी ने ऊपरी मंजिल पर जाकर छवि गृह के रेस्टोरेंट में बैठकर चाय पी, कुछ लोग नित्य चलने वाले छोटे-मोटे कार्यों से निवृत हुए और मूंमफली खाते रहे । बारह से तीन बजे का शो समाप्त हो जाने के बाद हम सभी हॉल में जा बैठे, कुछ समय पश्चात पर्दे पर चलचित्र दिखाई देने लगे, अभी फिल्म प्रारंभ हुए कुछ ही समय बीता था कि हम लोगों के सामने वाली सीट पर बैठे लोगों में आपस में तू तू- में में शुरू हो गई और होते-होते बात हाथ पैरों तक आ गई कुछ देर के लिए वातावरण शोर युक्त हुआ और फिर शांत । 4:40 पर मध्यांतर हुआ और बल्बों के जलते ही माहौल प्रकाश मय हो गया, रोशनी में दोनों झगड़ने वालों ने एक दूसरे को देखा और फिर क्यों बे क्या है बे, बाहर निकाल निकलने पर क्या कर लोगे, तूने गाली क्यों दी, क्यों झगड़ा मोल ले रहे हो, मैं कहता हूं बाहर निकल, बाहर निकलने से डरता हूं क्या, बाहर चल साले, बाहर क्या कर लोगे, इस तरह दोनों एक दूसरे की गिरहबान पकड़े बाहर चले गए । बाहर से कुछ देर तक शोर सुनाई देता रहा फिर दोनों आकर चुपचाप फिल्म देखने लगे आगे वाला एक अपने पूर्व स्थान को छोड़कर कहीं और जा बैठा था फिल्म के मध्य काल के बाद अरुण जी ने हम लोगों की तरफ एक लिफाफा बढ़ाया जो दांगी जी द्वारा हमारे पास तक आया उसमें नमकीन सेव तथा दालमोंठ थी, उसे लेने के बाद मैंने और अमृत ने दो-दो पुड़िया उसी के साथ लीं और सानंद फिल्म देखता रहा इस प्रकार 3 घंटे का समय कृष्णा टॉकीज में व्यतीत करने के पश्चात हम लोगों ने पूर्व निर्धारित स्थान की ओर प्रस्थान किया वहां से आते समय सभी लोगों की इक्षा थी कि किसी वाहन में सवार होकर चलें किंतु अमृत शर्मा ने पैदल चलने की सोच रखी थी, अतः वह अपने साथ सभी को पैदल ले आए वहां से लौटने में अरुणा जी पीछे रह जाती थी वह बहुत अधिक थक चुकी थी उन्हें हर कदम पर चलना दूभर हो रहा था पर सभी उन्हें साहस और उत्साह देकर तेज तेज चलने को विवश करते और वह मन को मार कर सबका साथ देने लगती थी । अरुणा जितनी अस्वस्थ और थकी सी जान पड़ती थीं नीलम और रक्षा उसके बिल्कुल विपरीत अरुणा की स्थिति का जैसे उन्हें ज्ञान ही ना हो। हम सब की तरफ से बेखबर अपनी मस्ती में शीघ्र पहुंचने का संकल्प लिए हम सबसे 25 कदम आगे चल रही थीं । सामने से इलाईट चौराहा दिखाई देने लगा था अतः हम लोगों ने अपनी गति और बढ़ाकर आगे चल रही छात्राओं का साथ पाने की कोशिश की और इलाईट चौराहा आते-आते हम सभी एकजुट होकर चल रहे थे । चौराहे पर डॉक्टर तिवारी और डॉक्टर मानस विश्वास हम लोगों की प्रतीक्षा करते हुए मिले बस नंदिनी सिनेमा घर के सामने खड़ी थी सभी उसमें जाकर बैठ गए गोस्वामी जी ने मुझे बुलाकर कंडेक्टर से छात्र रियायती दर से दतिया तक ले चलने की बात करने को कहा वह दतिया ललितपुर बस थी । ललितपुर से दतिया आ रही थी उसका कंडेक्टर "कुलदीप जैन" हमारा परिचित था अतः उसने पैसे ही नहीं मांगे, हम कुल 12 सदस्य ही बचे थे क्योंकि एक ग्रुप हम लोगों से पहले दतिया चला आया था जिसके साथ डॉक्टर पांडे एवं डॉक्टर रत्नेश भी जा चुके थे गाड़ी झांसी से चली तो अमृत ने फिर बाल्टी में रखे टमाटर मूली केला इत्यादि चीजों को उठाकर बांटना शुरू कर दिया मेरे हिस्से में टमाटर अधिक आ गए अतः मैंने कंडेक्टर कुलदीप की तरफ बढ़ा दिए उसने एक टमाटर उठाया और खाने लगा इसके बाद यात्रा प्रसंग को लेकर चर्चाएं शुरू हुई हुई थी कि इतने में एक हवा का झोंका पीछे से आकर चुपचाप मेरे कानों में गोस्वामी जी की मधुर आवाज का रस घोल गया मैंने पलट कर देखा तो पिछली सीट पर आंखें बंद किये वह वाणी की बगैर सहायता के कंठ से कुछ गुनगुना रहे थे मैंने उनकी तरफ देखा और उन्होंने आंखें खोल दी नजर मिलते ही पूछ बैठे अमृत कहां है, मैंने कहा आगे है शायद तो उन्हीं के शब्दों में "उसे पीछे बुलाओ अरे अमृत पीछे आओ यहां जगह खाली है अमृत भी कुछ सुनायेगा यह भी हास्य के एक ऊंचे और बड़े कलाकार हैं" इसके बाद कविताओं का मौसम बना और इस मौसम में दतिया में प्रवेश कर हम सभी चौराहे पर आ गए । बस से उतरकर तिवारी जी ने कंडेक्टर को 10 रुपये दिए इसके बाद छात्राओं के लिए तांगा किया गया उन्हें तांगे द्वारा शहर की ओर विदा कर हम तथा डॉक्टर तिवारी अपने-अपने निवास की ओर चल पड़े कुछ छात्र तथा डॉक्टर गोस्वामी शहर की ओर जाते दिखाई दिए इस समय रात्रि के आठ चालीस या आठ पचास के लगभग बज रहे थे ।
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