Ek Bund Sahsa Uchali in Hindi Short Stories by Ashok Gupta books and stories PDF | Ek Bund Sahsa Uchali

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Ek Bund Sahsa Uchali

एक बूंद सहसा उछली

आँख खुलते ही उस औरत ने बिस्तर छोड़ा और उठ कर अपने कमरे की खिडकी के पास आ कर बैठ गई. बाहर सुबह का होना अभी बस शुरू ही हुआ था. धूप फैलने की दस्तक अभी दूर थी, बस परिंदों ने पेड़ों पर अपनी गुंजन भरी कवायद शुरू कर दी थी. उस औरत का कमरा मकान की दूसरी मंजिल पर था.कमरे के दरवाज़े के सामने दालान था और फिर एक सहन, जिसके एक कोने से सीढियां नीचे उतरती थीं. कमरे की खिड़की मकान के पिछवाड़े एक मैदान की तरफ खुलती थी जो कहलाता तो पार्क था लेकिन था नहीं, फिर भी वहां पेड़ों की वज़ह से हरियाली थी.. पंछियों को इस से ज्यादा चाहिए ही क्या था..?

वह औरत खिड़की से टिकी मैदान के उन परिदों के बीच एक हो गयी थी. सारे परिंदे अपनी अपनी जुबान में कुछ कुछ कह रहे थे. वह औरत भी अपनी जुबान में मन ही मन कुछ कह रही थी. उसके कहने मैं ज्यादा बातें नहीं थीं लेकिन बार बार दोहराए जाने के बावजूद बातें उसे पुरानी नहीं लग रही थीं. मन ही मन किया गया हर उच्चारण उसे झुरझुरी से भर जा रहा था, मानों उसका कहा आनन् फानन में किसी जादू की तरह सच हो जाएगा... एकदम मान ली जाएगी उसकी बात..हकीकत में ऐसा होना संभव था क्या..? इसी औरत की ज़िन्दगी में उसका कहा सच होना तो दूर, कभी सुना भी गया..? नहीं न..फिर भी यह औरत अपनी बात अपनी जिद पर लिए बैठी थी, वहां, जहां बाहर भोर फूट रही थी, परिंदे थे और आज़ाद कौम की तस्वीर बन कर उसे भरोसा दिला रहे थे कि उस आज़ाद कौम की फेहरिस्त में उसका नाम भी लिखा जाएगा, उसके जीते जी, आज नहीं तो कल, या हद से हद परसों. इस एहसास ने उस औरत के चेहरे पर एक एक अक्षर वह इबारत लिखनी शुरू कर दी थी जिसका अनुवाद उस औरत की बाहर की जिंदगी में तो कहीं नहीं था लेकिन उसके भीतर की दुनिया उस इबारत की खुश्बू से लबरेज़ थी. उस औरत नें अपनी ज़िन्दगी में जितना कुछ झेल लिया था उस सब नें उसके जिस्म पर नीले निशान और खरोंचें भले ही दी थीं, मन को अन्दर ही अन्दर कितना भी घायल किया था लेकिन पता नहीं क्या बात थी कि उस औरत का हौसला कभी डिगता नहीं था. तभी तो उसकी निगाह सामने मैदान में परिंदों के उड़ने चहचहाने और आसमान छूने की कवायद से उम्मीद के साथ जुड़ रहीं थीं, मानो वह सचमुच उन झुण्ड भर परिदों में से एक हो.

तभी उस कमरे में पड़े पलंग पर सोया हुआ मर्द भी अंगडाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ. उसने आदतन पहले हाथ जोड़े और फिर अपनी हथेलियाँ फैला कर उस पर अपनी नज़र टिका दी. वह मर्द हर रोज़ जागते ही सब से पहले इसी तरह अपनी हथेलियाँ देखता है, न जाने कब से, यह उसे खुद याद नहीं है. उस मर्द को फख्र है कि उसका यह सिलसिला उसकी याद की हद से भी पुराना है. उस मर्द को अपनी जिंदगी में बहुत सी बातों पर फख्र है और लगभग सारी बातें इस बात से जुडती हैं कि वह एक मर्द है... कि उसके पिता भी एक मर्द थे, तभी तो जब जी किया तब उसकी मां को अकेला छोड़ कर भगवान् के पास चले गए. इसके पहले भी वह उसकी मां को अकेला छोड़ कर बहुत बहुत जगह चले जाते थे, और उनका हर ऎसी जगह जाना उनकी औरत के लिए नश्तर की लकीर होता था. उस मर्द के पिता भी अगर मर्द न होते तो ज़रूर उस लकीर से छलछलाये खून से रंग जाते, मगर नहीं, वह मर्द थे और वैसा ही मर्द है उनका बेटा...

अपनी खुली हथेलियाँ ताक लेने का अपना कायदा निभा कर वह मर्द बिस्तर छोड़ कर उस खिड़की के पास आ गया जहां वह औरत बैठी बाहर की हरियाली देख रही थी. कुछ देर बाद मर्द की आवाज़ खुली,

" इस पार्क में कमेटीवालों का इरादा किसी नेता का आदमकद बुत लगाने का है. तैयारी चल रही है. "

" उफ़, तब इन परिंदों का क्या होगा..?"

औरत की इस बात पर मर्द खीझ गया.

" क्यों, इस से परिंदों पर क्या आफत आ जाएगी..?"

" यानि की, तब इस मैदान में एक तरफ वह आदमकद बुत रहेगा अपनी जगह, और दूसरी तरफ यह चहकते फुदकते परिंदे बने रहेंगे अपनी जगह.. ऐसा होगा क्या..?"

औरत नें मर्द की खीझ का जवाब अपने एक सवाल से दिया.

" हाँ और क्या.."

" तो फिर ऐसा इस घर में, इस छत के नीचे क्यों नहीं हो सकता..? तुम आदमकद अमर बने रहो हमेशा के लिए, अपनी जगह, और मैं परिंदों की तरह अपनी आजादी जीती रहूँ . बताओ, क्यों नहीं हो सकता ऐसा..?"

औरत की बात पर मर्द फिर नए सिरे से खीझ उठा.. पिछले करीब पंद्रह दिन से यह औरत अपनी आज़ादी के सवाल को सर पर लादे घूम रही है. हर रोज़ हर मौके बस यही अपनी आज़ादी का सवाल.. और आज एकदम सुबह सुबह इन परिंदों की मिसाल लेकर शुरू है..वैसे तो इतने में तुरत हाथ चला देता वह मर्द, लेकिन कुछ खास था इतवार की उस सुबह में जो वह मुस्कुरा कर रह गया.

" क्या करोगी आजादी का.. क्या इरादा है..?"

इरादे वाला शब्द बोलते समय उस मर्द के चेहरे पर एक अश्लील सा रंग तैर आया.

" हंसूंगी, रोउंगी, मन का कहूंगी, खुद चुन कर किताब पढूंगी, मर्जी के लोगों से बात करूंगी और खुली हवा को छू कर देखूंगी कि ताजगी क्या सचमुच कहीं होती है या यह सिर्फ शायरों का फितूर है."

" बस..?"

"बस..!" औरत नें पुरजोर हामी भरी.

" जाओ दिया, बस एक बात में कोई हीला हवाली नहीं."

" वह क्या..?"

" कि, जब मांगूंगा, दिन में, रात में, कभी भी, कहीं भी, तुम फोरन मुझे बिस्तर में मिलोगी, एक नेक बीबी की तरह.. और उस दौर में मैं चाहे जैसा ढब अपनाऊंगा. तुम कोई उफ़ नहीं करोगी. "

" नहीं..यह नहीं." वह औरत करीब करीब चीख पड़ी. " यही तो सबसे बड़ी बंदिश है, एक तेजाब के दरिया में डुबाये जाने जैसी शर्त.. यह अब नहीं निभ पाएगा."

" क्यों..?" मर्द गुर्राया.

"इसलिए कि मुझे उस दौर में तुम्हारे शरीर से दूसरी औरतों की बू आती है. वह भी उन औरतों की ख्वाहिश की बू नहीं होती, उनके आंसुओं की, उनके खून के कतरे की और उनकी बेबसी की बू होती है. उफ़, उस बू का शोर बर्दाश्त नहीं होता.."

उस मर्द को यह व्योरा एकदम वाहियात लगा, लेकिन उस समय उसके भीतर जैसे मौज की एक लहर थी, जो वह बंधा हुआ था. कल की शाम उसने दोस्तों के साथ शराब में गुजारी थी और रात में उसने अपनी बीवी का गोश्त खाया था, चिकन की तरह. उसकी तरंग भी उसके भीतर ज़िंदा थी.

वह मर्द हंसा.

" ..,तो क्या मर्द की सोहबत छोड़ कर जोगन बन जाओगी ?"

"हो भी सकता है...शायद मैं ऐसे मर्द का इंतजार करूंगी जिसकी ख्वाहिश में मेरी बू हो, न कि दर्ज़नों औरतों की सिसकन का राग. बिना मर्द की सोबत की भी बखूबी जिया जा सकता है, लेकिन यहाँ तो मैं जंजीर से जकड़े हुए जानवर से भी बदतर हूँ... मुझे अब तुम आज़ाद कर दो, मुझे उन पंछियों की तरह जीने दो."

मर्द फिर हंसा.

"बेवकूफ औरत, उन पंछियों की ज़िन्दगी का भरोसा ही क्या है, इनके पीछे मौत तो इनके अण्डों से निकलने से पहले से ही लग जाती है."

" ठीक है, इन पर हुआ कोई भी हमला, चाहे वह बिल्ली का पंजा हो या बहेलिए का शिकंजा, पहला ही आखिरी होता है,जब तक जिए तब तक आज़ाद, जब मर गये, खेल ख़त्म..."

मर्द फिर हंसा.

"ठीक है, बहस बंद, जा दिए तुझे पूरी आज़ादी के तीन दिन. सिर्फ तीन, जिसमे तू आज़ादी को परख ले. मैं जानता हूँ कि दूसरे ही दिन तू इस खब्त से हार कर मेरे पास लौटेगी.तब याद रखना उसके बाद कभी कोई सील मुरव्वत मैं नहीं बख्शूँगा. मंजूर..?"

"मंजूर" औरत ने कहा और उसी लम्हा परिंदा हो गयी. उसके पास तीन दिन थे. इन तीन दिनों में वह अपनी ज़िन्दगी को कतरा से समंदर कर लेगी. मर जाएगी लेकिन इस पिंजरे में वापस नहीं लौटेगी. और अगर तीन दिन जी लिए तो चौथे दिन का इंतज़ार बाद की बात है.

इस मंज़र ने औरत में यकायक एक अनोखा बदलाव रच दिया. बतौर उसकी बीवी, उस मर्द के साथ गुज़ारे पंद्रह सालों में एकदम पहली बार उस औरत ने ‘मंजूर’ कहते हुए अपना हाथ बढ़ा कर उस मर्द का हाथ पकड़ा और उसे चूम लिया. उस औरत के लिए अपनी कुल शादी शुदा ज़िन्दगी में यह पहला मौका था जब उसे अपने मर्द से कुछ माँगा हुआ मिल गया था.

उस औरत के इस तरह उसे चूम लेने का असर उस मर्द पर भी ज़बरदस्त हुआ था. वह उस असर से सराबोर हो रहा था, इस बात से बेखबर, कि औरत का यह इज़हार आज़ादी की संभावना दिख जाने की वज़ह से हुआ है. मर्द इस बात को कहाँ समझ पाया था कि पिछले पंद्रह सालों में उसकी ओर से उस औरत को मिलने वाला यह सबसे नायब तोहफा था, भले ही उस मर्द ने औरत को यह सौगात बतौर आइस क्यूब दी थी. उसे गुमान था कि आइस क्यूब के पिघल कर बह जाने के लिए तीन दिन तो क्या, तीन घंटे का वक्त भी कुछ ज्यादा ही हैं और जितन भी हैं, वह मर्द के लिए एक शगल की तरह हैं.

मर्द इस खेल की पेशकश पर खुश था.

** ** **

आज़ादी का पहला दिन औरत ने अपने उस अस्पताल की मैट्रन के साथ शुरू किया जहाँ वह नौकरी करती थी. वह मैट्रन उसकी सहेली थी. वह एक जनाना अस्पताल था जहाँ औरत रिसेप्शन अटेंडेंट थी. वहां मैट्रन का काम भी अजीब था. वह मरीजों के मिलने जुलने वालों, उनके रिश्तेदारों से बात कर के डाक्टरों को इलाज में मदद पहुंचती थी. बड़े डाक्टरों का यह मानना था कि ज्यादातर औरतों की बीमारी शारीरिक न हो कर मन की हालत के कारण होती है. उनका जिस्म केवल मन की बीमारी का असर झेलता है. इस तरह वह मैट्रन अपने अस्पताल में एक सलाहकार का रोल निभा रही थी और अस्पताल का खास नाम उस मैट्रन के दम पर था. वह मैट्रन मरीजों के लोगों से बात करते समय ज्यादा वक्त सुनने में लगाती थी और फिर उसका बोलना उस औरत के साथ होता था जो उसकी सहेली थी.

आजादी का पहला दिन मनाती वह औरत सीधे अपनी सहेली उस मैट्रन के घर गई और उस से उसका एक दिन मांग लिया. फिर दोनों सहेलियां शहर भर में न जाने कहाँ कहाँ घूमती रहीं. उनके बीच लगातार बातें होती रहीं. यह पहला मौका था जब उनके बीच हो रही बातचीत का मुद्दा उन्हीं दोनों कि ज़िंदगी पर टिका रहा.बातचीत के दौरान यह दोनों सहेलियां हंसती रोती रहीं. उन्हों ने कुछ समय एक पार्क में भी बिताया जहां आसमान में पंछियों के अलावा रंगबिरंगी पतंगें भी उड़ रही थीं, जिनकी डोर बच्चों के हाथ में थी. यकायक उस मैट्रन ने उस औरत का ध्यान इस बात पर दिलाया कि वहां उड़ने वाली किसी भी पतंग की डोर किसी लड़की के हाथ में नहीं है, हालांकि पार्क में लड़कियां भी है... मैट्रन ने एक और बात पकड़ी. आसमान में उड़ने वाली बहुत सी पतंगों के नाम रखे हुए थे जिन्हें हुजूम में लड़के चीख रहे थे. वह सारे के सारे नाम लड़कियों वाले थे.

इस बात ने औरत को संजीदा कर दिया. उसने मैट्रन को बिजली के तार में फंसी एक फटी हुई पतंग दिखा कर पूछा,

" क्या अब मैं यह हूँ..?"

मैट्रन ने उसे एक धौल जमा कर कहा, " पागल, तू वह कल तक थी.. आज तो तू वह है.." और उसने एक उडती हुई गौरैया की ओर इशारा किया, फिर दोनों सहेलियां ठठा कर हंस पड़ीं.

देर शाम तक जी खोल कर वह औरत अपनी सहेली के साथ बातें करती रही. मैट्रन का पति फिलहाल दुबई में है और उसका बेटा इसी शहर में एक मेडिकल रेप्रेज़ेंटेटिव है. चलते चलते, विदा होते समय उस मैट्रन ने एक बात उस औरत को बताई.. सारे दिन घूमने फिरने के दौरान उसे उस औरत का मर्द कहीं दूर से उन दोनों को देखते नज़र आया. इस खबर पर वह औरत जोर से हंस पड़ी.

" ठीक है, मेरा एक दिन मुझे मिला और उसका एक दिन उस से छिन गया..."

पहले दिन के ख़त्म होने तक उस औरत के दिमाग में दूसरे दिन की कार्यवाही तय हो चुकी थी... लेकिन पहले और दूसरे दिन के बीच एक रात भी थी, और रात का वजूद आज़ादी के लिए कितना अहम् होता है, वह औरत जान चुकी थी. पहले दिन, औरत के घर लौटने के साथ ही, वह मर्द उस औरत के इर्द गिर्द रहा. वह उम्मीद कर रहा था कि औरत उस से उस पर निगरानी रखने के बारे में सवाल करेगी.उस औरत ने ऐसा नहीं किया.वह मर्द को अनदेखा करती हुई अपनी कुर्सी उस खिडकी के पास खींच ले गयी गयी जहाँ अँधेरे के बावजूद टिमटिमाती रौशनी में वह मैदान अपना होना दर्ज़ कर रहा था. उस औरत ने अपने पर्स से एक कागज़ निकाला. उस कागज़ पर उसने मैट्रन से लेकर कुछ फोन नंबर लिखे थे. वह उस कागज़ को देख कर वह नंबर अपने मोबाइल में फीड करने लगी. मर्द वहीँ अपने पलंग पर बैठा अखबार देखता रहा हालांकि वह अखबार में दिलचस्पी रखने वाला शख्स नहीं था.

मकान के नीचे वाले हिस्से मैं मर्द की मां रहती थी. रसोई और बैठक भी उसी हिस्से में थी. बीच में एक आँगन था जिसके दूसरी तरफ ऐसा ही एक हिस्सा और बना हुआ था, जिसमे मर्द के मामा बतौर किरायेदार रहते थे. मामा एक स्कूल में मास्टर थे और शाम को मर्द के प्रोपर्टी डीलर के काम में मुंशियाना करते थे. उनका परिवार गाँव में था, जहां वह हफ्ते दस दिन में साइकिल से चक्कर लगा आते थे. मर्द के पास मोटर साइकिल थी जिसे वह कभी कभार अपने मामा को भी दे देता था. मर्द का मामा भी मर्द था, तभी तो वह अपना परिवार गाँव में रखता था.

वह औरत इत्मिनान से अपने मोबाइल में नंबर फीड कर रही थी, तभी नीचे से मां ने खाना खाने के लिए आवाज़ लगाई. उस पुकार को सुन कर बिना सिर उठाए उस औरत ने कहा कि वह खाना बाहर से खा कर आई है. मर्द को यह बात पहले से पता थी. उसने औरत को मैट्रन के साथ शाम के एक होटल में जाते देखा था. मर्द अकेला नीचे चला गया और जब वह खा कर लौटा तो उसने देखा कि औरत उनके साझा पलंग इ अलग, सोफा-कम-बेड पर कम्बल लपेट कर सो गई थी. उस मौसम में सर्दी एक एक कदम पसरने लगी थी. जब दिन में भी गर्म कपड़े पहने जाने लगे थे,तो रात का क्या कहना, लेकिन वह औरत हल्के से कम्बल में भी गहरी नींद में दूब चुकी थी. मर्द वहीँ खिडकी के पार खड़ा सिगरेट पीता रहा. वह औरत बिना हिलेडुले सोई रही.. फिर कमरे की बत्ती बुझा कर वह मर्द अपने साझा पलंग पर अकेले सो गया. उसका भी एक दिन पूरा हुआ.

दूसरे दिन मर्द जब सो कर उठा तो वह औरत कमरे में नहीं थी. ज़रा हैरत में भर कर मर्द जब बाहर दालान में आया तो उसे नीचे, अपनी मां के पास उस औरत की आवाज़ सुनाई दी. उस आह्ट में हंसने खिलखिलाने की आवाज़ थी जिसमें मर्द की मां की हंसी भी शामिल थी. बाकायदा नहा-धो कर और तैयार हो कर, अपनी मोटर साइकिल की चाभी हिलाता जब वह मर्द नीचे आया तो औरत रसोई में नाश्ता बना रही थी और मर्द की मां नहा कर निकलने के बाद धोये गये कपड़ों को रस्सी पर फैला रही थी.

मर्द के नीचे आते ही मां ने अपने बेटे को नाश्ता दिया और बताया कि बहु, यानि औरत आज छुट्टी करेगी, उसे कहीं और काम से जाना है. मर्द ने मां को बताया कि औरत ने कल भी छुट्टी की थी.इस पर भी जवाब मां ने ही दिया, " साल के आखीर के महीने बची हुई छुट्टियां ख़त्म करने के होते हैं वर्ना छुट्टियाँ बेकार हो जाती हैं."

मां की इस बात से मर्द को यह अंदाज़ हो गया कि औरत और मां के बीच बातचीत हो चुकी है जब कि मर्द की तरफ से मां को औरत की आज़ादी जैसी किसी बात का इशारा भी नहीं दिया गया था. ज़ाहिर है, मां मर्द नहीं है.

मर्द के जाने के बाद ढंग से तैयार हो कर उस औरत नें मैट्रन से मिले नंबरों में से एक मरीज़ के पिता को फोन किया जो एक कॉलेज में लाइब्रेरियन थे. उनसे औरत को उस कॉलेज के एक पुराने स्टुडेंट का नंबर मिला जो सिटी लाइब्रेरी में में काम करता था.औरत ने उस लड़के का नंबर मिलाया और दोपहर तक वह सिटी लाइब्रेरी पहुँच गई.वहां वह लाइब्रेरी की मेंबर बनी.जब तक वह लड़का कुछ अपना काम करता रहा, वह औरत लाइब्रेरी में बैठ कर पढ़ती रही.लाइब्रेरी में बैठ कर मनचाही किताब पढ़ना औरत को एक अजीब सा नया अनुभव देता रहा. एकदम बे रोक-टोक किताब में डूबना मानो उसके लिए परिंदे के पंख उगने जैसा था. तभी लड़के ने इशारे से औरत को बुलाया और कॉफ़ी का कप थमा दिया. पता चला कि वह लड़का यहाँ नौकरी के साथ साथ फाइन आर्ट्स भी सीख रहा है और एक ऐसे कॉलेज का स्टुडेंट है. लाइब्रेरी से वह औरत उस लड़के के साथ उसके फाइन आर्ट्स स्कूल गयी लड़का जितनी देर अपनी क्लास में रहा, औरत वहां की गैलरियों में घूम घूम कर पेंटिंग्स देखती रही. वहां बहुत सी पेंटिंग्स ऎसी थीं जिनती आकृतियाँ समझना औरत को कठिन लग रहा था, लेकिन वह आकृतियाँ उसके भीतर उतर रही थीं, कुछ कुछ बोल रही थीं और अपनी हलचल भर रहीं थीं. वहां एक हिस्से में करीब बीस ऎसी पेंटिंग्स लगी हुई थीं जिन्हें कोई दीगर शख्स या वह मर्द देखता तो अश्लील करार कर देता.सब तस्वीरों में औरतें थीं. उनके जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था. सबकी आखों में दर्द का एक गहरा सैलाब था.सब के ओंठ जैसे भीतर की बात को बाहर आने से रोकने के फाटक बने हुए थे. उनकी पीठ पर बेंत के नीले निशान थे और छातियों पर दांत और नाखून के ज़ख्म.. एक तस्वीर में औरत के चेहरे की जगह एक ताला बना हुआ था और उसके जिस्म पर सांप लिप्त हुआ था.. वह सारी की सारी पेंटिंग्स जैसे चीख रही थीं लेकिन उनकी चीख की इबारत औरत समझ नहीं पा रही थी.वह औरत इन तस्वीरों से जुड़ रही थी लेकिन इनसे कुछ पा नहीं रही थी. उस औरत को यह मंज़र बेहद हैरत का लग रहा था, एक अबूझ दुनिया जिसका पता अब तक उस औरत को नहीं था, लेकिन है वह दुनिया ऎसी जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.

न जाने कब वह लड़का उस औरत के पीछे आ कर खड़ा हो गया और उस औरत को डूब कर पेंटिंग्स देखते देखता रहा. यकायक उस औरत की नज़र उस लड़के पर पड़ी तो उसने बहुत अधीर हो कर उस से सवाल किया," औरतों की यह सब तस्वीरें ऎसी क्यों हैं ? एकदम आदमजाद.."

"इसलिए कि औरत सिर्फ अपना जिस्म भर नहीं हैं, जिस्म के अलावा और भी बहुत है औरत में.."

वह औरत अपनी जमीन पर खड़ी यकायक थरथर कांपने लगी.उसे लगा कि उसके भीतर कुछ आंधी तूफ़ान की तरह घुमड़ रहा है, जिसे समझ कर उसे बाहर लाना है.उस लड़के का बताया औरत के लिए बहुत बहुत ना काफी था, और बाकी की तलाश उसे खुद करनी है. उस औरत वह रोशनी जैसे नज़र आने लगी जिससे वह जान सके कि आजादी पाने के बाद वह औरत उसे कैसे बरतेगी. इतना तो तय था कि वह आज़ादी अपने खुद के लिए चाहती है, लेकिन किसलिए..? यह उसके सामने अभी तक साफ़ नहीं था, अब हुआ, जब उसने अपनी आज़ादी के दूसरे दिन किताब और कला की दुनिया की ओर रुख किया और उसका एक कतरा पाया.

वह लड़का उस औरत की हालत देख कर घबरा गया. उसकी उम्र उस औरत से बहुत कम थी, वह उस औरत को जानता भी बस कुछ घंटों से ही था, उसने बढ़ कर औरत से पूछा,

" आप ठीक हैं ? "

" हाँ, मैं ठीक हूँ. तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?"

" मेरी तो अभी एक क्लास और है जो जरा लम्बी चलेगी.."

" ठीक है, तुम जाओ. मैं यहीं, इसी हॉल में हूँ.."

लड़के ने जाते जाते उस औरत को देखा जो एक परिंदे में बदल जाने की तैयारी में थी, और अब उसे करीब सवा घंटा इन गैलरियों में घूम कर यह समझना था कि पंख तलाशने का भी एक दर्द होता है और पंख पा जाने का भी...यानि, बिना दर्द के दरिया से गुजरे कोई इंसान परिंदा नहीं बन सकता, चाहे वह मर्द हो या औरत.

जब तक वह लड़का अपनी क्लास में रहा, वह औरत घूम घूम कर तमाम वह तस्वीरें देखती रही जिनमे बेमतलब की चीज़ों से इतना मतलब निकाला गया था कि उनके वेग में सब कुछ बेमतलब हो गया था. मतलब के नाम पर उस औरत के हाथ भी कुछ नहीं आ रहा था, लेकिन औरत वहां से दर्द की वह लकीरें बहरहाल बटोर रही थी जिनमे बहुत मतलब भरी तरतीब छिपी हुई है और अब यह उस औरत का काम है कि वह उस मतलब को खोज पाए.

जब वह लड़का वापस लौटा, उसने पाया कि वह औरत गैलरी में, एक खम्भे से टिक कर फर्श पर आँखें मूंदे बैठी है. लड़का ठिठक कर कुछ पल वहां खड़ा रहा फिर पलट कर वापस चला गया. जब वह लौटा तो उसके साथ उसके एक सीनियर प्रोफ़ेसर थे. उन्होंने खम्भे से टिकी बैठी औरत को पल भर देखा और जड़ हो गये. उस लड़के ने अपने मोबाइल कैमरे से उस औरत की तस्वीर लेनी चाही तो प्रोफ़ेसर ने रोक दिया,

" इतने गहरे अर्थ भरे दृश्य बिम्ब को ऐसे जाया मत करो..ठहर कर आँख में भरो और फिर कभी कनवैस पर उतारना."

प्रोफ़ेसर इतना कह कर वापस चले गये. वह लड़का आगे बढ़ा. उसने हौले से उस औरत का कन्धा छुआ.औरत ने आँखें बंद किये किये जवाब दिया,

" कैफेटेरिया में पहुँचो, मैं आ रही हूँ. "

औरत पांच और मिनट बिता कर कैफेटेरिया में पहुंची, ऐसे, जैसे सपने में बादलों पर चल रही हो.. वहां उन दोनों ने कुछ खाया पिया और बाहर आ कर औरत ने बिना उस लड़के के कुछ कहे बताये, आता हुआ एक ऑटो रिक्शा रोका और उस में बैठ गयी.

यह दूसरे दिन का उपसंहार हुआ. घर पहुँच कर औरत का दूसरा दिन भी वैसे ही बीता, खिड़की के पास कुर्सी पर अँधेरे के पार देखते हुए, फिर सूफा-कम-बेड पर गहरी नींद. रात का खाना उस औरत ने उस दिन भी घर पर नहीं खाया.

दूसरा दिन भी यूं ही बीत जाने पर मर्द परेशान हो गया.यह उसके अंदाज़ के खिलाफ़ एक स्थिति गुज़र रही थी, पर वह कर भी क्या सकता था ? सबेरे औरत को मां के साथ देख कर उसे लगा था कि यह औरत का खुशामदी कदम है लेकिन दूसरे दिन की रिपोर्ट नें मर्द को कुछ ज्यादा ही बेचैन कर दिया था. औरत लाइब्रेरी से एक गैर मर्द के साथ निकले देखी गयी थी.. फिर उसे किसी नें फाइन आर्ट्स स्कूल में एक आदमी के साथ कैफेटेरिया में बैठे भी देखा था. मर्द को यह दोनों खबरें दो अलग अलग लोगों से मिलीं थीं इसलिए मर्द को यह समझ में आया था कि औरत दो अलग अलग आदमियों के साथ दिन बिताती रही है. मर्द को बौखला देने के लिए इतना बहुत काफी था. खैर, मर्द दूसरे दिन भी अपने साझा पलंग पर अकेला ही सोया.

आज़ादी का तीसरा और आखिरी दिन.

मर्द जब सो कर उठा तो सोफा-कम बेड खाली था. कम्बल समेट दिया गया था. ज़रा बेचैन हो कर मर्द जब बाहर दालान में आया तो उसे नीचे मां अकेले पौधों में पानी देती नज़र आई. मां को आवाज़ देते देते मर्द ने खुद को रोक लिया और कमरे में आकर बेमतलब खिड़की के पास खड़ा हो गया. सबेरे का उजास खुलने में दिनों दिन देरी वाला मौसम आ गया था. उस दिन मर्द रोज़ के मुकाबले उठा भी जरा जल्दी था. बाहर अभी धूप का आलम गैर हाज़िर था, लेकिन इतना उजाला था कि मैदान दूर तक देखा जा सकता था. ऐसे में मर्द की निगाह एक जगह पड़ी और वह वहीँ का वहीँ अपनी जगह जड़ हो गया.

वह औरत उस पार्क कहे जाने वाले मैदान में थी.एकदम आदमजाद..उसके बदन पर एक भी कपडा नहीं था. पैर नंगे थे जिन्हें वह ओस से भीगी घास पर हौले हौले उठा कर रख रही थी. परिंदे उस औरत के वहां पहुँचने के पहले आ चुके थे और उनका चहचहाना फुदकना जारी था.आज उस औरत की निगाह पेड़ और परिंदों पर नहीं थी, क्यों कि वह खुद अपनी ज़मीन पर थी.

वह, करीब चालीस साल की औरत, सांवली, छरहरा बदन, कलाई में न चूड़ियाँ, न गले कान में कोई गहना. मोबाइल ज़रूर उसके हाथ में था जिसे कान में लगा कर वह औरत किसी से बात कर रही थी. किस से? वह मर्द इस सवाल के आगे ठिठक गया. किस से बात कर रही है वह औरत, जब कि उस का बदन एकदम उघारा है. मर्द एकदम भौचक था. बौखलाया हुआ. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे. औरत अभी भी फोन पर बात करने में मगन थी. मर्द की निगाह न तो उस औरत पर से हट पा रही थी न ही उसे झेल पा रही थी. तभी मर्द का मोबाइल बजा. उस के मामा लाइन पर थे. वह भी औरत को पार्क में देख चुके थे और बदहवास थे.मर्द नें मोबाईल पर मामा का नंबर देखा और फोन काट दिया. आनन फानन में मामा सीढियां फलांघते हुए ऊपर मर्द के पास आ गए. मर्द और मामा दोनों आमने सामने हुए लेकिन बात कोई नहीं शुरू कर पाया..बस, वो दम साधे मैदान में औरत को देखते रहे.

औरत ने मोबाईल पर बात ख़त्म की और पल भर यूं ही खड़ी रही. मामा नें अपने मोबाईल पर कोई नंबर मिलाना चाहा यो मर्द नें झपट कर मामा का हाथ रोक दिया. फिर औरत घूमी और मैदान के बाहर जाने वाले फाटक की ओर बढ़ने लगी. अब वह औरत मर्द के ठीक सामने थी. एकदम आदमजाद. मर्द उसकी छातियाँ और चेहरा एक साथ देख पा रहा था. ऐसा उसकी अब तक की ज़िन्दगी में कभी नहीं हुआ था. जब भी उसकी नज़र औरत की छातियों पर होती, औरत का चेहरा उसकी नज़रों से ओझल हो जाता था. आज पहली बार औरत का चेहरा देखना मर्द को हिला गया. उसकी नज़र सामने से आती औरत के चेहरे पर टिकी रही. औरत के चेहरे पर कोई भाव नहीं था. न हया, न असमंजस. यहाँ तक कि खौफ भी नहीं. मर्द हमेशा आदमजाद हुई औरतों के चेहरे पर उत्तेजना देखने का आदी था, हालांकि उस औरत ने एक बार उस से कहा था,

" किसी औरत के चेहरे पर मिलने की उत्तेजना देखना तुम्हारी किस्मत में कहाँ है..? तुम बस अपनी उत्तेजना के अक्स औरतों के चेहरों पर देख कर खुश होते रहो, भले ही उनके चेहरों पर ऊब हो, नफरत हो या सिर्फ बेबस थकान हो."

उस दिन औरत की यह बात सुन कर मर्द ने उसे कूट कर रख दिया था. उसे पास पड़ी अपनी चमड़े की बेल्ट से इतना मारा था कि नीचे से मां घबरा कर ऊपर आ गयी थी. मर्द चीख रहा था लेकिन वह औरत न रोई थी न सिसकी थी.

उस लम्हा, पार्क से आदमजाद बाहर आती औरत के चेहरे पर उत्तेजना का न दिखना मर्द को परेशान कर गया. वह मर्द उत्तेजित नहीं था और यकायक सोच गया था कि क्या उस दिन औरत का कहना सही था..?

बाहर फाटक पर आ कर वह औरत दाहिने घूमी और पैदल पैदल, नंगे पाँव सड़क पर चल दी.. फिर कुछ ही देर में मर्द की नज़रों से ओझल हो गयी. अब कहाँ जाएगी यह औरत, इसका अंदाज़ लगाना मर्द के लिए नामुमकिन था.

कमरे से बाहर निकल कर मर्द और उसका मामा सीढ़ियों तक आये... मामा तेज़ी से नीची उतर गया. मर्द दम साधे अपनी जगह खड़ा रहा. मामा नीचे अपनी बहन के पास नहीं गया तो मर्द नें जरा राहत की सांस ली. मामा अजीब चाल से अपने कमरे तक पहुंचा और अपनी जगह खड़े मर्द ने मामा के कमरे की ओर से फ्लश की चेन खींचने की आवाज़ सुनी. मर्द समझ गया. मामा उत्तेजित था. उसके मुंह से आदतन निकलने वाली बहन की गाली रुक गयी जो मामा के लिए थी. इस लम्हा मर्द को अपने मामा का भी मर्द होना बेहद गलीज़ लगा.

करीब तीन घंटे बाद वह औरत अपने घर लौटी. पैदल और उसी ढंग में, जिसमे वह गई थी. नीचे मां के कमरे में मर्द, उसका मामा और एक ताऊ आपस में सिर जोड़ कर मीटिंग कर रहे थे और माँ कमरे के बाहर थी. अकेली, सन्नाटा चाटते हुए. उसे इस खबर का पता चल गया था लेकिन किसी ने उसे यह खबर सीधे नहीं बताई थी.

वह औरत बेख़ौफ़ अपने घर में आई और ऊपर की तरफ बढ़ गई. कमरे में आ कर उसने अपने सिर को एक झटका दिया और बालों को खुल कर बिखर जाने दिया. पीछे पीछे, आँगन में खड़ी मां भी ऊपर आई और कमरे के दरवाज़े पर दोनों हाथ टिका कर भर आवाज़ चीखी,

" हरामजादी.."

वह औरत हंसी और उसने हाथ बढ़ा कर मां को कमरे में बुला लिया.

" बैठो अम्मा, आज तुमसे भी बात करने का दिन है."

पता नहीं क्या असर था उस औरत की आवाज़ में जो मां आकर कुर्सी पर बैठ गईं.

उस औरत नें संजीदा हो कर कहा,

"अम्मा, आज मेरी आज़ादी का असली दिन है.." अपनी बात कह कर उसने मां की आँखों में अपनी ऑंखें डाल दीं और उसकी नज़र वहीँ टिकी रही..

" क्या आज़ादी का मतलब नंगे हो जाना है..?"

"मां, बिना कपडे उतारे जिस्म पर पड़े नील, दांत नाखून की खरोंच और सिगरेट से दागे जाने के निशान भला कैसे दिखाए जा सकते हैं..? अपने मर्द को तो औरत के कपडे उतरने के बाद और कुछ सूझना बंद हो जाता है. जो घाव देता है, उसे ही घाव नज़र नहीं आते तो घाव चाहे शरीर पर हों या मन पर, वह सारी दुनिया को दिखाए ही जाने चाहिए, वह भी हाथ में कटोरा लेकर नहीं, इस तेवर के साथ कि यही निशान आज़ादी पाने की ज़रूरत को सही ठहराते हैं."

मां सर्द हो गई.

"अम्मा, तुम्हारे घाव सूख गए क्या ? लगता तो नहीं.."

मां की आँख गीली हो आई.

" अम्मा, तुम्हारे मर्द ने एक बार मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश की थी. मैं नई नई आई थी. मैंने उसे चिल्लाने का डर दिखाया, तुम से शिकायत का डर दिखाया तो जानती हो क्या कहा था तुम्हारे मर्द नें ?, कहा था,

" ..उस कुतिया से कौन डरता है.. अम्मा, हरामजादी भी इंसान की ही जून मानी जाती है क्योंकि उसे इंसान मर्द ही जनता है, भले ही वह मां का खसम नहीं होता, गैर होता है.. लेकिन कुतिया..? अम्मा, मर्द, मर्द होता है और औरत इंसान भी नहीं होती. ऐसे में औरत को उस खौफ से बाहर आना ही होता है जो इज्ज़त अस्मत कहलाती है.. जो औरत तो सिर्फ अपने मर्द के हिस्से का जिस्म होना पढ़ाती है.. आज़ादी का मतलब है कि औरत का जिस्म उसका अपना हो. उसका मन उसका अपना हो."

कमरे मैं एकदम सन्नाटा छ गया.

औरत नें फिर सवाल किया.

"तुम्हारे कमरे में क्या हो रहा है ?"

मां चुप रही.

" सारे मर्द मिल कर मशविरा कर रहे हैं न..? तुम उसमें क्यों नहीं शामिल हो, पता है ?"

"नहीं" मां ने बोदेपन से सर हिलाया.

" इसलिए कि तुम मर्द नहीं हो..उन्हें अंदेशा है कि तुम्हारी आवाज़ कहीं मेरी हमदर्दी, मेरे हक़ में भी उठ सकती है. वह डरे हुए हैं और उन्हें याद आ गया है कि उन्होंने तुम्हें भी बतौर औरत बहुत सताया है. जो ज़लालत मैं जी रही हूँ, तुमने उस से कुछ कम जी है क्या..? बस तौर तरीके का फर्क है. मैं नौकरी पर जाती हूँ. एक पगार वाले दिन अस्पताल में ख़ास औपरेशन होने के कारण मैं देर से निकली. तुम्हारा बेटा अस्पताल के फाटक पर मेरा इंतज़ार कर रहा था. मुझे देखते ही उसने, सड़क पर ही सबके सामने मुझे थप्पड़ मारा और खींच कर अपनी मोटर साईकिल पर धकेल दिया. क्या वह नंगा होना नहीं था मां..?"

मां की आँखों से आंसू ढुलक पड़े.

"किसका दुःख रो रही हो अम्मा, अपना या मेरा..? रोना बेकार है. उठो और उठकर हया की केंचुल उतार दो.. बस. ऐसे ही, मेरी तरह.."

मां ने सर उठा कर ऊपर देखा तो औरत नें उसके आंसू पोंछ दिए.

" रुको, मैं चाय बना कर लाती हूँ. यह दुःख का समय नहीं है."

उसी दिन, तीन दिन की मियाद ख़त्म होने के पहले वह औरत उस घर से, उस मर्द से, और ज़िन्दगी की काली इबारत से आज़ाद हो गई.

एक हफ्ता वह मैट्रन के क्वाटर में रही. अगले ही हफ्ते उसे अस्पताल से अपना क्वाटर मिल गया. उस घर से जब वह आखिरी बार निकली तो उसके बदन पर पूरे कपड़े थे. सिर पर चुन्नी थी. सामान की दो अटैचियाँ और एक छोटा सा बिस्तर बंद था. रिक्शा वह खुद बुला कर लाई थी, और उसे देख कर मर्द और उसके मामा नें नज़रें फेर लीं थीं. उनका अदालती कदम तय हो चुका था. औरत को उसमें एतराज़ भी नहीं था.

कायदे से कहानी यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी... लेकिन नहीं, इसमें मेरी मजबूरी है. कुछ है जो बताया जाना बाकी रह गया है.

उस घर से अलग हो जाने के करीब सात महीने बाद एक दिन वह औरत बाज़ार में थी. उसके साथ एक मरीज़ का आठ दस साल का बेटा था जिसे लेकर औरत ऐसे केमिस्ट से दवाई दिलाने लाई थी जिसका बिल अस्पताल वाले उस हालत में मानते हैं जब दवाई अस्पताल में नहीं होती. अमूमन ऎसी हालत में मरीज़ के घरवाले परेशान हो जाते हैं, फिर या तो दवाई से चूक जाते हैं या मजबूरी में जेब से पैसा खर्च करते हैं. अब यह औरत ऐसे मरीजों की मदद करने के लिए भी आज़ाद है और यह आजादी भी औरत को खुशी देती है.

उस दिन भी औरत के चेहरे पर ऎसी ही खुशी थी, जब उसका सामना यकायक मर्द से हो गया था. मर्द खुद औरत के सामने ठहर गया था. औरत भी बेझिझक रूक गई थी.

मर्द रुक तो गया लेकिन उसके पास कहने की बात जैसे खो गयी थी. ऐसे में औरत नें ही सवाल किया,

" अम्मा का बुखार उतरा या नहीं... परसों तक तो हरारत बनी हुई थी.."

मर्द हडबडा गया, इसे मां का हाल कैसे पता..? बात उसके मुहं से फिर भी नहीं फूटी.

" बुखार न टूटा हो तो उस वैद का पल्ला छोड़ कर अच्छे डाक्टर को दिखाओ, पांच दिन तो हो गए.."

मर्द हाँ कहने की भी कोशिश नहीं निभा पाया. तभी औरत ने सामने से आता हुआ एक रिक्शा रोका और बच्चे को उस पर बैठा कर खुद बैठने की तैयारी करने लगी.

" सुनो.. " अब जा कर मर्द की आवाज़ बाहर आ पाई.

रिक्शे वाला इस आवाज़ को सुन कर खुद रुक गया.

" कोई मनचाहा मर्द मिला या नहीं..?"

औरत हंसी.

" मनचाही ज़िन्दगी मिल गयी है. मर्द उसके आगे बहुत छोटी चीज़ है."

बात ख़त्म कर कर के औरत नें रिक्शे वाले से कहा,

" चलो"

और, औरत के इसी जुमले के साथ यह कहानी ख़त्म हो गई. बची तो बस ज़िन्दगी, जो अभी बहुत बाकी है. मर्द के लिए भी, औरत के लिए भी.