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sarvajanik vahan se yatra

सार्वजनिक वाहन से यात्रा

आज मैं सार्वजनिक वाहन से कार्यालय जाऊंगा यह सोचकर और गाड़ी घर पर ही छोड़ कर पैदल बस स्टाप की तरफ चल पड़ा। पत्नी ने आवाज लगाकर समझाने की कोशिश की लेकिन मुझ पर तो सार्वजनिक वाहन से यात्रा करने का जुनून पूरी तरह से सवार था। अत: मैं नहीं रुका और बस स्टाप पर जाकर खड़ा हो गया। पौने नौ बजे वाली बस का मैं इंतजार कर ही रहा था कि आधा घंटा बीत गया बस नहीं आई, सवा नौ बज गए तो सवा नौ बजे वाली बस आई, लेकिन चालक महोदय बिना रुके बड़ी तेजी से बस दौड़ाते हुए आगे बढ़ गए। थोड़ी दूर आगे लाल बत्ती पर बस रुकी तो मैं भी दौड़ कर बस तक पहुँच गया और किसी तरह बस के पायदान पर एक पैर रखने की जगह बनाकर दोनों हाथों से बस के डंडे पकड़कर लटक गया। बस थोड़ी आगे बढ़ी तो मुझे पायदान पर दोनों पैर रखने की जगह मिल गई, लेकिन जैसे ही बस आगे वाले बस स्टाप पर रुकी तो और लोग भी बस में लटक लिए। उनमे से एक आदमी मेरा दाहिना हाथ पकड़ कर लटक गया, दूसरा आदमी मेरा बाया हाथ पकड़ कर लटक गया और तीसरे आदमी ने तो हद ही कर दी, उसने मेरे दोनों पैरों के बीच अपना पैर फंसा कर पायदान पर टिकाया एवं मेरी कमर में अपने दोनों हाथ डाल कर मुझे कस कर पकड़ कर लटक गया।

मैं बस के डंडे पकड़ कर लटक रहा था और वें तीनों मुझे पकड़ कर लटके हुए थे। उनमे से एक चिल्लाया, “भाई साहब डंडा मत छोड़ देना”, जबकि मेरे लिए उन तीनों के भार के साथ बस बस के डंडे से लटके रहना मुश्किल हो रहा था, लेकिन मुझे पता था की अगर बस का डंडा मेरे हाथ से छूटा तो मेरे साथ मे तीनों भी गिरेंगे, और गिरने के बाद तो कुछ भी हो सकता था। मुश्किल तो तब हुई जब बस दाहिनी तरफ मुड़ी और हमारा सारा भार बाहर की तरफ आ गया। मुड़ने के बाद बस रुक गई, पता चला कि बस के सामने एक तिपहिया खराब हो गया है। मेट्रो वाली सवारिया वहीं उतर गई, अब मुझे और मेरे साथ वालों को ठीक से खड़े होने कि जगह मिल गई। तिपहिया चालक ने उसे धकेल कर बस के सामने से हटाया तो बस चल पड़ी। अब मै बस मे थोड़ा आराम से खड़ा हो गया और जेब से पैसे निकाल कर टिकिट ले लिया।

बस अपने सफर पर बढ़ते हुये यमुना पुल पर पहुँच गई, लेकिन यह क्या हुआ बस झटके लेने लगी और एक जगह आकर रुक गई। चालक ने काफी कोशिश की लेकिन बस टस से मस नहीं हुई और हम सब बस से उतर कर एक तरफ खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद दूसरी बस आई लेकिन संवाहक के इशारे पर भी वो बस नहीं रुकी क्योंकि उसमे भी सवारिया लटक रही थी। हम ऐसी जगह पर आकार अटक गए थे जंहा से कोई भी साधन मिलना मुश्किल था और समय बीत रहा था मुझे कार्यालय के देरी हो रही थी। हम कुच्छ लोग पैदल चलकर शांतिवन पहुँच गए परंतु वहाँ से भी कोई साधन नहीं मिला, मै दरियागंज तक आ गया और तिपहिया से पटेल चौक चलने के लिए कहा, कई चालको से पूछने पर एक ने चलने के लिए हाँ तो कहा लेकिन 150 रुपए मांगे, चूंकि मैं पहले ही काफी लेट चुका था तो मैंने हाँ कर दिया। आखिर 11 बजे तक मे कार्यालय पहुंचा, मेरे पहुँचते ही बॉस ने अपने कक्ष मे बुला कर जो झाड़ मारी वो मैं कभी नहीं भूल सकता और न ही ये सार्वजनिक वाहन का सफर।

अगले दिन हमने मेट्रो से जाने की सोची क्योंकि कुछ लोग कह रहे थे कि आपने गलती की जो बस से आए मेट्रो से आना चाहिए था। मेट्रो स्टेशन पर सेक्युर्टी चेकिंग कि लाइन काफी लंबी थी, उस से निकले तो टिकिट कि लाइन उस से भी लंबी थी, किसी तरह टिकिट लेकर मैं प्लेटफार्म पर पहुंचा, प्लेटफार्म पर भी काफी भीड़ थी। पहली मेट्रो मे तो मैं चढ़ नहीं सका लेकिन दूसरी मे किसी तरह भीड़ के धक्के से मै अन्दर चला गया। मुझे कश्मीरी गेट उतरना था लेकिन चढ़ने वालों की भीड़ ने मुझे उतरने नहीं दिया और मैं तीस हजारी जाकर उतरा। वंहा से वापस फिर कश्मीरी गेट आया और पटेल चौक वाली मेट्रो ली। पूरे रास्ते खड़े खड़े मैं अपने गंतव्य पर पहुँच गया लेकिन ये सफर भी मेरे लिए रहा कष्टदायक ही।

दो दिन के इन कष्टो से मुझे थकान हो गई और बुखार भी हो गया। चार दिन कार्यालय से छुट्टी लेकर घर पर लेटा रहा और सोचता रहा काश! मैंने सार्वजनिक वाहन से सफर करने की ज़िद्द न की होती क्योंकि ज़िद्द का परिणाम बुरा ही होता है।

वेद प्रकाश त्यागी

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