bhikhari ka beta in Hindi Short Stories by Ved Prakash Tyagi books and stories PDF | bhikhari ka beta

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bhikhari ka beta

भिखारी का बेटा

वह भीख मांग कर गुजारा करता था, पूरे गाँव मे एक्तारा बजा कर गीत गाते हुए हर घर के सामने खड़ा हो जाता था और सभी लोग बड़े सम्मान से उसकी झोली मे कुछ न कुछ डाल देते थे।आप सोच रहे होंगे कि भीख और सम्मान के साथ, हाँ सम्मान के साथ ही देते थे उसको भीख, क्योंकि वह भिखारी नहीं कलाकार था। वह अपना एक्तारा बजाता और भजन गाता हुआ पूरे गाँव में घूमता था, हर घर के दरवाजे पर थोड़ी देर के लिए रुकता था और गृहणियाँ आटा, दाल, चावल, दूध, गुड जो कुछ भी बन पड़ता था उसको दे देतीं थे। देखा जाए तो यह भीख नहीं उसका मेहनताना था जो उसको उसके गाने बजाने के लिए मिलता था लेकिन लोग तो उसको भिखारी, जोगी आदि नामों से ही पुकारते थे। छोटा सा परिवार था उसका, एक बेटा और पत्नी, पत्नी घर का काम करती थी और बेटा पढ़ने जाया करता था। बेटा नरेश पढ़ने में काफी होशियार था, हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आता था। पढ़ते पढ़ते बेटा कब बड़ा हो गया और कब उसने एम ए पास कर लिया महेश को पता भी नहीं चला। नरेश ने आइ ए एस कि परीक्षा देने का मन बनाया और अपने पिता महेश से अपने मन की बात बताई। महेश ने कहा, बेटा जो करना चाहते हो कर लो मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा। नरेश ने तैयारी करके आइ ए एस की परीक्षा दी और परीक्षा में सफल रहा। कुछ दिन बाद नरेश प्रशिक्षण के लिए मसूरी चला गया। एकदम से भिन्न वातावरण में नरेश प्रशिक्षण ले रहा था लेकिन उसको अपने पिता, माता और गाँव कि बहुत याद आती थी। यही बात वह पत्र में लिखकर अपने पिता को भी भेजता रहता था। महेश उसका मनोबल बढ़ाने के लिए लिख देता था कि बेटा हम यहाँ बिलकुल ठीक है, पूरा गाँव हमारा ध्यान रखता है, तुमने अपने गाँव का नाम रोशन किया है और आगे भी गाँव वालों को तुमसे बहुत उम्मीदें है इसलिए तुम मन लगाकर अपनी पढ़ाई करना, हम सब का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। नरेश का प्रशिक्षण समाप्त हो गया तो उसकी नियुक्ति दूसरे जिले में जिला-अधिकारी के रूप में हो गयी, एक बड़ा सा घर भी मिल गया। नरेश अपने माता-पिता को अपने साथ ही लेकर आ गया और तीनों मिलकर वहाँ रहने लगे। नरेश अपने कार्यालय चला जाता था, माता-पिता घर पर ही रहते थे। घर पर खाली रहने पर महेश का मन नहीं लगता था, वह बीमार रहने लगा। महेश की पत्नी ने उसको इस तरह बीमार होते देख इसका कारण पूछा तब महेश ने बताया कि मैं तो गाँव जाकर अपना एक्तारा बजाना चाहता हूँ, यहाँ मेरा मन नहीं लग रहा। महेश की पत्नी ने यह बात अपने बेटे को बताई तो नरेश ने महेश को एक्तारा बजाने के लिए कह दिया। महेश ने एक्तारा बजाया एवं एक भजन भी गुनगुनाया, अब वह जब भी मन करता तो एक्तारा बजा कर भजन गुनगुनाने लगता एवं इसी धुन मे कभी-कभी एक्तारा बजाते-बजाते बाहर निकाल जाता, थोड़ा दूर घूम कर फिर वापस आ जाता था। एक दिन वह एक्तारा बजाते-बजाते अपनी धुन में भजन गाते गाते नरेश के कार्यालय तक पहुँच गया। जब उसने देखा कि बेटे का कार्यालय नजदीक ही है तो वह बेटे से मिलने की सोचकर दफ्तर के अंदर जाने लगा लेकिन सुरक्षाकर्मी ने उसको गेट पर ही रोक दिया। महेश ने सुरक्षाकर्मी को समझाना चाहा लेकिन उसने एक न सुनी और महेश को वहीं रुकने का इशारा करके अंदर पूछने चला गया। सुरक्षाकर्मी ने अंदर जाकर अभिवादन किया एवं कहा श्रीमान जी कोई बेवकूफ सा दिखने वाला व्यक्ति जबर्दस्ती आपसे मिलने की जिद्द कर रहा है, उसके हाथ में एक छोटा सा एक्तारा भी है, ऐसे लगता है जैसे एक्तारा बजाकर कुछ मांगना चाहता हो। नरेश ने जैसे ही यह बात सुनी तो वह तुरंत अपनी कुर्सी छोड़ कर दौड़ा दौड़ा गेट पर आया एवं आकर अपने पिताजी के पैर छूए। नरेश ने सुरक्षाकर्मी को बुलाकर समझाया कि यह व्यक्ति बेवकूफ नहीं बहुत समझदातर है, इतना समझदार कि इसने मुझे आइ ए एस बना दिया है, ये मेरे पिता हैं। सुरक्षाकर्मी को स्वयं पर बड़ी लज्जा आई एवं वह नरेश और महेश दोनों से क्षमा मांगने लगा। नरेश ने सुरक्षाकर्मी को सिर्फ एक बात समझाई कि कभी किसी को छोटा समझ कर उसका अपमान नहीं करना चाहिए, जिन्हे हम छोटा समझते है उन्हीं की मेहनत से ही हम बड़े बनते है। नरेश ने अपने कार्यालय मे ले जाकर महेश को पूरा कार्यालय दिखाया एवं सभी से अपने पिताजी का परिचय कराया। महेश ने अपना एक्तारा साथ ले रखा था और उसकी बार बार इच्छा हो रही थी कि वह मंत्र-मुग्ध करने वाली अपनी सबसे प्यारी धुन कार्यालय के सभी लोगों को सुनाये, तभी नरेश के सहायक शर्माजी ने विनती की कि सर अगर आपको ऐतराज न हो तो हम पिताजी से कुछ सुनना चाहेंगे। नरेश बोला लो भला मुझे क्यो ऐतराज होने लगा और उसने हाँ कर दिया, महेश की तो जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई। महेश ने अब एक्तारे पर अपनी सबसे प्रिय धुन बजाई जिसे सुनकर सभी मंत्र-मुग्ध हो गए। सभी कर्मचारी उस तान पर इतना खो गए कि उन्हे पता ही नहीं चला कब समाप्त हो गयी। उन्होने एक और एक और का शोर करना शुरू कर दिया लेकिन नरेश ने यह कह कर सबको चुप करा दिया कि आज बस इतना ही, यहाँ ऑफिस में नहीं, फिर कभी किसी और आयोजन पर जी भर कर सुन लेना।

आज महेश को काफी अच्छा लग रहा था गाँव कि याद भी कम आ रही थी। बहुत दिनों बाद उसने ऐसी धुन बजाई थी। उसने याद किया कि एक बार गाँव के स्कूल में बच्चों की फरमाइश पर यही धुन उसने बजाई थी और उस समय भी इस धुन ने सबको मंत्र-मुग्ध कर दिया था। शाम को जब नरेश भी घर आ गया तो माँ ने खाना परोस दिया, महेश भी प्रतीक्षा कर रहा था और खाना बेटे के साथ ही खाना चाह रहा था। खाना खाने लगे तो नरेश ने माँ को भी साथ बैठा लिया एवं तीनों साथ खाना खाने लगे। नरेश ने माँ के सामने पिताजी द्वारा कार्यालय में बजाई गई धुन की काफी तारीफ की, थोड़ी देर आपस में बातें करके तीनों सोने चले गए। नरेश सोचता रहा कि अगर पिताजी का एक ऐसा बड़ा कार्यक्रम कराया जाए एवं उससे होने वाली आमदनी से गाँव के गरीब बच्चों कि पढ़ाई मे सहायता की जाए तो पिताजी को भी अच्छा लगेगा और गाँव के दूसरे बच्चों के प्रति मेरी भी ज़िम्मेदारी कुछ हद तक पूरी हो जाएगी।

अगले दिन कार्यालय पहुँच कर नरेश ने अपने सहायक शर्माजी को बुला लिया एवं उनसे इस बात की चर्चा की कि क्यों न हम एक बड़ा कार्यक्रम टाऊन हाल मे आयोजित करें और उससे जो भी आमदनी होगी उसे गाँव के गरीब बच्चों की आगे की पढ़ाई मे लगा दें। शर्माजी को यह बात अच्छी लगी एवं उन्होने एक भव्य आयोजन आयोजित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी। बड़े बड़े पोस्टर बनवाए गए, निमंत्रण पत्र छपवाए, टिकट भी छपवा लिए और आयोजन को पूरी तरह सफल बनाने में लग गए। महेश भी इस कार्य में पूरा सहयोग कर रहे थे एवं अपनी धुनों को और सुधारने मे लगे थे। सभी पोस्टर शहर भर में लगा दिये गए, पोस्टर पर महेश का एकतारा हाथ मे लिए हुए फोटो छपा था एवं अपील कि गई थी कि इस कार्यक्रम के द्वारा महेश जी बच्चों कि पढ़ाई के लिए निशुल्क योगदान दे रहे हैं। सभी बड़े लोगों को निमंत्रण पत्र दे दिये गए एवं सारे टिकट भी बिक गए। इस तरह से काफी पैसा एकत्रित हो गया, कुछ पैसा शहर के बड़े लोगों ने सहायता राशी के रूप में भी दिया जिसकी उनको रसीद दी गयी।

कार्यक्रम का दिन आ गया, टाऊन हाल लोगों से ठसाठस भरा था, गाँव से भी कुछ लोग और बच्चे आए थे, उनको विशेष स्थान पर बैठाया गया था। सही समय पर कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ और महेश ने अपनी पहली धुन बजाई, सभी लोग मंत्र मुग्ध होकर सुनते रहे, उसके बाद दूसरी, तीसरी धुन बजाई, हाल में पूर्णतया शांति थी लेकिन प्रत्येक धुन की समाप्ती पर तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हाल गूंज उठता था और एक और एक और की आवाजें आने लगती थी। तीन घंटे का समय कैसे निकल गया लोगों को पता भी नहीं चल पाया। कार्यक्रम समाप्त हुआ, लोगों ने महेश को फूल मालाओं से लाद दिया एवं सभी को महेश के साथ फोटो खिंचवाने के लिए होड़ लग गयी। इतना आदर सम्मान पाकर महेश की आंखो से आँसू निकल आए जो थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। सभी ने महेश की धुनों की बहुत प्रशंसा की, धन भी काफी एकत्रित हो गया था अतः शर्माजी ने उस धन को लेकर एक ट्रस्ट बना दिया जिसका कार्य गरीब होशियार बच्चों को पढ़ाई के लिए धन की कमी को पूरा करना था।

दीपक गाँव के ही एक खेतिहर किसान का बेटा इसी शहर में एक उच्च अधिकारी था, वह भी इस कार्यक्रम में आया हुआ था। पढ़ने के बाद उसको एक अच्छी नौकरी मिल गयी थी। एक दिन उसके पिताजी उससे मिलने शहर आए तो कार्यालय ही पहुँच गए, उन्होने एक डब्बे में घी, एक में दूध, एक में मट्ठा भर रखा था, एवं एक पोटली में गेहूं चावल बांध रखे थे। डब्बे हाथों में लिए हुए और पोटली सिर पर रख कर वो जैसे ही अपने बेटे के कार्यालय मे जाने लगे तो सुरक्षाकर्मी ने पूछा कि बाबा कहाँ जा रहे हो, किससे मिलना है। तब उन्होने बताया कि उसका बेटा दीपक यहाँ का बड़ा अधिकारी है उसके पास जाना है। सुरक्षाकर्मी ने दीपक जी को फोन पर बताया कि आपके पिताजी आए हैं, तब दीपक स्वयं अपने कमरे से निकल कर वहाँ आ गया और देखा कि उसके पिताजी सिर पर पोटली उठाए, हाथों में डिब्बे लिए खड़े हैं। जब कार्यालय के लोगों ने पूछा तो दीपक ने बता दिया कि यह आदमी हमारा नौकर है और पिताजी ने इसे सामान लेकर भेजा है। दीपक के पिताजी को यह बात यह बात चुभ गयी, वहाँ तो उन्होने कुछ नहीं कहा परंतु सामान वहीं छोड़कर बाहर चले गये और सीधा स्टेशन पर जाकर सुबह की गाड़ी की प्रतीक्षा मे बैठ गये। दीपक रात मे पिताजी को मनाने के लिए रेलवे स्टेशन पर भी आया और अपनी मजबूरी भी पिताजी को बताई कि क्यों उसने अपने ही बाप को नौकर बता दिया। दीपक ने बताया कि मैं यहाँ एक बड़ा अधिकारी हूँ मेरा यहाँ पर रुतबा है, आपने इस तरह से यहाँ आकर मेरी इज्जत खराब कर दी, आपको ऐसे मेरे कार्यालय में नहीं आना चाहिये था। अपने बेटे के प्यार मे लाचार बाप आ तो गया था गाँव से लेकिन बेटे के व्यवहार से व्यथित रात भर स्टेशन पर रुका लेकिन बेटे के घर नहीं गया। आँखों में आँसू भी आए, रात भर ठंड मे सिकुड़ता भी रहा और सोचता रहा कि कैसे उसने अपना पेट काट काट कर इसको पढ़ाया था। अभी तो महाजन का कर्ज़ जो इसकी पढ़ाई के लिए लिया था, पूरी तरह से चुकता भी नहीं हुआ है। दीपक की पढ़ाई मे किसी प्रकार का व्यवधान न आए इसलिए कभी उसके सामने कुछ नहीं कहा।

लेकिन आज जब दीपक ने देखा कि कैसे नरेश ने अपने पिता महेश की पूरे शहर में इतनी इज्जत बढ़वाई है जिसको हमारा पूरा गाँव भिखारी कहता था, आज उसे सबने अपने सिर पर बैठा लिया है और उसी ने पूरे गाँव के गरीब होशियार बच्चों की पढ़ाई का बीड़ा उठाया है, तो दीपक को स्वयं पर बड़ी ग्लानि हो रही थी कि क्यों उस दिन अपने ही कार्यालय मे मैंने अपने पिताजी को नौकर बता कर उनकी बेइज्जती कर दी थी। मैं आज ही गाँव जाकर पिताजी से अपने किए की माफी माँगूँगा एवं उनके पैर तब तक नहीं छोडूंगा जब तक वो मुझे माफ नहीं कर देंगे। वह सोच ही रहा था कि सामने नरेश खड़ा था और नरेश ने देखते ही दीपक को गले लगा लिया। नरेश के गले लगकर दीपक की रुलाई फूट पड़ी और उसने सारी बात नरेश को बता दी। नरेश ने उसकीं पूरी बात बड़ी शांति से सुनी एवं उसकी आँखों मे पछतावे के आँसू देखकर कहा कि भाई अगर तुम वास्तव मे माफी मांगना चाहते हो तो तुम्हें गाँव जाने कि जरूरत नहीं है, ताऊ जी यहीं पर है, कार्यक्रम में मैंने उनको भी बुलाया था, तुम चलकर माफी मांग सकते हो और वह तुम्हें माफ भी कर देंगे, लेकिन याद रखना हम आज इस पद पर उन्ही के त्याग और मेहनत से पहुंचे है अतः हमारी इज्जत अपने माँ-बाप की बेइज्जती करने से नहीं बढ़ती बल्कि उनकी इज्जत बढ़ेगी तो हमारी इज्जत और भी बढ़ेगी। हम जैसे है उसी रूप मे सर्वश्रेष्ठ है, दूसरों की नकल करने से हम कभी श्रेष्ठ नहीं बन सकते।

वेद प्रकाश त्यागी

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