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समसमायिक व्यंग्य

वसंत पंचमी और पतंगों के चुनावी रंग

उस दिन वसंत पंचमी थी।आसमान रंगबिरंगी पतंगों से भरा था।सब अपनी अपनी समझ के हिसाब से इधर उधर पेंच लड़ा रहे थे।सब्ज रंग की पतंग ने वासन्ती पतंग को काटा तो शोर उठा –वो काटा।डोर से विलग होने के बाद पतंग ने थोड़ी देर हवा में हिचकोले खाए और फिर गोल गोल चक्कर लगाती आसमान में ऊपर उठने लगी।पतंग कटने से मायूस लोगों ने हरी पतंग को घूरा–तुम्हारी यह जुर्रत।

हवा तेजी से बह रही थी।फर्र फर्र की आवाज़ करती पतंगे एक दूसरे की छतों के ऊपर चुनौती उछालती उडान भर रही थी।तभी एक नीले रंग की पतंग आसमान में दिखी।इसके बाद सुर्ख रंग की पतंग नमूदार हुई।उसके पीछे पीछे तिरंगे पर बने हथेली के निशान वाली पतंग भी प्रकट हुई।वासन्ती पतंग कटा चुके लोग तिलमिलाए।चिल्ला उठे –लो ,तो ये आ गये अपने असल रंग में।भगवा पतंग ला।डोर बाँध।चीनी मांझा बांध।इनको सबक सिखा।

चुनावी माहौल में वसंत ऐसे ही आता है।कल्लू पतंगबाज लल्लू पतंगसाज से पतंग और डोर खरीदने से पहले उसके जन्मना धर्म और जाति को वेरीफाई करता है।पतंग को आसमान की ओर रवाना करने से पहले उसके रंग के पक्केपन को निरखता है।कुछ लोग सिर्फ इसीलिए पतंगबाजी के पेचोखम से खुद को बचा ले जाते हैं क्योंकि उन्हें यह पता ही नहीं कि सेक्युलरिज्म का असल रंग और शेड क्या है।

शारीरिक कारणों से पतंग उड़ाने से वंचित रह जाने वाले उम्रदराज लोग अंतत: यह कहते हुए पाए जाते हैं कि अजी ,ये लौंडे क्या जाने पतंगबाजी का इल्म।वो तो इन मुए बिजली वालों ने तार जरा हमारी छत के ऊपर तार खीच दिए हैं इसलिए मजबूर हैं।फिर छत पर टंग कर पतंगबाजी के चक्कर में बेपर्दगी भी तो होती है।एक सज्जन तो सरेआम इस बहस को भी आगे बढ़ाते मिले कि यह भी कोई त्यौहार है भला।बेहयाई का जश्न है यह तो।

वसंत के बाद अब वेलेंटाइन- डे के आने की सुगबुगाहट है।वातावरण सनसनीखेज हो चला है।पतंग और हुचके खूँटी पर टांगने के बाद लोग इस मसले से निबटने को तत्पर हैं।

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सर्दी का मौसम और करेंसी की छीना झपटी

सर्दी की धुंध के साथ वापसी हो गयी है। लोग नोटबंदी से जूझने में इस कदर मशगूल हैं कि वे ठंडे दिनों का जिक्र तक कायदे से नहीं कर रहे ।तोते पिंजरे का दरवाज़ा खुला होने के बावजूद वह मजे से हरी मिर्च कुतरते हुए ‘नोट नोट’ की रट लगाये हैं।इस समय पूरा देश तरह–तरह के सवालों के घेरे में है।जिसे देखो उसी की जेब में प्रश्नों की पुड़िया है और निरंतर कतार में लगे रहने की कातर विवशता।भक्त टाइप लोगों के पास मुल्क की अस्मिता और देशभक्ति का मुद्दा है।उनके हाथों में लाठियां डंडे हैं जिन पर झण्डे टंगे हैं।जुबान पर तेजाबी बयान हैं।चेहरे पर कर्तव्यपरायणता की दमक है।आस्तिक हर नास्तिक सोच और मंशा वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटने का जबरदस्त कौशल दिखा रहे हैं।वैसे पिटने और लुटने वालों के लिए यह ‘ट्रेजडी किंग’ बनने का सही समय है इसलिए पिट जाने के बावजूद मजे में हैं।

मौसम बदलने के साथ गर्म ऊनी कपड़े शोकेस के हैंगर से लेकर फुटपाथी रेलिंग पर टंग गये हैं।गर्मी वाले सूती झीने कपड़े अभी अलमारियों में तह लगा कर रख दिए गये हैं।फिर भी राजनीतिक माहौल गरमा गया है,पर इतना भी नहीं कि माथे पर पसीना चुहचुहाता हो।देह पसीने के नमक से इतनी नमकीन नहीं हुई है कि अपनी-अपनी आइडियोलाजी के अनुसार नमक हलाली के सवाल उठने लगें।वैसे भी राजनीति में नमकहलाली और नमकहरामी में कोई मौलिक भेद नहीं होता।यह बदलते हुए मौसम का संगीन और सनसनीखेज समय है। ऐसे में एहतियात ही बचाव है।वस्तुत: यह भविष्य की ग्रीष्म ऋतु के लिए कम खर्च पर बेहतरीन ब्रांडेड डिजाइनर्स सूती कपड़ों की खरीददारी की अक्लमंदी से भरा मौका है।यह आने वाले कल के सपनों में निवेश का वक्त है और निवेश के लिए कैशलैस विकल्प हैं।

पूरे मुल्क में भागमभाग और धरपकड़ मची है।मीडिया की मंडी में बड़ी हलचल है।सब अपने - अपने चैनल के लिए टीआरपी बटोरने के लिए पारदर्शी जाल बिछाए बैठे हैं।सबको पता है कि आजकल मुद्राविहीन ‘सीजन’ आ गया है।मनगढंत ग्राफिक्स और रिसर्च के ज़रिये करेंसी की उपलब्धता से जुड़े मनमाफिक सिंथेटिक सच और झूठ सामने आ रहे हैं।यह ठीक उसी तरह का सीजन है जैसे डेंगू जैसी महामारी फैलने पर डाक्टरों और दवा विक्रेताओं का बन आती है।जैसे मिठाई भरे थाल के ऊपर रखी चादर के जरा-सा उघड़ते ही मक्खियाँ भिनभिना उठती हैं।जैसे मनमाफिक थानेदार के तैनात होते ही इलाके के सटोरियों की मौज आ जाती है।यकीनन तमाम तरह के स्वप्नजीवियों के लिए यह मुरादों भरे दिन हैं और कैश की किल्लत से भरा हाहाकारी समय भी।

बदलते मौसम के हिसाब से बाज़ार करवट लेत रहा है।विजय ध्वजा की तरह फेस्टिवल सेल, महासेल और मेगा सेल के पट लहराने रहे हैं।राजनीतिक सरोकारों के अनुसार बदलाव और क्रांति की नवीनतम अवधारणायें प्रकट होती है। वातावरण इंस्टेंट कॉफ़ी के असमंजस भरे झाग से भरपूर है। क्रांतिधर्मी पोस्टर योद्धाओं के होठों और मूंछों से चिपक कर यही झाग नवजागरण के गीत गुनगुना रहा है।राजनीति के हाट पर नोटबंदी के समर्थक रणबांकुरों और मनी एक्सचेंज वाले दलालोंकी डिमांड बढ़ जाती है।मुल्क के भीतर कुछ चटखता है तो लोग नई सोच के नये नेता के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा देता है।नये रैपर में नये समीकरण सामने आ रहे हैं। सोच भी मौसमी होती है, बदलते वक्त के साथ बदल जाती है।

होली जब आएगी तब आएगी।बजट सत्र से पहले इस पर्व के साथ जुड़ा हुडदंग सामने आ गया है।एक दूसरे के मुंह पर कालिख पोतने की होड़ लगी है।जगह-जगह मजीरे बज रहे हैं।सब अपने –अपने एजेंडे का फाग गाने की अभी से प्रेक्टिस कर रहे हैं।गायन के मुकाबले वादन का ‘पिच’ इतना अधिक है कि इसकी धमक में असल मंतव्य हवा में गुम हो गये हैं।देशद्रोह और देशभक्ति के नारों से अभिमंत्रित फुलझड़ियाँ चहुँ ओर चमक बिखेर रही हैं।

बदलते मौसम के साथ मुखौटे भी बदल रहे हैं। नोट अदल बदल गये लेकिन न तो मौसम का मिजाज़ बदला और न ही बदलाव की बयार बही।अलबत्ता करेंसी की इस छीना झपटी में विकास की प्रोजेक्टेड दर जरूर घट गयी।

सर्दी का मौसम और करेंसी की छीना झपटी

सर्दी की धुंध के साथ वापसी हो गयी है। लोग नोटबंदी से जूझने में इस कदर मशगूल हैं कि वे ठंडे दिनों का जिक्र तक कायदे से नहीं कर रहे ।तोते पिंजरे का दरवाज़ा खुला होने के बावजूद वह मजे से हरी मिर्च कुतरते हुए ‘नोट नोट’ की रट लगाये हैं।इस समय पूरा देश तरह–तरह के सवालों के घेरे में है।जिसे देखो उसी की जेब में प्रश्नों की पुड़िया है और निरंतर कतार में लगे रहने की कातर विवशता।भक्त टाइप लोगों के पास मुल्क की अस्मिता और देशभक्ति का मुद्दा है।उनके हाथों में लाठियां डंडे हैं जिन पर झण्डे टंगे हैं।जुबान पर तेजाबी बयान हैं।चेहरे पर कर्तव्यपरायणता की दमक है।आस्तिक हर नास्तिक सोच और मंशा वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटने का जबरदस्त कौशल दिखा रहे हैं।वैसे पिटने और लुटने वालों के लिए यह ‘ट्रेजडी किंग’ बनने का सही समय है इसलिए पिट जाने के बावजूद मजे में हैं।

मौसम बदलने के साथ गर्म ऊनी कपड़े शोकेस के हैंगर से लेकर फुटपाथी रेलिंग पर टंग गये हैं।गर्मी वाले सूती झीने कपड़े अभी अलमारियों में तह लगा कर रख दिए गये हैं।फिर भी राजनीतिक माहौल गरमा गया है,पर इतना भी नहीं कि माथे पर पसीना चुहचुहाता हो।देह पसीने के नमक से इतनी नमकीन नहीं हुई है कि अपनी-अपनी आइडियोलाजी के अनुसार नमक हलाली के सवाल उठने लगें।वैसे भी राजनीति में नमकहलाली और नमकहरामी में कोई मौलिक भेद नहीं होता।यह बदलते हुए मौसम का संगीन और सनसनीखेज समय है। ऐसे में एहतियात ही बचाव है।वस्तुत: यह भविष्य की ग्रीष्म ऋतु के लिए कम खर्च पर बेहतरीन ब्रांडेड डिजाइनर्स सूती कपड़ों की खरीददारी की अक्लमंदी से भरा मौका है।यह आने वाले कल के सपनों में निवेश का वक्त है और निवेश के लिए कैशलैस विकल्प हैं।

पूरे मुल्क में भागमभाग और धरपकड़ मची है।मीडिया की मंडी में बड़ी हलचल है।सब अपने - अपने चैनल के लिए टीआरपी बटोरने के लिए पारदर्शी जाल बिछाए बैठे हैं।सबको पता है कि आजकल मुद्राविहीन ‘सीजन’ आ गया है।मनगढंत ग्राफिक्स और रिसर्च के ज़रिये करेंसी की उपलब्धता से जुड़े मनमाफिक सिंथेटिक सच और झूठ सामने आ रहे हैं।यह ठीक उसी तरह का सीजन है जैसे डेंगू जैसी महामारी फैलने पर डाक्टरों और दवा विक्रेताओं का बन आती है।जैसे मिठाई भरे थाल के ऊपर रखी चादर के जरा-सा उघड़ते ही मक्खियाँ भिनभिना उठती हैं।जैसे मनमाफिक थानेदार के तैनात होते ही इलाके के सटोरियों की मौज आ जाती है।यकीनन तमाम तरह के स्वप्नजीवियों के लिए यह मुरादों भरे दिन हैं और कैश की किल्लत से भरा हाहाकारी समय भी।

बदलते मौसम के हिसाब से बाज़ार करवट लेत रहा है।विजय ध्वजा की तरह फेस्टिवल सेल, महासेल और मेगा सेल के पट लहराने रहे हैं।राजनीतिक सरोकारों के अनुसार बदलाव और क्रांति की नवीनतम अवधारणायें प्रकट होती है। वातावरण इंस्टेंट कॉफ़ी के असमंजस भरे झाग से भरपूर है। क्रांतिधर्मी पोस्टर योद्धाओं के होठों और मूंछों से चिपक कर यही झाग नवजागरण के गीत गुनगुना रहा है।राजनीति के हाट पर नोटबंदी के समर्थक रणबांकुरों और मनी एक्सचेंज वाले दलालोंकी डिमांड बढ़ जाती है।मुल्क के भीतर कुछ चटखता है तो लोग नई सोच के नये नेता के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा देता है।नये रैपर में नये समीकरण सामने आ रहे हैं। सोच भी मौसमी होती है, बदलते वक्त के साथ बदल जाती है।

होली जब आएगी तब आएगी।बजट सत्र से पहले इस पर्व के साथ जुड़ा हुडदंग सामने आ गया है।एक दूसरे के मुंह पर कालिख पोतने की होड़ लगी है।जगह-जगह मजीरे बज रहे हैं।सब अपने –अपने एजेंडे का फाग गाने की अभी से प्रेक्टिस कर रहे हैं।गायन के मुकाबले वादन का ‘पिच’ इतना अधिक है कि इसकी धमक में असल मंतव्य हवा में गुम हो गये हैं।देशद्रोह और देशभक्ति के नारों से अभिमंत्रित फुलझड़ियाँ चहुँ ओर चमक बिखेर रही हैं।

बदलते मौसम के साथ मुखौटे भी बदल रहे हैं। नोट अदल बदल गये लेकिन न तो मौसम का मिजाज़ बदला और न ही बदलाव की बयार बही।अलबत्ता करेंसी की इस छीना झपटी में विकास की प्रोजेक्टेड दर जरूर घट गयी।

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