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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 15

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(मासल में सिंहरण के उद्वान का एक अंश)

मालविकाः (प्रवेश करके) फूल हँसते हुए आते हैं, फिर मकरंदगिराकर मुरझा जाते हैं, आँसू से धरणी को भिगोकर चले जाते हैं! एकस्निग्ध समीर का झोंका आता है, निश्वास फेंककर चला जाता है। क्यापृथ्वीतल रोने ही के लिए है? नहीं, सब के लिए एक ही नियम तो नहीं।कोई रोने के लिए है तो कोई हँसने के लिए - (विचारती हुई) आजकलतो छुट्टी-सी है, परन्तु एक विचित्र विदेशियों का दल यहाँ ठहरा है, उनमेंसे एक को तो देखते ही डर लगता है। लो देखो - वह युवक आ गया!

(सिर झुका कर फूल सँवारने लगती है - ऐन्द्रजालिक के वेशमें चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः मालविका!

मालविकाः क्या आज्ञा है?

चन्द्रगुप्तः तुम्हारे नागकेसर की क्यारी कैसी है?

मालविकाः हरी-भरी!

चन्द्रगुप्तः आज कुछ खेल भी होगा, देखोगी?

मालविकाः खेल तो नित्य ही देखती हूँ। न जाने कहाँ से लोगआते हैं, और कुछ-न-कुछ अभिनय करते हुए चले जाते हैं। इसी उद्यानके कोने से बैठी हुई सब देखा करती हूँ।

चन्द्रगुप्तः मालविका, तुमको कुछ गाना आता है।

मालविकाः आता तो है, परन्तु...

चन्द्रगुप्तः परन्तु क्या?

मालविकाः युद्धकाल है। देश में रण-चर्चा छिड़ी है। आजकलमालव-स्थान में कोई गाता-बजाता नहीं।

चन्द्रगुप्तः रण-भेरी के पहले यदि मधुर मुरली की एक तान सुनलूँ, तो कोई हानि न होगी। मालविका! न जाने क्यों आज ऐसी कामनाजाग पड़ी है।

मालविकाः अच्छा सुनिए -

(अचानक चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः छोकरियों से बातें करने का समय नहीं है मौर्य!

चन्द्रगुप्तः नहीं गुरुदेव! मैं आज ही विपाशा के तट से आयाहूँ, यवन-शिविर भी घूम कर देख आया हूँ।

चाणक्यः क्या देखा?

चन्द्रगुप्तः समस्त यवन-सेना शिथिल हो गयी है। मगध काइन्द्रजाली जानकर मुझसे यवन-सैनिकों ने वहाँ की सेना का हाल पूछा।मैंने कहा - पंचनंद के सैनिकों से भी दुर्धर्ष कई रण-कुशल योद्धा शतद्रु-तट पर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सुनकर कि नन्द के पासकई लाख सेना है, उन लोगों में आतंक छा गया और एक प्रकार काविद्रोह फैल गया।

चाणक्यः हाँ! तब क्या हुआ? केलिस्थनीज के अनुयायियों नेक्या किया?

चन्द्रगुप्तः उनकी उपेजना से सैनिकों ने विपाशा को पार करनाअस्वीकार कर दिया और यवन, देश लौट चलने के लिए आग्रह करनेलगे। सिकन्दर के बहुत अनुरोध करने पर भी वे युद्ध के लिए सहमतनहीं हुए। इसलिए रावी के जलमार्ग से लौटने का निश्चय हुआ है। अबउनकी इच्छा युद्ध की नहीं है।

चाणक्यः और क्षद्रुकों का क्या समाचार है?

चन्द्रगुप्तः वे भी प्रस्तुत है। मेरी इच्छा है कि इस जगद्विजेताका ढोंग करने वाले को एक पाठ पराजय का भी पढ़ा दिया जाय। परन्तुइस समय यहाँ सिंहरण का होना अत्यन्त आवश्यक है।

चाणक्यः अच्छा देखा जायगा। सम्भवतः स्कन्धावार में मालवोंकी युद्ध-परिषद होगी। अत्यन्त सावधानी से काम करना होगा। मालवोंको मिलाने का पूरा प्रयत्न तो हमने कर लिया है।

चन्द्रगुप्तः चलिए, मैं अभी आया!

(चाणक्य का प्रस्थान)

मालविकाः यह खेल तो बड़ा भयानक होगा मागध!

चन्द्रगुप्तः कुछ चिन्ता नहीं। अभी कल्याणी नहीं आयी।

(एक सैनिक का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः क्या है?

सैनिकः सेनापति! मगध-सेना के लिए क्या आज्ञा है?

चन्द्रगुप्तः विपाशा और शतद्रु के बीच जहाँ अत्यन्त संकीर्ण भू-भाग है, वहीं अपनी सेना रखो। स्मरण रखना कि विपाशा पार करने परमगध का साम्राज्य ध्वंस करना यवनों के लिए बड़ा साधारण काम होजायगा। सिकन्दर की सेना सामने इतना विराट पदर्शन होना चाहिए किवह भयभीत हो।

सैनिकः अच्छा, राजकुमारी ने पूछा है कि आप कब तक

आवेंगे? उनकी इच्छा मालव मं ठहरने की नहीं है।

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी से मेरा प्रणाम कहना और कह देना किमैं सेनापति का पुत्र हूँ, युद्ध ही मेरी आजीविका है। क्षुद्रकों की सेना कामैं सेनापति होने के लिए आमंत्रित किया गया हूँ। इसलिए मैं यहाँ रहकरभी मगध की अच्छी सेवा कर सकूँगा।

सैनिकः जैसी आज्ञा है - (जाता है)

चन्द्रगुप्तः (कुछ सोचकर) सैनिक!

(फिर लौट आता है।)

सैनिकः क्या आज्ञा है?

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी से कह देना कि मगध जाने की उत्कटइच्छा होने पर भी वे सेना साथ न ले जायँ।

सैनिकः इसका उपर भी लेकर आना होगा?

चन्द्रगुप्तः नहीं।

(सैनिक का प्रस्थान)

मालविकाः मालव में बहुत-सी बातें मेरे देश से विपरीत हैं।इनकी युद्ध-पिपासा बलवती है। फिर युद्ध!

चन्द्रगुप्तः तो क्या तुम इस देश की नहीं हो?

मालविकाः नहीं, मैं सिन्ध की रहने वाली हूँ, आर्य! वहाँ युद्धविग्रह नहीं, न्यायालयों की आवश्यकता नहीं। प्रचुर स्वर्ण के रहते भी कोईउसका उपयोग नहीं। इसलिए अर्थमूलक विवाद कभी उठते ही नहीं। मनुष्यके प्राकृतिक जीवन का सुन्दर पालना मेरा सिन्धुदेश है।

चन्द्रगुप्तः तो यहाँ कैसे चली आयी हो?

मालविकाः मेरी इच्छा हुई कि और देशों को भी देखूँ। तक्षशिलामें राजकुमारी अलका से कुछ ऐसा स्नेह हुआ कि वहीं रहने लगी। उन्होंनेमुझे घायल सिंहरण के साथ यहाँ भेज दिया। कुमार सिंहरण बड़े सहृदय हैंपरन्तु मागध, तुमको देखकर तो मैं चकित हो जाती हूँ। कभी इन्द्रजाली, कभीकुछ! भुला इतना सुन्दर रूप तुम्हें विकृत करने की क्या आवश्यकता है?

चन्द्रगुप्तः शुभे, मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। तुम इन बातोंको पूछकर क्या करोगी! (प्रस्थान)

मालविकाः स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। परन्तु बिछलने काभय भी होता है। - अद्भुत युवक है। देखूँ कुमार सिंहरण कब आते हैं।

(पट-परिवर्तन)

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