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चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 23

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(रावी-तट के उत्सव-शिविर का एक पथ। पर्वतेश्वर अकेलेटहलते हुए।)

पर्वतेश्वरः आह! कैसा अपमान! जिस पर्वतेश्वर ने उपरापथ मेंअनेक प्रबल शत्रुओं के रहते भी विरोधों को कुचल कर गर्व से सिरऊँचा कर रक्खा था, जिसने दुर्दान्त सिकन्दर के सामने मरण को तुच्छसमझते हुए, वक्ष ऊँचा करके भाग्य से हँसी-ठठ्ठा किया था, उसी का यहतिरस्का - सो भी एक स्त्री के द्वारा! और सिकन्दर के संकेत से!प्रतिशोध! रक्त-पिशाची प्रतिहिंसा अपने दाँतों से नसों को नोच रही है!मरूँ या मार डालूँ! मारना तो असम्भव है। सिंहरण और अलका, वर-वधू वेश में हैं, मालवों के चुने हुए वीरों से वे घिरे हैं। सिकन्दर उनकीप्रशंसा और आदर में लगा है। इस समय सिंहरण पर हाथ उठानाअसफलता के पैरों तले गिरना है। तो फिर जी कर क्या करूँ?

(छुरा निकाल कर आत्महत्या करना चाहता है, चाणक्य आकरहाथ पकड़ लेता है।)

पर्वतेश्वरः कौन?

चाणक्यः ब्राह्मण चाणक्य।

पर्वतेश्वरः इस मेरे अन्तिम समय में भी क्या कुछ दान चाहते हो?

चाणक्यः हाँ!

पर्वतेश्वरः मैंने अपना राज्य दिया, अब हटो।

चाणक्यः यह तो तुमने दे दिया, परन्तु इसे मैंने तुमसे माँगा नथा, पौरव!

पर्वतेश्वरः फिर क्या चाहते हो?

चाणक्यः एक प्रश्न का उपर।

पर्वतेश्वरः तुम अपनी बात मुझे स्मरण दिलाने आये हो? तो ठीकहै! ब्राह्मण! तुम्हारी बात सच हुई। यवनों ने आर्यावर्त को पददलित करलिया। मैं गर्व में भूला था, तुम्हारी बात न मानी। अब उसी का प्रायश्चिपकरने जाता हूँ। छोड़ दो।

चाणक्यः पौरव! शान्त हो। मैं एक दूसरी बात पूछता हूँ। वृषलचन्द्रगुप्त क्षत्रिय है कि नहीं, अथवा उसे मुर्धाभिषिक्त करने में ब्राह्मण सेभूल हुई!

पर्वतेश्वरः आह, ब्राह्मण! व्यंग न करो। चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होनेका प्रमाण यही विराट आयोजन है। आर्य चाणक्य! मैं क्षमता रखते हुएजिस काम को न कर सका, वह कार्य निस्सहाय चन्द्रगुप्त ने किया।आर्यावर्त से यवनों को निकल जाने का संकेत उसके प्रचुर बल का द्योतकहै। मैं विश्वस्त हृदय से कहता हूँ कि चन्द्रगुप्त आर्यावर्त का एक एकच्छत्रसम्राट होने के उपयुक्त है। अब मुझे छोड़ दो।

चाणक्यः पौरव! ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहींचाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है, राजा बनाना जानताहै। इसलिए तुम्हें अभी राज्य करना होगा, और करना होगा वह कार्य -जिसमें भारतीयों का गौरव और तुम्हारे क्षात्र धर्म का पानल हो।

पर्वतेश्वरः (छुरा फेंककर) वह क्या काम है?

चाणक्यः जिन यवनों ने तुमको लांछित और अपमानित किया है,उनसे प्रतिशोध!

पर्वतेश्वरः असम्भव है।

चाणक्यः (हँसकर) मनुष्य अपनी दुर्बलता से भलीभाँति परिचितरहता है। परन्तु उसे अपने बल से भी अवगत होना चाहिए। असम्भवकहकर किसी काम को करने के पहले कर्मक्षेत्र में काँपकर लड़खड़ाओमत पौरव! तुम क्या हो - विचार कर देखो तो! सिकन्दर ने जो क्षत्रपनियुक्त किया है, जिन सन्धियों को वह प्रगतिशील रखना चाहता है, वेसब क्या है? अपनी लूट-पाट को वह साम्राज्य के रूप में देखना चाहताहै! चाणक्य जीते-जी यह नहीं होने देगा! तुम राज्य करो!

पर्वतेश्वरः परन्तु आर्य, मैंने राज्य दान कर दिया है।

चाणक्यः पौरव! तामस त्याग से साप्विक ग्रहण उपम है। वहदान न था, उसमें कई सत्य नहीं। तुम उसे ग्रहण करो।

पर्वतेश्वरः तो क्या आज्ञा है?

चाणक्यः पीछे बतलाऊँगा। इस समय मुझे केवल यही कहना हैकि सिंहरण को अपना भाई समजो और अलका को बहन।

(वृद्ध गांधार-राज का सहसा प्रवेश)

वृद्धः अलका कहाँ है, अलका?

पर्वतेश्वरः कौन हो तुम वृद्ध?

चाणक्यः मैं इन्हें जानता हूँ - वृद्ध गांधार-नरेश!

पर्वतेश्वरः आर्य, मैं पर्वतेश्वर प्रणाम करता हूँ।

वृद्धः मैं प्रणाम करने योग्य नहीं, पौरव! मेरी सन्तान से देशका बड़ा अनिष्ट हुआ है। आम्भीक ने लज्जा की यवनिका में मुझे छिपादिया है। इस देशद्रोही के प्राण केवल अलका को देखने के लिए बचेहैं, उसी से कुछ आशा थी। जिसको मोल लेने में लोभ असमर्थ था, उसीअलका को देखना चाहता हूँ और प्राण दे देना चाहता हूँ। (हाँफता है।)चाणक्यः क्षत्रिय! तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों जीवित हैं।

स्वस्तिमती अलका आज सौभाग्यवती होने जा रही है, चलो कन्या-संप्रदानकरके प्रसन्न हो जाओ।

(चाणक्य वृद्ध गांधार-नरेश को लिवा जाता है।)

पर्वतेश्वरः जाऊँ? किधर जाऊँ? चाणक्य के पीछे? (जाता है।)

(कार्नेलिया और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः कुमारी, आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

कार्नेलियाः किस बात की?

चन्द्रगुप्तः कि मैं विस्मृत नहीं हुआ।

कार्नेलियाः स्मृति कोई अच्छी वस्तु है क्या?

चन्द्रगुप्तः स्मृति जीवन का पुरस्कार है, सुन्दरी।

कार्नलियाः परन्तु मैं कितने दूर देश की हूँ। स्मृतियाँ ऐसे अवसरपर उद्दण्ड हो जाती है। अतीत के कारागृह में बन्दिनी स्मृतियाँ अपनेकरुण निश्वास की श्रृंखलाओं को झनझनाकर सूचीभेद्य अन्धकार में सोजाती है।

चन्द्रगुप्तः ऐसा हो तो भूल जाओ शुभे! इस केन्द्रच्युत जलते हुएउल्कपिंड की कोई कक्षा नहीं। निर्वासित, अपमानित प्राणों की चिन्ताक्या?

कार्नेलियाः नहीं चन्द्रगुप्त, मुझे इस देश से जन्मभूमि के समानस्नेह होता जा रहा है। यहाँ के श्यामल-कुंज, घने जंगल, सरिताओं कीमाला हने हुए शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीत-कालकी धूप और भोले कृषक तथा सरला कृषक-बालिकाएँ, बाल्यकाल कीसुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ हैं। यह स्वप्नों का देश, यह त्यागऔर ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि - भारतभूमि क्या भुलायी जासकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यों की जन्म-भूमि है, यह भारतमानवता की जन्मभूमि है।

चन्द्रगुप्तः शुभे, यह सुनकर चकित हो गया हूँ।

कार्नेलियाः और मैं मर्माहत हो गयी हूँ चन्द्रगुप्त, मुझे पूर्णविश्वास था कि यहाँ के क्षत्रप पिताजी नियुक्त होंगे और मैं अलेग्जेंद्रियामें समीप ही रह कर भारत को देख सकूँगी। परन्तु वैसा न हुआ, सम्राट्‌ने फिलिप्स को यहाँ का शासक नियुक्त कर दिया है।

(अकस्मात्‌ फिलिप्स का प्रवेश)

फिलिप्सः तो बुरा क्या है कुमारी? सिल्यूकस के क्षत्रप न होनेपर भी कार्नेलिया यहाँ की शासक हो सकती है। फिलिप्स अनुचर होगा- (देखकर) - फिर वही भारतीय युवक!

चन्द्रगुप्तः सावधान, यवन! हम लोग एक बार एक-दूसरे कीपरीक्षा ले चुके हैं।

फिलिप्सः ऊँह! तुमसे मेरा सम्बन्ध ही क्या है, परन्तु...

कार्नेलियाः और मुझसे भी नहीं, फिलिप्स! मैं चाहती हूँ कि तुममुझसे न बोलो।

फिलिप्सः अच्छी बात है। किन्तु मैं चन्द्रगुप्त को भी तुमसे बातेंकरते हुए नहीं देख सकता। तुम्हारे प्रेम का...

कार्नेलियाः चुप रहो, मैं करती हूँ, चुप रहो।

फिलिप्सः (चन्द्रगुप्त) मैं तुमसे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।

चन्द्रगुप्तः जब इच्छा हो, मैं प्रस्तुत हूँ। और संधिभंग करने केलिए तुम्हीं अग्रसर होंगे, यह अच्छी बात होगी।

फिलिप्सः संधि राष्ट्र की है। यह मेरी व्यक्तिगत बात है। अच्छा,फिर कभी मैं तुम्हें आह्‌वान करूँगा।

चन्द्रगुप्तः आधी रात, पिछले पहर, जब तुम्हारी इच्छा हो।

(फिलिप्स का प्रस्थान)

कार्नेलियाः सिकन्दर ने भारत से युद्ध किया है और मैंने भारतका अध्ययन किया है। मैं देखती हूँ कि यह युद्ध ग्रीक और भारतीयोंके अस्त्र का ही नहीं, इसमें दो बुद्धियाँ भी लड़ रही है। यह अरस्तूऔर चाणक्य की चोट है, सिकन्दर और चन्द्रगुप्त उनके अस्त्र हैं।

चन्द्रगुप्तः मैं क्या कहूँ, मैं एक निर्वासित -

कार्नेलियाः लोग चाहे जो कहें, मैं भलीभाँति जानती हूँ कि अभीतक चाणक्य की विजय है। पिताजी से और मुझसे इस विषय पर अच्छाविवाद होता है। वे अरस्तू के शिष्यों में हैं।

चन्द्रगुप्तः भविष्य के गर्भ में अभी बहुत-से रहस्य छिपे हैं।

कार्नेलियाः अच्छा, तो मैं जाती हूं और एक बार अपनी कृतज्ञताप्रकट करती हूँ। किन्तु मुझे विश्वास है कि मैं पुनः लौट कर आऊँगी।

चन्द्रगुप्तः उस समय भी मुझे भूलने की चेष्टा करोगी?

कार्नेलियाः नहीं। चन्द्रगुप्त! विदा, - यवन-बेड़ा आज हीजायगा।

(दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए जाते हैं - राक्षस औरकल्याणी का प्रवेश)

कल्याणीः ऐसा विराट्‌ दृशअय तो मैंने नहीं देखा था अमात्य!मगध को किस बात का गर्व है?

राक्षसः गर्व है राजकुमारी! और उसका गर्व सत्य है। चाणक्य औरचन्द्रगुप्त मगध की ही प्रजा हैं, जिन्होंने इतना बड़ा उलट-फेर किया है।

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः तो तुम इसे स्वीकार करते हो अमात्य राक्षस?

राक्षसः शत्रु की उचित प्रशंसा करना मनुष्य का धर्म है। तुमनेअद्‌भुत कार्य किये, इसमें भी कोई सन्देह है?

चाणक्यः अस्तु, अब तुम जा सकते हो। मगध तुम्हारा स्वागतकरेगा।

राक्षसः राजकुमारी तो कल चली जायँगी। पर, मैंने अभी तकनिश्चय नहीं किया है।

चाणक्यः मेरा कार्य हो गया, राजकुमारी जा सकती है। परन्तुएक बात कहूँ?

राक्षसः क्या?

चाणक्यः यहाँ की कोई बात नन्द से न कहने की प्रतिज्ञा करनीहोगी।

कल्याणीः मैं प्रतिशुर्त होती हूँ।

चाणक्यः राक्षस, मैं सुवासिनी से तुम्हारी भेंट भी करा देता, परन्तुवह मुझ पर विश्वास नहीं करती।

राक्षसः क्या वह भी यहीं है?

चाणक्यः कहीं होगी, तुम्हारा प्रत्यय देखकर वह आ सकती है।

राक्षसः यह लो मेरी अंगुलिय मुद्रा। चाणक्य! सुवासिनी कोकारागार से मुक्त करा कर मुझसे भेंट करा दो।

चाणक्यः (मुद्रा लेकर) मैं चेष्टा करूँगा।

(प्रस्थान)

राक्षसः तो राजकुमारी, प्रणाम!

कल्याणीः तुमने अपना कर्तव्य भली-भाँति सोच लिया होगा। मैं

जाती हूँ, और विश्वास दिलाती हूँ कि मुझसे तुम्हारा अनिष्ट न होगा।

(दोनों का प्रस्थान)