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चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 29

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(कुसुमपुर के प्रान्त में - पथ। चाणक्य और पर्वतेश्वर)

चाणक्यः चन्द्रगुप्त कहाँ है?

पर्वतेश्वरः सार्थवाह के रूप में युद्ध-व्यवसायिों के साथ आ रहेहैं। शीघ्र ही पहुँच जाने की सम्भावना है।

चाणक्यः और द्वन्द्व में क्या हुआ?

पर्वतेश्वरः चन्द्रगुप्त ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। समस्तउपरापथ में फिलिप्स के मारे जाने पर नया उत्साह फैल गया है। आर्य,बहुत-से प्रमुख यवन और आर्यगण की उपस्थिति में वह युद्ध हुआ। वहखड्‌ग-परीक्षा देखने योग्य थी! वह वीर-दृश्य अभिनन्दनीय था।

चाणक्यः यवन लोगों के क्या भाव थे?

पर्वतेश्वरः सिंहरण अपनी सेना के साथ रंगशाला की रक्षा कर रहाथा, कुछ हलचल तो हुई, पर वह पराजय का क्षोभ था। यूडेमिस, जो उसकासहकारी था, अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। किसी प्रकार वह ठंडा पड़ा। यूडेमिससिकन्दर की आज्ञा की प्रतीक्षा में रुका था। अकस्मात्‌ सिकन्दर के मरने कासमाचार मिला। यवन लोग अब अपनी ही सोच रहे हैं, चन्द्रगुप्त सिंहरणको वहीं छोड़कर यहाँ चला आया, क्योंकि आपका आदेश था।

(अलका का प्रवेश)

अलकाः गुरुदेव, यज्ञ का प्रारम्भ है।

चाणक्यः मालविका कहाँ है?

अलकाः वह बन्दी की गयी और राक्षस इत्यादि भी बन्दी होनेही वाले हैं। वह भी ठीक ऐसे अवसर पर जब उनका परिणय हो रहाहै। क्योंकि आज ही...

चाणक्यः तब तुम जाओ, अलके! उस उत्सव से तुम्हें अलग नरहना चाहिए। उनके पकड़े जाने के अवसर पर ही नगर में उपेजना फैलसकती है। जाओ शीघ्र।

(अलका का प्रस्थान)

पर्वतेश्वरः मुझे क्या आज्ञा है?

चाणक्यः कुछ चुने हुए अश्वारोहियों को साथ लेकर प्रस्तुतरहना। चन्द्रगुप्त जब भीतर से युद्ध प्रारम्भ करे, उस समय तुमको नगरद्वार पर आक्रमण करना होगा।

(गुफा का द्वार खुलना। मौर्य, मालविका, शकटार, वररुचि, पीछेपीछेचन्द्रगुप्त की जननी का प्रवेश)

चाणक्यः आओ मौर्य!

मौर्यः हम लोगों के उद्धारकर्ता, आप ही महात्मा चाणक्य हैं?

मालविकाः हाँ, यही हैं।

मौर्यः प्रणाम।

चाणक्यः शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए जियो सेनापति! नन्दके पापों की पूर्णता ने तुम्हारा उद्धार किया है। अब तुम्हारा अवसर है।

मौर्यः इन दुर्बल हड्डियों को अन्धकूप की भयानकता खटखटा रहीहै।

शकटारः और रक्तम गम्भीर बीभत्स दृश्य, हत्या का निष्ठुरआह्‌वान कर रहा है।

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश, माता-पिता के चरण छूता है।)

चन्द्रगुप्तः पिता! तुम्हारी यह दशा!! एक-एक पीड़ा की, प्रत्येकनिष्ठुरता की गिनती होगी। मेरी माँ! उन सब का प्रतिकार होगा, प्रतिशोधलिया जायगा! ओ, मेरा जीवन व्यर्थ है! नन्द!

चाणक्यः चन्द्रगुप्त, सफलता का एक ही क्षण होता है। आवेशसे और कर्तव्य से बहुत अन्तर है।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव आज्ञा दीजिए।

चाणक्यः देखो, उधर, नागरिक लोग आ रहे हैं। सम्भवतः यहीअवसर है। तुम लोगों के भीतर जाने का और विद्रोह फैलाने का।

(नागरिकों का प्रवेश)

प. नागरिकः वेण और कंस का शासन क्या दूसरे प्रकार का रहाहोगा?

दू. नागरिकः ब्याह की वेदी से वर-वधू को घसीट ले जाना,इतने बड़े नागरिक का यह अपमान! अन्याय है।

ती. नागरिकः सो भी अमात्य राक्षस और सुवासिनी को।कुसुमपुर के दो सुन्दर फूल!

चौ. नागरिकः और सेनापति, मंत्री, सबों को अन्धकूप में ड़ालदेना।

मौर्यः मंत्री, सेनापति और अमात्यों को बन्दी बना कर जो राज्यकरता है, वह कैसा अच्छा राजा है नागरिक! उसकी कैसी अद्‌भुत योग्यताहै! मगध को गर्व होना चाहिए।

प. नागरिकः गर्व नहीं वृद्ध! लज्जा होनी चाहिए। ऐसा जघन्यअत्याचार!

वररुचिः यह तो मगध का पुराना इतिहास है। जरासंघ का यहअखाड़ा है। यहाँ एकाधिपत्य की कटुता सदैव से अभ्यस्त है।

दू. नागरिकः अभ्यस्त होने पर भी अब असह्य है।

शकटारः आज आप लोगों को बड़ी वेदना है, एक उत्सव काभंग होना अपनी आँखों से देखा है, नहीं तो जिस दिन शकटार को दण्डमिला था, एक अभिजात नागरिक की सकुटुम्ब हत्या हुई थी, उस दिनजनता कहाँ सो रही थी।

ती. नागरिकः सच तो, पिता के समान हम लोगों की रक्षा करनेवाला मंत्री शकटार - हे भगवान!

शकटारः मैं ही हूँ। कंकाल-सा जीवित समाधि से उठ खड़ा हुआहूँ। मनुष्य मनुष्य को इस तरह कुचल कर स्थिर न कर सकेगा। मैं पिशाचबनकर लौट आया हूँ - अपने निरपराध सातों पुत्रों की निष्ठुर हत्या काप्रतिशोध लेने के लिए। चलोगे साथ?

चौ. नागरिकः मंत्री शकटार! आप जीवित हैं?

शकटारः हाँ, महापद्म के जारज पुत्र नन्द की - बधिक हिंस्रपशु नन्द की - प्रतिहिंसा का लक्ष्य शकटार मैं ही हूँ!

सब नागरिकः हो चुका न्यायाधिकरण का ढोंग! जनता की शुभकामना करने की प्रतिज्ञा नष्ट हो गयी। अब नहीं, आज न्यायाधिकरण मेंपूछना होगा!

मौर्यः और मेरे लिए भी कुछ...

नागरिकः तुम...?

मौर्यः सेनापति मौर्य - जिसका तुम लोगों को पता ही न था।

नागरिकः आश्चर्य! हम लोग आज क्या स्वप्न देख रहे हैं? अभीलौटना चाहिए। चलिए आप लोग भी।

शकटारः परन्तु मेरी रक्षा का भार कौन लेता है?

(सब इधर-उधर देखने लगते हैं, चन्द्रगुप्त तन कर खड़ा हो जाताहै।)

चन्द्रगुप्तः मैं लेता हूँ। मैं उन सब पीड़ित, आघात-जर्जर, पददलित लोगों का संरक्षक हूँ, जो मगध की प्रजा हैं।

चाणक्यः साधु! चन्द्रगुप्त!

(सहसा सब उत्साहित हो जाते हैं, पर्वतेश्वर और चाणक्य तथावररुचि को छोड़ कर सब जाते हैं।)

वररुचिः चाणक्य! यह क्या दावाग्नि फैला दी तुमने?

चाणक्यः उत्पीड़न की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अञ्चलमें छिपाये रहता है। कात्यायन! तुमने अन्धकूप का सुख क्यों लिया? कोईअपराध तुमने किया था?

वररुचिः नन्द की भूल थी। उसे अब भी सुधारा जा सकता है।

ब्राह्मण! क्षमानिधि! भूल जाओ!

चाणक्यः प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर हम-तुम साथ ही वैखानस होंगे,कात्यायन! शक्ति हो जाने दो, फिर क्षमा का विचार करना। चलोपर्वतेश्वर! सावधान!!

(सब का प्रस्थान)