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तंग गलियाँ

चाँदनी चौक के बल्लीमरान में क़ासिम जान गली जहाँ ग़ालिब की बची-कुची हवेली को देखने लोग दूर-दूर से आते है। वह भी रोज़ इसी ग़ालिब की गली से होकर और दो तंग गलियों से होता हुआ जाता है और उसकी नज़र गली के चौथे मकान की दूसरी मंज़िल की खुली खिड़की पर पड़ी तो वही खड़ा मिलता सादिक़ का प्यार ज़ैनब । साँवली-सलोनी सी ज़ैनब लम्बे बालों को सुलझाते हुए जब इधर-उधर देखते हुए सादिक की तरफ देखती है तो उसे लगता है कि कोई इन आँखों को ग़ौर से देख ले तो उसे ज़िहाद कर मासूम लोगों को मारने की ज़रूरत नहीं है। उसे ज़न्नत तो इन्हीं बड़ी-बड़ी आँखों में डूबकर कर मिल जाएँगी। यानि सही मायने में उन्हें मोहब्बत करने का सलीक़ा सिखाना चाहिए ।

उसके दोस्त उसका मज़ाक उड़ाते कि "क्या कल्लू सी महबूबा ढूँढ रखी है कोई और नहीं मिली किनारी बाज़ार वाली वाली गली की नीलोफ़र को देख चाँद का ,टुकड़ा लगती है।"तुम्हें क्या पता कि लैला भी काली थी। और मैं भी अब ज़ैनब को देख मजनूं की तरह सदके करने लगा हूँ ।" सादिक़ भी आह ! भरकर बोला। उसका घर तो ज़ैनब के घर से दूर बीचों-बीच बाज़ार से नई सड़क के साथ लगी एक तंग गली में था मगर वह अक्सर वही से निकल अपने घर को जाता था। ज़ैनब के अब्बा ने वही घर के नीचे बिरयानी का ठेला लगा रखा था। .जिसकी बिरयानी वही ज़ैनब बनाती थी और ऐसी लज़ीज़ बिरयानी के लिए सुबह आठ बजे से शाम सात बजे तक खाने वालो की भीड़ लग जाती थी। उसने भी पहली बार परदे के पीछे से बिरयानी देती ज़ैनब को देखा था । और वही से उसके इश्क़ का आगाज़ हुआ था। फ़िर दूसरी, तीसरी, चौथी मुलाक़ात इन्ही गलियों में आते -जाते हुए और एक दिन उसने ज़ैनब का पीछा कर ठीक जामा मस्जिद से थोड़ी दूर लालक़िले के सामने अपने प्यार का इज़हार किया मानो वो सारे जहां के शहंशाह 'को भी अपने इस पवित्र प्रेम का साक्षी बनाना चाहता हूँ । ज़ैनब शर्माकर बस इतना कह पाई " अब्बा से निक़ाह की बात करना ।"

मग़र अब्बा ने तो साफ़ कह दिया कि "देखो सादिक़ तुम पढ़े-लिखे हूँ। दरियागंज के किताबों के दफ़्तर में छपाई के काम से अच्छा कमा लेते हूँ । तुम्हें दामाद बनाने में कोई हर्ज़ नहीं है । पर मेरी शर्त है कि मैं कोई दहेज़ नहीं दूँगा निक़ाह का ख़र्चा भी तुम्हें खुद उठाना होगा । और तो और तुम्हें मेरा घर जमाई बनना होगा आखिर ज़ैनब मेरी एकलौती बेटी है उसकी की वजह आज घर और दुकान दोनों चल रही है । हीरा है मेरी ज़ैनब मुझे तो कोई ऐसा लड़का चाहिए जो घर और दुकान को भी संभाले मेरा भी ख़्याल रखें । समझें " सादिक़ को समझ नहीं आया कि वो क्या ज़वाब दे और बस इतना कहकर निकल गया कि

क्या शर्त -ए -मोहब्बत है,क्या शर्त -ए -ज़माना है

आवाज़ भी जख्मी है और वो गीत भी गाना है

भोली सी अदा, कोई फिर इश्क की जिद पर है

फिर आग का दरिया है और डूब ही जाना है

हताश आशिक़ जब घर पहुंचा तो अम्मी ने बताया कि "नीलोफर के अब्बा आये थे तेरा रिश्ता लेकर खूब दहेज़ देने की बात कर रहे थे । मैंने कह दिया मुझे कोई एतराज नहीं बस सादिक़ से पूछ कर बताती हूँ । तू बोल बेटा "हाँ" बोल दो ?"अम्मा नादिया ने प्यार से पूछा ।" बस करो आज बहुत थक गया हुआ हूँ, फ़िर बात करेंगे । " सादिक़ उदास होकर बोला और अपने कमरे में चला गया । आज उसकी आँखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी । वह यही सोचा जा ऱहा था कि

सारा चाँदनी चौक सादिक़ को यह किस्सा सुना चुका है कि नीलोफर ज़ैनब की सौतेली बहन। जब ज़ैनब पाँच साल की थी तो उसकी अम्मी मस्ज़िद के नामचीन मौलवी के बेटे हैदर के साथ भागकर निग़ाह कर लिया था और ज़ैनब को उसके पिता आसिफ़ के पास छोड़ गई थी । बड़ा हंगामा मचा था पर क़ाज़ी मौलवी साहब ने बेटे की ज़िद के सामने घुटने टेकते हुए लोगोँ को यह समझा दिया था कि "बीवी भी शौहर को तीन बार तलाक़ देकर छोड़ सकती है आख़िर अल्लाह की भी यही मर्जी है कि अगर बीवी शादी से खुश न हो तो उसे भी आज़ाद होने का पूरा हक़ है ।" शायद पहली बार किसी मौलवी ने एक औरत के हक़ में फैसला दिया था। वो अलग़ बात है उसमे उसका अपना स्वार्थ था । आसिफ़ मिया नन्ही सी ज़ैनब को उठाये वापिस घर लौट आये और वह ज़ैनब की अम्मी नुसरत ने हैदर से तीन बच्चों को जन्म दिया था । और सबसे बड़ी थी नीलोफर जो अपनी अम्मी पर गई और ज़ैनब अपने अब्बू पर । वहाँ ज़ैनब भी अपने बाप का फ़रमान सुन चुकी थी। उसे पता था उसके अब्बा मतलबी है तभी अम्मी छोड़कर चली गयी थी । आख़िर जाती भी क्यों न इश्क़ में कुछ सही गलत नहीं होता ।

देखते-देखते तीन महीने बीत गए सादिक़ आज भी ज़ैनब को उन्ही तंग गलियों से देखते हुए जाता है और ज़ैनब ने भी अपनी ज़ुल्फ़ो को सुलझाना बंद कर दिया है क्योंकि उसकी खुद की ज़िंदगी उलझकर रह गई है । "क्या यार ! कब तक मजनूं की तरह उसके बाप की गालियाँ खाता रहेगा वो बुड्ढा नहीं मानने वाला और तू भी क्या अपनी अम्मी को छोड़ सकता है एकलौती औलाद है अपनी अम्मी की । तेरे अलावा है ही कौन । काश उस नीलोफ़र के अब्बा ने मेरे यहाँ रिश्ता भेजा होता तो एक मिनट में हाँ करता। ":सादिक के दोस्त अफ़ज़ल ने बड़ी गहरी सांस लेते हुए कहा । "तू जाकर निक़ाहकर ले मुझे साली को घरवाली बनाने का कोई शौक़ नहीं हैं ।" सादिक़ चिढ़ते हुए बोला ।

"सादिक़ यार ज़ैनब का निक़ाह तय हो गया उसके चाचा के बेटे अलफरोज के साथ ।" उसके दोस्त सरफ़राज़ ने हाँफते हुए बताया । "या ,अल्लाह कभी तो हम आशिक़ो की बारात, निकाल जनाज़ा नहीं । "कुछ करो दोस्तों वो अलफरोज़ तो बदमाश है बुड्ढे ने अपने लालच के लिए बेटी की बलि चढ़ा देगा" सादिक रोते हुए बोला । "निक़ाह कब है ?" अफ़ज़ल ने पूछा। ईद के बाद सरफ़राज़ ने कहा । "करते है सादिक़ कुछ परेशां मत हो अल्लाह मोहब्बत करने वालो के साथ है ।" अफ़ज़ल ने सादिक़ को गले लगाते हुए कहा।

"बेटा नीलोफ़र की साथ रिश्ता पक्का कर आऊं? सादिक की अम्मी नादिरा ने पूछा । "मुझे दहेज़ नहीं चाहिए माँ। और हाँ नीलोफर से निक़ाह करने में कोई दिलचस्पी नहीं है ।" सादिक़ यह कहकर पैर पटकता हुआ घर से चला गया । आज सादिक़ पहली बार ग़ालिब की हवेली में घुसा और ग़ालिब की मूर्ति के सामने लगभग रोता हुआ बोला----


बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब

जिसे खुद से बढ़कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है


"भाईजान हवेली बंद करने का वक़्त हो गया अब ज़रा रुखसती फरमाए लगता है आप आशिक़ के साथ-साथ ग़ालिब के मुरीद भी है।" गॉर्ड ने थोड़ा छेड़ते हुए कहा। "नहीं मैं तो बस इनकी ग़ज़लें पढ़ता रहता हूँ।" सादिक़ बुझे मन से कहकर चला गया । ईद भी आ गई । "ईद मुबारक़ यार !" अफ़ज़ल ने सादिक़ को गले लगाते हुए कहा "यह क्या ! चल बक़रीद मनाते है" सरफ़राज़ और अफ़ज़ल सादिक को खींचते हुए बोले । "नहीं यार ! मेरे खुद के मासूम से दिल पर छुरियाँ चल रही है अब क्या! किसी पर" "तो क्या ? बकरे का दर्द समझ आ गया" सरफ़राज़ बात काटकर हॅंसते हुए बोला । "तुम जैसे दोस्त हो उन्हें दुश्मनों की ज़रूरत नहीं है । आज केक काटकर ईद मनाते है।" सादिक़ ने थोड़ा मायूस होकर ज़वाब दिया ।

ज़ैनब के निक़ाह का दिन नज़दीक आ गया । वह भी लगातार अपनी बचपन की सहेलियों के साथ रो रही थी । हर पल दिल यहीं दुआ कर रहा था कि अल्लाह कोई करामात कर दें। इस तरह मेहंदी की रात भी आ गयी। पर पूरे मोहल्ले में हंगामा मच गया कासिम जान की गली में शोर मच गया । पुलिस आ गई थी। अलफरोज को पकड़कर ले गई । पता चला कि अलफरोज़ ने कई महँगी गाड़ियाँ चुराकर चोर बाज़ार में बेच दी थी। आज वो पकड़ा गया ।

आसिफ़ को काँटो तो खून नहीं । कल निक़ाह और आज यह सब । अफ़ज़ल और सरफ़राज़ मौके का फ़ायदा उठाकर पहुँच गए आसिफ़ के पास। "चाचा इस वक़्त आपकी कोई आबरू बचा सकता है तो सिर्फ़ सादिक़ है वरना सोचिये बीवी की तरह बेटी की वजह से भी शर्मिंदा होंगे और शबनम बीबी को भी आप पसंद करने लगे है वो क्या सोचेंगी आपके बारे में कि आपने किसी चोर-गुंडे को अपना दामाद बना लिया था।" सरफ़राज़ ने आसिफ़ की आंखो में देखते हुए कहा। "अरे! बेटा बस उस बेवा औरत से थोड़ी सी हमदर्दी है।। आसिफ़ ने झेंपते हुए कहा। "ठीक है बेटा कल मैं ज़ैनब और सादिक का निक़ाह पूरे चाँदनी चौक के सामने करवा दूगा। फिर देखता हूँ कि कौन मुझ पर ऊँगली उठाता है। हाँ! पर मैं कोई दहेज़ नहीं दूँगा।" आसिफ़ की बातों में जोश था। "और सादिक़ भी घर जमाई नहीं बनेगा।" अफ़ज़ल भी शर्त वाले लहज़े में बोला ।

आख़िर वहीं हुआ जो अल्लाह को मंजूर था । सादिक़ और ज़ैनब का निक़ाह हो गया । अफ़ज़ल चाँद के टुकड़े नीलोफ़र को अपने घर ले आया। सच तो यही था कि नीलोफ़र भी अफ़ज़ल को ही पसंद करती थी । आसिफ़ की हमदर्दी प्यार में बदल गई उसने शबनम से निक़ाह कर लिया । अब बिरयानी वो बनाती है । सादिक़ की माँ खुश है कि बेटा खुश है पर दहेज़ न मिलने का मलाल उनकी बातों में नज़र आ जाता है। अलफरोज़ जेल से छूट चुका है और अपने बचपन की दोस्त अमीना से निक़ाह की तैयारी कर रहा है उसने वादा किया है कि वह सुधर जायेंगा । किसे क्या पता था कि इन तंग गलियो में कितनी आधी- अधूरी प्रेम कहानियाँ चल रही है, बस उनका मुक़्क़मल होना हमेशा से ही अल्लाह के हाथ में होता है । अब सरफ़राज़ भी ग़ालिब को पढ़ने लगा है अपने दोस्तों को यूँ अपने इश्क़ के साथ साथ आबाद देख वो अकसर यह कहता रहता है ----


ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता.........