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मेरा क्या कसूर


फ्री पीरियड में कॉलेज लाइब्रेरी में बैठकर किताबें पढ़ना मेरा प्रिय शगल है। आज एक पत्रिका में कहानी पढ़कर मैं सिहर उठी। बहुत ही सुंदर शैली में लिखी कहानी थी, किन्तु उसका अंत एकदम अप्रत्याशित था। क्या वाकई माँ बनने की नारी की लालसा उसे किसी अन्य पुरुष से संसर्ग हेतु बाध्य कर सकती है? यह सही है कि मातृत्व ही नारी को पूर्णता प्रदान करता है, किन्तु सन्तान का होना या न होना सिर्फ नारी की जवाबदारी तो नहीं... फिर भी बाँझपन का कलंक क्यों सिर्फ उसके खाते में जाता है और अपने बच्चे की लालसा क्या उसे इस हद तक गिरने को मजबूर कर सकती है। चिकित्सा जगत की नई उपलब्धियाँ क्या इतनी महँगी हैं कि आम आदमी की पहुँच से परे हो? मेरा संस्कारी मन किसी भी तरह इस बात को पचा नहीं पा रहा था।

"बीप.." मैसेज नोटिफिकेशन टोन ने ध्यान आकर्षित किया।
'दीदी आप फ्री हो तो कॉल करूँ?' मेरी फेसबुक फ्रेंड सिम्मी का मैसेज था। मैंने उसे कॉल किया... उसने बताया कि उसकी और उसके पति की सारी टेस्ट रिपोर्ट्स आ चुकी हैं, अब कोई संभावना नहीं है.... अतः वे लोग बच्चा गोद लेने का सोच रहे हैं और उसमें मेरी मदद चाहते हैं। मेरी एक डॉक्टर फ़्रेंड गायनेकोलॉजिस्ट है, उससे मिल कर वे कुछ प्लान करना चाहते थे। मैंने उसे आश्वस्त किया कि जल्द ही डॉक्टर से टाइम लेकर सूचित करूँगी।

फोन काटने के बाद फिर से वह कहानी मेरे जेहन में शोर मचाने लगी... मैं सोचने लगी कि बच्चे को गोद लेना भी तो एक बेहतर विकल्प हो सकता था। गलत राह पर मुड़ने की बनिस्बत आप किसी अनाथ की जिंदगी में उजाला लाकर अपनी खुशियाँ पा सकते हैं। मेरी सोच की दिशा चानी तक पहुँची और मैं फिर दुविधा में पड़ गयी। चानी से ध्यान हटाने के लिए मैं सिम्मी के बारे में सोचने लगी.... सिम्मी, जिससे एक बार भी नहीं मिली हूँ, दिन ब दिन मेरे दिल में उतरती जा रही है। परिचय है ही कितना, मात्र एक वर्ष का और वह भी आभासी दुनिया का, फिर भी न जाने क्यों मैं उसकी खुशी में खुश होती हूँ और दर्द में खुद भी भीग जाती हूँ। शादी के बारह साल बाद भी वह निःसन्तान है, उसके सास ससुर पोते पोती का मुँह देखने की आस लिए ही इस संसार से कूच कर गए, अचानक ही और मात्र पन्द्रह दिनों के अंतराल से... उस पर तो मानों गाज गिर पड़ी। नौकरी अस्थायी थी, एक माह की छुट्टी ली थी, सासूजी की सेवा के लिए, डॉक्टर के अनुसार उनके पास इससे अधिक वक़्त नहीं था, किन्तु ईश्वर ने छः महीने की जिंदगी दे दी बोनस के रूप में। उनकी इच्छा अंतिम समय पैतृक घर में रहने की थी। डॉक्टर को झुठलाते हुए गाँव की आबो हवा से सुधरती सेहत ने एक आस बंधा दी थी कि ये उधार की सांसें लम्बी चलेंगी। अचानक ही एक दिन वे जो सोयीं तो उठी नहीं और ससुरजी ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए। नौकरी चूँकि अस्थायी थी, तो प्रबंधन ने एक माह बाद किसी और को दे दी थी। अब सिम्मी की जिंदगी एकदम रिक्त और बोझिल थी। उसके पति तो ऑफिस चले जाते, किन्तु उसे दिन काटना मुश्किल लगता। मैंने उससे कहा कि एक प्रयास और करो, किसी अच्छे डॉक्टर से मिलकर.. शायद जिंदगी गुलजार हो जाए। उसने बताया कि उसकी सासूजी धर्म, कर्म, मन्नत, ज्योतिष, चिकित्सा आदि सब उपाय करवा चुकी थीं। मैंने मेरी सहेली से पूछकर एक डॉक्टर का पता दिया था, जिनका इनफर्टिलिटी सेंटर है, आज उनका जवाब भी आ गया।

मैं फिर अतीत में विचरने लगी... सिम्मी और मेरी दोस्ती की वजह चानी पर लिखी मेरी कहानी थी। कहानी से बढ़कर एकदम आँखों देखी सच्चाई थी वह मेरे लिए।
"ये सच है या सिर्फ कल्पना?" उसका कमेंट था। जब उसे पता चला कि यह कहानी मेरी रिश्ते में दीदी की दत्तक पुत्री की है, तब वह मुझसे नाराज हुई थी। चूँकि नाराजगी या कहानी के प्रति विरोध वह सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं करना चाहती थी, अतः हम फेसबुक फ्रेंड्स बन गए थे। इनबॉक्स में लम्बी बहस के बाद हम दोनों ही एक दूसरे से आंशिक सहमत हुए थे और समय के साथ हमारी दोस्ती गहरी होती चली गयी थी। बच्चा गोद लेना भी तो आसान नहीं है और चानी को जानने के बाद तो मेरा मत इसके विरोध में ही था। तब क्या उस कथानायिका का कदम उचित था...? मैं फिर सोच में डूबने लगी थी। किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पूर्व चानी के बारे में विस्तारपूर्वक जानना उचित होगा।

चानी... जी हाँ वह शिवानी के उपन्यासों की नायिका की तरह थी... तीखे नैन नक्श और एकदम साँचे में ढला शरीर... तेरह वर्ष की वय में वह बहुत सुंदर दिखने लगी थी। दीदी ने जब उसे गोद लिया था तब वह शहर के बाहर जंगल की झाड़ियों में जानवरों के भक्षण हेतु फेंकी गयी एक नवजात बालिका थी, जो शायद दहेज के दानव के डर से कुचली गयी किसी परिवार की अवांछित कन्या थी या कि अविवाहित माँ की सन्तान जो पिता के नाम के बिना नाजायज मानी जाती। बेवजह कोई अपने कलेजे के टुकड़े को यूँ नहीं फेंकता। कहते हैं न कि 'जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय', सो किसी भले मानुष ने उसकी करुण चीखें सुन उसे जिला चिकित्सालय पहुँचा दिया था। दीदी की शादी अधिक उम्र में हुई थी और काफी जटिल शल्यक्रिया के बाद एक बेटा हुआ था, जो चार साल का हो चुका था। दीदी को एक बेटी का बहुत चाव था और चूँकि डॉक्टर ने दूसरा चांस लेने को मना कर दिया था, तो एक नर्स की मार्फ़त पुलिस, हॉस्पिटल और जटिल कानूनी प्रक्रिया से गुजरकर चानी दीदी की गोद में आ गयी थी।

हम सब बहुत खुश थे, दीदी के आदर्शवाद की सब प्रशंसा कर रहे थे, किन्तु वे कहती थीं कि इसमें उनका अपना स्वार्थ भी है। परिवार पूरा हो गया है... "यदि मेरी अपनी बेटी होती तो क्या मैं ये सोचती?" उनकी बात भी गलत नहीं थी, फिर भी उन्होंने एक मिसाल तो रख ही दी थी समाज में। क्या क्या सपने नहीं देखे थे चानी के लिए.. उसे उच्च शिक्षित कर एक सम्मानित ओहदे तक पहुंचाने का लक्ष्य था उनका। जियाजी जिस फैक्ट्री में काम करते थे, वह बंद हो चुकी थी और दीदी स्कूल में शिक्षिका थीं, उनकी योग्यता और कर्मठता जग जाहिर थी। उनकी अकेली कमाई से घर चलता और बच्चों की देखभाल के लिए जियाजी हाउस हस्बैंड बन गए थे।

चानी स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही स्कूल आने जाने वाले ऑटो चालक के प्रेम में पड़ गयी। दीदी के लिए यह दूसरा धक्का था, पहला उन्हें तब लगा था जब शादी के बाद जियाजी की शैक्षणिक योग्यता पता चली थी। तब समझौते के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था, किन्तु अभी दीदी ने चानी को सही रास्ते पर लाने के प्रयास में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी सिलसिले में वे मुझे लेकर किसी ज्योतिष के पास गयीं थीं, जिसने जन्म के अनुमानित समयानुसार चानी की कुण्डली बनाकर, एक कागज पर उसके हल्दी लगे हाथों की छाप से हस्तरेखाएँ देखकर बताया था कि वह किसी 'गंदे खून' की उपज थी, उसके आने के बाद ही उनकी जिंदगी दुश्वार हुई है। दीदी ने हार नहीं मानी... जिस तरह से कुंदन आग में तपकर खरा होता है, दीदी भी संघर्षों की अग्नि में तपकर दिनोंदिन मजबूत होती जा रहीं थीं। चानी का ब्रेन वाश किया और उस युवक से दूर ले जाने के लिए घर क्या शहर तक बदल लिया।

उसने घर में चोरी की, कॉलेज के समय में किसी लड़के के साथ घूमती पकड़ी गयी। मैंने दीदी को समझाने की कोशिश की.. "गर्भाधान के समय और गर्भावस्था के दौरान माता की मानसिक स्थिति से बच्चे के संस्कार प्रभावित होते हैं। हम कितनी भी कोशिश कर लें, जंगली फूल हमारे बगीचे में नहीं खिल सकते।"
दीदी उसकी पढ़ाई छुड़वाकर शादी की सोचने लगीं। जीन्स का असर होता ही है, यह बात हम सबके दिमाग में घर कर गयी थी।
आनन फानन में उसकी शादी तय हुई और मात्र दस दिन में वह एक अच्छे किन्तु लड़कियों की कमी वाले समाज केे धनी परिवार की बहू बन गयी। सुंदर तो थी ही और दीदी ने उसे घरेलू काम में भी अपनी तरह सुघड़ बनाया था। सबने राहत की सांस ली कि अब वह ससुराल में सेट हो गयी है। एक वर्ष में ही दीदी नानी बन गयीं।

कहते हैं न कि खुशियों की आहट के साथ गम भी धीमी पदचाप के साथ चले ही आते हैं। चानी दो महीने के बेटे को लेकर ससुराल गयी और दीदी की जिंदगी भी साथ ही चली गयी। शायद एक पवित्र आत्मा चानी की जिंदगी सँवारने के लिए ही धरा पर अवतरित हुई थी। जियाजी भी टूट से गये थे, किन्तु सबके प्रयासों से घर संभालने के लिए बहू आ गयी थी, जो दीदी का प्रतिरूप ही थी, अतः जिंदगी फिर पटरी पर आने लगी। अब चानी भी बेटे के आने से सुधर गयी थी। माँ के अंतिम संस्कार और भाई की शादी में जिसने भी उसे देखा, तारीफ किए बिना न रहा।

फिर सुना कि चानी ने पति से तलाक मांगा है। मैंने उसकी काउंसलिंग की... "मम्मी मुझे बुड्ढे के पल्ले बांध गयी हैं, इसके साथ जिंदगी नहीं गुजर सकती..." उसने दो टूक जवाब दिया। उसका पति उम्र में दस साल बड़ा था, किन्तु दिखने में दो चार साल का अंतर लगता था। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ जब पता चला कि उसके पति ने उसे किसी के साथ अपने बेडरूम में रंगे हाथों पकड़ा था और यही वजह अलगाव की थी। फिर उसने किसी अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति से शादी की जो जेल चला गया। फिर किसी तीसरे के साथ उसके रहने की खबर के साथ ही यह भी सुना कि उसके भैया- भाभी ने उससे रिश्ता खत्म कर लिया है।

कभी लगता था कि दीदी की तपस्या व्यर्थ गयी। अपनी जिंदगी की ऊर्जा उन्होंने चानी की जिंदगी संवारने में खर्च की किन्तु नाली का कीड़ा नाली में ही सुकून पाता है। मेरी इसी सोच पर सिम्मी को आपत्ति थी। वह कहती कि जन्म से नहीं परवरिश से संस्कार आते हैं। मेरी सोच थी कि एक घर में रहने वाले सगे भाई बहनों में भी अंतर होता है, तो सिर्फ परवरिश को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते, दीदी ने भी बेटे से अधिक बेटी का ध्यान रखा था। एक तो लड़की और वह भी गोद ली हुई, सो वह अतिरिक्त सजगता बरतती थीं, किन्तु निष्कर्ष क्या निकला..? यही कि बच्चा गोद लो तो किसी रिश्तेदार या जान पहचान वाले का... या फिर बेऔलाद ही रहो। हम किसी की किस्मत नहीं बदल सकते।

सिम्मी का अकेलापन उसे अवसाद की ओर ले जा रहा था। उसके पति रिश्तेदार का बच्चा गोद लेना नहीं चाहते थे, भविष्य में कोई विवाद न उपजे इसलिए..! मेरी राय किसी अनजान बच्चे को गोद लेने के खिलाफ थी। तब उसी ने सुझाया कि मेरी डॉक्टर सहेली इसमें मदद कर सकती है।

तकरीबन बीस दिनों बाद हम डॉक्टर के केबिन में थे।
"मैडम! यदि आपकी जानकारी में कोई ऐसे दम्पत्ति हों जो अवांछित बच्चे का गर्भपात करवाना चाहते हों तो उनसे बात करिएगा कि प्रसूति तक सारा खर्च हम देंगे और वे बच्चा हमें सौंप दें, बिना हमे जाने पहचाने।"
"आप कानूनी कार्यवाही से बच्चा गोद क्यों नहीं लेते?" डॉक्टर के प्रश्न पर उनका जवाब था कि वे बच्चे के माँ बाप से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते, और कानूनी अड़चन भी नहीं चाहते।
"देखिए आजकल चिकित्सा विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि डी एन ए टेस्ट से भविष्य में यह सिद्ध हो सकता है कि सन्तान आपकी नहीं है, तो कई तरह के सवाल खड़े होंगे और आप हम सभी मुश्किल में पड़ सकते हैं, सारी संभावनाओं को विचार करते हुए मैं यही सलाह दूँगी कि कानूनी कार्यवाही के बाद ही बच्चा गोद लीजिए।" डॉक्टर का कहना भी सही था।

काफी विमर्श के बाद तय हुआ कि किसी विवश परिवार का बच्चा गोद लिया जाए और मैं माध्यम बनूँ, ताकि बच्चे के असली माँ-बाप और गोद लेने वाले माँ बाप एक दूसरे को न जान सकें। मुझे भला क्या आपत्ति होती?

हम 'वन स्टॉप सेंटर' गए, जहाँ डॉक्टर की जानकारी में एक निराश्रित महिला थी, उसकी तीन माह की बेटी के साथ जिसके जीवन की दोपहर में ही धुंधलका छा गया था और उसकी जिंदगी का सूर्य कभी भी अस्त हो सकता था। सेंटर संचालिका से बात कर उसी बच्ची को सिम्मी को गोद देने का प्लान किया था।

"तुम..." मैं बुरी तरह से चौंक गयी थी। मेरी आँखों के सामने कृशकाय चानी थी।
"हाँ मौसी! मैं... मुझे मेरे कुकर्मों की सज़ा मिल गयी है, मैंने खुद ही कुल्हाड़ी पर पैर रखा था... मम्मी पापा की सारी कोशिशों को ठेंगा दिखला कर इस नरक में कूद पड़ी थी... मेरी बेटी को बचा लो मौसी... उसे जिंदगी दे दो..." वह रोती हुई गिड़गिड़ा रही थी.. और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी थी।
"तुम्हारा गंदा खून है, क्या पता कल तुम्हारी बेटी भी तुम्हारे पदचिन्हों पर चली तो..? मेरी सहेली का विश्वास कैसे तोडूं मैं..? नहीं...!" मैं पलटने ही वाली थी कि उस नन्हीं जान ने मेरा पल्लू पकड़ लिया। एक पल के लिए मैं ठिठक गयी... उन सुंदर सी बड़ी बड़ी आँखों में सवाल था... "मेरा क्या कसूर?"
"मौसी! प्लीज मम्मी की आत्मा की शांति के लिए..."
"बच्चे जन्म से नहीं परवरिश से संस्कार सीखते हैं..."
"एक अनाथ को आश्रय मिलेगा और एक माँ की सूनी गोद भर जाएगी.."
"धूल में भी फूल खिलते हैं.."
आवाज़ों का शोर परेशान करने लगा... मैं कान बंद कर बाहर आ गयी।

"सब ठीक है? साइन कर दूँ पेपर?" सिम्मी मेरा ही इंतज़ार कर रही थी।

स्वर्गीय दीदी, पढ़ी हुई कहानी की नायिका, सिम्मी और चानी के चेहरे मेरी आँखों के सामने आपस मे गड्ड मड्ड हो रहे थे। मैं अवश सी खड़ी थी... अचानक मुझे फिर वह मासूम चेहरा याद आ गया.. "हाँ सिम्मी! तेरी बिटिया बहुत प्यारी है... हम उसका नाम उजिता रखेंगे... जिंदगी की रोशनी....!

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित