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फ़ैसला - 2

फ़ैसला

(2)

डाक्टर साहब के नौकर ने दौड़कर गेट खोला और कार ने उनके घर में प्रवेश किया। कार का दरवाजा खोलकर सिद्धेश ने नीचे उतरते ही नौकर से पूछने लगा।

अरे! डाक्टर साहब अन्दर हैं।

हां साहब। साहब अन्दर ही है। ऐसा नौकर ने जवाब दिया।

फिर क्या था वह हमेशा की तरह धड़धड़ाते हुए ड्राइंग रूप में दाखि हो गया। बैग सोफे के सामने रखी मेज पर रख कर खुद सोफे पर बैठ गया। तभी कुछ देर में पानी का गिलास ट्रे में लिए नौकर आया। उसने वह ट्रे मेज पर रख दी और किचन की ओर चला गया। उसी समय अन्दर कमरे से डाक्टर केडी अपने बालों को तौलिए से सुखाते हुए ड्रांइग रूम में आ गये। वे अभी कुछ देर पहले ही स्नान कर चुके थे। अन्दर आते ही डाक्टर केडी मज़ाक के अंदाज में बोले -

अरे भाई सिद्धेश! क्या बात है आजकल 12 बजे रात में भी घर में इधर-उधर चक्कर लगाते रहते हो। क्या बात है? नहीं नहीं आती क्या?

नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं डाक्टर साहब। सिद्धेश ने उनकी बात का जवाब दिया।

अरे! नहीं ऐसी बात नहीं डाक्टर साहब। सिद्धेश ने उनकी बात का जवाब दिया।

अरे! नहीं सिद्धेश मैंने इसलिए ये बात कही कि तुम्हारे चेहरे पर तनाव के लक्षण दिखायी दे रहे हैं। हंसते हुए डा. केडी ने सिद्धेश से कहा।

अरे! हां डाक्टर साहब आप जिस महिला के बारे में बात कर रहे थे वह महिला कहां है। उससे जल्दी मिलवाइये।

हां! अब आपको मिलवाएंगे तो जरूर। पहले हम दोनों जरा एक-एक कप चाय तो पी लें। अरे भाई! नाश्ते का समय हो गया। अच्छा तो आप कहते हैं, तो चलो चाय ही पी लेते हैं अपने चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाते हुए सिद्धेश बोला।

उसने अभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि डाक्टर साहब का नौकर ट्रे में चाय और बर्गर रखे हुए हाजिर हो गया। उसने सामने रखी मेज पर ट्रे को रख दबे पांव वापस चला गया। उसके बाद डाक्टर और सिद्धेश दोनों ने मिलकर जल्दी-जल्दी नाश्त खत्म किया। क्योंकि सिद्धेश को उस महिला से मिलने के लिएउसका मन बुहत ही व्याकुल हो रहा था। उसी के कारण वह रात में भी काफी परेशान रहा था।

नाश्ता खत्म करते ही सिद्धेश ने डाक्टर से फिर अपनी बात दोहराई। चलिए अब तो मिलते हैं उस महिला से।

हां-हां जरूर चलिए। अपने शर्ट के कॉलर को ठीक करते हुए डा. केडी ने कहा।

दोनों लोग सोफे से उठकर आउट हाउस की तरफ आये। जो कि घर के बाहरी हिस्से लगा हुआ है। डाक्टर साहब ने आगे बढ़कर स्वयं ही दरवाजे पर नॉक करते हुए हल्का सा धक्का दिया। इतने में दरवाजा खुल गया। कमरे में एक महिला दीवार की तरफ मुंह किय बैठी शायद रो रही थी। क्योंकि उस कमरे के शांत वातावरण में उसकी सिसकियों आवाज साफ सुनायी पड़ रही थी। उसकी सिसकियों को भंग करते हुए डाक्टर साहब ने उससे कहा - रो क्यों रही हो। क्योंकि उन्हें उसका नाम तो मालूम नहीं है। डाक्टर की आवाज को सुनते ही वह हडबडा कर उनकी ओर देखने लगी। लेकिन जैसे ही सिद्धेश की नज़र उसके चेहरे पर पड़ी उसका मुंह खुला ही रह गया। बस मुंह से निकला अले! यह क्या?

पास खड़े डाक्टर ने कहा क्या हुआ सिद्धेश? क्या तुम ने इनको पहले कभी देखा है।

सिद्धेश ने यह सुनकर नकारात्मक उत्तर के अंदाज़ में सिर हिला दिया। परन्तु उसकी आंखों की कोरों में छलक आये आंसुओं ने कुछ-कुछ कह दिया। जिसको मनोचिकित्सक ने बड़ी चतुराई से सुन लिया था। डाक्टर केडी ने फिर से अपने प्रश्न को दोहराया। क्या आप इनको जानते हैं?

अब सिद्धेश समझ चुका था कि डाक्टर ने उसकी मुख मुद्र से सब कुछ जान लिया है। इसलिए इससे अब कुछ भी छिपायी नहीं जा सकती। इसलिए उसने चाहते हुए भी हां कह दी।

क्या? आप इनको जानते हैं क्या... कैसे... कौन? इस तरह के अनेकों प्रश्न डाक्टर के मुंह से निकल गये।

अब वह डाक्टर के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए मानसिक रूप से तैयार था। उसने अपनी पैंट के पॉकेट से रूमाल निकाल मुंह पर आयी पसीनों की बूंदों को पोछता हुआ पास रखी चेयर पर बैठ गया। उसको बैठते देख डाक्टर भी दूसरी चेयर पर बैठ गये। फिर सिद्धेश ने जो बताना शुरू किया...।

लगभग 20 वर्ष पहले की बात है वह और सुगन्धा दोनों गांव के पास के इन्टर कालेज में साथ-साथ ही पढ़ने जाते थे। सुगन्धा उसी के गांव में रहती थी। वह स्वभाव से अत्यंत चंचल और सुन्दर दिखने वाली लड़की थी। स्वभाव से वह जितनी चंचल, उतनी ही वह पढ़ाई में कुशाग्र बुद्धि की थी। उसके साथ की सभी लड़कियां किसी न किसी विषय पर उससे ही सहायता मांगा करती थीं। और इसका स्वभाव भी ऐसा था कि किसी को भी मना नहीं करती थी। यह उस समय 10वीं की छात्रा थी और मैं 12वीं में पढ़ता था। सुगन्धा प्रतिदिन मेरे साथ ही अपनी साइकिल से कालेज जाया करती थी। कभी-कभी हम दोनों में साइकिल तेज चलाने की होड़ लग जाती थी। जिसमें कभी ये और कभी मैं जीत जाता था फिर जो जीतता था उसको कालेज के पास वाली चाट की दुकान पर चाट खिलानी पड़ती थी। बड़ा मजा आता था उन की बातें करते हुए सिद्धेश अचानक बीच में ही रुक गया।

अरे! बीच में ही क्यों रुक गये? टोकते हुए डाक्टर ने जैसे उसको जगा दिया हो। ऐसा लग रहा था कि वह अतीत के पन्ने पलटने में स्वयं कहीं खो गया हो। डाक्टर के कहने पर भी जब वह नहीं बोला, तो डाक्टर ने सिद्धेश का कन्धा पकड़ कर हिलाया। ऐसा लग रहा था जैसे वह नींद से जाग गया हो। बता रहा हूं आगे भी बता रहा हूं। ऐसा कहकर सिद्धेश आगे बोलने लगा।

फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरे और सुगन्धा के बीच प्रेम का बीज अंकुरित हो गय। अब हम दोनों के मन को तो पंख लग गये थे और हंस युगल की भांति जीवन रूपी आकाश में उड़ान भरने के लिए आतुर थे। धीरे-धीरे प्रेम की इतनी प्रगाढ़ता हो गयी कि जिस दिन कालेज अवकाश में एक-दूसरे से मिलें ना उस दिन जीना मुश्किल लगने लगता था। ऐसा प्रतीत होता था कि सारी दुनिया बेकार है क्योंकि मुझे तो अपनी दुनिया सुगन्धा में दिखायी देने लगी थी। और जब हम दोनों लोग एक-दूसरे से मिलते तो ऐसा लगता था कि बरसों बाद मिल रहे हों। फिर मान-मर्यादा और सामाजिक नियमों की चहारदीवारी को तोड़ते हुए दोनों लोग बाहों में भर लेते थे। वह जकड़न शायद अजकर की पकड़ से भी मजबूत होती थी। प्रेम रूपी नैया ऐसे ही जीवन रूपी सागर में उछाल मार रही थी। धीरे-धीरे समय बीतता गया दिन से महीना, महीनों से साल हो गया। एक दूसरे से कस्में वादों की रस्में भी खूब निभायी गयी और उदाहरण् के तौर पर शीरी-फरहाद, लैला-मजनू से भी बढ़कर हम दोनों ने प्रेम करने का बीड़ा उठाया था और उसमें हम लोग बहुत कुछ कामयाब भी थे।

अरे यार! तुम तो बहुत छुपे रूस्तम निकले। ऐसा कहकर डाक्टर ने सिद्धेश की प्रेम कथा को भंग कर दिया। लेकिन यह समझकर कि मेरे कारण लगता है बात पूरी नहीं हो पायी। सॉरी कहकर आगे बताने के लिए सिद्धेश से आग्रह भी कर लिया।

अरे नहीं भाई! ऐसे कैसे। अभी तो बहुत कुछ है बताने को। लगता है मैंने दुखती रग पर हाथ रखकर गलती कर दी। डाक्टर केडी ने कहा।

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